सत्य की राह
एक चोर था। एक दिन उसे एक महात्मा मिले। महात्मा ने उससे कहा कि अगर वह हमेशा सत्य बोले तो उसका कल्याण होगा। चोर को यह कठिन काम नजर आया पर चूंकि वह महात्मा से बहुत प्रभावित हुआ था, इसलिए उसने उनकी बात पर अमल करने का फैसला किया।
एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।
चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।
चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'
मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।
एक चोर था। एक दिन उसे एक महात्मा मिले। महात्मा ने उससे कहा कि अगर वह हमेशा सत्य बोले तो उसका कल्याण होगा। चोर को यह कठिन काम नजर आया पर चूंकि वह महात्मा से बहुत प्रभावित हुआ था, इसलिए उसने उनकी बात पर अमल करने का फैसला किया।
एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।
चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।
चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'
मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।
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