रहिमन चुप हो बैठिए..
लोग सही कहते हैं कि एक चुप और सौ सुख। एक चुप में इतनी ताकत होती है कि वह सौ योद्धाओं को हरा सकता है। वैसे तो चुप्पी मूर्ख का गुण होता है। चुप रहकर ही वह सभा में शोभा व सम्मान पा सकता है। बडबोले आदमी को कोई पसंद नहीं करता। क्योंकि जो ज्यादा बोलेगा, वह गलत बोलेगा। कम शब्दों में बात करने वाले दानिशमंद की तरफ हर कोई कान देता है। कहते हैं कि कोई भाषा सीखने में दो साल लगते हैं, पर जुबान पर काबू पाने के लिए साठ साल भी कम होते हैं। बेकार की बातें करने से ही सारी मुसीबतें झेलनी पडती हैं। जीभ के दो ही प्रिय शगल हैं- एक तो खाने के लिए चटपटा और करारा मांगना और दूसरा कैंची की तरह बडबड करना। खुद तो छप्पन प्रकार के भोगों का मजा लेकर एक कोने में दुबक जाती है, मगर कुछ भी खा लेने से शरीर की जो गत होती है, वह दिल ही जानता है।
खाने का असर तो खैर अपने तक ही है, पर बात का असर दूसरों पर भी होता है। जुबान का घायल व्यक्ति तो सारी उम्र कोसता रहता है। जीभ तो कहकर दांतों की सुरक्षा-पंक्ति में छिपकर बैठ जाती है, लाठियों का प्रहार सिर को सहना पडता है। जुबान की चपर-चपर आदत सरीखी होती है। एक बार निंदा चुगली या गप्प का शौक लग जाए तो फिर क्या मित्र और क्या दुश्मन। जिस किसी का जिक्र चल निकले, जुबान उसका चरित्र हनन करने में देर नहीं लगाती।
चुप रहकर भी कई बार नुकसान उठाने पडते हैं। पोस्ट ऑफिस के बाबू भोलाराम से अदालत ने यही मासूम सवाल किया है कि भोला, तू पहले क्यों नहीं बोला? भोलाराम ने अदालत में अर्जी लगाई थी कि उसकी पत्नी पिछले दस वर्षो से उसे पीटती आ रही है। अदालत ने भोलाराम की सारी बातें स्वीकार कर लीं, पर उसके गले यह बात नहीं उतरी कि अब क्यों? पहले क्यों नहीं। केस अटका हुआ है। कोर्ट जाकर वह पहले ही जगहंसाई सह रहा है और ऊपर से यह सवाल उसे परेशान कर रहा है कि भोला, तू पहले क्यों नहीं बोला।
भोला एक शरीप आदमी है और शरीफ आदमी की खासियत यह होती है कि पानी सिर से गुजर जाए, तो भी वह नहीं बोलता। सोचता रहता है कि वह मुंह क्यों खोले? कहीं कुछ हो गया तो? बचे क्या सोचेंगे? पडोसी क्या कहेंगे? साथ काम करने वाले कहेंगे कि भाई बहुत बोलता है तू, मस्त रहा कर। क्यों बेकार की मुसीबत मोल लेता है? अपने काम से काम रखा कर। शरीफ आदमी यही सब सोचकर नहीं बोलता। वह इसलिए भी नहीं बोलता क्योंकि बोलने से कुछ होता ही क्या है!
भोलाराम किसी चमत्कार की उम्मीद में दस साल तक मार खाता रहा। वह पहले इसलिए नहीं बोला क्योंकि पहले पिटाई के साथ-साथ कुछ सुविधाएं भी मिल रही थीं। जैसे बर्तन धोने के लिए गर्म पानी और नीबू युक्त विम, कपडे धोने के लिए सेमी-ऑटोमेटिक मशीन.. आदि। पत्नी मारती थी तो प्यार भी तो वही करती थी। टैगोर सही कहते हैं कि मारने का अधिकार सिर्फ उसी को है जो प्यार करता है। मारते-मारते कभी भोला की कोहनी या पीठ सूज जाती तो प्यार से सिंकाई भी तो पत्नी ही करती थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसके व्यवहार में अंतर आ गया था। उसकी स्नेह-धारा सूख गई। भोलाराम मार भी खाता था तथा ठंडे पानी से ढेरों जूठे बर्तन भी धोता था। मार तो खा ही रहा था, सुविधाएं भी छिन गई। वह कोर्ट चला गया।
ये देर से बोलने वाले सचमुच जब बोलते हैं तो कमाल का बोलते हैं। ओलंपिक मेडल लेने वाला एक खिलाडी बोला कि शर्म नहीं आती मुझे इतना छोटा ईनाम देते हुए। भारत रत्न से कम नहीं भाई। सितारों को कोसती हुई एक प्रख्यात नृत्यांगना क्रुद्ध स्वर में बोलीं कि मेरी प्रतिभा के कायल तो टैगोर भी थे। मुझे पद्मभूषण देते हो, डूब मरो। मेरा कद तो देखो। मुझे बोलने की जरूरत नहीं थी, मगर यह छोटा सा पुरस्कार देकर तुम्हें मुझे इस तरह गुस्सा नहीं दिलाना चाहिए था। तुम चुप थे तो मैं भी शांत थी। न तुम बोलते, न मैं बोलती।
मैं चुप रहता हूं। रहीम कहते हैं कि रहिमन चुप हो बैठिए, देखि दिनन के फेर। मेरे साथ के लेखक मित्र चुप नहीं रहते। किसी को भी ईनाम मिले तो इनके पेट में पीडा होने लगती है। निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की खबर सुनी तिलमिलाते हुए आए। बोले, यार, हम से जूनियर लोगों को ज्ञानपीठ। यह देश कब सुधरेगा। हर तरफ पुरस्कार गलत लोगों के हाथ में जाकर अपनी गरिमा खो रहे हैं।
यार-दोस्त सही कहते हैं। हाथ-पैर मारने से ही सागर तैरा जा सकता है। मां भी रोते हुए बचे को ही दूध पिलाती है और एक हम हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। आत्मा चीख रही है कि तू क्यों नहीं बोलता? मलाई सब उतारकर ले जा रहे हैं लोग। तेरे लिए छाछ भी नहीं बचेगी। बाद में बोलेगा तो सिरफिरे व्यंग्यकार फिकरे कसेंगे कि भोला तू पहले क्यों नहीं बोला?
बाहर भले मैं कुछ बोल लूं, मगर अपने घर में तो बहुत ही कम बोलता हूं। घर के सभी मामलों में मैं बहुत कम दखल देता हूं। परिणाम यह हुआ है कि अब दखल देना भी चाहूं तो कोई सहन नहीं करता। घर से बाहर के सभी मामलों पर राय बनाने की मुझे पूरी आजादी है। मसलन मैं नहीं चाहता था कि ग्रेग चैपल क्रिकेट टीम के कोच बनें। मैं तो यह भी नहीं चाहता था कि बिहार से लालू का इस तरह बिस्तर गोल हो। ऐसे मामलों में मेरी पत्नी, बेटा तथा पुत्रवधू शत-प्रतिशत मुझसे सहमत हैं। यहां तक कि मेरे पडोसी तक को कोई एतराज नहीं है। लेकिन उस दिन मैंने अपने घर में जो कह दिया कि कामवाली बाई को काम से हटाने की क्या जरूरत थी, तो सभी की सवालिया नजरें मेरी ओर उठ गई। मेरे बेदाग चरित्र के ही सामने लाल स्याही से निशान लगा दिया गया।
सभी ने खुलकर मेरे चरित्र पर उंगली तो नहीं उठाई, पर श्रीमती जी देर रात तक मुझे डांटती रहीं। वैसे इस उम्र में डांट-डपट के अलावा वह मेरे साथ कोई और सलूक नहीं करतीं। मैं तो चाहता हूं कि वह करें। लेकिन उन्हें अपने पूजा-पाठ, घर-गृहस्थी, बहू-बेटियों और पडोसनों से फुर्सत मिले तब न! कभी वह क्लब में होती हैं तो कभी किसी ध्यान-शिविर और कभी किसी थीम पार्टी में।
जबकि अपुन सीधा-सादा जीवन बिताने के रसिया हैं। हमारा नियम है- राज में न पाट में, जो मजा है खाट में। दिन में जमकर टीवी देखते हैं, दोपहर बाद जब घर वाले इधर-उधर हुए तो इंटरनेट पर सर्फिग करके आंखें तर कर लेते हैं। शाम को दोस्तों के साथ सोमरस के दो-तीन पैग लेकर जमाने के सारे गमों को भूल जाते हैं। काम वाली बाई के बारे में मेरे कुछ कहते ही श्रीमती ऐसे तिलमिलाई जैसे गर्म टीन की छत पर बिल्ली कूदती है। मुझे डांटा, तुम्हें उसकी तरफदारी करने की जरूरत क्या थी? और वह भी जवान बेटे-बहू के सामने। वे क्या सोचते होंगे? बाई को रखना या निकालना मेरे अधिकार क्षेत्र का मामला है। तुम्हें क्या? मिसेज मल्होत्रा के यहां तो उसकी मां की भी नहीं चलती, जिसने उसे कनाल की कोठी बनवाकर दी है। तुमने यह सडेला फ्लैट क्या ले दिया कि खुद को अकबर द ग्रेट समझने लगे। घर के मामलों में मर्द क्यों बोले? हम औरतें मर गई हैं क्या? अपनी औकात में रहा करो, वरना बुढापा बिगडते देर नहीं लगती। बहू को मैंने कैसे काबू किया हुआ है, यह मैं ही जानती हूं। तुम्हारे हाथ में घर की बागडोर होती तो यह घर न बनता। तुम तो दफ्तर में भी गऊ की तरह जाते थे और महीने बाद चंद नोट गिनकर ले आते थे। कभी दस रुपये की रिश्वत लेने की हिम्मत नहीं हुई तुम्हारी। कहने को अफसर और घर में पुराना छकडा स्कूटर।
श्रीमती जी बहुत देर तक बोलती रहतीं, पर मैंने कोई पलटवार नहीं किया। ऐसे स्थितियों से बचने का मेरा यही अचूक नुस्खा है। मैं चुपचाप हनुमान चालीसा पढने लगता हूं।
इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री डिजरेली की समस्या भी कुछ मेरे जैसी ही थी। उन्हें पत्नी की गालियों और उलाहनों से बहुत फायदा हुआ। इसी सहनशीलता के दम पर वह संसद में शांत बैठे रहते थे। विपक्ष के लोग चीखते-चिल्लाते और थक जाते, पर वह आवेश में न आते। इससे उन्हें बडा लाभ मिला। जब सभी थक-हार कर शांत बैठ जाते, तब डिजरेली अपनी बात कहते और सभी से मनवा लेते। उन्हें लोगों के मन का भेद पता चल जाता था। गुस्से में आदमी बनावटी बातें नहीं कर पाता। आवेश के क्षणों में ही व्यक्ति का सही तथा प्राकृतिक स्वभाव सामने आ पाता है। डिजरेली की तर्ज पर मैं महान राजनयिक तो न बन पाया और न ही कोई बडा तीस मार खां। मेरी स्थिति तो हर जगह उस टेप-रिकॉर्डर जैसी हो गई है जिसमें आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा तो है, लेकिन प्ले का स्विच खराब हो गया है। मुझे सभी कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं और जब मैं कोई अहम बात कहता या सलाह देता हूं तो मानना तो दूर की बात, कोई सुनता तक नहीं। इसीलिए अब कभी-कभी बोलने का मन भी करता है तो भी चुप ही रहता हूं। वैसे भी शरीफ आदमी को घर में कभी भी मुंह नहीं खोलना चाहिए।
मेरे साथ के दुखी सहयोगी लोग पूछते हैं कि पैंसठ साल की उम्र में भी तुम इतने जवान, हंसमुख और दुरुस्त हो, क्या राज छुपा है इस कमाल की ताजगी में। मैं कह देता हूं मैं बहुत ही खुले दिल का आदमी हूं। मेरा राज है-अपना मुंह बंद रखना और अपने पर्स का मुंह खुला रखना। फिर कहीं कोई टेंशन नहीं। वो तो सुबह जरा-सा बहक गया जो घर की बातों में मैंने अपनी फटीचर राय दे डाली।
लोग सही कहते हैं कि एक चुप और सौ सुख। एक चुप में इतनी ताकत होती है कि वह सौ योद्धाओं को हरा सकता है। वैसे तो चुप्पी मूर्ख का गुण होता है। चुप रहकर ही वह सभा में शोभा व सम्मान पा सकता है। बडबोले आदमी को कोई पसंद नहीं करता। क्योंकि जो ज्यादा बोलेगा, वह गलत बोलेगा। कम शब्दों में बात करने वाले दानिशमंद की तरफ हर कोई कान देता है। कहते हैं कि कोई भाषा सीखने में दो साल लगते हैं, पर जुबान पर काबू पाने के लिए साठ साल भी कम होते हैं। बेकार की बातें करने से ही सारी मुसीबतें झेलनी पडती हैं। जीभ के दो ही प्रिय शगल हैं- एक तो खाने के लिए चटपटा और करारा मांगना और दूसरा कैंची की तरह बडबड करना। खुद तो छप्पन प्रकार के भोगों का मजा लेकर एक कोने में दुबक जाती है, मगर कुछ भी खा लेने से शरीर की जो गत होती है, वह दिल ही जानता है।
खाने का असर तो खैर अपने तक ही है, पर बात का असर दूसरों पर भी होता है। जुबान का घायल व्यक्ति तो सारी उम्र कोसता रहता है। जीभ तो कहकर दांतों की सुरक्षा-पंक्ति में छिपकर बैठ जाती है, लाठियों का प्रहार सिर को सहना पडता है। जुबान की चपर-चपर आदत सरीखी होती है। एक बार निंदा चुगली या गप्प का शौक लग जाए तो फिर क्या मित्र और क्या दुश्मन। जिस किसी का जिक्र चल निकले, जुबान उसका चरित्र हनन करने में देर नहीं लगाती।
चुप रहकर भी कई बार नुकसान उठाने पडते हैं। पोस्ट ऑफिस के बाबू भोलाराम से अदालत ने यही मासूम सवाल किया है कि भोला, तू पहले क्यों नहीं बोला? भोलाराम ने अदालत में अर्जी लगाई थी कि उसकी पत्नी पिछले दस वर्षो से उसे पीटती आ रही है। अदालत ने भोलाराम की सारी बातें स्वीकार कर लीं, पर उसके गले यह बात नहीं उतरी कि अब क्यों? पहले क्यों नहीं। केस अटका हुआ है। कोर्ट जाकर वह पहले ही जगहंसाई सह रहा है और ऊपर से यह सवाल उसे परेशान कर रहा है कि भोला, तू पहले क्यों नहीं बोला।
भोला एक शरीप आदमी है और शरीफ आदमी की खासियत यह होती है कि पानी सिर से गुजर जाए, तो भी वह नहीं बोलता। सोचता रहता है कि वह मुंह क्यों खोले? कहीं कुछ हो गया तो? बचे क्या सोचेंगे? पडोसी क्या कहेंगे? साथ काम करने वाले कहेंगे कि भाई बहुत बोलता है तू, मस्त रहा कर। क्यों बेकार की मुसीबत मोल लेता है? अपने काम से काम रखा कर। शरीफ आदमी यही सब सोचकर नहीं बोलता। वह इसलिए भी नहीं बोलता क्योंकि बोलने से कुछ होता ही क्या है!
भोलाराम किसी चमत्कार की उम्मीद में दस साल तक मार खाता रहा। वह पहले इसलिए नहीं बोला क्योंकि पहले पिटाई के साथ-साथ कुछ सुविधाएं भी मिल रही थीं। जैसे बर्तन धोने के लिए गर्म पानी और नीबू युक्त विम, कपडे धोने के लिए सेमी-ऑटोमेटिक मशीन.. आदि। पत्नी मारती थी तो प्यार भी तो वही करती थी। टैगोर सही कहते हैं कि मारने का अधिकार सिर्फ उसी को है जो प्यार करता है। मारते-मारते कभी भोला की कोहनी या पीठ सूज जाती तो प्यार से सिंकाई भी तो पत्नी ही करती थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसके व्यवहार में अंतर आ गया था। उसकी स्नेह-धारा सूख गई। भोलाराम मार भी खाता था तथा ठंडे पानी से ढेरों जूठे बर्तन भी धोता था। मार तो खा ही रहा था, सुविधाएं भी छिन गई। वह कोर्ट चला गया।
ये देर से बोलने वाले सचमुच जब बोलते हैं तो कमाल का बोलते हैं। ओलंपिक मेडल लेने वाला एक खिलाडी बोला कि शर्म नहीं आती मुझे इतना छोटा ईनाम देते हुए। भारत रत्न से कम नहीं भाई। सितारों को कोसती हुई एक प्रख्यात नृत्यांगना क्रुद्ध स्वर में बोलीं कि मेरी प्रतिभा के कायल तो टैगोर भी थे। मुझे पद्मभूषण देते हो, डूब मरो। मेरा कद तो देखो। मुझे बोलने की जरूरत नहीं थी, मगर यह छोटा सा पुरस्कार देकर तुम्हें मुझे इस तरह गुस्सा नहीं दिलाना चाहिए था। तुम चुप थे तो मैं भी शांत थी। न तुम बोलते, न मैं बोलती।
मैं चुप रहता हूं। रहीम कहते हैं कि रहिमन चुप हो बैठिए, देखि दिनन के फेर। मेरे साथ के लेखक मित्र चुप नहीं रहते। किसी को भी ईनाम मिले तो इनके पेट में पीडा होने लगती है। निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की खबर सुनी तिलमिलाते हुए आए। बोले, यार, हम से जूनियर लोगों को ज्ञानपीठ। यह देश कब सुधरेगा। हर तरफ पुरस्कार गलत लोगों के हाथ में जाकर अपनी गरिमा खो रहे हैं।
यार-दोस्त सही कहते हैं। हाथ-पैर मारने से ही सागर तैरा जा सकता है। मां भी रोते हुए बचे को ही दूध पिलाती है और एक हम हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। आत्मा चीख रही है कि तू क्यों नहीं बोलता? मलाई सब उतारकर ले जा रहे हैं लोग। तेरे लिए छाछ भी नहीं बचेगी। बाद में बोलेगा तो सिरफिरे व्यंग्यकार फिकरे कसेंगे कि भोला तू पहले क्यों नहीं बोला?
बाहर भले मैं कुछ बोल लूं, मगर अपने घर में तो बहुत ही कम बोलता हूं। घर के सभी मामलों में मैं बहुत कम दखल देता हूं। परिणाम यह हुआ है कि अब दखल देना भी चाहूं तो कोई सहन नहीं करता। घर से बाहर के सभी मामलों पर राय बनाने की मुझे पूरी आजादी है। मसलन मैं नहीं चाहता था कि ग्रेग चैपल क्रिकेट टीम के कोच बनें। मैं तो यह भी नहीं चाहता था कि बिहार से लालू का इस तरह बिस्तर गोल हो। ऐसे मामलों में मेरी पत्नी, बेटा तथा पुत्रवधू शत-प्रतिशत मुझसे सहमत हैं। यहां तक कि मेरे पडोसी तक को कोई एतराज नहीं है। लेकिन उस दिन मैंने अपने घर में जो कह दिया कि कामवाली बाई को काम से हटाने की क्या जरूरत थी, तो सभी की सवालिया नजरें मेरी ओर उठ गई। मेरे बेदाग चरित्र के ही सामने लाल स्याही से निशान लगा दिया गया।
सभी ने खुलकर मेरे चरित्र पर उंगली तो नहीं उठाई, पर श्रीमती जी देर रात तक मुझे डांटती रहीं। वैसे इस उम्र में डांट-डपट के अलावा वह मेरे साथ कोई और सलूक नहीं करतीं। मैं तो चाहता हूं कि वह करें। लेकिन उन्हें अपने पूजा-पाठ, घर-गृहस्थी, बहू-बेटियों और पडोसनों से फुर्सत मिले तब न! कभी वह क्लब में होती हैं तो कभी किसी ध्यान-शिविर और कभी किसी थीम पार्टी में।
जबकि अपुन सीधा-सादा जीवन बिताने के रसिया हैं। हमारा नियम है- राज में न पाट में, जो मजा है खाट में। दिन में जमकर टीवी देखते हैं, दोपहर बाद जब घर वाले इधर-उधर हुए तो इंटरनेट पर सर्फिग करके आंखें तर कर लेते हैं। शाम को दोस्तों के साथ सोमरस के दो-तीन पैग लेकर जमाने के सारे गमों को भूल जाते हैं। काम वाली बाई के बारे में मेरे कुछ कहते ही श्रीमती ऐसे तिलमिलाई जैसे गर्म टीन की छत पर बिल्ली कूदती है। मुझे डांटा, तुम्हें उसकी तरफदारी करने की जरूरत क्या थी? और वह भी जवान बेटे-बहू के सामने। वे क्या सोचते होंगे? बाई को रखना या निकालना मेरे अधिकार क्षेत्र का मामला है। तुम्हें क्या? मिसेज मल्होत्रा के यहां तो उसकी मां की भी नहीं चलती, जिसने उसे कनाल की कोठी बनवाकर दी है। तुमने यह सडेला फ्लैट क्या ले दिया कि खुद को अकबर द ग्रेट समझने लगे। घर के मामलों में मर्द क्यों बोले? हम औरतें मर गई हैं क्या? अपनी औकात में रहा करो, वरना बुढापा बिगडते देर नहीं लगती। बहू को मैंने कैसे काबू किया हुआ है, यह मैं ही जानती हूं। तुम्हारे हाथ में घर की बागडोर होती तो यह घर न बनता। तुम तो दफ्तर में भी गऊ की तरह जाते थे और महीने बाद चंद नोट गिनकर ले आते थे। कभी दस रुपये की रिश्वत लेने की हिम्मत नहीं हुई तुम्हारी। कहने को अफसर और घर में पुराना छकडा स्कूटर।
श्रीमती जी बहुत देर तक बोलती रहतीं, पर मैंने कोई पलटवार नहीं किया। ऐसे स्थितियों से बचने का मेरा यही अचूक नुस्खा है। मैं चुपचाप हनुमान चालीसा पढने लगता हूं।
इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री डिजरेली की समस्या भी कुछ मेरे जैसी ही थी। उन्हें पत्नी की गालियों और उलाहनों से बहुत फायदा हुआ। इसी सहनशीलता के दम पर वह संसद में शांत बैठे रहते थे। विपक्ष के लोग चीखते-चिल्लाते और थक जाते, पर वह आवेश में न आते। इससे उन्हें बडा लाभ मिला। जब सभी थक-हार कर शांत बैठ जाते, तब डिजरेली अपनी बात कहते और सभी से मनवा लेते। उन्हें लोगों के मन का भेद पता चल जाता था। गुस्से में आदमी बनावटी बातें नहीं कर पाता। आवेश के क्षणों में ही व्यक्ति का सही तथा प्राकृतिक स्वभाव सामने आ पाता है। डिजरेली की तर्ज पर मैं महान राजनयिक तो न बन पाया और न ही कोई बडा तीस मार खां। मेरी स्थिति तो हर जगह उस टेप-रिकॉर्डर जैसी हो गई है जिसमें आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा तो है, लेकिन प्ले का स्विच खराब हो गया है। मुझे सभी कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं और जब मैं कोई अहम बात कहता या सलाह देता हूं तो मानना तो दूर की बात, कोई सुनता तक नहीं। इसीलिए अब कभी-कभी बोलने का मन भी करता है तो भी चुप ही रहता हूं। वैसे भी शरीफ आदमी को घर में कभी भी मुंह नहीं खोलना चाहिए।
मेरे साथ के दुखी सहयोगी लोग पूछते हैं कि पैंसठ साल की उम्र में भी तुम इतने जवान, हंसमुख और दुरुस्त हो, क्या राज छुपा है इस कमाल की ताजगी में। मैं कह देता हूं मैं बहुत ही खुले दिल का आदमी हूं। मेरा राज है-अपना मुंह बंद रखना और अपने पर्स का मुंह खुला रखना। फिर कहीं कोई टेंशन नहीं। वो तो सुबह जरा-सा बहक गया जो घर की बातों में मैंने अपनी फटीचर राय दे डाली।
मेरी स्थिति तो हर जगह उस टेप-रिकॉर्डर जैसी हो गई है जिसमें आवाज रिकॉर्ड करने की सुविधा तो है, लेकिन प्ले का स्विच खराब हो गया है।
जवाब देंहटाएं