गुरुवार, 26 मई 2011

भागवत 262

जीवन में मिठास के लिए जरूरी है....
पं.विजयशंकर मेहता
कर्मयोगी के कई उदाहरण हैं। वैसे तो महात्मा अनेक हैं किन्तु एतिहासिक संतों में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, तिरुवल्लस्वामी को हम उदाहरण के रूप में ले सकते हैं जिन्होंने कर्म किए किन्तु बंधन में नहीं पड़े। दूसरी ओर उन संन्यासियों का समूह है जिन्होंने ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से संसार का त्याग किया, किन्तु उन्हें भी शरीर धर्म निभाने और लोक-कल्याणार्थ कर्म करना पड़ता है और प्रारब्धवशात या तप की न्यूनता के कारण उन्हें मन से कर्मरत होना पड़ता है। इसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - ऐसा मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। उसका संन्यास बड़े बन्धन का कारण बन जाता है, किन्तु उसके प्रयास भी निष्फल नहीं जाते हैं, वह योग भ्रष्टोभिजायते वाली स्थिति में पहुंच नव जन्म में आगे बढ़ता है, उसकी यात्रा चलती रहती है।
अब भगवान् अपनी पूरी मधुरता के साथ पराक्रम दिखाएंगे और इसी का नाम जीवन का संतुलन है कि कुछ भी करें कितना ही बल, पौरूष दिखाना हो, आक्रमण दिखाना हो लेकिन जीवन का माधुर्य नहीं खोना चाहिए। आपके व्यक्तित्व की मधुरता नहीं जाना चाहिए। आपकी पहचान होना चाहिए और मधुरता को प्रकट करने का सबसे आसान तरीका कौन सा है जरा मुस्कुराइए। मधुरता अगर बनाए रखना है तो मुस्कान बहुत सरल माध्यम है। आप मुस्कुराइए आप भीतर से मधुर हो जाएंगे। आप मुस्कुराइए, आप भीतर से मीठे हो जाएंगे। आपको कोई मिश्री नहीं लेना, बस मुस्कान आपके जीवन की मधुरता बनाए रखेगी। भगवान् अपनी मुस्कान, अपनी मधुरता के साथ प्रस्थान कर रहे हैं।
एक दिन की बात है द्वारिकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। उसने श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का जिन्होंने जरासन्ध को दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिए गए थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बन्दी बनने का दुख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया।
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

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