गुरुवार, 27 जनवरी 2011

शहदचट्टा का नकली मौ

यों तो अरुप-रतन सरकार कलकत्ता की एक इंश्योरंस कंपनी में बाबू थे। फिर भी मन से वे बड़े भावुक थे। कचहरी में कभी-कभार फाइलें रोक कर चार-छः पंक्तियों की कविता भी लिख लेते थे। पुरी के समुद्र तट पर छुट्टी बिताने वे आए ही इसलिए थे कि कहीं काम के दबाव से उनकी भावुकता भोंथरी न हो जाए। उन्होंने सुन रखा था कि समुद्र के पानी में फॉस्फोरस होता है। उन्हें अंधेरे में समुद्र की लहरों को देखना पसंद था। उन्हें पक्षियों को गाते हुए सुनना पसंद था। छुट्टियों में प्रकृति की संगत में कुछ साहित्य रचना करने की उनकीमंशा थी।
आज तीसरे पहर अरुप बाबू समुद्र तट पर रेत में चहलकदमी करने आए थे। ठंडी हवा और रेत में पैरों का धँसना उन्हें भला लग रहा था। तभी एकदम पास से एक बच्चे की आवाज तैरती हुई उनके कानों में आई- 'मुन्ना का सपना' क्या आपने ही लिखा है? अरुप बाबू ने पलट कर देखा तो सात-आठ वर्ष का एक लड़का उत्सुकता से उनकी ओर देख रहा था। आप ही मौलिकजी है ना? लड़के के पीछे-पीछे चली आ रही महिला ने पूछा।
लड़के को शायद वे बेरुखी से मना कर देते लेकिन इस संपन्न सुंदर महिला को देखकर, जो निश्चित ही उसकी माँ थी, उन्होंने मिठास भरी नरमी से कहा कि उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी। बच्चा तो चुप रहा, महिला हार मानने वाली नहीं थी। उसने कहा 'हम जानते हैं कि आपको प्रसिद्धि पसंद नहीं है। एक बार मेरे देवर ने बंगाली क्लब में आपको मुख्य अतिथि की तरह निमंत्रण दिया था परंतु आपनेलिखा था कि आपको यह सब पसंद नहीं है।' महिला बोलती ही जा रही थी।
अरुप बाबू समझ गए कि 'मुन्ना का सपना' के लेखक मौलिकजी चाहे जो रहे हों, ये दोनों माँ-बेटे उनके प्रशंसक हैं और अभी उन्हें ही लेखक मानकर दोनों प्रसन्ना हो रहे हैं। अरुप बाबू को लगा कि वे अगर डपट कर उन्हें सच बता दें तो भी उन दोनों को इस बात का विश्वास नहीं होगा। दूसरे डाँटना उनके स्वभाव में नहीं बैठता था। अरुप बाबू दिल से कोमल जो थे। बात टालने के लिए उन्होंने महिला से पूछा कि आपको यकीन है कि मैं ही वह लेखक हूँ?
महिला ने चहक कर कहा कि आज के अखबारों में ही तो समाचार छपा है। आपको बंगला भाषा में श्रेष्ठ बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। साथ ही में तस्वीर भी छपी है। 'अब तो हर कोई आपके चेहरे से परिचित हो गया है। आप पुरी आ रहे हैं यह भी सबको पता है।'अरुप बाबू सोच में पड़ गए कि अब आगे बात किस तरह की जाए। परंतु अबउन्हें अपनी ओर से ज्यादा कुछ बोलना नहीं था। वह महिला ही बोलती जा रही थी, उन्हें बस हाँ-हूँ कर उसके प्रश्नों के छोटे-छोटे उत्तर देना था। 'आप सी-व्यू में ठहरे हैं ना?
* नहीं, मैं सागरिका में ठहरा हूँ।
* 'अखबार में तो यह छपा था कि आप...'
* हाँ, मुझे वहाँ का खाना पसंद नहीं है।
* आप कितने दिन यहाँ रुकेंगे?
* यही.. कोई पाँचेक दिन
* तब आप हमारे साथ खाना खाने जरूर आइए। हम पुरी होटल में हैं।
* हाँ आऊँगा। अब मैं चलता हूँ।
* आप जरूर कुछ नया लिख रहे होंगे...कल हम दुबारा यहीं मिलेंगे।
होटल में अपने कमरे में पड़े-पड़े अरुप बाबू सोचते रहे कहाँ से इस उलझन में आ फँसे। तभी उन्हें कुछ सूझा। उन्होंने सी-व्यू में फोन करके मौलिकजी के बारे में पूछा तो पता चला कि वे आज नहीं, मंगलवार को आने वाले हैं। मंगलवार को ही तो अरुप बाबू को कलकत्ता लौटना था। अब अरुप बाबू का दिमाग तेजी से काम करने लगा। खाना मिलने में अभी देर थी। वे सीधे उठकर बाजार गए और वहाँ की एक दुकान से अमलेश मौलिक की लिखी चार किताबें खरीद लाए।
रास्ते में अखबार खरीद कर उन्होंने मौलिकजी की तस्वीर भी देखी। हूबहूउन्हीं का चेहरा। वैसी ही पतली मूँछें, घुँघराले बाल और आँखों पर मोटी फ्रेम का चश्मा। 'मुन्ना का सपना' नहीं मिली। खैर, कोई हर्ज नहीं। वह तो अच्छा हुआ कि किताबें बाँॅस के कागज में अच्छी तरह लिपटी हुई थीं। वर्ना होटल के स्वागत कक्ष में उनसे मिलने आए दर्जनभरबच्चे और बड़े क्या सोचते? लेखक खुद ही अपनी किताबें खरीद रहा है।
अरुप बाबू चाहते तो सबके सामने अपने एक समान चेहरे की बात बता कर मामला आगे बढ़ने से रोक सकते थे। लेकिन अब उनके सामने उन नन्हे बाल पाठकों के चेहरे थे जो अमलेश मौलिक की लिखी किताबें लेकर उन पर लेखक के हस्ताक्षर लेने आए थे। उन्हें निराश करने का अरुप बाबू का मन नहीं हुआ। अब अरुप बाबू ने अपने अमलेश मौलिक होने की बात पर अधिक ना-नुकुर नहीं की और नाटक में मुख्य पात्र की भूमिका संभाल ली। हाँ, लेखक के नकली ऑटोग्राफ करने में जरूर उन्हें परेशानी हुई। तब उन्होंने चतुराई से ऑटोग्राफ करना अच्छा नहीं लगता कह के बात टाल दी। इसके बदले वे किताबों पर चित्र बना देंगे। यह बात सभी को जँची। अरुप बाबू ने सबकी किताबें अपने पास रख ली। दूसरे दिन पुरी होटल में उन लोगों के साथ भोजन का न्योता भी उन्होंने स्वीकार कर लिया।
रात को देर तक जाग कर अरुप बाबू ने सारी किताबें पढ़ डाली। उन्हें अपना बचपन याद आ गया। बच्चों की कहानियाँ उन्हें बड़ी पसंद हुआ करती थीं। आज लंबे समय बाद वैसी पढ़ने मिल रही थीं। दूसरे दिन समुद्र किनारे बैठे-बैठे अरुप बाबू ने सारी किताबों में चित्र बना दिए-शंख, सीप, नारियल, केकड़ा। अरुप बाबू को चित्र बनाना अच्छा लगता था और वे चित्र भी खूब बना लेते थे। कचहरी में वे हर फाइल पर कुछ न कुछ चित्रकारी करते रहते।
पुरी होटल में अमलेश नाइट बड़ी सफल रही। अरुप बाबू के सवाल-जवाबों से मौलिकजी के प्रशंसकों की संख्या कई गुना बढ़ गई। अमलेश मौलिक की सारी किताबें पढ़ लेने के कारण अरुप बाबू ने बच्चों के सभी प्रश्नों के जवाब बढ़-चढ़ कर दिए। पार्टी खत्म होने के पहले ही बच्चे उन्हें शहद चट्टा कहकर पुकारने। अरुप बाबू ने ही उन्हें बताया कि मौ का अर्थ है शहद और अँगरेजी में लिक का अर्थ है चाटना। खाना-पीना खत्म होने पर सबने आग्रह किया वे एक अप्रकाशित कहानी सुनाएँ। अरुप बाबू को बचपन का एक किस्सा याद गया जब वे बाँछाराम अक्रूरदत्त लेन में रहते थे। एक बार उनके पिता की कीमती कलाई घड़ी चोरी हो गई। एक सूप झाड़ने वाले को बुलाया गया। सूप झाड़ने वाले ने आँखें बंद कर मंत्रोच्चार के साथ चावल फेंके जो घर नौकर पर जा गिरे। मँझले चाचा नौकर के बाल पकड़कर उसे मुक्का मारने ही वाले थे कि बिछावन के नीचे से कलाई घड़ी निकल आई।
पुरी में पाँच दिन साहित्य गोष्ठी करते हुए मजे से बीत गए। अरुप बाबू के कलकत्ते लौटने का दिन आ गया। आज ही असली अमलेश मौलिक भी पुरी आने वाले थे। अरुप बाबू ने सोचा क्यों न असली लेखक से भी मिल लिया जाए। उनकी रेल अरुप बाबू की रेल से पूरे एक घंटे पहले आने वाली थी। अरुप बाबू समय से पहले ही अपने सामान-संदूक सहित फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम के सामने की बेंच पर जा बैठे। रेल आने पर उन्हें मौलिक बाबू को पहचानने में बिलकुल कठिनाई नहीं हुई। हाँ, उनका कद जरूर थोड़ा ठिगना था। बाल भी सफेद हो रहे थे। जाहिर था उम्र में वे दसेक साल बड़े थे। और बोलने में हकला भी रहे थे। यह बात अरुप बाबू को तब पता चली जब वे उनसे परिचय लेकर बातचीत करने लगे। अरुप बाबू ने यह पाया कि अपनी हकलाहट से मौलिक बाबू खासे परेशान हैं और कम से कम शब्दों में जवाब देते हैं।
पहले से ही पहुँची प्रसिद्धि के कारण इस बेचारे को तो होटल पहुँच कर काफी दिक्कत होगी। अरुप बाबू ने सोचा। उन्होंने अपने आपको यह कहते हुए पाया कि होटल में उनकी अगुआई करने काफी भीड़ इकट्ठी हुई है। पता नहीं उत्तेजित भीड़ कैसा व्यवहार करे। इसलिएबेहतरी इसी में है कि वे सी-व्यू या पुरी होटल में न जाएँ।
वहीं की एक छोटी होटल सागरिका में उन्हें एक कमरा खाली मिल जाएगा। सहमे हुए मौलिकजी को अरुप बाबू की सलाह ठीक लगी। वे बोले कि किन शब्दों में आपका धन्यवाद करूँ। अरुप बाबू छूटते ही बोले कि मैंभी आपका प्रशंसक हूँ। आपके ही उपन्यासों पर आप ऑटोग्राफ कर दें। मौलिक बाबू एकदम प्रसन्ना हो गए। साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर मौलिक बाबू ने एक नया महँगा पार्कर पेन खरीदा था। उसमें स्याही भरकर उन्होंने अपने नए हस्ताक्षर भी बनाए थे। फिर बोलते समय उनकी जुबान हकलाती थी ऑटोग्राफ करते समय पेन थोड़े ही हकलाता।

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