शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

भागवत 202 : गोपियां रो रही हैं क्योंकि....

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियां इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आंखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का अक्रूर नाम नहीं होना चाहिए था। सखी हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गए और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिए कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मन में आवे करो। अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेश्टा कर रहा है।

गोपियां परमात्मा से अलग होने का जिम्मेदार भी विधाता को ही ठहरा रही हैं। यह भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा है। कन्हैया उनके लिए अभी भी एक माखन चोर, रास रचाने वाला, उन्हें अपनी लीलाओं से हंसाने और आनंदित करने वाला एक ग्वाल-बाल ही था, वो परम योगेश्वर को अपना सखा, अपने बीच का ही मानती थीं, न कि कोई अवतार। असल में भगवान मिलते भी तभी हैं जब हम उसे अपना, अपने जैसा अपने बीच का मानें, चाहे पिता, भाई, रखा या पति, तभी वह हमारे जीवन में उतरता है।
गोपियां वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं, परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गईं और लाज छोड़कर 'हे गोविन्दÓ! हे दामोदर! हे माधव!Ó इस प्रकार ऊंची आवाज से पुकार-पुकार कर रोने लगीं।
अक्रूरजी को सूझ ही नहीं रहा कि इन गोपियों को कैसे समझाएं। कृष्ण ने गोपियों से कहा मैं तुम सबको प्रसन्न रखने के लिए बांसुरी बजाता था और खेल रचाता था लेकिन अब मुझे जाना ही होगा।
कृष्ण ने मूर्छित राधा को देखा। उनके पास जाकर कान में बोले- राधे! पृथ्वी पर असुर बहुत बढ़ गए हैं। उन पापी राक्षसों का नाष करके पृथ्वी का बोझ हल्का करना है। आज तक तेरे साथ प्रेम से नाचता खेलता रहा। अब जगत् को नचाने जा रहा हूं। मैं तुम सबके साथ भी नाच सकता हूं औरों के साथ भी। सखियों मैं तो जा रहा हूं, किन्तु मेरे प्राण तो यहां तुम्हारे पास ही रहेंगे। मैं अपने प्राण तुम्हारे हृदय में रखकर जा रहा हूं। मेरे प्राणों की रक्षा के लिए तुम अपने प्राणों की रक्षा करना। राधे, मैं आज तक तो तेरे समीप ही था, अब कुछ दूर जा रहा हूं किन्तु हम तो अभिन्न हैं। लीला के हेतु ही हमन अलग-अलग शरीर धारण किए हैं। मुझे अपने प्राणों से भी यह बांसुरी अधिक प्यारी है। तू जब यह बांसुरी बजाएगी तो मैं दौड़ा चला आऊंगा। बाहर के पानी से नहीं आज आंखों से बरसते हुए प्रेमाश्रु से ही मन धोया जा रहा है।
गोपियां रो रही हैं कृष्ण उन्हें धीरज बंधा रहे हैं। मेरे मंगलमय प्रस्थान के समय रोने से अपशकुन होंगे। श्रीकृष्ण रथ पर चढ़े। रथ चलने लगा। गोपियां भी पीछे-पीछे चलने लगीं। कन्हैया के मना करने पर आंसू रुक तो गए, किन्तु फिर बह निकले।
न जाने कन्हैया कब लौटेगा, न जाने कब दर्शन होंगे, फिर रथ के चलने पर बड़े जोरों से रोने लगीं। हे गोविन्द, हे माधव, इस गोकुल को मत उजाड़ो, नाथ इस! गोकुल को अनाथ न करो। हमको भूल न जाना। एक गोपी कह रही है कि तुम्हारे दर्शन के बिना नाथ पानी तक पीने का मेरा नियम कैसे पूरा होगा। यहां कुछ क्षणों के लिए आते रहना, नहीं तो मैं जल ग्रहण नहीं कर पाऊंगी।सारा गांव रो रहा था और अक्रूरजी भी द्रवित हो गए। ग्रामजनों का कृष्ण प्रेम और कृष्ण विरह का दुख देखकर अक्रूरजी की आंखों से भी आंसू बहने लगे।

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