मंगलवार, 28 जून 2011

भागवत ३००

यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है....
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।
भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।
हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर।।
कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।

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