गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

भागवत-१५०: कंस के कारागर में हुआ भगवान श्रीकृष्ण का अवतार

भादौ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जब चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था उसी समय परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे।

वसुदेव ने देखा कि उनके सामने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, कमल लिए साक्षात परब्रह्म खड़े हैं। वे बहुमूल्य वैदूर्यमणी के किरीट और कुण्डल की कांति से युक्त सुंदर घुंघराले बाल, सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर लहरा रहा है। और वसुदेव के देखते ही देखते चारभुजाधारी भगवान विष्णु छोटे बालक के समान दिखने लगे। उस बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वयं भगवान आए हैं। तो पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ।
फिर आनन्द से उनकी आंखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंग कान्ति से सूतिका ग्रह को जगमगा रहे थे। श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। तो उसे परम आनंद की अनुभूति हुई और कंस का भय भी ह्रदय से जाता रहा। फिर वसुदेव व देवकी ने बड़े पवित्र भाव से भगवान विष्णु की स्तुति की।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें