मंगलवार, 18 जनवरी 2011

विदुरजी ने युधिष्ठिर को क्या गुप्त बात कही?

जब राजा धृतराष्ट्र के कहने पर पाण्डव वारणावत जाने लगे तो विदुरजी ने युधिष्ठिर को सांकेतिक भाषा में कहा कि नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव समझकर उससे अपनी अपनी रक्षा करनी चाहिए। एक ऐसा अस्त्र है जो लोहे का तो नहीं है परंतु शरीर को नष्ट कर सकता है (अर्थात शत्रुओं ने तुम्हारे लिए एक ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से तुरंत भड़क उठने वाले पदार्थों से बना है।)


आग घास-फूस और जीव सारे जंगल को जला डालती है परंतु बिल में रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। यही जीवित रहन का उपाय है (अर्थात उससे बचने के लिए तुम एक सुरंग तैयार करा लेना।)
अंधे को रास्ता और दिशा का ज्ञान नहीं होता। बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। (अर्थात दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही तैयार कर लेना ताकि रात मे भटकना न पड़े।)
शत्रुओं के दिए हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे।)
जिसकी पांचों इंद्रियां वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकता (अर्थात यदि तुम पांचों भाई एकमत रहोगो तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
विदुरजी की सारी बात युधिष्ठिर ने अच्छी तरह से समझ ली। तब विदुरजी हस्तिनापुर लौट गए। यह घटना फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, रोहिणी नक्षत्र की है।

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