बरसात का मौसम आ पहुंचा। दरिया, नदी, नाले, समंदर सभी में पानी की लहर-बहर है। यूं भी इन दिनों गर्मी इतनी ज़्यादा है कि लोगों ने तंग आकर दरिया, समंदर या झीलों और तालाबों का रुख़ किया है। जिन शहरों से दरिया गुज़रते हैं या जहां नहरें बहती हैं, वहां लोगों को लहरों के साथ तैरते हुए देखा जा सकता है। इस शौक़ में कई लोग डूब जाते हैं। इसके बावजूद कोई भी समंदर या दरिया के पानी में उतरने से बाज़ नहीं आता।
इसी तरह बहुत-से लोग शौक़िया मछली पकड़ते हुए नज़र आते हैं। मछुआरों की तो बात ही क्या है। ये उनकी कमाई के दिन हैं। जितनी ज़्यादा मछलियां पकड़ेंगे, उतने ही रुपए हाथ आएंगे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें इन कामों में लुत्फ़ आता है, जिनमें जान जाने का ख़तरा बहुत ज़्यादा हो। ये लोग अपनी जान हथेली पर रखकर तरह-तरह के करतब दिखाते हैं और इन्हें इस बात का खौफ़ नहीं होता कि ज़रा-सी ग़लती उनकी जान ले लेगी।
अब से सैकड़ों बरस पहले दरिया को पार करने या मछली पकड़ने के लिए जान पर खेल जाना लोगों का शौक़ या मजबूरी थी। वे अक़्सर एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाने, कश्तियों पर तिजारत का माल लादकर ले जाने या मछलियां पकड़ने के नित नए तरीक़े इख़्ितयार करते हैं। सिंध में आज भी ऐसे कई तरीक़े इस्तेमाल होते हैं। मटका भी तैरने और मछलियां पकड़ने के लिए पुराने ज़माने से इस्तेमाल होता आया है। सोहनी-महिवाल की मशहूर दास्तान में ये ज़िक्र मिलता है कि सोहनी अपने महिवाल से मिलने के लिए मटके के सहारे दरिया पार करती थी। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी रोज़ भी वह मटके का सहारा लेकर दरिया पार करते हुए डूब गई थी। दरअसल मटका कच्च था, रास्ते में बताशे की तरह घुल गया। हमारे पंजाब में अब भी लोगों को मटके के ज़रिए दरिया पार करते देखा जा सकता है। सोहनी-महिवाल का क़िस्सा तीन-चार सौ बरस पुराना है। इससे अंदाज़ा होता है कि इससे पहले भी तैरने के लिए मटका इस्तेमाल होता होगा।
सिंधी बुज़ुर्गो का कहना है कि सिंध के मछुआरे ‘मंछर झील’ में पल्ला मछली पकड़ने के लिए एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाल लगाते थे। ये जाल मटके पर तैरते हुए लगाया जाता था और जब मछलियां इसमें फंस जाती थीं तो मटके पर तैरने वाले जाल में फंसी हुई मछलियां निकालकर मटके में डालते जाते थे। किसी ज़माने में ‘मंछर झील’ बहते हुए दरिया-ए-सिंध का हिस्सा थी और ‘मंछर झील’ के मछुआरे इस तरह मछलियां पकड़ने के लिए मशहूर थे। पल्ला मछली की ये ख़ासियत है कि वह पानी के बहाव के उलटी तरफ़ तैरती है। ये तरीक़ा इसे पकड़ने के लिए काफ़ी अच्छा समझा जाता था। आज भी मछुआरे ‘मंछर’ और ‘कींझर’ झील में मछलियां पकड़ते हैं।
कुछ अरसा पहले एक टीवी चैनल पर डाक्युमेंट्री दिखाई गई थी। इसमें दरिया-ए-सिंध जहां से निकलता है, यानी तिब्बत का इलाक़ा, वहां से नीचे की तरफ़ लोगों को दरिया में मटके इस्तेमाल करते दिखाया गया था। सिंध में मछलियां पकड़ने के लिए पीतल और तांबे के मटके इस्तेमाल करने की परंपरा पुरानी है। ख़ासतौर पर ‘मंछर झील’ में, क्योंकि वहां चार-पांच फीट गहरा पानी होता है।
हमारे सिंध में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बड़ी मशक में हवा भरकर उसके सहारे तैरते हुए दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाते और वहां से भैंसे चोरी करके लाते थे। वे मशक को अपने बदन के साथ बांध लेते और दोनों पैर भैंसे की गर्दन में फंसाकर तैरते थे। रात में कहीं ज़मीन पर रुक जाते और सुबह फिर भैंसे के साथ सफ़र शुरू कर देते। शूरो और चांग क़बीले के लोग इस हवाले से काफी मशहूर थे। इन्हें दरिया का शेर कहा जाता था। ये बहुत ज़्यादा ताक़तवर और दिलेर होते थे और मगरमच्छों से मुक़ाबला करने से भी नहीं डरते थे। ‘कींझर झील’ में मटकों के ज़रिए मछलियां पकड़ने वाले ज़्यादातर लोगों का ताल्लुक़ गंधर्व क़बीले से है, जो इस फ़न में माहिर समझे जाते हैं। इनका ताल्लुक़ मशहूर लोककथा ‘नूरी जाम तमाची’ के किरदार नूरी से जोड़ा जाता है।
सैकड़ों साल पुरानी दास्तानों का Êिाक्र निकले तो कुछ लोग इनकी हक़ीक़त पर शक करते हैं। लेकिन दास्तानें तो हमारे चारों तरफ़ ही बिखरी हुई हैं। कुछ दिनों पहले हमारे यहां एक किताब आई जिसमें उन लड़कियों का क़िस्सा है जो पाकिस्तान से ब्याह कर ब्रिटेन गईं और वहां शादी के जाल में फंसकर जल बिन मछली की तरह तड़पती हैं। ये वे लड़कियां हैं जो ग़रीब घरानों से थीं, जिन्हें अंग्रेÊाी नहीं आती थी और जिनके मां-बाप को सुहाने ख्वाब दिखाकर इंग्लिस्तान से आए लोग गांव और छोटे शहरों से ब्याह कर लंदन, मैनचेस्टर, ब्रेडफोर्ड या लेड्Êा ले गए। वहां जाकर इन लड़कियों को मालूम हुआ कि उनसे शादी करने वालों ने और उनके अपने घर वालों ने शादी के नाम पर सरासर धोखा किया है। ऐसी बहुत-सी लड़कियां बीवी बनाकर लाई जाती हैं और फिर वे औरतों के बाÊार में हर रात बिकती हैं। और इस तरह जो रक़म मिलती है उसके मालिक होते हैं इनके ‘शौहर’। अगर वे इस गंदे काम से इंकार करें तो उन्हें मारा-पीटा जाता है, भूखा रखा जाता है और हर तरह की तकलीफ़ दी जाती है। ये लड़कियां अंग्रेजी नहीं जानतीं इसलिए अपनी परेशानी किसी को बता नहीं सकतीं। अगर कोई अंग्रेÊा सोशल वर्कर इनकी मदद करना चाहे तो वे उनके सामने यह सोचकर ख़ामोश रहती हैं कि उन पर गुÊारने वाली मुसीबत की ख़बर उनके घर वालांे को हो गई तो उन्हें बहुत दुख होगा और उनके ख़ानदान की नाक कट जाएगी। इस मुश्किल से सिर्फ़ हÊारों पाकिस्तानी लड़कियां ही नहीं गुÊार रहीं, इनमें भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका से शादी के नाम पर झांसा देकर ब्रिटेन ले जाई जाने वाली लड़कियां भी शामिल हैं। इस किताब में जहां अलग-अलग ‘केस स्टडीÊा’ दी गई हैं, वहीं इंग्लिस्तान, अमेरिका या यूरोप के किसी भी मुल्क से आने वाले अनजाने रिश्तों के बारे में लड़कियों और उनके घर वालों को कुछ मशवरे भी दिए गए हैं।
इसी तरह बहुत-से लोग शौक़िया मछली पकड़ते हुए नज़र आते हैं। मछुआरों की तो बात ही क्या है। ये उनकी कमाई के दिन हैं। जितनी ज़्यादा मछलियां पकड़ेंगे, उतने ही रुपए हाथ आएंगे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें इन कामों में लुत्फ़ आता है, जिनमें जान जाने का ख़तरा बहुत ज़्यादा हो। ये लोग अपनी जान हथेली पर रखकर तरह-तरह के करतब दिखाते हैं और इन्हें इस बात का खौफ़ नहीं होता कि ज़रा-सी ग़लती उनकी जान ले लेगी।
अब से सैकड़ों बरस पहले दरिया को पार करने या मछली पकड़ने के लिए जान पर खेल जाना लोगों का शौक़ या मजबूरी थी। वे अक़्सर एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाने, कश्तियों पर तिजारत का माल लादकर ले जाने या मछलियां पकड़ने के नित नए तरीक़े इख़्ितयार करते हैं। सिंध में आज भी ऐसे कई तरीक़े इस्तेमाल होते हैं। मटका भी तैरने और मछलियां पकड़ने के लिए पुराने ज़माने से इस्तेमाल होता आया है। सोहनी-महिवाल की मशहूर दास्तान में ये ज़िक्र मिलता है कि सोहनी अपने महिवाल से मिलने के लिए मटके के सहारे दरिया पार करती थी। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी रोज़ भी वह मटके का सहारा लेकर दरिया पार करते हुए डूब गई थी। दरअसल मटका कच्च था, रास्ते में बताशे की तरह घुल गया। हमारे पंजाब में अब भी लोगों को मटके के ज़रिए दरिया पार करते देखा जा सकता है। सोहनी-महिवाल का क़िस्सा तीन-चार सौ बरस पुराना है। इससे अंदाज़ा होता है कि इससे पहले भी तैरने के लिए मटका इस्तेमाल होता होगा।
सिंधी बुज़ुर्गो का कहना है कि सिंध के मछुआरे ‘मंछर झील’ में पल्ला मछली पकड़ने के लिए एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाल लगाते थे। ये जाल मटके पर तैरते हुए लगाया जाता था और जब मछलियां इसमें फंस जाती थीं तो मटके पर तैरने वाले जाल में फंसी हुई मछलियां निकालकर मटके में डालते जाते थे। किसी ज़माने में ‘मंछर झील’ बहते हुए दरिया-ए-सिंध का हिस्सा थी और ‘मंछर झील’ के मछुआरे इस तरह मछलियां पकड़ने के लिए मशहूर थे। पल्ला मछली की ये ख़ासियत है कि वह पानी के बहाव के उलटी तरफ़ तैरती है। ये तरीक़ा इसे पकड़ने के लिए काफ़ी अच्छा समझा जाता था। आज भी मछुआरे ‘मंछर’ और ‘कींझर’ झील में मछलियां पकड़ते हैं।
कुछ अरसा पहले एक टीवी चैनल पर डाक्युमेंट्री दिखाई गई थी। इसमें दरिया-ए-सिंध जहां से निकलता है, यानी तिब्बत का इलाक़ा, वहां से नीचे की तरफ़ लोगों को दरिया में मटके इस्तेमाल करते दिखाया गया था। सिंध में मछलियां पकड़ने के लिए पीतल और तांबे के मटके इस्तेमाल करने की परंपरा पुरानी है। ख़ासतौर पर ‘मंछर झील’ में, क्योंकि वहां चार-पांच फीट गहरा पानी होता है।
हमारे सिंध में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बड़ी मशक में हवा भरकर उसके सहारे तैरते हुए दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाते और वहां से भैंसे चोरी करके लाते थे। वे मशक को अपने बदन के साथ बांध लेते और दोनों पैर भैंसे की गर्दन में फंसाकर तैरते थे। रात में कहीं ज़मीन पर रुक जाते और सुबह फिर भैंसे के साथ सफ़र शुरू कर देते। शूरो और चांग क़बीले के लोग इस हवाले से काफी मशहूर थे। इन्हें दरिया का शेर कहा जाता था। ये बहुत ज़्यादा ताक़तवर और दिलेर होते थे और मगरमच्छों से मुक़ाबला करने से भी नहीं डरते थे। ‘कींझर झील’ में मटकों के ज़रिए मछलियां पकड़ने वाले ज़्यादातर लोगों का ताल्लुक़ गंधर्व क़बीले से है, जो इस फ़न में माहिर समझे जाते हैं। इनका ताल्लुक़ मशहूर लोककथा ‘नूरी जाम तमाची’ के किरदार नूरी से जोड़ा जाता है।
सैकड़ों साल पुरानी दास्तानों का Êिाक्र निकले तो कुछ लोग इनकी हक़ीक़त पर शक करते हैं। लेकिन दास्तानें तो हमारे चारों तरफ़ ही बिखरी हुई हैं। कुछ दिनों पहले हमारे यहां एक किताब आई जिसमें उन लड़कियों का क़िस्सा है जो पाकिस्तान से ब्याह कर ब्रिटेन गईं और वहां शादी के जाल में फंसकर जल बिन मछली की तरह तड़पती हैं। ये वे लड़कियां हैं जो ग़रीब घरानों से थीं, जिन्हें अंग्रेÊाी नहीं आती थी और जिनके मां-बाप को सुहाने ख्वाब दिखाकर इंग्लिस्तान से आए लोग गांव और छोटे शहरों से ब्याह कर लंदन, मैनचेस्टर, ब्रेडफोर्ड या लेड्Êा ले गए। वहां जाकर इन लड़कियों को मालूम हुआ कि उनसे शादी करने वालों ने और उनके अपने घर वालों ने शादी के नाम पर सरासर धोखा किया है। ऐसी बहुत-सी लड़कियां बीवी बनाकर लाई जाती हैं और फिर वे औरतों के बाÊार में हर रात बिकती हैं। और इस तरह जो रक़म मिलती है उसके मालिक होते हैं इनके ‘शौहर’। अगर वे इस गंदे काम से इंकार करें तो उन्हें मारा-पीटा जाता है, भूखा रखा जाता है और हर तरह की तकलीफ़ दी जाती है। ये लड़कियां अंग्रेजी नहीं जानतीं इसलिए अपनी परेशानी किसी को बता नहीं सकतीं। अगर कोई अंग्रेÊा सोशल वर्कर इनकी मदद करना चाहे तो वे उनके सामने यह सोचकर ख़ामोश रहती हैं कि उन पर गुÊारने वाली मुसीबत की ख़बर उनके घर वालांे को हो गई तो उन्हें बहुत दुख होगा और उनके ख़ानदान की नाक कट जाएगी। इस मुश्किल से सिर्फ़ हÊारों पाकिस्तानी लड़कियां ही नहीं गुÊार रहीं, इनमें भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका से शादी के नाम पर झांसा देकर ब्रिटेन ले जाई जाने वाली लड़कियां भी शामिल हैं। इस किताब में जहां अलग-अलग ‘केस स्टडीÊा’ दी गई हैं, वहीं इंग्लिस्तान, अमेरिका या यूरोप के किसी भी मुल्क से आने वाले अनजाने रिश्तों के बारे में लड़कियों और उनके घर वालों को कुछ मशवरे भी दिए गए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें