गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

भागवत २००-जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?

एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:

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