हम हर साल यही कहा जाता है की बच्चो के हाथों में कलम किताब पकड़ाएं उन्हें स्कूल भेजे। सरकार कई योजनाएं चलाती है । छत्तीसगढ़ में सरकार ने स्कूल उत्सव मनाया और बच्चों को स्कूल में प्रवेश दिलाने सभी मंत्री ,अधिकारी डटे रहे पर क्या सभी बच्चे स्कूल जा रहे है। चार दिन तक तो सभी इस पर ध्यान देते रहे बाद में इन बच्चो का सुध लेने वाला कोई नहीं है। आज भी सैकड़ों बच्चे रोज सड़कों पर काम करते देखे जा सकते हैं। सच में बचपन पर चारो ओर से खतरे हैं, यह एक कटु सच्चाई है.
बाल अधिकारों के प्रति हम आज भी उतने सहिष्णु नहीं हो पाये हैं जितना हमें होना चाहिए. करीब दो महीने पहले भी पूरे देश में सरकारी स्तर पर बाल दिवस मनाया गया. कुछ अन्य संस्थाओं ने भी कार्यक्रम आयोजित किये लेकिन उनका तात्कालिक या दूरगामी नतीजा क्या रहा? देश में एक दो नहीं, लाखों बच्चे ऐसे हैं जो उचित व्यवस्था के अभाव में मानसिक-शारीरिक शोषण के शिकार हो रहे हैं. ऐसा नहीं है कि देश में बाल अधिकारों के रक्षण से जुड़े कानून नहीं हैं लेकिन या तो वे इतने दोषपूर्ण कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे या इन कानूनों के पालन सही तरीके से हो इस पर निगरानी रखने वाली कोई जिम्मेदार एजेंसी हमारे पास नहीं है.
बाधाएं जैसी हों, यह तय है कि ऐसे बच्चों की कमी नहीं जिनका बचपन असमय ही छीन लिया गया है. 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में लगभग 1 करोड़, 20 लाख बच्चे श्रमिक हैं. यकीनन बाद के नौ वर्षों में इस संख्या में इजाफा ही हुआ है. बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों पर ही सीमित हैं. समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल रहा है. उनकी शिक्षा दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है. ऐसे कार्य जो बच्चों के बौद्धिक, मानसिक, शैक्षिक, नैतिक विकास में बाधा पहुंचाये बालश्रम की परिधि में आते हैं. बालश्रम के उन्मूलन के लिए 1986 में बने बालश्रम उन्मूलन कानून में कई खामी है. इनमें जोखिम भरे कार्यों में बाल श्रमिकों के कार्य करने पर रोक लगाने को विशेष जगह दी गई है. इस कानून के अनुच्छेदों से यही प्रतिध्वनित होता है कि केवल जोखिम भरे कार्यों में लगे बच्चे ही बाल श्रमिक की परिधि में आते हैं. जबकि सच्चाई यही है कोई भी स्थिति जो बच्चे को कमाई करने पर मजबूर कर रही हो बालश्रम है और ऐसे कार्यों में लगे बच्चे बाल श्रमिक. इन बाल श्रमिकों की संख्या पर रोक लगना तो दूर बल्कि अब और नये किस्म के बाल श्रमिक सामने आ रहे हैं.
रिएल्टी शो में कार्य करने वाले बच्चों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. इन शो को देखकर साफ लगता है कि ये बच्चों का भला नहीं कर रहे बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. बच्चों की चंचलता, उनकी हंसी, उनका भोलापन सभी को बाजार की चीज बना दी गई है. ऐसे शो भावनाओं को उभारने और इस जरिये अपना बाजार तलाशने में लगे रहते हैं. गौर करने वाली बात है कि ऐसे कार्यक्रमों के जरिये बच्चों में कलात्मकता और रचनात्मकता का विकास नहीं बल्कि शॉर्टकट तरीके से नेम फेम पाने की भावना जन्म ले रही है. आज बच्चों को चकाचौंध में लाकर उन्हें बाजारवाद का खिलौना बना दिया जा रहा है. बालश्रम का समूल विनाश किये बगैर बच्चों को सही आजादी नहीं दी जा सकती. मेरी समझ है कि बालश्रम पर रोक लगाने से बेरोजगारी भी दूर होगी. अभी जिन छह करोड़ बच्चों से काम कराया जा रहा है अगर उनकी जगह बड़े काम करें तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. हमें इस सच्चाई को भी समझना होगा कि गरीबी के कारण बालश्रम नहीं बढ़ रहा बल्कि बालश्रम के कारण गरीबी बढ़ रही है. हमें हर बच्चे को शिक्षा देने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. इससे बालश्रम की समसया स्वत: दूर हो जाएगी. आज शिक्षा की दिशा में बालश्रम बड़ी बाधा खड़ी कर रही है.सभी प्रमुख देशों की तरह भारत में भी मुफ्त शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इससे सारे बच्चे जुड़ें ऐसी स्थिति अभी नहीं बन पायी है. आने वाले कुछेक वर्षों में हमें ऐसी स्थिति बनानी होगी तभी बच्चे सचमुच बच्चे रह पाएंगे।
बाधाएं जैसी हों, यह तय है कि ऐसे बच्चों की कमी नहीं जिनका बचपन असमय ही छीन लिया गया है. 2001 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में लगभग 1 करोड़, 20 लाख बच्चे श्रमिक हैं. यकीनन बाद के नौ वर्षों में इस संख्या में इजाफा ही हुआ है. बच्चों के मौलिक अधिकार की बातें कागजों पर ही सीमित हैं. समाज बच्चों को उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में असफल रहा है. उनकी शिक्षा दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में लगाना बदस्तूर जारी है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है. ऐसे कार्य जो बच्चों के बौद्धिक, मानसिक, शैक्षिक, नैतिक विकास में बाधा पहुंचाये बालश्रम की परिधि में आते हैं. बालश्रम के उन्मूलन के लिए 1986 में बने बालश्रम उन्मूलन कानून में कई खामी है. इनमें जोखिम भरे कार्यों में बाल श्रमिकों के कार्य करने पर रोक लगाने को विशेष जगह दी गई है. इस कानून के अनुच्छेदों से यही प्रतिध्वनित होता है कि केवल जोखिम भरे कार्यों में लगे बच्चे ही बाल श्रमिक की परिधि में आते हैं. जबकि सच्चाई यही है कोई भी स्थिति जो बच्चे को कमाई करने पर मजबूर कर रही हो बालश्रम है और ऐसे कार्यों में लगे बच्चे बाल श्रमिक. इन बाल श्रमिकों की संख्या पर रोक लगना तो दूर बल्कि अब और नये किस्म के बाल श्रमिक सामने आ रहे हैं.
रिएल्टी शो में कार्य करने वाले बच्चों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. इन शो को देखकर साफ लगता है कि ये बच्चों का भला नहीं कर रहे बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं. बच्चों की चंचलता, उनकी हंसी, उनका भोलापन सभी को बाजार की चीज बना दी गई है. ऐसे शो भावनाओं को उभारने और इस जरिये अपना बाजार तलाशने में लगे रहते हैं. गौर करने वाली बात है कि ऐसे कार्यक्रमों के जरिये बच्चों में कलात्मकता और रचनात्मकता का विकास नहीं बल्कि शॉर्टकट तरीके से नेम फेम पाने की भावना जन्म ले रही है. आज बच्चों को चकाचौंध में लाकर उन्हें बाजारवाद का खिलौना बना दिया जा रहा है. बालश्रम का समूल विनाश किये बगैर बच्चों को सही आजादी नहीं दी जा सकती. मेरी समझ है कि बालश्रम पर रोक लगाने से बेरोजगारी भी दूर होगी. अभी जिन छह करोड़ बच्चों से काम कराया जा रहा है अगर उनकी जगह बड़े काम करें तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है. हमें इस सच्चाई को भी समझना होगा कि गरीबी के कारण बालश्रम नहीं बढ़ रहा बल्कि बालश्रम के कारण गरीबी बढ़ रही है. हमें हर बच्चे को शिक्षा देने की दिशा में आगे बढ़ना होगा. इससे बालश्रम की समसया स्वत: दूर हो जाएगी. आज शिक्षा की दिशा में बालश्रम बड़ी बाधा खड़ी कर रही है.सभी प्रमुख देशों की तरह भारत में भी मुफ्त शिक्षा अभियान चलाया जा रहा है, परंतु इससे सारे बच्चे जुड़ें ऐसी स्थिति अभी नहीं बन पायी है. आने वाले कुछेक वर्षों में हमें ऐसी स्थिति बनानी होगी तभी बच्चे सचमुच बच्चे रह पाएंगे।
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