पाण्डवों के जन्म के पश्चात पाण्डु अपने पत्नियों के साथ तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन जब पाण्डु व माद्री अकेले वन में घुम रहे थे तभी पाण्डु के मन में कामभाव का संचार हो गया और उन्होंने माद्री को बलपूर्वक पकड़ लिया। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन तब तक ऋषि किंदम के श्राप के प्रभाव से पाण्डु ने प्राण त्याग दिए। माद्री यह देखकर रोने लगी। तभी वहां कुंती व पांचों पाण्डव भी आ गए। तब माद्री ने सारी बात कुंती को बताई तो वे भी पाण्डु के शव से लिपटकर विलाप करने लगीं।जब पाण्डु के अंतिम संस्कार का समय आया तो कुंती पाण्डु के साथ सती होने लगी तभी माद्री ने कुंती को रोका और स्वयं सती होने का हठ करने लगी तथा पाण्डु की चिता पर चढ़ कर सती हो गई।
पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। पाण्डु की मृत्यु के कुछ दिन बाद महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए और उन्होंने विपरीत समय आता देख माता सत्यवती तथा अंबिका व अंबालिका को वन में जाने का निवेदन किया। तब वे तीनों वन में चली गई और तप करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया।
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