पृषत नामक एक राजा भरद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोणाचार्य के जन्म के समय ही उनके यहां भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ। उसने भी भरद्वाज आश्रम में रहकर द्रोणाचार्य के साथ शिक्षा प्राप्त की। द्रोणाचार्य के साथ उसकी मित्रता हो गई। जब दोनों युवा हुए तो पृषत का निधन होने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश का राजा हुआ और द्रोणाचार्य आश्रम में रहकर तपस्या करने लगे।
आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया।
तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
आचार्य द्रोण को जब मालूम हुआ कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं तो वह भी भगवान परशुराम के पास पहुंचे। तब उन्होंने भगवान परशुराम से उनके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके प्रयोग की विधि, रहस्य और उपसंहार की विधि मांग ली। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गए। वहां राजा द्रुपद ने उनका बड़ा अपमान किया और बाल्यकाल की दोस्ती को मुर्खता बताया।
तब द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध आया। तब उन्होंने मन ही मन द्रुपद से इस अपमान का बदला लेने का निश्चय किया। इसके बाद द्रोणाचार्य कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आ गए और कुछ दिनों तक गुप्त रूप से कृपाचार्य के घर पर रहे।
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