रविवार, 12 जून 2011

अपना घर

इंद्रजीत कौशिक
ऊआ-ऊआ’ ब्राउनी सियार तेज़ ठंड से कांप उठा। बालवन में छोटे-बड़े सभी जानवरों का अपना घर था, लेकिन ब्राउनी के रहने की कोई जगह नहीं थी। इसकी वजह थी उसका आलसी स्वभाव। दिन में वह यहां-वहां डोलता घूमता रहता, रात होती तो उसे घर की याद आने लगती, लेकिन घर होता कहां से?

‘कल दिन में अपने लिए ज़रूर एक घर बनाऊंगा ताकि रात होने पर उसमें चैन से सो सकूं।’ ब्राउनी सोच रहा था। लेकिन अभी इतनी ठंड में जाए, तो कहां जाए। तभी घड़ियाल ने रात के 12 बजाए। सुबह होने में अभी देर थी। ब्राउनी का पूरा शरीर कांप रहा था, तभी एक जगह उसे कंबल ओढ़े कोई सोया हुआ दिखाई दिया।
ब्राउनी वहां पहुंचा। एक तरफ से चुपचाप कम्बल उठाया और भीतर घुस गया। कम्बल के भीतर आकर उसकी सर्दी कुछ कम हुई। ‘कौन है? यहां क्या कर रहे हो?’ शेरू कुत्ता ज़ोर से गुर्राया। ब्राउनी के घुस आने से उसकी नींद उचट गई थी।
‘म..म. मैं हूं ब्राउनी, बाहर बड़ी ठंड है रातभर लिए मुझे कम्बल में सो लेने दो। सुबह होते ही चला जाऊंगा।’ ब्राउनी ने डरते हुए कहा। ‘तुम्हारे आने से मुझे ठंड लगने लगी है। चलो निकलो यहां से’, शेरू ने आंखें तरेरीं तो ब्राउनी वहां से उठ खड़ा हुआ।
‘रुको, आज रात के लिए मेरे कम्बल में सो सकते हो, लेकिन कल दिन में अपना घर ज़रूर बना लेना।’, शेरू ने कहा तो ब्राउनी की मनचाही मुराद मिल गई। वह कम्बल में घुसकर लेट गया पर नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी। उसे शेरू से मन ही मन बहुत डर लग रहा था। न जाने कब उसे क्रोध आ जाए और गुस्से में आकर हमला कर बैठे।
बड़ी मुश्किल से ब्राउनी ने सुबह होने का इंतज़ार किया। जैसे ही मुर्गे ने बांग दी, वैसे ही वो कम्बल से निकलकर भाग गया। थोड़ी देर में धूप निकल आई। गुनगुनी धूप में बैठकर ब्राउनी की सर्दी दूर हो गई और वह बीती रात की बात भूल गया। आराम से वहीं धूप में पड़ा रहा।
फिर वही रात आ गई। ठंड के मारे ब्राउनी के दांत बजने लगे। शेरू कम्बल ताने मज़े से सो रहा था। ब्राउनी जानता था कि अगर वह वहां गया तो शेरू उसे मार डालेगा। ‘अब मैं क्या करूं, कहां जाऊं? काश, दिन में मैंने अपना घर बना लिया होता।’ ब्राउनी सोचने लगा। वह धीरे-धीरे ठंड से बचने की जगह ढूंढता हुआ चला जा रहा था। खरगोश ने थोड़ी देर पहले लकड़ियां जलाकर सर्दी दूर की थी।
ब्राउनी उसी जगह जाकर बैठ गया। वहां बैठकर उसे थोड़ा आराम मिला। तभी न जाने कैसे उसकी पूंछ जलने लगी। ब्राउनी चीख उठा। सामने थोड़ी दूरी पर तालाब था। पूंछ में लगी आग बुझाने वह पानी में कूद पड़ा। आग तो बुझ गई लेकिन ठंडे पानी में उसकी कुल्फी जम गई। बड़ी मुश्किल से रात कटी। अगले दिन धूप निकली। ब्राउनी का आलस फिर से जाग गया। घर बनाने की बात भूलकर वह पेड़ के नीचे लेट गया। चुनचुन चिड़िया उसी पेड़ पर अपने लिए घोंसला बनाने में व्यस्त थी। उसमें से तिनके, फूस नीचे लेटे ब्राउनी के शरीर पर गिर रहे थे।
‘कौन है? क्या हो रहा है, मेरे शरीर पर कचरा कौन गिरा रहा है?’, ब्राउनी ने पूछा। ‘चाचा, मैं हूं चुनचुन। मैं अपने बच्चों के रहने के लिए घर बना रही हूं। उसी में से कुछ तिनके नीचे गिर गए होंगे’ चिड़िया ने जवाब दिया।
‘तुम्हारे बच्चे? कहां हैं वो?’
‘थोड़े दिनों में मेरे अंडे देने का समय आएगा। फिर कुछ दिनों बाद उनमें से चूजे निकलेंगे। उन्हीं चूजों के रहने के लिए घर बना रही हूं।’ चुनचुन ने बताया तो ब्राउनी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
‘एक तरफ तो यह चिड़िया है, जो अपने उन बच्चों के लिए अभी से घर बना रही है, जो अभी जन्मे ही नहीं हैं, और एक मैं हूं जो अपने लिए घर बनाने से कतरा रहा हूं। धिक्कार है मुझ पर!’ ब्राउनी को खुद पर शर्म आने लगी।

रात होने में अभी देर थी। एक सुरक्षित स्थान चुनकर ब्राउनी ने दोनों हाथों और पांवों से मिट्टी खोदकर अपने रहने की मांद तैयार कर ली।
‘चाचा, उस तरफ एक पुराना कम्बल पड़ा है। अभी तिनके चुनने गई तो मुझे दिखा था। तुम उसे अपनी मांद में बिछा लो, जिससे रात में तुम्हें ठंड न लगे।’ चुनचुन ने बताया तो ब्राउनी कम्बल उठाकर से आया।
रोज़ की तरह एक बार फिर रात हुई, लेकिन आज की रात कुछ अलग थी। ब्राउनी को किसी बात की फिक्र नहीं थी। ठंड से बचने और चैन से पांव पसार कर सोने के वास्ते उसका अपना घर मौजूद था।
वह अपनी मांद में जा लेटा। कम्बल की वजह से उसे बिलकुल भी ठंड नहीं लग रही थी।
‘शुक्रिया चुनचुन तुम्हारी प्रेरणा से ही मुझे सुख की नींद सोना का मौका मिल सका। मैं वादा करता हूं कि आज के बाद कभी किसी काम में आलस नहीं करूंगा।’ लेटा हुआ ब्राउनी सोचने लगा। कब उसकी आंख लगी पता ही नहीं चला। सुबह हुई। ब्राउनी जगा तो वह पूरी तरह तरोताज़ा था। ऐसा पहली बार हुआ था। वह पूरे उत्साह के साथ अपने दिन की शुरुआत करने घर से निकल पड़ा।
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