शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सोने की रोटियां

बात 326 ईसा पूर्व की है, जब मेसिडोनिया का शासक सिकंदर विश्व विजेता बनने के लिए निकल पड़ा था। सेना सहित उसने भारत की की सीमा पर डेरा डाल लिया था। परंतु भारत पर कब्ज़ा करने से पहले उसे सिंध के महाराज पोरस से युद्ध करना ज़रूरी था। पोरस की वीरता के किस्से वह पहले ही सुन चुका था। पोरस की विशाल सेना और मदमाते हाथियों से भिड़ना, उसकी सेना के लिए कठिन था। इसलिए उसने महाराजा पोरस से दुश्मनी की जगह दोस्ती का हाथ बढ़ाना ही उचित समझा। वह महाराजा से संधि ही करना चाहता था।

सिंध को पार किए बगैर भारत में पैर रखना मुश्किल था। महाराजा पोरस सिंध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे। अब संधि का प्रस्ताव लेकर महाराज पोरस के पास कौन जाए? सिकंदर को इस बात की बड़ी उलझन थी। एक दिन वह स्वयं दूत का भेष धारण कर महाराजा पोरस के दरबार पहुंच गया। महाराजा पोरस में देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इसके साथ-साथ वह इंसान की परख भी बखूबी कर लेते थे। उनकी तेज़ नज़रें, दूत भेष में आए सिकंदर को पहचान गईं। किंतु वह चुप रहे। उन्होंने दूत को पूरा सम्मान दिया। दूत भेषधारी सिकंदर ने अपने सम्राट का आदेश सुनाते हुए कहा, ‘सम्राट सिकंदर विश्व विजय के लिए निकले हैं और राजा-महाराजाओं के सिर पर पैर रखकर चल सकने में समर्थ हैं, वह सम्राट सिकंदर आपसे मित्रता करना चाहते हैं।’
यह सुनकर पोरस मुस्कुराए और बोले, ‘राजदूत, हम पहले देश के पहरेदार हैं, बाद में किसी के मित्र। और फिर देश के दुश्मनों से मित्रता..!! दुश्मनों से तो रणभूमि में तलवारें लड़ाना ही पसंद करते हैं।’
दरबार में बतचीत का सिलसिला ज़ारी ही था, तभी रसोइए ने भोजन के लिए आकर कहा।
दूत को साथ लेकर महाराज पोरस भोजनालय पहुंच गए। भोजन कक्ष में मंत्री, सेनापति, स्वजन आदि सभी मौजूद थे। सबके सामने भोजन परोसा गया किंतु सिकंदर की थाली खाली थी। तभी महाराज पोरस ने आदेश दिया, ‘हमारे प्रिय अतिथि को इनका प्रिय भोजन परोसा जाए।’
आज्ञानुसार दूत भेषधारी सिकंदर की थाली में सोने की रोटियां और चांदी की कटोरियों में हीरे-मोती का चूर्ण परोसा गया। सभी ने भोजन शुरू किया, किंतु सिकंदर की आश्चर्य भरी निगाहें महाराज पर थीं। दूत को परेशान देख महारोज पोरस बोले, ‘खाइए न राजदूत, इससे महंगा भोजन प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं।’
महाराज पोरस के इस वचन को सुनकर विश्व विजय का सपना देखने वाला सिकंदर गुस्से से लाल हो गया और बोला, ‘ये या मज़ाक है पौरवराज।’
‘यह कोई मज़ाक नहीं, आपका प्रिय भोजन है। ये सोने की रोटियां ले जाकर अपने सम्राट सिकंदर को देना और कहना कि सिंधु नरेश ने आपका प्रिय भोजन भिजवाया है’ महाराज बोले।
यह सुनकर सिकंदर तिलमिला उठा, ‘आज तक किसी ने सोने, चांदी, हीरे-मोती का भोजन किया है जो मैं करूं?’
‘मेरे प्यारे मित्र सिकंदर, जब तुम ये जानते हो कि मनुष्य का पेट अन्न से भरता है, सोने-चांदी, हीरे-मोती से नहीं भरता, फिर तुम यों लाखों घर उजाड़ते हो?’ महाराज पोरस बड़े शांतचित होकर बोल रहे थे। ‘मित्र उन्हें तो पसीने की खाद और शांति की हवा चाहिए। जिसे तुम उजाड़ते, नष्ट करते घूम रहे हो, तुम्हें सोने-चांदी की भूख ज़्यादा थी, इसलिए मैंने यह भोजन बनवाया था।’
अपने पहचाने जाने पर सिकंदर घबरा गया। परंतु महाराज पोरस ने बिना किसी विरोध व क्षति के सिकंदर को सम्मान सहित उसकी सेना तक भिजवा दिया।
(www.bhaskar.com)

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