मंगलवार, 5 जुलाई 2011

भागवत ३०६ तक

शांति तभी मिलती है जब....
सुदामा जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिए जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गए हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आंधी-पानी आ गया। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी। अब सूर्यास्त हो गया, चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा फैल गया।
धरती पर इस प्रकार पानी ही पानी हो गया कि कहां गड्ढा है, कहां किनारा, इसका पता ही न चलता था। वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आंधी के झटकों और वर्षा की बोछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम लोग अत्यंत आतुर हो गए और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे। जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर हम लोगों को ढूंढते हुए जंगल में पहुंचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यंत आतुर हो रहे हैं।
वे कहने लगे आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रों! तुम लोगों ने हमारे लिए अत्यंत कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है, परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवाह न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे। गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिए सत् शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें। द्विज-शिरोमणियों! मैं तुम लोगों से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएं पूर्ण हों और तुम लोगों ने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोक में कहीं भी निष्फल न हो।
प्रिय मित्र! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएं घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शान्ति का अधिकारी होता और पूर्णता को प्राप्त करता है।
श्रीकृष्ण स्वयं जगद्गुरु थे लेकिन उन्होंने जीवन में गुरु के महत्व को सर्वोच्च माना। अगर हमारे पास एक अच्छा गुरु हो तो फिर हमें खुद को उसी में समर्पित कर देना चाहिए। कृष्ण ने गुरु का स्मरण किया है, वे गुरु सान्दीपनि के प्रति समर्पित रहे हैं, महर्षि सान्दीपनि स्वयं भी जानते थे कि उनके आश्रम में पढऩे स्वयं जगत्पिता परमेश्वर आए हैं, जो सारे ज्ञान का केन्द्र बिन्दू हैं।
सारी विद्या, सारे वेद-शास्त्र जिनसे उत्पन्न हुए हैं वे श्रीकृष्ण ही हैं, फिर भी गुरु-शिष्य की मर्यादा कभी भंग नहीं हुई। श्रीकृष्ण ने कभी सांदीपनि ऋषि को गुरु-पिता तुल्य से कम नहीं माना और सारी उम्र वे गुरु के प्रेम से परिपूर्ण रहे। सुदामा बोले! देवताओं के आराध्य श्रीकृष्ण! भला अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।


...तब बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा
इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिए उसी के आग्रह से यहां आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूंगा जो देवताओं के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है।भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से एक पोटली में बंधा हुआ चिउड़ा ''यह क्या है'' ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे-मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यंत प्रिय भेंट ले आए हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं ऐसा कहकर वे उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मीजी ने भगवान् श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया, क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान् के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं।
रुक्मिणीजी ने कहा-विश्वात्मन बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है, क्योंकि आपके लिए इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है।
भगवान् ने अपने हाथों से चिवड़ा खाया, उधर सुदामा का घर महल हो गया। भगवान् ने उसे सारा राजपाठ दे दिया। एक तरह से त्रिलोक का स्वामी घोषित कर दिया। ब्राम्हण को राजा बना दिया, लेकिन सुदामा को तनिक भी पता नहीं लगने दिया। पूरी सेवा की, तरह-तरह के भोग खिलाए। आराम दिया। सुदामा मन ही मन सोच रहे थे कि कृष्ण से अपने बच्चों और परिवार के लिए थोड़ा सा धन कैसे मांगू। लज्जा आ रही है। संकोच हो रहा है लेकिन भक्ति में यह सबसे बड़ा फायदा है कि आपको भगवान् से कुछ मांगना नहीं पड़ता, वो तो बिना मांगे ही सबकुछ दे देता है।
आप अपना मन उसके चरणों से बांध दो, बस फिर आपके बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा। आपकी सारी इच्छा पूरी कर देगा। भगवान ने सुदामा की पोटली में रखा चिवड़ा खा लिया। धन्य हो गया ब्रह्मांड उस दिन। एक फांक लगाई ब्रह्मांड ने कहा यह भगवान् हैं, सुदामा का चिवड़ा खाया। रानियां कहने लगीं हम एक से एक भोग बनाते हैं कृृष्ण स्पर्श करके चले जाते हैं। आज तो मुट्ठी भर चिवड़ा खा गए।
श्रीकृष्ण ने सुदामा को विदा कर दिया। सुदामा सोच रहे हैं उन्होंने उस पलंग पर सुलाया जिस पर उनकी प्राणप्रिय रुक्मिणीजी शयन करती थीं। मानों मैं उनका सगा भाई हूं! कहां तक कहूं? मैं थका हुआ था, इस लिए स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजी ने अपने हाथों चंवर डुलाकर मेरी सेवा की।
ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर भी ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पांव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिला कर सुदामाजी की अत्यंत सेवा-शुरूषा की और देवता के समान पूजा की। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है। सुदामाजी वापस घर लौटते समय सोचते हैं परमदयालु श्रीकृष्ण ने मुझे थोड़ा सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिल्कुल मतवाला न हो जाए और मुझे न भूल बैठे।


मामला सिर्फ भरोसे का है इसलिए...
इस प्रकार मन ही मन विचार करते-करते वे अपने घर के पास पहुंचे। वहां क्या देखते हैं कि सब का सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर, चित्र-विचित्र, उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड के झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं।
सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक भांति-भांति के कमल खिले हुए हैं, स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर वे सोचने लगे-मैं यह क्या देख रहा हूं? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहां मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया।
सुदामा ने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान।इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गंभीरता से सुदामा विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहां से आ गई। वे मन ही मन कहने लगे मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र था। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है? अवश्य ही परमऐश्वर्यशाली यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता। यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है।
श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिए वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके मांगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते यह उनकी बड़ी कृपा है। अपनी बुद्धि से इस प्रकार निष्चय करके वे ब्राम्हण देवता त्याग पूर्वक अनासक्त भाव से अपनी पत्नी के साथ भगवतप्रसाद स्वरूप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेमभक्ति बढऩे लगी।
भगवान् ऐसी लीला करता है। वह किसी को देता है तो उसके देने का तरीका भी बड़ा मौलिक है और किसी से लेता है तो लेने का तरीका भी बड़ा मौलिक है। मामला सिर्फ भरोसे का है, भरोसा रखिएगा। सुदामा को देखकर भगवान् ने कहा संपत्ति तो मैं यहां भी दे सकता था पर प्रतीक्षा कर। कभी कभी सुदामा भाव अपने भीतर भी जाग्रत करिए परमात्मा के लिए और यह मानकर चलिए परमात्मा आपके पैर धोएगा।


इसलिए कृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए ....
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारिका में निवास कर रहे थे। मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिए सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए समन्तपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहां शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिरधारा से पांच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिए थे।
इस महान् तीर्थयात्रा के अवसर पर भारत वर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आई थी। यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुंचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया। अनेक देशों के, अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्ष के सैकड़ों नरपति आए हुए थे। इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैशी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान् के दर्शन के लिए चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां आई हुई थीं। यादवों ने इन सबको देखा। एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ।
बरसों बाद भक्त और भगवान का मिलन हुआ। गोप-गोपियां श्रीकृष्ण को देखकर भाव-विभोर हो गए। भक्त फिर भगवान में खो गए। कुन्ती और वसुदेव जो रिश्ते से भाई-बहन थे, मिले और कुन्ती अभी तक के दुखों को याद करके रो पड़ीं। वसुदेव से शिकायत करने लगी। दोनों भाई-बहनों का प्यार देखकर यदुवंशियों की आंखें भी भर आई। दोनों को एक-दूसरे के दुखों की खबर थी लेकिन नारी हृदय कुन्ती शिकायतें कर बैठीं।
कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गईं।कुन्ती ने वसुदेवजी से कहा-भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूं। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुख की बात क्या होगी? भैया! विधाता जिसके बांए हो जाता है, उसे स्वजन-सम्बंधी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं।
वसुदेवजी ने कहा-बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है। बहिन, कंस से सताए जाकर हम लोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भागे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए ईश्वर कृपा से हम सब पुन: स्थान प्राप्त कर सके हैं।इधर सभी यदुवंशियों के कुरूक्षेत्र में जमा होने की सूचना वृंदावन में नन्दबाबा को लगी।
वे अपने बाकी संगी-साथियों को लेकर कुरूक्षेत्र आ पहुंचे। फिर तो भावनाओं का ऐसा सागर उमड़ा कि सब उसमें ही डूब गए। बलराम और श्रीकृष्ण को देखने के लिए बरसों से तरस रहे माता-पिता व्याकुल हो गए। माता यशोदा तो अधीर ही हो उठीं। बरसों बाद माता का स्पर्श पाकर खुद श्रीकृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए, गला रूंध गया। कुछ शब्द भी न निकलने थे बस माता कृष्ण को और कृष्ण माता को निहार रहे थे।


जीवन का असली रहस्य यही है...
महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उनके हृदय में चिरकाल तक न मिलने का जो दुख था, वह सब मिट गया। रोहिणी और देवकीजी ने व्रजेष्वरी यशोदा को अपनी अंकवार में भर लिया। यशोदाजी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदाजी से कहने लगीं-यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्दजी ने हम लोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटने वाला नहीं है,
उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी! भला ऐसा कौन कृतघ्न है, जो आपके उस उपकार को भूल सके? जिस समय बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को देखा तक न था और इनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं तथा आप लोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया, इनके मंगल के लिए अनेकों प्रकार के उत्सव मनाए।
सच पूछिए तो इनके मां-बाप आप ही लोग हैं।
आप लोगों की देख-रेख में इन्हें किसी प्रकार की आंच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आप लोगों के अनुरूप ही था, क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेदभाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आप लोग परम संत हैं।वृंदावन के ग्वालों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। कृष्ण की सखियां, गोपियां अपने आराध्य को निहार रही थीं। प्रेमभाव से परिपूर्ण गोपियां कृष्ण की भक्ति में आकंठ डूबी नजर आ रही थीं। कृश्ण ने उन्हें उस दिव्य ज्ञान से परिचित कराया जिसके लिए बड़े-बड़े संत महात्मा भी तरसते हैं। कृष्ण ने जैसे उन्हें अपने भीतर ही उतार लिया।
भगवान् श्रीकृष्ण ने यहां गोपियों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा से शिक्षित किया। उसी उपदेश के बार-बार स्मरण से गोपियों का जीवकोश शरीर नष्ट हो गया और वे भगवान् से एक हो गईं।यह दृश्य अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होने की घटना है। संतों ने कहा है-जब ज्ञान होगा तब तुझे भी दिखेगा कि सारा विश्व तेरे में हैं, मैं भी तेरे में हूं और सारा विश्व मेरे में है। यह भी समझा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य में भगवान् हैं और भगवान् में सारा विश्व, इस प्रकार का ज्ञान अनुभवगम्य है।

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