मंगलवार, 18 जनवरी 2011

भागवत-१७०: माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि माता यशोदा दूध उफनता देख बालकृष्ण को अतृप्त छोड़कर दूध उतारने चली जाती हैं। गुस्से में बालकृष्ण दही की मटकी फोड़ देते हैं। यशोदाजी जब वापस आती हैं तो देखती हैं कि दही का मटका फूटा पड़ा है। वे समझ गईं कि यह सब मेरे लाला की करतूत है। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं।

उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाए इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुंची। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मां हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। उन्हें पकडऩे के लिए यशोदाजी भी दौड़ीं। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने लगीं। तब माता यशोद ने श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने का निश्चय किया। बांधने के लिए वे जिस भी रस्सी को उठाती, वही छोटी पडऩे लगती।
काफी प्रयास करने के बाद भी जब यशोदा कृष्ण को नहीं बांध पाई तो परेशान हो गई। इस घटना का अभिप्राय है कि भगवान को तो केवल भावों से बांधा जा सकता है, क्रोध और अहंकार से भगवान बंधने वाले नहीं। माता ने सारे प्रयास कर डाले लेकिन कृष्ण बंध नहीं पाए। दो अंगुल रस्सी कम पड़ गई, एक अंगुल भक्ति की और दूसरी भावना की। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता बहुत थक गई हैं तब कृपा करके वे स्वयं ही बंधन में बंध गए। इस प्रकार भगवान ने स्वयं बंधन स्वीकार कर लिया।

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