शनिवार, 27 नवंबर 2010

भागवत: १२८ : इंद्र ने क्यों बाधा डाली राजा मरूत के यज्ञ में?

राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से कहा कि मुझे सत्यव्रत मनु के वंश की कथा सुनाइये। शुकदेवजी ने वर्णन करते हुए बताया कि इस कल्प में राजेश्वरी श्री सत्यव्रत वैवस्वत मनु बने। मनु वैवस्वत सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक हैं और उनका विवाह श्रद्धा नामक स्त्री से हुआ। उनके वंश में अनेक सन्तानें हुईं। दिष्टी के वंश में मरूत नाम के चक्रवर्ती राजा हुए और मरूत के गुरु थे बृहस्पति और यही बृहस्पति इन्द्र के भी गुरु थे। मरूत राजा को यज्ञ कराना था और बृहस्पति ने मना कर दिया क्योंकि उन्हें इन्द्र के यहां उसी समय यज्ञ कराने जाना था।

मरूत को नारदजी मार्ग में मिल गए। उन्होंने अपनी कठिनाई बताया तो नारदजी ने कहा कि बृहस्पति के छोटे भाई सम्वर्त को बुला लीजिए। वे भी गुरु समान हैं। तब मरुत ने सम्वर्त से संपर्क किया। सम्वर्त ने कहा - मैं यज्ञ तो करा दूं किन्तु मेरा ऐश्वर्य देखकर बृहस्पति तुम्हें कहेंगे कि वे तुम्हारा यज्ञ कराने को तैयार है और फिर तुम्हारे गुरु बनना चाहेंगे। यदि वैसा समय आया और तुमने मेरा त्याग किया तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा।राजा मरूत ने सम्वर्त की शर्त को स्वीकार कर लिया। सम्वर्त ने राजा को मन्त्र दीक्षा दी, यज्ञ आरंभ होने लगा।
यज्ञ के सभी पात्र स्वर्ण के थे। राजा के वैभव और यज्ञ की भव्य तैयारी को देखकर बृहस्पतिजी लालयित हो गए और उन्होंने इन्द्र से कहा। इन्द्र ने अग्नि के द्वारा सन्देश भेजा कि इस यज्ञ में बृहस्पति को ही गुरु बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इंद्र इस यज्ञ में बाधा डालेंगे। बृहस्पति और सम्वर्त में इस बात को लेकर विवाद हो गया। गुरु-गुरु में युद्ध हो गया। जिस देव को सम्वर्त योगी आज्ञा करते वह वहां उपस्थित होता और वह देव प्रत्यक्ष अहिरभात यज्ञ का ग्रहण करता। यज्ञ चल रहा है। मरूत के इस यज्ञ का वर्णन ऋग्वेद में भी है। भागवत में तो यह संक्षिप्त में ही वर्णित है।

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