बुधवार, 5 जनवरी 2011

कहानी

अनाथ

राकेश को पिता पर हमेशा ग्ाुस्सा आता था। खास कर तब, जब वे अनाथाश्रम चलने पर मजबूर करते।
राकेश, बेटा चलें, पापा ने आवाज दी।
पापा, हमेशा वहां जाना जरूरी है क्या? कितनी गंदगी होती है वहां, बदबू आती है, राकेश ने नाराजगी जताई।
बेटा चार लोग मिलकर चालीस बच्चों को संभालते हैं। सफाई तो ऐसी ही होगी।
लेकिन पापा, उन बच्चों के दुख से भरे चेहरे, उन पर छाई उदासी मुझसे देखी नहीं जाती। वहां से आने के बाद मैं चार दिन तक सो नहीं पाता। खयालों में भी उनकी उदासी कचोटती है मुझे। बेटा, उन्हें प्यार करने वाला, अपना कहने वाला कोई नहीं है। उनकी तकदीर बदनसीबी की कलम से लिखी जाती है।
पापा, लेकिन उनकी खिन्नता पर एक हंसी की लहर तो ला सकते हैं? उन्हें अपनेपन का एहसास दिलाने की कोशिश तो हम कर सकते हैं?
यह संवाद पिता-पुत्र में हमेशा होता था। तब और ज्यादा, जब राकेश के पिता कमलनाथ उसे अनाथाश्रम चलने को कहते।
कमलनाथ बैंक कर्मचारी थे। तनख्वाह में उनका गुजारा ठीक-ठाक चलता था। मगर उनका एक नियम था कि हर त्योहार, सरकारी अवकाश, खास आयोजनों-तारीखों पर वे अनाथाश्रम जाकर बच्चों को मिठाई व फल जरूर देते थे। शादी की वर्षगांठ पर बच्चों के लिए भोज का आयोजन करते थे। खुद भी साथ में भोज का आनंद उठाते थे। साल में एक बार बच्चों को बाहर घुमाने ले जाना और उन्हें पिकनिक पर ले जाना वे कभी नहीं भूलते थे।
राकेश को बच्चों के साथ जाने में शर्म महसूस होती थी। इनमें से कोई भी ढंग से तैयार नहीं होता था। पुराने कपडे पहने ये बच्चे अजूबे और बेमेल से लगते थे। तेल से सने बाल, लडकियों के बालों में अलग-अलग रंग के रिबन, बेढंगे जूते-चप्पल..। उनके साथ मंदिर कैसे जाए?
राकेश को डर लगता कि किसी दोस्त ने इन बच्चों के साथ देख लिया तो क्या सोचेगा?
उनके लाचार, संजीदा चेहरों पर हंसी का नामोनिशान भी नहीं। आंखें पता नहीं कहां खोई सी रहती हैं, फिर भी लगता है कि हमेशा कुछ ढूंढ रही हैं, जिंदगी से कुछ मांग रही हैं।
अनाथाश्रम में काफी लोग पुराने कपडे, जूते, स्कूल बैग, किताबें, खिलौने देकर जाते हैं। ये बच्चे अंदर से बाहर आते, रटा-रटाया एक शब्द नमस्कार कहते और फिर कपडे, जूते और अन्य सामान उठाकर चुपचाप अंदर चले जाते। खिलौने देखकर भी वे उत्साहित नहीं होते। कुछ पाने की ख्वाहिश हो भी तो उसे पाकर उनके चेहरे पर कोई प्रसन्नता नजर नहीं आती। न कभी किसी कमी पर उनके माथे पर शिकन होती। इतने छोटे-छोटे बच्चों में इतनी अनासक्ति कैसे हो सकती है कि वे जिंदगी से गिला-शिकवा भी नहीं करते? इनकी जिंदगी इतनी व्यर्थ सी क्यों लगती है?
पुराने सामानों, कपडों और खिलौनों को बच्चे ऐसे समेटते, मानो अपनी तितर-बितर जिंदगी को समेटने की नाकाम कोशिश कर रहे हों। पुराने सामान में कोई चमक नहीं, चेहरों पर कोई रौनक नहीं। उदासी भरे इस छत के नीचे दम घुटता है। ये बच्चे जिंदगी भर यहां पलते हैं, बढते हैं। खिन्नता उनके खून में समा जाती है। चेहरे पर लाचारी की परत चढ जाती है।
लोगों के दान से ही सही, पुराने कपडे, किताबें, खिलौने मिल तो रहे हैं। कम से कम सडक किनारे भीख मांगने वाले बच्चों की तरह ये भूखे पेट ही तो नहीं सो जाते। इसके बावजूद इनके चेहरों पर इतनी वीरानगी क्यों झलकती रहती है? उनके चेहरे पर कुछ अजीब से खोए-खोए भाव रहते हैं। जब कोई उन पर कृपा दिखाता है तो बेचारगी कुछ और जाहिर हो जाती है।
कमलनाथ जब बच्चों को घुमाने ले जाते, कहानियां सुनाते तो कुछ पलों के लिए उनके चेहरे खिल उठते, लेकिन वापस लौटते हुए वे फिर वैसे ही लाचार-मजबूर दिखने लगते।
राकेश को समझ में नहीं आता कि पापा क्यों इनकी जिंदगी में खुशी बिखेरना चाहते हैं, जबकि इन्हें यहीं रहना है। वे क्या इनकी नियति बदल सकते हैं? झूठी तसल्ली देना क्या नाइंसाफी नहीं है?
मन में अपराध-बोध भी पलता कि वह खुद शायद इतना संवेदनशील नहीं है कि पापा की तरह बच्चों के लिए कुछ कर सके। राकेश के दिल में बार-बार ऐसे खयाल आते, मगर वह बोल नहीं पाता। उसे हर वक्त पापा के साथ जाना पडता और लौटने के बाद वह काफी देर तक सहज नहीं हो पाता, उसे लगता मानो बच्चों की अजीब सी नजरें उसका पीछा कर रही हैं।
साल बीतते गए और कमलनाथ जी रिटायर हो गए। लेकिन उनका अनाथाश्रम जाना नहीं छूटा, बल्कि समय अधिक मिलने से वह बढ ही गया। बच्चों की समस्याओं को लेकर लोगों से मिलना, प्रतिष्ठित लोगों को आमंत्रित करके उनसे बच्चों की पढाई का खर्च उठाने की विनती करना, नौकरी के लिए कोशिश करना, लडकियों की शादी कराना...ऐसे कई काम थे, जिनमें वे नि:स्वार्थ भाव से लगे रहते।
लडकियों की शादी कराना काफी मुश्किल था। अनाथाश्रम की लडकियों के विवाह में वैसे ही बहुत सी परेशानियां आतीं, उस पर दहेज न दे सकना एक बडा कारण बनता। इसमें भी कमलनाथ की पूरी भागीदारी होती। शादी का खर्च, घर-गृहस्थी का सामान, दुलहन के कपडे, शादी के बाद होने वाले खर्च का सारा इंतजाम वही करते। इसके लिए शहर के तमाम लोगों से मिलते और धनराशि जुटाते।
लडकों को नौकरी मिलती तो वे अपने रहने का इंतजाम खुद कर लेते और अनाथाश्रम छोड देते। लडकियां भी शादी के बाद ससुराल चली जातीं। जाते हुए वे कमलनाथ के पैर उसी तरह छूते, जैसे अपने माता-पिता के पैर छू रहे हों। ऐसे मौकों पर सबकी आंखें भर आतीं।
तब भी राकेश यही सोचता कि ऐसे गंदे माहौल से दूर जाते हुए ये लोग रोते क्यों हैं। इतने उदास और वीरान माहौल से निकलने पर तो इन्हें खुश होना चाहिए। बीच-बीच में ये लोग अनाथाश्रम उसी तरह आते, जैसे अपने घर जाते हैं। कमलनाथ से भी मिलना वे नहीं भूलते। उनकी बेहतर जिंदगी देखकर कमलनाथ संतुष्ट हो जाते। उनके चेहरों से लाचारी और उदासी की परतें हटती देख सबको खुशी होती।
साल बीतते चले गए। राकेश की घर-गृहस्थी भी शुरू हो गई। वह दो बच्चों सागर व प्रिया का पिता बन गया। कमलनाथ दादा बन गए। बाहर से आते तो घर में बच्चों की दुनिया में रम जाते। बच्चे भी दादा के लाडले थे। दादाजी उनके हीरो थे। स्कूल के बस स्टॉप पर छोडने वही जाते, पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग में भी उन्हें ही जाना होता, वार्षिक उत्सव में तो उनका होना जरूरी होता, वर्ना बच्चों की तारीफ कौन करता? बच्चों का रिजल्ट भी आता तो सबसे पहले दादाजी को ही सुनाया जाता, क्योंकि पुरस्कार में उनसे बडी सी चॉकलेट जो मिला करती...।
अब सागर बारहवीं कक्षा में था। पढाई जोर-शोर से चल रही थी। साथ ही इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारियां भी चल रही थीं। पढाई में सागर होनहार था, लिहाजा रिजल्ट भी मन-मुताबिक ही था। खुशी के इस मौके पर भी कमलनाथ को अनाथ आश्रम के बच्चे याद आए और उन्होंने बच्चों को आइसक्रीम खिलाई। राकेश को समझ नहीं आया कि इसकी क्या जरूरत थी? लेकिन हमेशा की तरह वह कुछ नहीं बोला। ..कुछ ही समय बाद आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा का नतीजा भी आ गया और सागर को उसमें भी उसे अच्छी रैंक मिली। राकेश को भी अपने बेटे की उपलब्धि पर बहुत गर्व हुआ। वह कमलनाथ को यह शुभ समाचार सुनाने दौडा। वह जानता था कि पिताजी बेहद खुश होंगे और बच्चों के लिए बडी सी चॉकलेट उनके पास रखी होगी।
पापा, पापा.. कहते हुए राकेश तेजी से कमलनाथजी के कमरे में घुसा तो एकाएक दरवाजे पर ही ठिठक गया। कमरे में गहरी खामोशी पसरी थी। अगरबत्ती की सुगंध कमरे को पवित्र बना रही थी। सामने ही टंगी थी पिताजी की तसवीर और उस पर ताजे फूलों की माला..।
बेइंतहा खुशी में राकेश यह भूल ही गया कि पिता तो कुछ ही दिन पहले इस दुनिया को छोड दूसरी दुनिया में चले गए हैं। अपनी खुशी में वह पिता का न होना ही भूल गया था। उसकी आंखें बरस पडीं, मेरे बेटे को इतनी बडी उपलब्धि मिली और इसे बांटने के लिए उसके दादाजी आज नहीं रहे। किससे साझा करूं अपनी खुशी जो मुझसे भी ज्यादा खुश हो सके? किसके पैर छू लूं जो सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रखे? जिन चरणों में झुककर मैं हमेशा खुद को उनकी छत्रछाया में पाता था और जो हाथ हमेशा मेरे सिर पर रहते थे, अब कहां हैं? बच्चों के प्यारे दादाजी, हमारी खुशी को दोगुना करने वाले पिता, हमारे लिए दुआ में हाथ उठाते पिता आज हमसे दूर ईश्वर की शरण में हैं..।
राकेश ने एकाएक खुद को बहुत अकेला और वीरान पाया। न जाने क्यों इन क्षणों में उसे अनाथाश्रम के बच्चे याद आने लगे। अनाथ शब्द का असल अर्थ उसे आज ही समझ आया। उसके दिल ने वह तडप महसूस की, जो शायद अनाथाश्रम के बच्चे महसूस करते थे। उसे पता चला कि अनाथों के चेहरे पर उदासी के स्थायी भाव क्यों रहते हैं? उनकी आंखें स्नेह क्यों ढूंढती हैं और जिंदगी से क्या मांगती हैं!
राकेश आज पिता के एहसासों को समझ गया था। उसके कदम भी अनायास अनाथाश्रम की ओर बढ चले। आंखों में आंसू भरकर और हाथों में फलों-लड्डुओं की टोकरी लिए वह अनाथाश्रम पहुंचा। आज वह इतना उदास था कि बच्चे उसे अपनी तुलना में ज्यादा खुश प्रतीत हुए। उसने बच्चों के साथ अपनी खुशी बांटी। तभी हवा का एक झोंका आया और राकेश के बालों को सहलाकर चला गया।
...शायद कहीं दूर से कमलनाथ ने अपने बेटे को अनाथ आश्रम में बैठे देख लिया था।
दीपा प्रभु

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