शनिवार, 26 मार्च 2011

सफलता के लिए सख्ती भी जरूरी है...

अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करना पड़ते हैं और दूसरों से भी कराना पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिन्दू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं जिसमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्राह्मण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का वेष धरा और वार्तालाप किया। ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है।
भगवान ने सोचा जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। कुछ कार्य स्वयं ही करना चाहिए। अपने सहायकों और साथियों पर आधारित रहने की एक सीमा रेखा तय करना होगी। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।
भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। शत्-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं पाली कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। जो नेतृत्व सफलता तक पहुंचता है वह अपने सहायकों, साथियों में सदैव लोकप्रिय रहे यह आवश्यक नहीं है। सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेना ही पड़ते हैं

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