सोमवार, 18 अप्रैल 2011

भागवत २३१: मन जल्दी से हार मानने वाला नहीं है,क्योंकि...

इस प्रसंग के माध्यम से हम मन की स्थिति पर एक बार फिर चिंतन कर लें। मन की तीन अवस्थाएं हैं- अभियंत्रित अर्थात असंयमित, नियंत्रित अर्थात् संयमित तथा स्वाभाविक। अनियंत्रित अवस्था से नियंत्रित अवस्था की ओर आने के लिए अपने आपको संभालना पड़ता है, संयम का प्रयास करना पड़ता है, भागते मन के पीछे भागकर उसे पकडऩा पड़ता है, बार-बार उसके प्रवाह को मोडऩे का प्रयास करना पड़ता है।
यह समय साधक के लिए काफी संघर्शमय होता है। किसी अन्य से नहीं, अपनेआप से संघर्ष मन की वासनाओं, कुविचारों तथा कुप्रवाहों से संघर्ष, मन की चंचलताओं एवं उपद्रवों से संघर्ष। इस अवस्था में अंतर की वासनाएं उदय होकर बाहर भयंकर तूफान के रूप में प्रकट होती है तथा मनुष्य को तिनके की भांति, संसार के प्रलोभनों, आकर्षणों तथा उत्तेजनाओं के अनंत आकाश के लिए उड़ती है। संयम के सहारे साधक, अपने पांव जमाए रखने का प्रयत्न करता है। यदि कभी, तूफान के आवेग में उसके पांव उखडऩे लगते हैं तो जमाने का प्रयास करता है, ईश्वर को पुकारता है।मन जल्दी हार मानने वाला नहीं है।
जन्म-जन्मांतर के अर्जित तथा स्थापित साम्राज्य को इतनी आसानी से हाथ से जाने भी कैसे दिया जा सकता है? वह साम, दाम, दण्ड का सहारा लेकर किसी भी प्रकार साधक को रणक्षेत्र से खदेडऩे का प्रयत्न करता है। वास्तव में यह युद्ध अंतर में लड़ा जाता है। बाहर उसके केवल प्रतिछाया होती है। अंतर में अस्त्रों-शास्त्रों का प्रयोग होता है एवं अंतर में ही घात-प्रतिघात। अंतर में ही चेतना का विकास होता है तथा अंतर में ही लहुलुहान होता है। यदि साधक को व्यवहार-शुद्धि का युद्ध जीतना है तो उसे आंतरिक शक्ति का विकास करना होगा, मन का बिखराव रोकना होगा, उसे नियंत्रित एवं अनुशासित करना होगा।

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