सोमवार, 13 जून 2011

किसे मिलता है तीर्थ यात्रा का फल?

नल दमयंती की कथा पुरी होने के बाद युधिष्ठिर ने बृहदश्व ऋषि वहां से चले गए। उनके जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ऋषि-मुनियों से अर्जुन की तपस्या के संबंध में बातचीत करने लगे। तब सभी पांडव भाइयों ने अर्जुन के बिना बड़ी वियोग व उदासी से दिन बिताए। वे दुख और शोक में डूबते रहते थे। उन्हीं दिनों नारद मुनि उनके पास आए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा महाराज सभी लोग आपकी पूजा करते हैं।
जब आप हम पर प्रसन्न है तो हम लोग ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि आपकी कृपा से हमारे सारे काम सिद्ध हो गए। आप कृपा करके हम लोगों को एक बात बताएं कि जो तीर्थ यात्रा का सेवन करता हुआ पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है उसे क्या फल मिलता है? तब उन्होंने कहा एक बार तुम्हारे पितामह भीष्म हरिद्वार के ऋषि और पितरों क ी तृप्ति के लिए कोई अनुष्ठान कर रहे थे। वहीं एक दिन पुलस्त्य ऋषि आए। भीष्म ने उनकी सेवा पूजा करके यही प्रश्र किया जो तुम मुझसे कर रहे हो। पुलत्स्य मुनि ने जो कुछ कहा वही मैं तुमको सुनाता हूं।
पुलस्त्य ऋषि ने भी भीष्म से कहा जिसके हाथ दान लेने व बुरे कर्म करने से अपवित्र होते हैं। जिसके पैर नियमपूर्वक पृथ्वी पर पड़ते हैं। जीव जन्तुओं का अपने नीचे दबाकर दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए चलते हैं। जिसका मन दूसरों क अनिष्ट चिंतन से बचता हो। जिसकी विद्या, मारण, मोहन, उच्चाटन से युक्त व विवाद पैदा करने वाली ना हो, जिसकी तपस्या अंत:करण की शुद्धि और जनकल्याण के लिए हो, जिसकी कृति और कीर्ति निष्कलंक हो, उसे तीर्थों का वह फल जिसका शास्त्रों में वर्णन मिलता है प्राप्त होता है।

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