मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

द्रोपदी के खाने के बाद ही खाली होता था चमत्कारी पात्र क्योंकि...

शौनक जी ने युधिष्ठिर से कहा आप जैसे अच्छे लोग दूसरों को खिलाये बिना स्वयं खाने-पीने में संकोच करते हैं। जो लोग पापी होते हैं वे अपना पेट भरने के लिए दूसरों के हक का खा लेते हैं। जिस समय संस्कार मन के रुप में जागृत हो जाते हैं। संकल्प कामना उत्पन्न हो जाती है। अज्ञान के कारण कामनाएं, या इच्छाएं पूरी होने पर और ज्यादा बढऩे लगती है। कर्म करो और कर्म करके छोड़ दो ये दोनों ही बातें वेदों में लिखी गई है। शौनकजी का यह उपदेश सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने पुरोहित धौम्य के पास आ गए और अपने भाइयों के सामने ही उनसे कहने लगे- वेदों के बड़े-बड़े पारदर्शी ब्राह्मण मेरे सामथ्र्य नहीं है, इससे में बहुत दुखी हूं। न तो मैं उनका पालन पोषण नहीं कर सकता हूं।
ऐसी परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, आप कृपा करके यह बतलाइए। धर्मराज युधिष्ठिर का प्रश्र सुनकर पुरोहित धौम्य ने योगदृष्टी से कुछ समय तक इस विषय पर विचार किया। धर्मराज को संबोधन करके कहा धर्मराज सृष्टी प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब भगवान सूर्य ने दया करके कहा धर्मराज सृष्टी के प्रारंभ में जब सभी प्राणी भुख से व्याकुल हो रहे थे। तब सूर्य ने पृथ्वी का रस खींचा। इस प्रकार जब उन्होंने क्षेत्र तैयार कर दिया तब चंद्रमा ने उसमें ओषधीयों का बीज डाला और उसी से अन्न व फल की उत्पति हुई। उसी अन्न से प्राणीयों ने अपनी भुख मिटायी। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य की कृपा से अन्न उत्पन्न होता है।
सूर्य ही सब प्राणीयों की रक्षा करते हैं इसलिए तुम भगवान सूर्य की शरण में जाओ। पुरोहित धौम्य की बात सुनकर सूर्य की आराधना का तरीका बतलाते हुए कहा- मैं तुम्हे सूर्य के एक सौ आठ नाम बताता हूं तुम इन नामों का जप करना। भगवान सूर्य तुम पर कृपा करेंगे। धौम्य की बात सुनकर युधिष्ठिर ने सूर्य की आराधना प्रारंभ की। इस प्रकार युधिष्ठिर ने पूरी श्रृद्धा के साथ सूर्य की आराधना की और उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया वह पात्र अक्षय था यानी कभी खाली नहीं होता था। उन्होंने वह पात्र द्रोपदी को दे दिया। उसी से युधिष्ठिर ब्राहणों को भोजन करवाते थे। ब्राह्मणों के बाद सभी भाइयों को भोजन करवाने के बाद युधिष्ठिर भोजन करते और सबसे आखिरी में द्रोपदी भोजन करती थी।

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