आजकल प्याज़ सत्तर रुपये किलो बिक रहा है। अब उसके सौ रुपये किलो होने का इंतज़ार है। इंतजार करने वाले दो हैं− एक मैं और दूसरा बाज़ार। बाज़ार के इंतज़ार करने का कारण पूंजीवाद है। प्याज सत्तर से सौ हो जाएगा, तो बाज़ार को तीस रुपये ज़्यादा मिलेंगे। बाज़ार, इसीलिए तो बाज़ार होता है। मेरे इंत़ज़ार करने का कारण रचनात्मक है। मुझे प्याज़ की बढ़ती कीमतों पर लेख लिखना है। और, लिखने में सत्तर का आंकड़ा कुछ जमता नहीं है। जो बात सौ में है, वह सत्तर में कहां ?
सौ ! दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ों में से एक है। बल्कि महत्वपूर्ण आंकड़ों में सबसे पहला है। आप जानते हैं, क्रिकेट में सेंचुरी का कितना महत्व है। लंबी उम्र में सौ का क्या रौब है। संस्कृत में तो बाकायदा आशीर्वाद है− जीवेत शरदः शतम्। लेकिन, मेरे इंतज़ार करने का एक कारण समानतावादी भी है। कई साल पहले, जब दाल पहली बार सौ रुपये किलो हुई थी, तब मैंने दाल पर एक लेख लिखा था। इसीलिए, लिखना चाहते हुए भी मैं अभी प्याज़ पर नहीं लिख सकता। खाने−पीने की चीज़ों में दावे नहीं करना चाहिए। दूसरे, अगर मैंने प्याज़ के सत्तर का होने पर ही लेख लिख दिया, तो हो सकता है दाल को बुरा लग जाए। किसीको भी दाल को नाराज़ नहीं करना चाहिए। अगर आपने दाल को नाराज़ किया तो हो सकता है, जिंदगी में आपकी दाल गलना बंद हो जाए। वैसे भी, दाल और प्याज़ में एक बुनियादी समानता है। इन दोनों को गरीब आदमी खा सकता है। जो आदमी थोड़ा कम गरीब होता है, वह दाल से रोटी खाता है। जो थोड़ा ज़्यादा गरीब होता है, वह प्याज़ से रोटी खा लेता है। लेकिन, अगर भाव ऐसे ही बढ़ते रहे तो एक दिन आएगा, जब लोग कहा करेंगे− वह भी क्या ज़माना था जब, चाहे दाल से खाये या प्याज़ से, गरीब आदमी कम से कम रोटी तो खा लेता था!
दुनिया की हर परेशानी, हर आदमी को परेशान नहीं करती। मेरा एक दोस्त शुद्ध वैष्णव है। वह प्याज़−लहसुन नहीं खाता। मैंने कहा, ''तुम्हारे तो मज़े हैं। प्याज़ महंगा होने से तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी।'' मेरा वैष्णव दोस्त चिढ़ गया, ''कैसे परेशानी नहीं होगी? तुम जानते हो, मैं पक्का वैष्णव हूं और नरसी मेहता ने कहा है− वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ परायी जाणे रे। वैसे भी, आजकल एक फि़क मुझे लगातार सताती है। प्याज़ तो सौ का हो गया, अब लौकी और तुरई की बारी है।''
मेरा एक दोस्त अट्टल नॉन−वेजिटेरियन है। बैंगन हो या गोभी, सब्ज़ी देख कर उसकी नाक सिकुड़ जाती है। उसे 'चिकन दो−प्याज़ा' बहुत पसंद है। पिछले दिनों एक होटल में उसने ऑर्डर दिया तो वेटर बोला, ''सर, हमने 'चिकन दो−प्याज़ा' बनाना बंद कर दिया। अब हम 'चिकन एक−प्याज़ा' बनाते हैं। दो प्याज़ डालना बहुत महंगा पड़ता है।'' जब प्याज़ के कारण नॉन−वेजिटेरियन खाना बनाना बहुत महंगा हो गया तो एक होटल मालिक ने सोचा− क्यों न बिना प्याज़−लहसुन डाले चिकन बनाया जाए। फिलहाल उस चिकन को मैन्यू में शामिल नहीं किया गया है। डिश के नाम को ले कर थोड़ी दुविधा है। डिश को नाम क्या दें− 'वैष्णव चिकन' या 'जैन चिकन'?
तो, प्याज़ का भाव बढ़ने से सभी परेशान हैं। इस परेशानी के बारे में मैंने सीधे बाज़ार से बात की, ''देखो, तुम काबू से बाहर हुए जा रहे हो। तुमको शायद पता नहीं है, हमारे देश की सरकारें गरीबों की हमदर्द होती हैं। तुम काबू में नहीं आये तो सरकार कड़े कदम उठा सकती है।'' बाज़ार मुस्कुरा दिया। उसने फिल्मी हीरो की तरह सीना ताना और एक्टर राजकुमार के अंदाज़ में बोला, ''जानी! बाज़ार से सरकार है, सरकार से हम नहीं / जो बाज़ार को झुका सके, किसी सरकार में दम नहीं।'' बाज़ार की बात में दम है। हम सबने अनेक बार सुना है− इस नेता को बाज़ार ने खरीद लिया, उस नेता को बाज़ार ने खरीद लिया। लेकिन, आज तक यह नहीं सुना कि किसी नेता ने बाज़ार को खरीद लिया हो।
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