मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

वहां भगवान खुद चले आते हैं जहां...

पराये धन और परायी स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे। साधुओं से सेवा करवाते थे। जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना चाहिए। यह सब देखकर पृथ्वी व्याकुल हो गई। वह सोचने लगी कि पर्वतों नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं पड़ता जितना भारी मुझे ये पापी लगते हैं। पृथ्वी देख रही है कि सबकुछ धर्म के विपरित हो रहा है पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं रही है। उसका दिल सोच- विचारकर, गौ का रूप धारण कर धरती वहां गयी, जहां सब देवता और मुनि थे।
पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुख सुनाया, पर किसी से कुछ काम ना बना। तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्मजी के लोक को गए। भय और शोक से व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौका शरीर धारण किए हुए थे। ब्रह्मजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलेगा। इसलिए ब्रह्मजी ने कहा धरती मन में धीरज रखो। हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं।
ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे। सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहां ढूंढे। कोई वैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीर समुद्र में निवास करते हैं। जिसके दिल में जैसी भक्ति और प्रीति होती है। प्रभु वहां सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। पार्वती उस समय में भी वहां उपस्थित था। मैं तो यह जानता हूं कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं। प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। प्रभु तो हर जगह है।
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