मंगलवार, 26 जुलाई 2011

भागवत ३२१

संबंधों को निभाएं तो कुछ इस तरह...
भागवत में ही भगवान के चौथे अवतार वामनदेव की कथा है। असुरों के राजा बलि जो भगवान के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था ने यज्ञ का आयोजन किया। देवताओं के हित को देखकर भगवान ने वामन रूप अवतार लिया लिया और राजा बलि के यज्ञ में चले गए। दान मांगा, राजा बलि ने संकल्प लिया, गुरु शुक्राचार्य ने रोका फिर भी नहीं माने वामन को तीन पग भूमि दान दी। वामन देव ने दो ही पग में धरती और आकाश नाप लिया, तीसरा पग कहां रखूं वामन ने पूछा।
राजा बलि जो जानते थे कि देवताओं ने उनका यज्ञ रुकवाने के लिए छल किया है, फिर भी अपने संकल्प से नहीं हटे। भगवान उसे जीतने आए थे, उसने भगवान को जीत लिया। वामन ने जब बलि से पूछा कि तीसरा पैर कहा रखूं तो राजा बलि ने नि:संकोच खुद को आगे कर दिया। भगवान के पैरों के नीचे अपना सिर धर दिया। भगवान के भार से वह पाताल में चला गया लेकिन उसके सत्यव्रत और भक्तिभाव से विष्णु प्रसन्न हो गए तो वर मांगने को कहा।
बलि ने विष्णु को अपने राज्य का द्वारपाल बना लिया। भगवान भक्त के नगर की पहरेदारी करने लग गए। यह होता है समर्पण। अपना सबकुछ उसे सौंप दो फिर आपसे दूर कुछ भी नहीं रहेगा। इसी यात्रा में भगवान राजा के साथ-साथ ब्राह्मण के घर भी जाते हैं और साथ में मुनियों को भी ले जाते हैं। एक तो भगवान बताना चाहते हैं कि मेरा समानता में विश्वास है और दूसरे भगवान सतत् सक्रियता का संदेश देते हैं। मेलजोल बनाए रखो। आज जिस जीवन में जी रहे हैं मनुष्य अपनों से ही कटता जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण से सीखें संबंधों का निर्वहन कैसे करें।
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