शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

दीवानों की दीवानी दीपावली!

सेंट्रल जेल हज़ारीबाद की ऊंची-ऊंची दीवारें और लोहे के सीखचों से जड़े बैरक अपनी मज़बूती की घोषणा करते दिखाई देते थे। जेल के कठोर कानून-कायदे और अंग्रेज़ों का राज्य। अंग्रेज़ों के कड़क जेलर अपनी दण्ड नीति के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें विश्वास था कि चाहे जैसी परिस्थिति हो, वे जेल के अंदर निपट लेंगे। दीपावली का उत्सव निकट था।
कैदियों में दीपावली का उत्सव मनाने की उमंग जागी। उत्साह से भरे कैदी जेलर के पास गए, हाथ जोड़ निवेदन किया, ‘श्रीमान! दीपावली के दिन दीपक जलाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे, नाटक खेलेंगे। यदि आप स्वीकृति दें।’जेलर ने दो क्षण सोचा, अपने सहायक जेलर की ओर देखा। और पूछा, ‘कैदियों को उत्सव मनाने देने में हर्ज़ क्या है? इन कैदियों के पास आनंद मनाने के क्षण यही तो है। क्या राय है आपकी?’
सहायक जेलर ने कहा, ‘श्रीमान आप कहते तो सच हैं। दीपावली का उत्सव मनना चाहिए किन्तु देश के हालात नाज़ुक हैं। गांधी बाबा ने करो या मरो का नारा दिया है। सारे देश में सत्याग्रह आंदोलन की आग लगी है। रोज़ सत्याग्रह के कैदी जेल में आ रहे हैं। जेल में भीड़ बढ़ रही है। ऐसे में कोई गड़बड़ तो नहीं होगी, यह सोच का विषय है।’
अंग्रेज़ जेलर हंसा, बोला, ‘यह आपने खूब कही, अरे गांधी के सत्याग्रही कितने ही आएं, उनसे क्या डर। वे तो सत्य अहिंसा के पुजारी हैं। उनसे विवाद होने से रहा। •यादा से •यादा वे ज़ोर-ज़ोर से आज़ादी के गीत गाएंगे, नाचेंगे और क्या कर सकते हैं। यह सेंट्रल जेल है। यहां चिड़िया भी पर नहीं मार सकती।’सहायक जेलर सहमत हुआ। और बोला, ‘कहते तो आप सच हैं। आप दे दीजिए इजाज़त। इस बहाने हम भी देख लेंगे इनके नाच-गाना, हमारा भी मनोरंजन होगा। हमें ऐसा अवसर कब मिलता है। रोज़ तो बंधे-बंधे रहते हैं।’
जेलर हंसते हुए बोला, ‘भई ये तो ठीक है पर आप भी इनके साथ नाचने गाने मत लगना। अंग्रेज़ सरकार को मालूम पड़ गया, तो मुसीबत खड़ी हो जाएगी।’सब हंसने लगे। कैदियों को दीपोत्सव मनाने की छूट मिल गई। सब कैदी प्रसन्न थे। गीत-भजन तैयार होने लगे। नाटक बनने लगे।
रिहर्सल होने लगी। दीपावली के कुछ ही दिन बचे थे। तैयारी पूरी नहीं हो रही थी। रिहर्सल के लिए समय कम मिलता था। कुछ वृद्ध और पढ़े-लिखे कैदियों ने जेलर से निवेदन किया, ‘साहब, इन छोकरों में बड़ा उत्साह है। इन कैदियों को रात में थोड़ी और छूट मिले, तो कार्यक्रम बहुत अच्छा हो जाएगा।’ जेलर प्रतिदिन तैयारी देख रहा था। उसे खबर भी बराबर मिल रही थी। उसे अच्छा लगा। उसने रात बारह बजे तक की छूट दे दी। कैदी प्रसन्न हो गए। नाच-गाने और नाटक की तैयारियां ज़ोर-शोर से होने लगीं।
जेल में युवा समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) भी थे। वे बीमारी से उठे थे। उन्हें इन नाच-गानों में आनंद न था। वे बैडमिंटन खेलते थे। उनके साथी थे कृष्णवल्लभ सहाय। दोनों बैडमिंटन खेलकर अपना समय व्यतीत करते थे। कभी ताश भी खेलने बैठ जाते।
युवा जेपी के साथी रामवृक्ष बेनीपुरी, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, शालिग्राम सिंह, रामनन्दन मिश्र, सूर्यनारायण सिंह, गुलाब चंद्र आदि थे। इनके बीच आज़ादी की लड़ाई को लेकर तरह-तरह के विषयों पर बहस होती और ये जेल के बाहर चल ही गतिविधियों की टोह लेते रहते।
एक दिन जेपी ने कहा, ‘गांधी जी ने 9 अगस्त को खुले विद्रोह का बिगुल बजाया था, ‘करो या मरो’ खूब तेज़ी से यह आंदोलन चला, पर मैं देख रहा हूं कि यह आंदोलन सुस्त पड़ता जा रहा है। जेल में कैदी कम आ रहे हैं। अंग्रेज़ों ने तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया है।
बिना नेता के कोई आंदोलन चला है क्या? इसके दो परिणाम हो सकते हैं- एक आंदोलन बिना नेता के ठंडा पड़ जाए, दूसरा बिना उचित मार्गदर्शन के भटक जाए। गलत राह पकड़ ले। दोनों हालात में हमारा नुकसान है। हमें कुछ करना चाहिए।’
साथियों ने कहा, ‘हम सब तो जेल में हैं। हम क्या कर सकते हैं। हमारे हाथ में क्या है?’जेपी ने धीरे से कहा, ‘हम योजना बनाकर जेल से भाग सकते हैं। आज़ादी के लिए कुछ भी किया जा सकता है। अभी मौका भी अच्छा है।’
रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा, ‘आप ठीक कहते हो पर आपका स्वास्थ्य? आपकी शारीरिक कमज़ोरी को देखते हुए यह संभव कैसे होगा?’ जेपी मुस्कुराए और धीमे से फुसफुसाकर कहा, ‘देश के लिए कुछ भी करूंगा। मुझे स्वास्थ्य की कोई चिंता नहीं।’अत्यंत गोपनीय ढंग से योजना बनी। तय हुआ कि दीपावली के राग रंग के बीच जेल की दीवार कूद कर छह स्वतंत्रता सेनानी आज़ाद होंगे।
सब योजना व्यवस्थित चली। जेपी दिन में कृष्ण वल्लभ सहाय के साथ बैडमिंटन खेलते रहे। जेल में ताश के पो चलते रहे। युवा कैदी दीपावली के समारोह में नाच-गाने की तैयारी में लगे रहे और रात ढलना शुरू हो गई।
अंधकार से प्रकाश की ओर चलो का नारा बुलंद करती दीपावली आ धमकी और इसी समय चुपचाप एक टेबल जेल की दीवार के पास घने वृक्ष के नीचे लग गई एक जवान उस पर खड़ा हुआ। दूसरा चढ़ा और दीवार पर लगी खूंटी पकड़कर बैठ गया। उसने कमर से रस्सी निकाली और खूंटी से बांधी। वह रस्सी निकाली और खूंटी से बांधी। वह रस्सी के सहारे जेल के बाहर था। कुछ ही समय में निर्धारित छहो कैदी आज़ाद थे।
जेल में जश्न मन रहा था। उत्साह उमड़ रहा था, संगीत के स्वर के साथ-साथ थाप चल रही थी। भीड़ गायन दोहरा रही थी और दीपकों की लौ जगमगा रही थी। जेपी अपने साथियों के साथ आज़ाद थे। वस्तुत: जेल से उतरते समय गिर पड़े थे। फिर भी लंगड़ाते हुए चलते रहे, चलते रहे, रात भर चलते रहे।
उनके साथी शालिग्राम सिंह ने अपने परिचित दुबेजी के घर तक छहों को पहुंचा दिया। वहां सबने स्नान-ध्यान किया। भोजन किया और ग्रामीण वस्त्र पहन बैल-गाडी पर जेपी लेट गए। उनके पैर में चोट थी। उन्होंने सिर मुंडवा लिया था, दाढ़ी बड़ी हुई थी। सर पर पगड़ी थी और वे भरी ठंड में ठंडी पड़ती आज़ादी की मशाल जलाने के लिए चल पड़े थे। उनके साथी भी वेशबदल कर उनके पीछे लाठी और कुल्हाड़ी लिए चल रहे थे।
आज़ादी के दीवानों ने जेल में रहकर अंग्रेज़ों को चुनौती दी थी। कहते हैं वह दीपावली का राग रंग रात भर चला और जेल अधिकारियों को दूसरे दिन दोपहर को यह बात पता चली। वे दंग रह गए। घबराहट छा गई। सेंट्रल जेल की कठोर व्यवस्था और ऊंची-ऊंची दीवारों को आज़ादी के दीवानों के अपने साहस से चुनौती दी थी और दीपावली के पर्व को इतिहास के पन्ने से जोड़ दिया था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें