बुधवार, 19 जनवरी 2011

डर-डर कर जीना

उस दिन मैं अपने पति के साथ किसी रिश्तेदार के यहां ग्रेटर नोएडा गई थी। लौटते हुए रात हो गई। हमारी गाड़ी बिसरख के रास्ते गाजियाबाद की तरफ दौड़ रही थी। रास्ता सुनसान और काफी खराब था। अचानक एक जगह गाड़ी एक गड्ढे में फंस गई। हम जितना उसे निकालने की कोशिश करते, वह उतना धंसने लगती। मैं गाड़ी से बाहर आ गई और मेरे पति गाड़ी और गड्ढे से जद्दोजहद करने लगे। आसपास कोई नहीं था। अंधेरा घना हो रहा था। मैं गहनों से लदी थी। मन में कई तरह की आशंकाएं घर कर रही थीं। मेरे पति गाड़ी निकालने की भरपूर कोशिश कर रहे थे कि तभी एक बड़ी सी गाड़ी हमारे पास आकर रुक गई। उसमें से दो लड़के उतरे।
दोनों लंबे चौड़े और कसी हुई कद काठी के थे। वे मेरे पति से बात करने लगे। उन्हें देखकर मेरी सांसें थम गईं। जेहन में हाल में पढ़ी कई खबरें घूमने लगीं। उन लड़कों ने लोकल भाषा में एक दूसरे से बात की और मेरे पति को गाड़ी से उतरने को कहा। वह उतर गए। उनमें से एक ड्राइविंग सीट पर बैठ गया और दूसरा मेरे पति के साथ गाड़ी को धक्का लगाने लगा। कुछ ही देर में गाड़ी गड्ढे से बाहर आ गई। वह लड़का गाड़ी से बाहर आ गया। मेरे पति ने उन्हें धन्यवाद दिया और हम आगे बढ़ गए।
हमारा सकुशल पहुंचना यकीनन किसी इत्तफाक से कम नहीं था। रास्ते में मेरा मन अपराध बोध से भर उठा था। मैंने उन लड़कों को क्यों गलत समझा? वो तो हमारी मदद कर रहे थे। अगर वो न आते तो न जाने क्या होता। दरअसल आज हमारे समाज का माहौल ही ऐसा हो गया है कि हमें हर कोई पहली नजर में संदिग्ध लगता है। महिलाओं को तो खासतौर से ऐसा ही लगता है। अपने आसपास जो कुछ झेलना पड़ रहा है, उस कारण उनके मन में डर का बैठना स्वाभाविक है। मुझे एक वाकया अकसर याद आता है। एक बार मैं ब्लू लाइन बस में सवार हुई। बस लगभग खाली थी।
मैं गेट के पास वाली दूसरे नंबर की सीट पर बैठ गई। मेरे आगे कंडक्टर बैठा था। उसने बस में मौजूद अपने साथी को इशारे में कुछ कहा। लगा जैसे वह मेरे बारे में कुछ कह रहा है। उस व्यक्ति ने, जो बेहद खतरनाक लग रहा था, उसकी तरफ देखकर हामी भर दी और थोड़ा मुस्कराया। उसके बाद बस का ड्राइवर भी किसी बात पर पीछे देखकर मुस्कराया। कनखियों से सब कुछ देख रही मैं घबरा गई। मैंने तुरंत पीछे पलट कर देखा। बस में 3-4 लोग बैठे थे। मेरे बिल्कुल पीछे एक महिला बैठी थी। उसे देखकर कुछ राहत महसूस की। तुरंत फैसला किया कि जहां यह महिला उतरेगी, मैं भी वहीं उतर जाऊंगी। मुझे बाराखंभा जाना था, लेकिन उस महिला के साथ मैं तिलक ब्रिज स्टॉप पर ही उतर गई। वहां से डीटीसी की थोड़ी भरी हुई बस में बैठकर मंजिल तक पहुंची। आखिर ऐसा समय कब आएगा, जब महिलाएं सड़क पर बेखौफ निकल सकेंगी?

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