रविवार, 24 अक्टूबर 2010

भागवत: १०१: जब दक्ष ने श्राप दिया नारदजी को


पिछले अंक में हमने पढ़ा भगवान के आदेशानुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया और उनसे दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। दक्ष ने उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।जब नारदजी को यह विदित हुआ तो उन्होंने उन पुत्रों से कहा कि बिना पृथ्वी का अंत देखे वो लोग किस प्रकार सृष्टि कर पाएंगे। ये सुनकर दक्ष पुत्र सोच में पड़ गए और उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति का विचार त्याग दिया और वे आत्मकल्याणर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए तप करने लगे। जब यह दक्ष को विदित हुआ तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ।
दक्ष ने पुन: पुत्र उत्पन्न किए और आज्ञा दी कि वे सृष्टि का सृजन करें। नारदजी को फिर विदित हुआ तो उन्होंने उनको फिर वही ज्ञान दिया और फिर वो पुत्र अपने पूर्वजों के अनुसार वापस तपरत हो गए और स्वर्गलोक में चले गए। यह समाचार दक्ष को मिला तो इससे उनका नारदजी के प्रति क्रोध बढ़ गया। दक्ष ने क्रोध में नारदजी को अपनी वंश परंपरा उच्छेद के अपराध में लोकलोकांतर में निरंतर भ्रमण करते रहने का शाप दे दिया। नारदजी को यह श्राप मिला और नारदजी ने ऐसा क्यों किया?
यह कथा बड़े संकेत की है। हम मनुष्य को दो प्रकार में बांट सकते हैं एक तो वे जो समाधि चाहते हैं, समाधान चाहते हैं और दूसरे वे जो सम्मान चाहते हैं समादर चाहते हैं।जो समाधि चाहता है, उसे भीतर की यात्रा पर जाना पड़ेगा और जो सम्मान और समादर चाहते हैं उसे दूसरों की आंखों के इशारों को समझना होगा। जो व्यक्ति चाहता है कि मेरे भीतर एक अपूर्व शांति हो, आनंद की वर्षा हो वह व्यक्ति यात्रा करता है समाधि, समाधान की। ऐसा व्यक्ति धार्मिक होता है। नारदजी का संतत्व ऐसा ही है। हम इसको अच्छी तरह समझ लें। नारदजी किसी से कोई सम्मान कोई समादर नहीं चाहते। उनकी यात्रा भीतर की थी।
sabhar-dainik bhaskar

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