शनिवार, 28 मई 2011

भागवत २६५

पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?
पं.विजयशंकर मेहता
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।
प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।
उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।
हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए।
पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।

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