मंगलवार, 22 मार्च 2011

भागवत २१३ २१४ तब उद्धव हस्तिनापुर के लिए निकल पड़े क्योंकि...

कृष्ण का संदेश देकर उद्धवजी गोकुल से लौटते हैं। उसके बाद भगवान उनसे पांडवों की सुध लेने के लिए हस्तिनापुर जाने का निवेदन करते हैं अब आगे....अक्रूरजी का हस्तीनापुर जाना-भगवान् ने अक्रूरजी के घर जाकर उनसे निवेदन किया कि वे एक बार हस्तीनापुर जाकर पांडवों की सुध लें। अब भगवान का उस कथा में प्रवेश हो रहा है जो हमें उनके विराट रूप, अद्भूत ज्ञान और धर्म स्वरूप के दर्शन कराएगी। भगवान हस्तिनापुर जाने वाले हैं जहां धर्म का दमन हो रहा है, उनके अभिन्न सखा अर्जुन से मिलने वाले हैं, दुनिया को गीता का उपदेश मिलने वाला है।हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुख में पड़ गए थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आए हैं और वे वहीं रहते हैं।
आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने के कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्रों जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए आप वहां जाइये और मालूम कीजिए कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले।भगवान् का आदेश पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां उन्होंने पाण्डवों की दशा देखी। यहां से श्रीकृष्ण के जीवन में महाभारत युग का आरंभ हो रहा है।
भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमर कीर्ति की छाप लग रही है। वे वहां पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाम्हीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट मित्रों से मिले। जब गान्दिनीनन्दन अकू्ररजी सब इष्ट मित्रों और संबंधियों से भलीभांति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन, संबंधियों की कुशल क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल मंगल के संबंध में पूछताछ की। अक्रूरजी यह जानने के लिए कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे।

उद्धव मथुरा पहुंचकर गोपियों की प्रशंसा करने लगे क्योंकि....
हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं के आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्रिय परीक्षित नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया।
अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरा में लौटे आए। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।मथुरा लौटै-उद्धवजी कृष्ण के पास आए। अन्तरयामी श्रीकृष्ण जानते हैं कि उद्धवजी क्या कहने जा रहे हैं। सो वे कहने लगे-उद्धव जब तुम इधर थे, तो मेरी प्रशंसा करते थे।
अब गोकुल हो आए हो, तो गोपियों की प्रशंसा करने लगे हो। मैं निष्ठुर नहीं हूं। उद्धव का गोकुलागमन प्रसंग ज्ञान और भक्ति के मधुर कलह का चित्रण है।यूं कहा जा सकता है कि गोकुल से लौटकर उद्धवजी की कुण्डलिनी जाग्रत हो गई थी। गोपी भाव योगी भाव एक जैसे हैं एक स्थिति में जाकर।आत्म स्वरूपा शक्ति कुण्डलिनी ब्रम्हा ही है। पंच महाभूतों के माध्यम से यह जब व्यक्त होती है तो जड़ कहलाती है और इन्द्रिय मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के माध्यम से व्यक्त होती है, तब चेतन कहलाती है। इसका शक्तिपात में रूपांतरण होता है। चेतनता का गुरु शक्तिपात द्वारा जाग्रत करते हैं।

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