सोमवार, 24 जनवरी 2011

सेवा और धर्म

एक बार गांधीजी सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने काशी आए। वहां कई विद्वान और संत भी आए हुए थे। उन सबने गांधीजी की चर्चा सुन रखी थी और उनसे मिलने को बेहद उत्सुक थे। वे उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनके निजी जीवन के कई पहलुओं को जानना चाहते थे। सम्मेलन खत्म होने के बाद एक संत ने गांधीजी से पूछा , ' आप कौन सा धर्म मानते हैं और भारत के भावी धर्म का क्या स्वरूप होगा ?' गांधीजी ने कहा , ' सेवा करना ही मेरा धर्म है और मेरा मानना है कि आप लोगों को भी इस धर्म को अपनाना चाहिए। ' संत ने फिर पूछा , ' मगर सेवा तो सभी करते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि पूजा - पाठ , धर्म - कर्म सब मिथ्या है।
इसको छोड़ देना चाहिए। ' गांधी जी ने कहा , ' मेरा मतलब यह नहीं कि पूजा पाठ छोड़ दिए जाए। मन की शांति के लिए यह सब करना भी जरूरी है। पर यदि मेरे लिए लेटे - लेटे चरखा चलाना संभव हो और मुझे लगे कि इससे ईश्वर पर मेरा चित्त एकाग्र होने में मदद मिलेगी तो मैं जरूर माला छोड़ कर चरखा चलाने लगूंगा। चरखा चलाने की शक्ति मुझमें हो और मुझे यह चुनाव करना हो कि माला फेरूं या चरखा चलाऊं , तो जब तक देश में गरीबी और भुखमरी है , तब तक मेरा निर्णय निश्चित रूप से चरखे के पक्ष में होगा और उसी को मैं अपनी माला बना लूंगा।
चरखा , माला और राम नाम सब मेरे लिए एक ही हैं। वे सब एक ही उद्देश्य पूरा करते हैं। वह है मानव की सुरक्षा करना , अपनी रक्षा करना। मैं सेवा का पालन किए बिना अहिंसा का पालन नहीं कर सकता और अहिंसा धर्म का पालन किए बिना मैं सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता। और आप तो मानते होंगे कि सत्य के सिवा दूसरा कोई धर्म भी नहीं है। ' सभी संतों ने गांधी जी के विचारों से सहमति जताई और उसी रास्ते पर चलने का संकल्प किया।
संकलन : सुरेश सिंह

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