सोमवार, 3 जनवरी 2011

भागवत-१५६

कन्हैया तो काल का काल है"
पं. विजयशंकर मेहता
जब पूरा ब्रज भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मना रहा था तो भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर गोकुल में आए। शिवजी के पास एक दासी आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें। शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है। दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया। यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा। शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है।

यशोदाजी बोलीं-कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें। शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा। इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं और माता वहां ले नहीं जाएंगी, तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया। शिवजी की बहुत विनय करने के बाद यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई। शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई। वे अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया। शिवजी समाधि में डूब गए। जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा।

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