सोमवार, 23 मई 2011

दो शख्सियत एक फर्क

राजन मेहरा
ये दो तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं। दोनों हाल के विधानसभा चुनावों में विजेता बनकर उभरी दो महिला राजनेताओं की तस्वीरें हैं। एक ने धुर पूरबी राज्य बंगाल में वाम मोर्चे को चौंतीस साल लंबी हुकूमत से बेदखल किया है। दूसरी ने दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के अभियोगों में आकंठ डूबे प्रतिद्वंद्वी को धराशायी किया है। एक पहली बार राज्य की सत्ता में आई हैं, तो दूसरी तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं। लेकिन ये तस्वीरें दोनों नेत्रियों के व्यक्तित्व में एक बुनियादी फर्क का आईना हैं। यह सिर्फ राजनीतिक शैली का ही फर्क नहीं है।

यह ऐसा फर्क है जो समूची राजनीति को परिभाषित और तय करता है। दोनों उस वक्त की तस्वीरें हैं जब चुनाव नतीजों के रुझान पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जे जयललिता की धमाकेदार जीत की घोषणा कर रहे थेऔर सारा देश दोनों नेत्रियों के सामने आने की बेताब प्रतीक्षा कर रहा था। लोग यह देखने और जानने को उत्सुक थे कि जीत की खुशी उनके चेहरों पर कैसी दिखाई देती है। आखिर यह वह जीत थी जिसकी कामना और कोशिश ममता बनर्जी पिछले तीस सालों से और जयललिता पिछले पांच सालों से कर रही थीं।
चुनाव नतीजों के रुझान दिखाते टीवी न्यूज चैनल अचानक ठहर जाते हैं। एंकर बातचीत बीच में रोककर घोषणा करते हैं कि हम आपको कोलकाता लिए चलते हैं जहां जीत के बाद पहली बार जीत की नायिका ममता बनर्जी कैमरों के सामने आ रही हैं। स्क्रीन पर लोगों की भीड़ और कोहराम दिखाई देता है जिसके बीच से जगह बनाकर कैमरों के सामने आने में ममता बनर्जी को कम से कम दो-तीन मिनट लगते हैं। वह सामने आती हैं, थकान से चूर चेहरे पर मंद मुस्कान है, जीत का संतोष भी।
उसी मुस्कराहट के साथ वह उंगलियों से ‘वी’ का निशान बनाती हैं और कैमरों की तड़ातड़ फ्लैश लाइट में मुस्कान थोड़ी और चौड़ी हो जाती है। पीछे चारों और वह जिस भीड़ से घिरी हैं, उसकी कोई चिढ़ या उलझन उनके चेहरे पर नहीं है। उलटे उनकी मुस्कान में एक रंग इस भीड़ से घिरे होने का भी है। अब जरा इस तस्वीर की बगल में ठीक इसी वक्त चेन्नई में जयललिता के लोगों के सामने आने की तस्वीर रखिए। वह फर्क बिना कुछ कहे साफ हो जाएगा जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है।
उसी दोपहर जयललिता अपने उस आलीशान घर के छज्जे पर ‘प्रकट’ होती हैं जिसके बाहर जीत के उन्माद से नाचते-गाते समर्थकों की भीड़ एकत्र है। वह भीड़ में, भीड़ के बीच, भीड़ के साथ नहीं आतीं। एक मंजिल की ऊंचाई से दर्शन देती हैं। उनकी उंगलियां भी ‘वी’ के निशान में उठी हुई हैं। वह राजसी कदमों से चलते हुए छज्जे की पूरी लंबाई नापती हैं। चेहरे पर नियंत्रित मुस्कान है जिसकी रंगत इस संक्षिप्त दर्शन के दौरान जरा नहीं बदलती। सारे समय जस की तस बनी रहती है। चेहरे पर संतोष से ज्यादा शांत दर्प है।
आखिर दोनों लोकतांत्रिक नेता हैं। लोकतंत्र में दोनों अपनी प्राणवायु जनता से हासिल करती हैं। लेकिन एक इस प्राणवायु के लिए ठीक जनता के बीच में रहती हैं, तो दूसरी जनता से कई बालिश्त दूर रहते हुए ही यह प्राणवायु प्राप्त करती हैं। एक भीड़ से न घिरी हों तो शायद मुरझा जाएं, दूसरी भीड़ में घिरकर शायद खिली न रह सकें। यह फर्क किसी भी नेता या नेत्री की निजी पृष्ठभूमि और राजनीतिक बनावट से आता है। वह शायद इस बात से भी आता है कि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास किस तरह हुआ है।
ममता बनर्जी आखिर एक साधारण बंगाली परिवार से आई हैं। आज भी वह साधारण सूती साड़ी पहनती हैं। उनके पैरों में भी साधारण चप्पलें होती हैं। कोलकाता हो या दिल्ली साधारण ढंग से साधारण घर में रहती हैं। अपनी निजी छोटी कार से चलती हैं। इससे ज्यादा बड़ी बात यह कि अपने इस साधारण रहन-सहन का ढिंढोरा पीटती हैं और न उसके बारे में बात करना पसंद करती हैं। इसके विपरीत बचपन के दौर में जे जयललिता की कभी साधारण पृष्ठभूमि रही भी होगी तो तमिल फिल्मों की अभिनेत्री होने के दौरान ग्लैमर और चकाचौंध और वैभव ने उस साधारणता को उनके जीवन से विस्थापित कर दिया।
पिछले सत्ताकालों में उनके वार्डरोब में अगणित महंगी साड़ियों और फैशनेबल सैंडिलों और आलीशान घड़ियों की उपस्थिति के किस्से खूब प्रकाश में आए थे। यह तय कर पाना कठिन है कि उस वक्त निजी रूप से उनके और उनकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे थे, वे ज्यादा संगीन थे या पिछले पांच सालों में उनकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी द्रमुक पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, जिसे हराकर इस बार वह सत्ता में आई हैं। तमिलनाडु ही नहीं, कई राज्यों में हमारे लोकतंत्र की अब यह नियति ही हो गई है कि वह बारी-बारी से उन पार्टियों को सत्तारूढ़ होते देखे जिनका भ्रष्टाचार पुराना और नए के मुकाबले छोटा हो चुका है।
जयललिता का छज्जे से अभिवादन जिस जनविमुख राजनीति की गवाही देता है, वह न तो नई है और न आश्चर्यजनक। चुनाव प्रचार के दौरान भी वह अक्सर अपनी कार का शीशा खोलकर ही मीडिया से बात करती दिखाई देती थीं। इसके बावजूद लोगों ने उन्हें चुना है तो यह तय कर पाना मुश्किल है कि इसे जनता से उनकी इस दूरी का स्वीकार माना जाए या हमारे लोकतंत्र में विकल्पों के सीमित होने की विवश अभिव्यक्ति। क्या चेन्नई में जयललिता के घर के बाहर एकत्र जनता ने यह सोचा होगा कि वह अपने कंधों पर जिस नेता की विजय पालकी उठा रही है, जीत के इस मौके पर उन्होंने लोगों के बीच आने के बजाय छज्जे से दर्शन देना बेहतर समझा?
क्या उन्होंने सुदूर कोलकाता में इसके बिल्कुल उलट ममता बनर्जी के भीड़ से घिरे होने पर गौर किया होगा? पश्चिम बंगाल में अगर ममता बनर्जी जैसा सादगीपूर्ण व्यक्तित्व न होता, तो शायद उस वाम मोर्चे को अपदस्थ कर पाना आसान नहीं होता, जिसके अधिकांश नेता आज भी अपनी निजी ईमानदारी और सादगी के लिए जाने जाते हैं। तो क्या ममता बनर्जी की सादगी और साधारण रहन-सहन उनके निजी चुनाव से ज्यादा उनकी राजनीतिक रणनीति की हिस्सा है? कहना मुश्किल है।
हालांकि केंद्र सरकार में कबीना मंत्री के पदों को सुशोभित करते हुए ममता बनर्जी को अब करीब एक दशक हुआ और इस दौरान सत्ता उनकी साधारण जीवनशैली को नहीं बदल पाई, जैसा कि उसने हमारे दूसरे सभी नेताओं की जीवनशैली को बदल दिया है। लालू यादव भी भारतीय राजनीति में साधारण, सादगीपूर्ण और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए थे और यही प्रारंभ में उनकी राजनीति का आधार था। लेकिन समय और चुनावी विजय के साथ उनके व्यक्तित्व और राजनीति में आए बदलाव सभी जानते हैं। फिलहाल ममता बनर्जी की साधारण से जुड़ी राजनीति जयललिता ही नहीं समूची भारतीय राजनीति और राजनेताओं की पड़ताल का रोचक संदर्भ तो हो ही सकती है, जिस पर मतदाता और नागरिक होने के नाते हम सबको जरूर गौर करना चाहिए।
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