सोमवार, 13 जून 2011

अधूरा शहर

अंखुआए बीज़
मिट्टी के लिहाफ से
सिर निकालकर झांकते हुए
अंकुर!

दूब पर लेटी हुई ओस
ओस भीगे चांदनी के फूल
भीगे कपड़ों में लिपटी हुई
पगडंडी!
मदमाते हाथियों से झूमते दरख़्त
चिड़ियों के घोंसले
बुलबुल के सुर!
झींगुर और दादुर का ऑर्केस्ट्रा
Êारा-सी ओट पाकर
झमाझम बरसात में
छिपते छिपाते जुगाली करते
गाय बकरियां
चरवाहे, पीपल की छांव
दर्पण जैसे ताल-तलैया
बरसों से देखे नहीं
शहर में रहते हुए,
बहुमंÊिाली इमारतों के दड़बे में
खुद से खुद ही कुछ कहते
कुछ सुनते हुए!
एक टुकड़ा बादल,
एक खिड़की बारिश
एक मुट्ठी सिहरन
अंजुरी भर मौसम
खुल कर कहां जी सके हम!
यहां तो निरंतर द्वंद्व है
अधूरे शहर को
जाने किस बात का घमंड है?

इन्दिरा किसलय www.bhaskar.com

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