शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

अगर स्वर्ग चाहते हैं तो यह जरूर करें...

सभी चाहते हैं स्वर्ग मिल जाए या स्वर्ग जैसी स्थितियों का समावेश जिंदगी में हो जाए। दार्शनिकों ने कहा है हमारा होना ही स्वर्ग है। जिस ढंग का जीवन हम जीते हैं उसी ढंग से स्वर्ग और नरक अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं। एक संत हुए हैं सुंदरदासजी।
ये प्रसिद्ध संत दादूजी के शिष्य थे और खंडेलवाल वैश्य समाज में राजस्थान के दोसा में पैदा हुए थे। इन्होंने बड़ी अद्भुत पंक्तियां लिखी हैं। एक जगह इन्होंने लिखा है -

सुंदर सतगुरु आपनैं किया अनुग्रह आइ।
मोह-निसा में सोवते हमको लिया जगाई।।


सुंदरदासजी ने गुरु के महत्व पर बहुत सुंदर लिखा है। जो स्वर्ग की खोज में हों उन्हें जीवन में गुरु और संत का महत्व समझना चाहिए। जितनी देर हम संतों के साथ बैठेंगे समझ लीजिए स्वर्ग के निकट हैं या स्वर्ग में ही बैठे हैं। संत तीन बातें करते हैं और इसीलिए उनके तीन रूप माने गए हैं - पहला तो वे सूरज हैं, जो सोए हुए हैं उनको जगाते हैं।
दूसरा, वे पवन की भांति हैं, सोए हुए को हिलाने के लिए हवा की भूमिका में रहते हैं और यदि आदमी तब भी न उठे तो संत, पंछी की तरह होते हैं शोर करेंगे कि अब तो उठ जाओ। सूर्य, पवन और पंछी तीनों का अपना कोई स्थाई ठिकाना नहीं होता। जो लोग विस्मरण में पड़े हैं ये लोग उनके भीतर स्मरण कराते हैं। संत के सान्निध्य में समझ में आ जाता है कि स्वर्ग का अर्थ है- परिष्कृत, गुण-ग्राही, विधायक दृष्टिकोण, हर शुभ का स्वीकार। फकीर की फकीरी हमें यही समझाती है। जहां आप सहमत होना सीखें वहीं स्वर्ग घटा है।
इसलिए सुंदरदासजी की घोषणा है जो उनके नाम के अनुरूप ही है कि जीवन सुंदर तब है जब सबकुछ स्वीकार्य है और उसी के साथ शांति भी जीवन में उतर जाए। इसलिए स्वर्ग चाहते हों तो संतों का सान्निध्य बनाए रखिए।

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