शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

भागवत २२९: जीवन की हर उलझन का है, ये जवाब...


द्वारिका में जब भगवान का विवाह हुआ तो भगवान के दाम्पत्य का आरंभ हुआ तो भगवान ने कुछ नियम बना लिए और यहीं से हम दसवें स्कंध के उतरार्ध को आरंभ कर रहे हैं। भागवत का यह सबसे बड़ा स्कंध है, दसवां स्कंध। इसके दो भाग थे तो आज हम इसके उतरार्ध में प्रवेश कर रहे हैं।अब श्रीकृष्ण की जो लीलाएं आएंगी उनमें हमें कई दार्शनिक विचार मिलेंगे। कामदेव उनके पुत्र बनकर आएंगे।

काम और मन का बड़ा संबंध है।आध्यात्मिक पुरुष कट्टरवाद से बहुत दूर हैं। मन का कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई जाति अथवा देश नहीं। मन इन सभी सीमाओं से अतीत है। मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र भी है तथा शत्रु भी। मन ही जीवन है। मन ही व्यक्तित्व है। मन ही वर्तमान भविष्य है। मन ही कर्म का आधार है। जीवन का भी केन्द्र बिन्दु है।
मन ही शान्ति तथा युद्ध का कारण है, शुभ तथा अशुभ कर्म मन की ही गतिविधियां हैं। शास्त्रों ने कहा, मन ही बंध एवं मोक्ष का कारण है।जो मन हमें भासित होता है, अनुभव होता है, वह शुद्ध मन नहीं हैं उसका प्रतिबिम्ब मात्र है। उस मूल मन पर आवरण हैं-प्रकृति के, हमारे कर्मों के। जो कुछ समय में आता है, असल में उससे बहुत भिन्न है।
इस भिन्नता के कारण ही हम जीवन की उलझनों से बाहर नहीं निकल पाते, सुख का अनुभव नहीं कर पाते। जीवन भर थपेड़े खा कर भी शान्ति का अनुभव नहीं कर पाते। इस यथार्थ मन तथा प्रतिबिम्बत मन को ही बहिर्मन तथा अन्तर्मन कहा गया है। इसी को जगदाभिमुखी मन तथा आत्माभिमुखी मन भी कहा जाता है। अन्तर्मन में ही संस्कारों का भण्डार, वृत्तियों का उदयाहत, वासनाओं का समूह एवं इच्छाओं, कामनाओं की निरंतर गतिशीलता विद्यमान है। मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व उसके अंतर्मन में निहित है। बहिर्मन यदि जगत के समीप है तो अन्तर्मन आत्मा से सटा हुआ है।

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