(हेमलता यादव ,जयपुर)|
जन्म-जन्मांतरों का सुकृत पुण्य जब उदय होता है, तभी हमारे जीवन में भगवान के मंगलमय लीला चरित्र के गुणगान का सौभाग्य मिलता है। हमारे जीवन का वही क्षण कृतार्थ है, जिसमें उत्तम श्लोक भगवान श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान होता है। जीवन की सार्थकता श्री राधा-कृष्ण लीला श्रवण में है। श्री राधा-कृष्ण नाम का संकीर्तन, कथा श्रवण, श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान दर्शन ही हमारे जीवन का परम महोत्सव है। परंतु दुर्भाग्य से यह महोत्सव हमारे जीवन में संपन्न नहीं होता। अन्य विविध प्रकार के उत्सव मनाने का हमें अनुभव है। बड़ा उल्लास होता है उत्सवों में। कितना प्रकाश, कितना शोर, कितनी मेहमानी मेजबानी होती है। परंतु इन सारे उत्सवों की रात गुजर जाने के बाद सुबह का सूरज हमारी जिंदगी में कुछ अंधेरी रेखाएं और खींच जाता है कभी ऐसा उत्सव हमारी जिंदगी में नहीं आया है जिसके पीछे हमें कोई आनंद, उल्लास मिला हो। दिखावे में प्रदर्शन में हम पार्टियां करते हैं, अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर देते हैं और जब मांगने वाले द्वार पर खड़े होते हैं तो हम चीखते-चिल्लाते तनाव से भर जाते हैं। एक के बाद एक हमारा उत्सव चलता है। परंतु उल्लास हमसे छिन जाता है। जो शांति जो चेतना, जो प्रकाश हमारे जीवन में मिला था हम अपने ही अज्ञान के कारण उससे वंचित हो जाते हैं। भगवान की कथा नाम संकीर्तन में ही वह शक्ति है कि शोक का समुद्र भी हो तो सूख जाता है। जीवन परम आनंद तथा शांति को उपलब्ध हो जाता है। समस्याएं और संकट तो जीवन में आते ही हैं। पुत्र है तो कभी बिछुड़ सकता है। तरुण रूठ सकता है विमुख हो सकता है, बूढ़ी आंखों के सामने। भाई-बहन का विछोह हो सकता है। संसार में शोक के कारण तो पैदा होंगे ही, क्योंकि उसके साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ा हुआ है। जब तक शरीर है, शरीर से बने हुए संबंध हैं, कहीं संयोग होगा तो कहीं वियोग होगा। कहीं हर्ष होगा तो कहीं विषाद होगा। दोनों से हमें जो परे कर दे ऐसा जो नित्य नवनवायमान परम महोत्सव है- 'तदेव शाश्वन्मनसो महोत्सवम्' अर्थात् वही हमारे मन का शाश्वत महोत्सव है। शरीर का उत्सव नहीं है, विवाह का उत्सव नहीं है, जन्मदिन का उत्सव नहीं है, वह तो शाश्वत महोत्सव है हमारे मन का जो शोक सागर का भी शोषण करने में समर्थ है। जिसने अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया है, उसके जीवन में कौन-सा शोक आ सकता है, कौन-सी आपत्तियां-विपत्तियां आ सकती हैं। और यदि आई भी हैं तो प्रभु चरणों में समर्पित कर देना है कि प्रभु यह सब तुम्हारी ही लीला है। तुम जानो तुम्हारा काम जाने। फिर हम हैं कहां बीच में। अगर हम बीच में आ जाते हैं तो सहना पड़ेगा, झेलना पड़ेगा।हमारा वस्तुतः हम बीच में आ ही जाते हैं, क्योंकि समर्पण नहीं है अपने प्रियतम प्रभु के प्रति हमारे जीवन में। समर्पण क्यों नहीं है? क्योंकि विश्वास नहीं हैं। जरा-सी संकट की घड़ी आई नहीं कि भागने लगे इधर से उधर। परीक्षा की घड़ी आती है तो विश्वास हमारा टूट जाता है। श्रद्धा समर्पण भरे हृदय से शुद्ध भाव से श्री राधा-कृष्ण के श्रीचरणों में हमारा समर्पण हो जाए तो जीवन सार्थक हो जाए।
जन्म-जन्मांतरों का सुकृत पुण्य जब उदय होता है, तभी हमारे जीवन में भगवान के मंगलमय लीला चरित्र के गुणगान का सौभाग्य मिलता है। हमारे जीवन का वही क्षण कृतार्थ है, जिसमें उत्तम श्लोक भगवान श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान होता है। जीवन की सार्थकता श्री राधा-कृष्ण लीला श्रवण में है। श्री राधा-कृष्ण नाम का संकीर्तन, कथा श्रवण, श्री राधा-कृष्ण के गुणों का गान दर्शन ही हमारे जीवन का परम महोत्सव है। परंतु दुर्भाग्य से यह महोत्सव हमारे जीवन में संपन्न नहीं होता। अन्य विविध प्रकार के उत्सव मनाने का हमें अनुभव है। बड़ा उल्लास होता है उत्सवों में। कितना प्रकाश, कितना शोर, कितनी मेहमानी मेजबानी होती है। परंतु इन सारे उत्सवों की रात गुजर जाने के बाद सुबह का सूरज हमारी जिंदगी में कुछ अंधेरी रेखाएं और खींच जाता है कभी ऐसा उत्सव हमारी जिंदगी में नहीं आया है जिसके पीछे हमें कोई आनंद, उल्लास मिला हो। दिखावे में प्रदर्शन में हम पार्टियां करते हैं, अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर देते हैं और जब मांगने वाले द्वार पर खड़े होते हैं तो हम चीखते-चिल्लाते तनाव से भर जाते हैं। एक के बाद एक हमारा उत्सव चलता है। परंतु उल्लास हमसे छिन जाता है। जो शांति जो चेतना, जो प्रकाश हमारे जीवन में मिला था हम अपने ही अज्ञान के कारण उससे वंचित हो जाते हैं। भगवान की कथा नाम संकीर्तन में ही वह शक्ति है कि शोक का समुद्र भी हो तो सूख जाता है। जीवन परम आनंद तथा शांति को उपलब्ध हो जाता है। समस्याएं और संकट तो जीवन में आते ही हैं। पुत्र है तो कभी बिछुड़ सकता है। तरुण रूठ सकता है विमुख हो सकता है, बूढ़ी आंखों के सामने। भाई-बहन का विछोह हो सकता है। संसार में शोक के कारण तो पैदा होंगे ही, क्योंकि उसके साथ हमारा प्रारब्ध जुड़ा हुआ है। जब तक शरीर है, शरीर से बने हुए संबंध हैं, कहीं संयोग होगा तो कहीं वियोग होगा। कहीं हर्ष होगा तो कहीं विषाद होगा। दोनों से हमें जो परे कर दे ऐसा जो नित्य नवनवायमान परम महोत्सव है- 'तदेव शाश्वन्मनसो महोत्सवम्' अर्थात् वही हमारे मन का शाश्वत महोत्सव है। शरीर का उत्सव नहीं है, विवाह का उत्सव नहीं है, जन्मदिन का उत्सव नहीं है, वह तो शाश्वत महोत्सव है हमारे मन का जो शोक सागर का भी शोषण करने में समर्थ है। जिसने अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया है, उसके जीवन में कौन-सा शोक आ सकता है, कौन-सी आपत्तियां-विपत्तियां आ सकती हैं। और यदि आई भी हैं तो प्रभु चरणों में समर्पित कर देना है कि प्रभु यह सब तुम्हारी ही लीला है। तुम जानो तुम्हारा काम जाने। फिर हम हैं कहां बीच में। अगर हम बीच में आ जाते हैं तो सहना पड़ेगा, झेलना पड़ेगा।हमारा वस्तुतः हम बीच में आ ही जाते हैं, क्योंकि समर्पण नहीं है अपने प्रियतम प्रभु के प्रति हमारे जीवन में। समर्पण क्यों नहीं है? क्योंकि विश्वास नहीं हैं। जरा-सी संकट की घड़ी आई नहीं कि भागने लगे इधर से उधर। परीक्षा की घड़ी आती है तो विश्वास हमारा टूट जाता है। श्रद्धा समर्पण भरे हृदय से शुद्ध भाव से श्री राधा-कृष्ण के श्रीचरणों में हमारा समर्पण हो जाए तो जीवन सार्थक हो जाए।
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