सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

भागवत: १०२: नारदजी के चरित्र को जीवन में उतारें

शुकदेवजी राजा परीक्षित से बोले- हे राजन। दक्ष की दशा पर चिंतित होकर ब्रह्माजी ने उसको बहुत समझाया और कहा कि वह पुन: सृष्टि की उत्पत्ति करे। इस बार आसिन्की से दक्ष की साठ कन्याएं उत्पन्न हुई। उसने दस धर्मराज को, तेरह कश्यप को, 27 चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृषाश्व को और शेष बची ताक्ष्र्यनाम धारी कश्यप को ब्याह दी। इन कन्याओं की इतनी संतति हुई की उनसे सारी त्रिलोकी भर गई।

आइए एक बार पुन: नारदजी को याद कर लें। शाप लगा तो नारदजी का अपना कोई घर ही नहीं रहा। जब जो जैसी भी स्थिति हो परमात्मा का प्रसाद मानकर ऐसा काम करिए कि उसमें भी आदर्श स्थापित हो जाए। नारद चल दिए और नारद सबको समझाते रहे, सुनाते रहे। नारदजी यही काम करते थे। नारदजी का काम यही था तो नारदजी के पास संभावना थी। उन्होंने अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया। हम भी नारदजी से ये सीखें कि उनके पास भगवान की कृपा थी।
नारदजी तीन काम करते हैं कंधे पर रखते हैं वीणा, बजाते रहते हैं। मुंह से बोलते हैं नारायण-नारायण। वीणा के तार यदि ठीक से न कसे हुए हों तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा और हमारा ये शरीर वीणा है। ढीला छोड़ देंगे तो भी सुर नहीं निकलेगा और ज्यादा कस देंगे तो भी सुर बिगड़ जाएगा। संतुलन बनाए रखिए फिर देखिए क्या बढिय़ा संगीत आएगा अपनी देह से। तो नारदजी तीन काम कर रहे हैं पहला वीणा बजा रहे हैं संयम के साथ, दूसरा नारायण-नारायण बोल रहे हैं और तीसरा नारद वो काम करते हैं जो हमें हमेशा करते रहना चाहिए। जरा मुस्कुराइए।

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