धृतराष्ट्र के कहने पर जब पांडव वारणावत पहुंचे तो वहां के नागरिकों में बड़े उत्साह से उनका स्वागत किया। दुर्योधन के मंत्री पुरोचन ने पांडवों के रहने व भोजन का उचित प्रबंध किया। दस दिन बीत जाने के बाद पुरोचन ने पांडवों को लाक्षा भवन के बारे में बताया तब माता कुंती के साथ लाक्षा भवन में रहने चले गए। युधिष्ठिर ने जब भवन को देखा तो उन्हें दुर्योधन की चाल तुरंत समझ में आ गई। यह बात युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को भी बताई। तब सभी ने यह निर्णय लिया कि यहां चतुराई पूर्वक रहना ही उचित होगा।
तभी वहां विदुरजी द्वारा भेजा गया सेवक आया जो सुरंग खोदने में माहिर था। युधिष्ठिर के कहने पर उसने भवन के बीच एक बड़ी सुरंग बनाई। और उसे इस प्रकार ढ़क दिया कि किसी को उस सुरंग के बारे में पता न चले। पांडव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने जंगलों के गुप्त रास्ते पता किया करते थे। पुरोचन को लगभग एक वर्ष बाद यह विश्वास हो गया कि पांडवों को दुर्योधन की चाल का बिल्कुल ध्यान नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा कि अब वह समय आ गया है जब पुरोचन का वध कर यहां से भाग निकलना चाहिए।
कुंती ने एक दिन दान देने के लिए ब्राह्मण भोज कराया। जब सब खा पीकर चले गए। एक भील की स्त्री अपने पांच पुत्रों के साथ खाना मांगने आईं। वे सब शराब पीकर लाक्षा भवन में ही सो गए। उसी रात भीमसेन ने पुरोचन के कक्ष में आग लगा दी तथा जब आग बहुत भयानक हो गई तब पांचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते नगर के बाहर निकल गए। वारणावत के लोगों ने जब लाक्षा भवन जलता दिखा तो उन्हें लगा कि पांडव भी जल गए हैं, यह सोचकर वे रातभर विलाप करते रहे।
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