मंगलवार, 30 नवंबर 2010

भागवत: १३१: इसलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्यमेध यज्ञ किया उस यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया। जब सगर के पुत्रों ने यज्ञ का अश्व कपिल मुनि के आश्रम में देखा तो उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि की आंख खोलते ही सगर के सभी पुत्र भस्म हो गए। बाद में सगर ने अपने दूसरे पुत्र अंशुमन को अश्व की खोज में भेजा तो उसे कपिल मुनि मिले और उन्होंने कहा यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजल से इनका तर्पण करना होगा। सगर के बाद अंशुमन राजा बना। राजा बनने के बाद अंशुमान ने बहुत यत्न किए लेकिन वह गंगा को धरती पर नहीं ला पाए।

अपने पुत्र दिलीप को राज सौंपकर वह भी वन में चले गए। दिलीप ने भी बहुत यत्न किए लेकिन वह भी गंगा को नहीं ला सके। किन्तु दिलीप के पुत्र भगीरथ की तपस्या से गंगाजी प्रसन्न हुईं और उनको दर्शन दिए। गंगा ने कहा कि मैं पृथ्वी पर आ तो जाऊंगी पर मेरे वेग को कोई न रोक सका तो मैं सीधे पाताल में चली जाऊंगी, फिर मेरा लौटना सम्भव नहीं है। तब भगीरथ ने भगवान शंकर की स्तुति की, उनसे निवेदन किया कि वे अपनी जटा में गंगा को धारण करें। गंगाजी का अवतरण हुआ और सगर पुत्रों को मुक्ति मिली। इसीलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं।
भगीरथ के कुल में सवदास नाम का राजा हुआ, जिसे श्राप रहा और वह नि:संतान रह गया। वशिष्ठ जी ने स्थिति देखी और उनकी पत्नी को अपने तेज से गर्भवती बना दिया। जब उसके यहां संतान पैदा हुई तो उनका नाम अषमग रखा गया। आगे चलकर इसी वंश में खटवांग नामक राजा हुआ। खटवांग के बाद दीर्घबाहु राजा हुआ उसके बाद रघु हुए। उन्हीं के नाम से सूर्यवंश का नाम रघुवंश हुआ। रघु राजा ने कई यज्ञ किए और रघु के घर अज का जन्म हुआ और अज के घर दशरथ का जन्म हुआ और राजा दशरथ के यहां भगवान राम का अवतरण हुआ।

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