बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

जब कुंती और माद्री फांसी संकट में

--अरुण कुमार बंछोर


भीष्म की प्रतिज्ञा के बाद कुरुवंश का इतिहास बदल गया। महाभारत के अनुसार पांडु अम्बालिका और ऋषि वेदव्यास के पुत्र थे। वे पांडवों के धर्मपिता और धृतराष्ट्र के छोटे भाई थे। धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण पांडु को हस्तिनापुर का शासक बनाया गया।
एक बार राजा पांडु अपनी दोनों रानियों कुंती और माद्री के साथ आखेट कर रहे थे कि तभी उन्होंने मृग होने के भ्रम में बाण चला दिया, जो एक ऋषि को जाकर लगा। उस समय वह ऋषि अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे और उसी अवस्था में उन्हें बाण लग गया इसलिए उन्होंने पांडु को श्राप दे दिया कि जिस अवस्था में उनकी मृत्यु हो रही है उसी प्रकार जब भी पांडु अपनी पत्नियों के साथ सहवासरत होंगे तो उनकी भी मृत्यु हो जाएगी। उस समय पांडु की कोई संतान नहीं थी। अब उनके लिए यह संकट की बात हो गई थी। जब उन्होंने यह बात कुंती को बताई तो कुंती ने उन्हें ऋषि दुर्वासा द्वारा उनको मिले वरदान की बात कही। इस वरदान से कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर उन्हें बुलाकर उनके साथ 'नियोग' कर सकती थी। विवाह पूर्व उन्होंने सूर्यदेव का आवाहन किया था जिसके चलते 'कर्ण' का जन्म हुआ था लेकिन कुंती ने लोक-लज्जा के कारण उसे नदी में बहा दिया था। खैर।
पांडु मान गए तब कुंती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार माद्री ने भी देवताओं का आवाहन किया। तब कुंती को तीन और माद्री को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ थे। कुंती के अन्य पुत्र थे भीम और अर्जुन तथा माद्री के पुत्र थे नकुल व सहदेव। कुंती ने धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया था तो माद्री ने अश्विन कुमारों का। एक दिन वर्षाऋतु का समय था और पांडु और माद्री वन में विहार कर रहे थे। उस समय पांडु अपने काम-वेग पर नियंत्रण न रख सके और माद्री के साथ सहवास करने को उतावले हो गए और तब ऋषि का श्राप महाराज पांडु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ। माद्री पांडु की मृत्यु बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनके साथ सती हो गई। यह देखकर पुत्रों के पालन-पोषण का भार अब कुंती पर आ गया था। उसने अपने मायके जाने के बजाय हस्तिनापुर का रुख किया। हस्तिनापुर में रहने वाले ऋषि-मुनि सभी पांडवों को राजा पांडु का पुत्र मानते थे तो वे सभी मिलकर पांडवों को राजमहल छोड़कर आ गए। कुंती के कहने पर सभी ने पांडवों को पांडु का पुत्र मान लिया और उनका स्वागत किया। राजमहल में कुंती का सामना गांधारी से भी हुआ। कुंती वसुदेवजी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। तो गांधारी गंधार नरेश की पुत्री और राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थी।

गांधारी
धृतराष्ट्र को आंखों से नहीं, मन से भी अंधों की भांति व्यवहार करते थे इसलिए गांधारी और शकुनि को अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता संभालनी पड़ी। गांधारी को यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं कुंती के पुत्र सिंहासनारूढ़ न हो जाए। ऐसे में शकुनि ने दुर्योधन के भीतर बाल्यकाल से ही पांडवों के प्रति घृणा का भाव भर दिया था।

द्रौपदी : पांडवों की पत्नी द्रौपदी को इस युद्ध का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। महाभारत के अनुसार जब दुर्योधन इंद्रप्रस्थ को देखने गया तो एक जगह उसने रंगोली बनी देखी और उसने समझा कि यह कितना सुंदर फर्श है लेकिन असल में वह जल से भरा ताल था। दुर्योधन उसमें गिर पड़ा। भ्रमवश उसके गिरने पर द्रौपदी जोर से हंसने लगी और उसके मुंह से निकल गया- 'अंधे का पुत्र भी अंधा।'बस यही बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह धंस गई। हालांकि बाद में द्रौपदी को अपनी गलती का अहसास भी हुआ था, लेकिन व्यंग्य में कहे गए शब्द का जो असर होना चाहिए थे वह हो चुका था। दुर्योधन ने अपने इस अपमान का बदला लेने की ठान ली थी।शकुनि ने इस अपमान का बदला लेने की एक तरकीब बतलाई। उसने दुर्योधन से कहा कि पांडवों को द्यूतकीड़ा खेलने के लिए आमंत्रित किया जाए। उन्होंने कहा कि राज्य बंटवारे का निर्णय अब इस खेल के माध्यम से ही होगा।
द्यूतक्रीड़ा (जुआ) न खेली गई होती तो युद्ध तो शायद युद्ध भी नहीं होता। पांडवों ने दुर्योधन के आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपने भाग्य का निर्णय द्यूत के खेल पर छोड़ दिया। लेकिन पांडव तो इस खेल में माहिर नहीं थे फिर कैसे वे यह खेल खेलने के लिए तैयार हो गए। उनका मानना था कि यह खेल भाग्य पर निर्भर है न कि चाल, छल या कपट पर। भगवान कृष्ण ने इस खेल का विरोध किया था, लेकिन पांडव नहीं माने। श्रीकृष्ण ने कहा कि फिर इस बुरे खेल में मैं साथ नहीं दूंगा। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा भी है कि सबसे बुरे खेल में द्यूतक्रीड़ा है।
पांडव खेल में एक के बाद एक राज्य हारते गए। फिर उन्होंने उनके पास की वस्तुएं भी दांव पर लगा दीं। अंत में उन्होंने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया। बस, यहीं से युद्ध की नींव रख दी गई। द्रौपदी का चीरहरण होते हुए सबसे देखा। लेकिन भगवान कृष्ण ने अंत में पहुंचकर द्रौपदी की लाज बचाई। यह महाभारत का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट था।

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