यही कारण है जल्दी परिवार और रिश्तों के बिखरने का?
इन्हीं विभक्ति तत्वों से मनुष्य का यह बाहरी और भीतरी (स्थूल व सूक्ष्म) देह बना है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गणित-शास्त्र की दृष्टि नौ का अंक पूर्ण होता है तथा आठ का अंक घटता जाता है।इसी प्रकार हमारे निर्माता आठ तत्व न स्वयं कालान्तर में महाकाल में विलीन हो जाएंगे, बल्कि हमारी काया को घटाते हुए उसी महाकाल को हमेशा-हमेशा के लिए सौंप देंगे। समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और सबसे बड़ी इकाई सरकार या राज्य। इस छोटी इकाई का प्रमुख वृद्ध होता है। सम्भवत: उसका महत्व ऊपरी तौर पर बढ़ता जाता है और प्रमुखता माँ या दादी के हिस्से परिस्थितिवश आ जाए तो पारिवारिक जटिलता भौतिक दृष्टिकोण के कारण पैदा हो जाती है। यह विवेचन का प्रश्न इसलिए पैदा हुआ कि आज हम कलि-प्रभाव में आध्यात्मिक आचार-विचार से दूर होते जा रहे हैं।
वैसे कलि-प्रभाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है-कलियुग और द्वापरयुग की सन्धि अभी चल रही है, फिर भी जो पारिवारिक विघटन, विग्रह और विनिमय दिखाई दे रहा है यह हमारे जीवन को न केवल विशाक्त बना रहे हैं बल्कि हमें अपने सुख से तेजी से जा रहे हैं और हम स्वयं के शत्रु बन बैठे हैं-''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/5जीवात्मा आप ही (तो) अपना मित्र है और आप ही आत्मा शत्रु है अर्थात् अन्य शत्रु या मित्र नहीं होता।
हम अपने व्यवहार से ऐसी स्थिति का निर्माण कर लेते हैं कि ''सियाराम मय सब जग के स्थान पर ''पराये मय सब जग बन जाता है और यदि पूछा जाए तो हमारा उत्तर होता है- 'हम क्या करें, हम तो हर प्रकार से झुकते हैं, समायोजन करते हैं, परन्तु सामने वाला इतना स्वार्थी है कि वह अपना ही अपना सोचता है और अपने ही अपने लिए कार्य करता है, जबकि हमने जीवनपर्यन्त उसके लिए या उनके लिए सर्वाधिक त्याग किया। यह उत्तर कई स्थितियों में सही होता है और यह स्थिति अनेक परिवारों में पाई जाती है, जिसमें वृद्ध या वृद्धा का महत्व या उपयोगिता शारीरिक, आर्थिक या स्वभावगत कारणों से क्षीण होता जा रहा है।
पैसों का सही उपयोग नहीं करोगे तो यही होगा हाल
जब लड़का किशोरावस्था में होता है तो माता-पिता की रोकटोक उसे बुरी लगती है। वह झल्ला जाता है। कई बच्चे तो घर तक छोड़ देते हैं। माता-पिता उसे दुश्मन लगते हैं। क्योंकि उसका मन आजाद पक्षी की तरह उडऩा चाहता है और मां-बाप की बातें उसे प्रतिबंध सी लगती हैं। वहीं बच्चा जब पालक की भूमिका में आता है तो खुद के बच्चे पर भी वही बातें लादता है जिसका कभी खुद उसी ने विरोध किया था। वाणी का यही प्रभाव होता है उसका असर एक सा होता है लेकिन मनोभाव बदलते ही वह मारक क्षमता वाला हो जाता है।
यहां भगवान ने उज्जैन को याद किया है। उज्जैन में प्रभु पढऩे भी गए थे। एक विवाह भी वहां की राजकुमारी से किया था। अब उदाहरण में भी उज्जैन को याद कर रहे हैं। भगवान भी कहते हैं कि अपने ससुराल को हमेशा याद करते रहना चाहिए। भागवत में गृहस्थी के अनेक सूत्र आते रहते हैं।
प्राचीन समय की बात है उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण ने खेती-व्यापार आदि करके बहुत सी धन, सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था।
उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाईबन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन ही मन उसका अनिष्ट चिंतन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला काम नहीं करता था। अब तक धन टिका हुआ था- जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आंखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गए।
समझ लें इसे क्योंकि बस यही असली आध्यात्म है...
एक क्षण ऐसा आता है जब सारे भार को कम करने ईश्वर स्वयं आ उपस्थित हो साधक को अपने में विलीन कर लेते हैं। यह स्थिति तब बनती है जब सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं वाली आज्ञा का सही अर्थ में साधक, भक्त, ज्ञानी या और कोई सतत् पालन करने का प्रयत्न करके अपने जीवन का गंतव्य समझ सोपान दर सोपान चढऩे लगता है। इसे ईश्वर प्रणिधान की संज्ञा ऋषि-मुनियों, योगियों, तत्वदर्शियों आदि ने दी है।भगवान श्रीकृष्ण अपने देवलोकगमन के पूर्व उद्धवजी को अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं।
वे अब सांख्य योग पर चर्चा करते हैं। हमें अपने भीतर की स्थितियों का भी ज्ञान होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व जिन तत्व से संचालित होता है। उसको सूक्ष्म तरीके से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-भाई उद्धव! अब तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। इसमें संदेह नहीं कि ब्रम्ह में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल अद्वितीय सत्य है, मन और वाणी की उसमें गति नहीं है।वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्ब जीव के रूप में दृश्य और द्रष्टा के रूप में, दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम - ये तीन गुण प्रकट हुए।
उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है, इसलिए वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। अहंकार को केवल घमण्ड न मान लिया जाए। इसको सूक्ष्मता से समझना चाहिए।अहंकार का उद्घोश शब्द मैं प्रयुक्त हो सकता है। सोऽहं के उच्चारण को इस अक्षर मैं को यदि लिया जाए तो यह ब्रम्ह बोधक होगा, अक्षर ब्रम्ह ही है। जिसका क्षरण न हो व अक्षर, शेष सारे जीवन वैभव क्षर है। सृष्टि क्षर है। सृष्टि क्रम में अहंकार निहित है। इसकी रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा थे, तब न दृष्टा थे और दृश्य था। माया का प्रादुर्भाव हुआ।
माया की व्याख्या इस प्रकार है-मा नहीं या जो अर्थात् ब्रम्ह नहीं है अथवा जिसकी स्वत: कोई सत्ता नहीं है। यह अर्थ ठीक है कि जो ईश्वर से तो आई है, परंतु ईश्वर से भिन्न गुण वाली है, अर्थात् ईश्वर का ज्ञान बंधन मुक्त करता है और माया बंधन युक्त करती है। ईश्वर से अद्भुत उसकी माया चेतन प्रकाशमयी होनी चाहिए। तस्य भासा सर्वमिदं विभाती है - यह सबकुछ उस परमात्मा से प्रकाशित हो रहा है, परंतु वह अपने स्वामी के मुख पर पर्दा डाल देती है।माया का काल, कला, नियति, इनके ज्ञान और राग इन पंच विध सीमाओं से सिमित होकर अंशी जीव का रूप धारण कर लेता है। भगवान की यह माया उन्हीं के शब्दों में ''दैवी ह्येशा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
मेरी यह तीन गुणों वाली माया से तरना कठिन है पर जो मेरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। सारी सृष्टि माया का रूप है, इसमें तरने के लिए शरणागति उपाय है। हम इसे अध्यात्म का सार कहें तो उपयुक्त होगा। इसी क्रम में गीताकार ने स्पष्ट किया है कि जो शरण में नहीं जाते या जा सकते हैं वे आसुरी भाव वाले मूढ़ हैं- भजन शरणागति का व्यावहारिक स्वरूप माना जाना ठीक लगता है। चार प्रकार के भजनार्थी श्रीकृष्ण भगवान ने बताए-दु:खी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्त करने वाले (अर्थाथी) और ज्ञानी। इनमें समभाव से भजने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ को माना गया है। ज्ञानी कई जन्मों के अंत में भगवान को पाता है, सब वासुदेवमय है, ऐसा जानने वाला ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ होता है।
अगर ऐसे जिंदगी बिता रहे हैं तो आप भ्रम में हैं क्योंकि....
संसार और माया, दोनों शब्द कभी एक-दूसरे से बिलकुल अलग तो कभी एक दूसरे के विकल्प नजर आते हैं। कुछ विद्वान इस संसार को ही माया कहते हैं, तो कुछ कहते हैं कि यह संसार पूरी तरह परमात्मा की माया से घिरा हुआ है। संसारी जीव के लिए यह तय करना कठिन है कि वह इस दुनिया को समझे कैसे। उसके लिए तो यही सत्य भी है, यही माया भी। संसार और माया के बीच बहुत बारिक सी लकीर है जो इन दोनों को पूरी तरह अलग भी करती है और अगर गौर से न देखा जाए तो दोनों को एक भी दिखाती है। इस लकीर का नाम है ज्ञान, विवेक। अगर हमारे भीतर ज्ञान और विवेक जागृत है तो फिर हम संसार और माया में फर्क भी कर सकते हैं और परमात्मा को पाने के जतन भी कर सकते हैं। जिनके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं होता वे लोग अक्सर अपना जीवन भ्रम में ही गुजार देते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो संसार भ्रम और माया भी है, संसार सत्य भी है। इसके अंतर को अच्छे से समझा जाए। जब हम संसार में जीते हैं, परिवार में रहते हैं, समाज में समय बिताते हैं तो ये सब सत्य लगता है। आदमी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इतना उलझ जाता है कि वह परमात्मा, परमशक्ति से दूर हो जाता है। जो लोग इस संसार को ही पूरी तरह अपना मान लेते हैं, उनके लिए संसार सारी उम्र सत्य जैसा ही लगता है लेकिन जब अंतिम समय पास आता है तो फिर यह संसार मिथ्या लगने लगता है। ऐसे समय कुछ लोग कुछ सवाल उठाते हैं कि क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां न उठाई जाएं, समाज से दूर हो जाएं, काम करना बंद कर दें, कहीं जंगल में चले जाएं? ये सब विवेकशून्यता की निशानियां हैं, व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझ ही नहीं पाया यह साफ हो जाता है।
जो ज्ञानी है, जिसके भीतर विवेक जागृत है वो कभी ऐसी बातें नहीं करता। उसके लिए संसार और माया का फर्क हमेशा रहता है। इसे कैसे समझें। सीधा तरीका है संसार में रहें, समाज में रहें, परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाएं, सामाजिक भूमिका का निर्वाह भी करें लेकिन इसके केंद्र में संसार नहीं हो, इन सब कामों के केंद्र में भगवान हो, परमात्मा हो, तो फि र संसार कभी भी माया नहीं लगेगा। हर काम को यह सोचकर करें कि इसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। जो मिल रहा है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, जो छिन रहा है वह भी परमात्मा ही वापस ले रहा है। लेकिन यह सब व्यवहार में लाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत कोशिशें लगती हैं। अभ्यास करना पड़ता है। तभी संसार और माया दोनों को समझा जा सकता है।
बस ये एक बात समझ लें सफल जिंदगी का राज इसी में है....
नानक देवजी की उक्ति के अनुसार सारे संसार में राम को रमते देख कर्म करते हुए जीवन यापन करना कर्म की कुशलता है। एक उदाहरण हमें इस दिशा में
निदेशन देता है-जाजालि एक ऋषि था। उसने समुद्र तट पर बड़ी तपस्या की। उसकी जटा में पक्षियों ने घोंसला बनाया। उसे सिद्धियां प्राप्त हुईं। वह वरदान देने तथा श्राप देने में समर्थ हो गया।
एक दिन एक चिडिय़ा ने उसके ऊपर कीट कर दी, उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिडिय़ा को देखा, चिडिय़ा जल गई। उसे प्रसन्नता हुई लेकिन आकाशवाणी
अन्तर्मन की ध्वनि हुई मेरी तपस्या निरर्थक है। काशी निवासी तुलाधार का तप ही सच्चा तप है। उसके पास जा और उससे शिक्षा प्राप्त कर। जाजालि काशी
पहुंचा। तुलाधार के घर गया। तुलाधार अपने व्यापारिक कार्य में लगा हुआ था। जाजालि को देखते ही परिचित की भांति बोला- आइए! पधारिए, जाजालि ऋषि आपका स्वागत है और जो कुछ जाजालि के साथ व्यतीत हुआ सम्पूर्ण वृतान्त ऐसे सुनाया मानो वह स्वयं उस घटना के समय उपस्थित हो।
ऋषि को अद्भुत लगा। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक कर्म करते हुए यह सर्वज्ञाता कैसे हो गया। जाजालि के भ्रम को दूर करने की दृष्टि से तुलाधार ने प्रेम से कहा-महात्मा! मैं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए अपने प्रभु-प्रदत्त कत्र्तव्य कर्म का पालन करता हूं, उनकी इच्छा में प्रसन्न रहता हूं। मैं तो उनका आज्ञाकारी माली बनकर उनके उपवन में काम करता हूं। मेरे जीवन का व्रत है सबका हित करना व चाहना। अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करता हूं। माता-पिता की भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। सदाचार, सद्विचार, संतोष व शांति ही मेरा जीवन है, यही मेरा तप है। इसलिए भगवान की कृपा है। तुलाधार के यहां एक पिंजरे में दो पक्षी के बच्चे थे, उनकी ओर संकेत करके वह बोले-महात्मन! ये वे ही पक्षी के बच्चे हैं जो आपकी जटा में समुद्र तट पैदा हुए थे। भगवत् कृपा से इन्हें ज्ञान हो गया है। पक्षी ऋषि जाजालि से प्रसन्न होकर कहने लगे-रागी-अज्ञानियों को वन में भी अनेक प्रकार के अहंकार, क्रोध आदि दोष उत्पन्न हो जाता है। परंतु गृह में रहता हुआ जो व्यक्ति विषयों के राग का निवारण कर इन्द्रियों का निग्रह करता है-इन्द्रियों को विषय की ओर नहीं जाने देता, यही उसका भारी तप है और जो भगवान की प्रसन्नता के लिए निमित्त हो कर्म करता है, उसके सभी कर्म पवित्र रहते हैं और उसका राग रहित घर ही तपोवन बन जाता है।
वनेऽपि दोशा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।
अकुत्सिते कमर्णि य: प्रवर्तते, निवृत्त रागास्य गृहं तपोवनम्।।
इस सद्वृत्ति के लिए मन: स्थिति को महाकाल के आधीन करके आनन्दमय जीवन बिताना शक्य होता है। महाकाल और सदाशिव एक ही है। संसार के उतार-चढ़ाव में सम बुद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय भवगत समर्पण है। यह समर्पण उसकी कृपा के बिना संभव नहीं, उसकी कृपा के लिए उसी को पुकारें।
धर्म की नजर से: कैसा होना चाहिए परिवार का महौल?
व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से शक्ति कार्य करती है, उसे गुरु कहा जाता है, किन्तु वास्तव में गुरु व्यक्ति नहीं ईश्वर है। या ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्पन्न अवतार है। रामावतार में श्रीराम ने लक्ष्मण को, हनुमानजी को, शबरी को गुरु रूप में उपदेश दिया, वही शिव ने किया। कृष्णावतार में अर्जुन, उद्धव गुरु उपदेशों से लाभान्वित हुए। भगवान कृष्ण की स्तुति में 'कृष्णं वन्दे जगत् गुरुम कहकर उन्हें सम्बोधित किया ही जाता है। अत: गुरु रूप में व्यक्ति ईश्वरावतार कहा जा सकता है। साधक अपनी साधना तथा ईश्वर (गुरु) कृपा से नाम जपते-जपते उसके अर्थ तक गहरा उतर जाता है।
'तस्य वाचक प्रणव.... प्रणव है नाम जिसका तथा नाम है प्रणव जिसका। प्रणव के अलावा राम, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, गॉड, अल्लाह या जो भी नाम संस्कारवश मिल जाए उसका जप सतत तेल धारावत् होने लगता है। प्राणशक्ति का चित्त से व मन से तादात्म्य त्यागकर आत्मा में लय हो जाता है। नाम जप व हरि स्मरण मुक्ति का माध्यम बन जाता है और साधक मुक्ति की सिद्धावस्था में स्थित हो आगे और आगे या ऊपर और ऊपर बढ़ता हुआ, उठता हुआ अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होने लगता है। यह वर्तमान जन्म में या आगे के जन्मों में सम्भव होता है। निर्भर करता है कि साधना की गति कितनी तीव्र है। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को साधक वृत्ति रखना चाहिए।
परिवार के साथ भी परमात्मा में लीन रहा जा सकता है। परिवार भी एक तरह की तपोस्थली ही है। हमें केवल इसे व्यवहार में लाना होगा। परिवार के केंद्र में परमात्मा को रख लें, हर काम यह मानकर किया जाए कि परमात्मा का दिया काम है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए किया जा रहा काम है। परिवार में बातचीत का आधार भी धन, सम्पत्ति या रिश्ते न होकर ज्ञान, गुण, वैराग्य और भक्ति होना चाहिए। रामायण में इसका एक सुंदर उदाहरण भी है, जब परिवार के सदस्य आपस में बातचीत करें तो उनका आधार क्या हो, उनके बीच बातचीत कैसी हो, किस विषय पर बात हो। राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में ऐसी ही बात कर रहे हैं। राम, सीता और लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, गुण और वैराग्य का महत्व समझा रहे हैं। ऐसे माहौल में परिवार स्वत: परमात्मामय हो जाएगा। आपको कभी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करना होंगे।
बरबादी से बचना है तो ये एक बात हमेशा याद रखें
अब भगवान और उद्धव का वार्तालाप ग्यारहवें स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहा है। मनुष्य शरीर का महत्व और उद्देश्य बताते हुए भगवान प्रश्नों के उत्तरों का सिलसिला आरंभ करते हैं।भगवान कहते हैं- उद्धवजी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं।
ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बंधता नहीं।इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दुशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है।इसलिए आज के जमाने में आप अपने संग को लेकर बहुत सावधान रहें। हम अपने पहनावे, खानपान को लेकर तो विचार करते हैं, पर हम किन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। जो लोग हमारे जीवन में हैं उनके आचरण का सीधा असर हम पर पड़ेगा ही। इसलिए अपने संग के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें।
आज प्रबंधन के युग में चौबीस घण्टे हमें अच्छे और बुरे लोगों से मिलना पड़ता है। कई लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए हमसे संबंध बना लेते हैं। हो सकता है हम भी अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे संपर्क रखते हों। लेकिन भागवत का भक्त इस बात के लिए सचेत रहे कि व्यावहारिक और सांसारिक संपर्कों से कहीं कुसंग न हो जाए। यहां आकर भगवान उद्धवजी को एक दृष्टांत सुनाते हैं। राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गए थे। कुसंग मोह पैदा करता है और आदमी का पतन हो जाता है।
इस मामले में विवेक से काम न लिया तो बचना है मुश्किल क्योंकि....
उद्धवजी! पहले तो सम्राट पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था। बाद में शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियां न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।पुरूरवा ने बाद में पश्चाताप के साथ कहा मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया। मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूं।
वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके।काम हमारे मन को ढंक लेता है। शरीर को वश में कर लेता है।
इसीलिए कहा जाता है कि काम का बाण सीधे हमारे मन को बेधता है। वह सीधे मन में उतरता है और मन को वश में करके, उससे शरीर पर शासन करता है। हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है कि हम मन के मत से चलते हैं। मन हमारी सवारी करता है, वो जिधर ले जाता है उधर ही हम चल पड़ते हैं। मन को समझाना, साधना बहुत मुश्किल हो जाता है। मन से सीधे वो बुद्धि पर प्रहार करता है। मन काम के वश में हो जाए तो फिर बुद्धि को वश में करना कोई बड़ी बात नहीं है।
इसीलिए कहा गया है कि कई बारबुद्धिमान, ज्ञानी, तत्वज्ञानी लोग भी काम के जाल में ऐसे उलझ जाते हैं कि अच्छे बुरे के सारे भेद की समझ ही मिट जाती है। सो, काम से बचने का एक ही तरीका है, वह है ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन हमें मन के प्रभाव से बचाता है। हम मन के अधीन नहीं होते, मन हमारे अधीन हो जाता है। जब मन सध जाए तो बुद्धि कभी पराभाव में नहीं जाएगी। मन को नहीं साधा तो काम का बाण लगना तय है। इस बाण से कोई नहीं बच सकता।
इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है।
इन्हीं विभक्ति तत्वों से मनुष्य का यह बाहरी और भीतरी (स्थूल व सूक्ष्म) देह बना है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गणित-शास्त्र की दृष्टि नौ का अंक पूर्ण होता है तथा आठ का अंक घटता जाता है।इसी प्रकार हमारे निर्माता आठ तत्व न स्वयं कालान्तर में महाकाल में विलीन हो जाएंगे, बल्कि हमारी काया को घटाते हुए उसी महाकाल को हमेशा-हमेशा के लिए सौंप देंगे। समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और सबसे बड़ी इकाई सरकार या राज्य। इस छोटी इकाई का प्रमुख वृद्ध होता है। सम्भवत: उसका महत्व ऊपरी तौर पर बढ़ता जाता है और प्रमुखता माँ या दादी के हिस्से परिस्थितिवश आ जाए तो पारिवारिक जटिलता भौतिक दृष्टिकोण के कारण पैदा हो जाती है। यह विवेचन का प्रश्न इसलिए पैदा हुआ कि आज हम कलि-प्रभाव में आध्यात्मिक आचार-विचार से दूर होते जा रहे हैं।
वैसे कलि-प्रभाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है-कलियुग और द्वापरयुग की सन्धि अभी चल रही है, फिर भी जो पारिवारिक विघटन, विग्रह और विनिमय दिखाई दे रहा है यह हमारे जीवन को न केवल विशाक्त बना रहे हैं बल्कि हमें अपने सुख से तेजी से जा रहे हैं और हम स्वयं के शत्रु बन बैठे हैं-''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/5जीवात्मा आप ही (तो) अपना मित्र है और आप ही आत्मा शत्रु है अर्थात् अन्य शत्रु या मित्र नहीं होता।
हम अपने व्यवहार से ऐसी स्थिति का निर्माण कर लेते हैं कि ''सियाराम मय सब जग के स्थान पर ''पराये मय सब जग बन जाता है और यदि पूछा जाए तो हमारा उत्तर होता है- 'हम क्या करें, हम तो हर प्रकार से झुकते हैं, समायोजन करते हैं, परन्तु सामने वाला इतना स्वार्थी है कि वह अपना ही अपना सोचता है और अपने ही अपने लिए कार्य करता है, जबकि हमने जीवनपर्यन्त उसके लिए या उनके लिए सर्वाधिक त्याग किया। यह उत्तर कई स्थितियों में सही होता है और यह स्थिति अनेक परिवारों में पाई जाती है, जिसमें वृद्ध या वृद्धा का महत्व या उपयोगिता शारीरिक, आर्थिक या स्वभावगत कारणों से क्षीण होता जा रहा है।
पैसों का सही उपयोग नहीं करोगे तो यही होगा हाल
जब लड़का किशोरावस्था में होता है तो माता-पिता की रोकटोक उसे बुरी लगती है। वह झल्ला जाता है। कई बच्चे तो घर तक छोड़ देते हैं। माता-पिता उसे दुश्मन लगते हैं। क्योंकि उसका मन आजाद पक्षी की तरह उडऩा चाहता है और मां-बाप की बातें उसे प्रतिबंध सी लगती हैं। वहीं बच्चा जब पालक की भूमिका में आता है तो खुद के बच्चे पर भी वही बातें लादता है जिसका कभी खुद उसी ने विरोध किया था। वाणी का यही प्रभाव होता है उसका असर एक सा होता है लेकिन मनोभाव बदलते ही वह मारक क्षमता वाला हो जाता है।
यहां भगवान ने उज्जैन को याद किया है। उज्जैन में प्रभु पढऩे भी गए थे। एक विवाह भी वहां की राजकुमारी से किया था। अब उदाहरण में भी उज्जैन को याद कर रहे हैं। भगवान भी कहते हैं कि अपने ससुराल को हमेशा याद करते रहना चाहिए। भागवत में गृहस्थी के अनेक सूत्र आते रहते हैं।
प्राचीन समय की बात है उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण ने खेती-व्यापार आदि करके बहुत सी धन, सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था।
उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाईबन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन ही मन उसका अनिष्ट चिंतन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला काम नहीं करता था। अब तक धन टिका हुआ था- जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आंखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गए।
समझ लें इसे क्योंकि बस यही असली आध्यात्म है...
एक क्षण ऐसा आता है जब सारे भार को कम करने ईश्वर स्वयं आ उपस्थित हो साधक को अपने में विलीन कर लेते हैं। यह स्थिति तब बनती है जब सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं वाली आज्ञा का सही अर्थ में साधक, भक्त, ज्ञानी या और कोई सतत् पालन करने का प्रयत्न करके अपने जीवन का गंतव्य समझ सोपान दर सोपान चढऩे लगता है। इसे ईश्वर प्रणिधान की संज्ञा ऋषि-मुनियों, योगियों, तत्वदर्शियों आदि ने दी है।भगवान श्रीकृष्ण अपने देवलोकगमन के पूर्व उद्धवजी को अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं।
वे अब सांख्य योग पर चर्चा करते हैं। हमें अपने भीतर की स्थितियों का भी ज्ञान होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व जिन तत्व से संचालित होता है। उसको सूक्ष्म तरीके से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-भाई उद्धव! अब तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। इसमें संदेह नहीं कि ब्रम्ह में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल अद्वितीय सत्य है, मन और वाणी की उसमें गति नहीं है।वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्ब जीव के रूप में दृश्य और द्रष्टा के रूप में, दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम - ये तीन गुण प्रकट हुए।
उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है, इसलिए वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। अहंकार को केवल घमण्ड न मान लिया जाए। इसको सूक्ष्मता से समझना चाहिए।अहंकार का उद्घोश शब्द मैं प्रयुक्त हो सकता है। सोऽहं के उच्चारण को इस अक्षर मैं को यदि लिया जाए तो यह ब्रम्ह बोधक होगा, अक्षर ब्रम्ह ही है। जिसका क्षरण न हो व अक्षर, शेष सारे जीवन वैभव क्षर है। सृष्टि क्षर है। सृष्टि क्रम में अहंकार निहित है। इसकी रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा थे, तब न दृष्टा थे और दृश्य था। माया का प्रादुर्भाव हुआ।
माया की व्याख्या इस प्रकार है-मा नहीं या जो अर्थात् ब्रम्ह नहीं है अथवा जिसकी स्वत: कोई सत्ता नहीं है। यह अर्थ ठीक है कि जो ईश्वर से तो आई है, परंतु ईश्वर से भिन्न गुण वाली है, अर्थात् ईश्वर का ज्ञान बंधन मुक्त करता है और माया बंधन युक्त करती है। ईश्वर से अद्भुत उसकी माया चेतन प्रकाशमयी होनी चाहिए। तस्य भासा सर्वमिदं विभाती है - यह सबकुछ उस परमात्मा से प्रकाशित हो रहा है, परंतु वह अपने स्वामी के मुख पर पर्दा डाल देती है।माया का काल, कला, नियति, इनके ज्ञान और राग इन पंच विध सीमाओं से सिमित होकर अंशी जीव का रूप धारण कर लेता है। भगवान की यह माया उन्हीं के शब्दों में ''दैवी ह्येशा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
मेरी यह तीन गुणों वाली माया से तरना कठिन है पर जो मेरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। सारी सृष्टि माया का रूप है, इसमें तरने के लिए शरणागति उपाय है। हम इसे अध्यात्म का सार कहें तो उपयुक्त होगा। इसी क्रम में गीताकार ने स्पष्ट किया है कि जो शरण में नहीं जाते या जा सकते हैं वे आसुरी भाव वाले मूढ़ हैं- भजन शरणागति का व्यावहारिक स्वरूप माना जाना ठीक लगता है। चार प्रकार के भजनार्थी श्रीकृष्ण भगवान ने बताए-दु:खी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्त करने वाले (अर्थाथी) और ज्ञानी। इनमें समभाव से भजने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ को माना गया है। ज्ञानी कई जन्मों के अंत में भगवान को पाता है, सब वासुदेवमय है, ऐसा जानने वाला ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ होता है।
अगर ऐसे जिंदगी बिता रहे हैं तो आप भ्रम में हैं क्योंकि....
संसार और माया, दोनों शब्द कभी एक-दूसरे से बिलकुल अलग तो कभी एक दूसरे के विकल्प नजर आते हैं। कुछ विद्वान इस संसार को ही माया कहते हैं, तो कुछ कहते हैं कि यह संसार पूरी तरह परमात्मा की माया से घिरा हुआ है। संसारी जीव के लिए यह तय करना कठिन है कि वह इस दुनिया को समझे कैसे। उसके लिए तो यही सत्य भी है, यही माया भी। संसार और माया के बीच बहुत बारिक सी लकीर है जो इन दोनों को पूरी तरह अलग भी करती है और अगर गौर से न देखा जाए तो दोनों को एक भी दिखाती है। इस लकीर का नाम है ज्ञान, विवेक। अगर हमारे भीतर ज्ञान और विवेक जागृत है तो फिर हम संसार और माया में फर्क भी कर सकते हैं और परमात्मा को पाने के जतन भी कर सकते हैं। जिनके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं होता वे लोग अक्सर अपना जीवन भ्रम में ही गुजार देते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो संसार भ्रम और माया भी है, संसार सत्य भी है। इसके अंतर को अच्छे से समझा जाए। जब हम संसार में जीते हैं, परिवार में रहते हैं, समाज में समय बिताते हैं तो ये सब सत्य लगता है। आदमी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इतना उलझ जाता है कि वह परमात्मा, परमशक्ति से दूर हो जाता है। जो लोग इस संसार को ही पूरी तरह अपना मान लेते हैं, उनके लिए संसार सारी उम्र सत्य जैसा ही लगता है लेकिन जब अंतिम समय पास आता है तो फिर यह संसार मिथ्या लगने लगता है। ऐसे समय कुछ लोग कुछ सवाल उठाते हैं कि क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां न उठाई जाएं, समाज से दूर हो जाएं, काम करना बंद कर दें, कहीं जंगल में चले जाएं? ये सब विवेकशून्यता की निशानियां हैं, व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझ ही नहीं पाया यह साफ हो जाता है।
जो ज्ञानी है, जिसके भीतर विवेक जागृत है वो कभी ऐसी बातें नहीं करता। उसके लिए संसार और माया का फर्क हमेशा रहता है। इसे कैसे समझें। सीधा तरीका है संसार में रहें, समाज में रहें, परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाएं, सामाजिक भूमिका का निर्वाह भी करें लेकिन इसके केंद्र में संसार नहीं हो, इन सब कामों के केंद्र में भगवान हो, परमात्मा हो, तो फि र संसार कभी भी माया नहीं लगेगा। हर काम को यह सोचकर करें कि इसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। जो मिल रहा है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, जो छिन रहा है वह भी परमात्मा ही वापस ले रहा है। लेकिन यह सब व्यवहार में लाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत कोशिशें लगती हैं। अभ्यास करना पड़ता है। तभी संसार और माया दोनों को समझा जा सकता है।
बस ये एक बात समझ लें सफल जिंदगी का राज इसी में है....
नानक देवजी की उक्ति के अनुसार सारे संसार में राम को रमते देख कर्म करते हुए जीवन यापन करना कर्म की कुशलता है। एक उदाहरण हमें इस दिशा में
निदेशन देता है-जाजालि एक ऋषि था। उसने समुद्र तट पर बड़ी तपस्या की। उसकी जटा में पक्षियों ने घोंसला बनाया। उसे सिद्धियां प्राप्त हुईं। वह वरदान देने तथा श्राप देने में समर्थ हो गया।
एक दिन एक चिडिय़ा ने उसके ऊपर कीट कर दी, उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिडिय़ा को देखा, चिडिय़ा जल गई। उसे प्रसन्नता हुई लेकिन आकाशवाणी
अन्तर्मन की ध्वनि हुई मेरी तपस्या निरर्थक है। काशी निवासी तुलाधार का तप ही सच्चा तप है। उसके पास जा और उससे शिक्षा प्राप्त कर। जाजालि काशी
पहुंचा। तुलाधार के घर गया। तुलाधार अपने व्यापारिक कार्य में लगा हुआ था। जाजालि को देखते ही परिचित की भांति बोला- आइए! पधारिए, जाजालि ऋषि आपका स्वागत है और जो कुछ जाजालि के साथ व्यतीत हुआ सम्पूर्ण वृतान्त ऐसे सुनाया मानो वह स्वयं उस घटना के समय उपस्थित हो।
ऋषि को अद्भुत लगा। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक कर्म करते हुए यह सर्वज्ञाता कैसे हो गया। जाजालि के भ्रम को दूर करने की दृष्टि से तुलाधार ने प्रेम से कहा-महात्मा! मैं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए अपने प्रभु-प्रदत्त कत्र्तव्य कर्म का पालन करता हूं, उनकी इच्छा में प्रसन्न रहता हूं। मैं तो उनका आज्ञाकारी माली बनकर उनके उपवन में काम करता हूं। मेरे जीवन का व्रत है सबका हित करना व चाहना। अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करता हूं। माता-पिता की भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। सदाचार, सद्विचार, संतोष व शांति ही मेरा जीवन है, यही मेरा तप है। इसलिए भगवान की कृपा है। तुलाधार के यहां एक पिंजरे में दो पक्षी के बच्चे थे, उनकी ओर संकेत करके वह बोले-महात्मन! ये वे ही पक्षी के बच्चे हैं जो आपकी जटा में समुद्र तट पैदा हुए थे। भगवत् कृपा से इन्हें ज्ञान हो गया है। पक्षी ऋषि जाजालि से प्रसन्न होकर कहने लगे-रागी-अज्ञानियों को वन में भी अनेक प्रकार के अहंकार, क्रोध आदि दोष उत्पन्न हो जाता है। परंतु गृह में रहता हुआ जो व्यक्ति विषयों के राग का निवारण कर इन्द्रियों का निग्रह करता है-इन्द्रियों को विषय की ओर नहीं जाने देता, यही उसका भारी तप है और जो भगवान की प्रसन्नता के लिए निमित्त हो कर्म करता है, उसके सभी कर्म पवित्र रहते हैं और उसका राग रहित घर ही तपोवन बन जाता है।
वनेऽपि दोशा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।
अकुत्सिते कमर्णि य: प्रवर्तते, निवृत्त रागास्य गृहं तपोवनम्।।
इस सद्वृत्ति के लिए मन: स्थिति को महाकाल के आधीन करके आनन्दमय जीवन बिताना शक्य होता है। महाकाल और सदाशिव एक ही है। संसार के उतार-चढ़ाव में सम बुद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय भवगत समर्पण है। यह समर्पण उसकी कृपा के बिना संभव नहीं, उसकी कृपा के लिए उसी को पुकारें।
धर्म की नजर से: कैसा होना चाहिए परिवार का महौल?
व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से शक्ति कार्य करती है, उसे गुरु कहा जाता है, किन्तु वास्तव में गुरु व्यक्ति नहीं ईश्वर है। या ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्पन्न अवतार है। रामावतार में श्रीराम ने लक्ष्मण को, हनुमानजी को, शबरी को गुरु रूप में उपदेश दिया, वही शिव ने किया। कृष्णावतार में अर्जुन, उद्धव गुरु उपदेशों से लाभान्वित हुए। भगवान कृष्ण की स्तुति में 'कृष्णं वन्दे जगत् गुरुम कहकर उन्हें सम्बोधित किया ही जाता है। अत: गुरु रूप में व्यक्ति ईश्वरावतार कहा जा सकता है। साधक अपनी साधना तथा ईश्वर (गुरु) कृपा से नाम जपते-जपते उसके अर्थ तक गहरा उतर जाता है।
'तस्य वाचक प्रणव.... प्रणव है नाम जिसका तथा नाम है प्रणव जिसका। प्रणव के अलावा राम, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, गॉड, अल्लाह या जो भी नाम संस्कारवश मिल जाए उसका जप सतत तेल धारावत् होने लगता है। प्राणशक्ति का चित्त से व मन से तादात्म्य त्यागकर आत्मा में लय हो जाता है। नाम जप व हरि स्मरण मुक्ति का माध्यम बन जाता है और साधक मुक्ति की सिद्धावस्था में स्थित हो आगे और आगे या ऊपर और ऊपर बढ़ता हुआ, उठता हुआ अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होने लगता है। यह वर्तमान जन्म में या आगे के जन्मों में सम्भव होता है। निर्भर करता है कि साधना की गति कितनी तीव्र है। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को साधक वृत्ति रखना चाहिए।
परिवार के साथ भी परमात्मा में लीन रहा जा सकता है। परिवार भी एक तरह की तपोस्थली ही है। हमें केवल इसे व्यवहार में लाना होगा। परिवार के केंद्र में परमात्मा को रख लें, हर काम यह मानकर किया जाए कि परमात्मा का दिया काम है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए किया जा रहा काम है। परिवार में बातचीत का आधार भी धन, सम्पत्ति या रिश्ते न होकर ज्ञान, गुण, वैराग्य और भक्ति होना चाहिए। रामायण में इसका एक सुंदर उदाहरण भी है, जब परिवार के सदस्य आपस में बातचीत करें तो उनका आधार क्या हो, उनके बीच बातचीत कैसी हो, किस विषय पर बात हो। राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में ऐसी ही बात कर रहे हैं। राम, सीता और लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, गुण और वैराग्य का महत्व समझा रहे हैं। ऐसे माहौल में परिवार स्वत: परमात्मामय हो जाएगा। आपको कभी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करना होंगे।
बरबादी से बचना है तो ये एक बात हमेशा याद रखें
अब भगवान और उद्धव का वार्तालाप ग्यारहवें स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहा है। मनुष्य शरीर का महत्व और उद्देश्य बताते हुए भगवान प्रश्नों के उत्तरों का सिलसिला आरंभ करते हैं।भगवान कहते हैं- उद्धवजी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं।
ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बंधता नहीं।इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दुशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है।इसलिए आज के जमाने में आप अपने संग को लेकर बहुत सावधान रहें। हम अपने पहनावे, खानपान को लेकर तो विचार करते हैं, पर हम किन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। जो लोग हमारे जीवन में हैं उनके आचरण का सीधा असर हम पर पड़ेगा ही। इसलिए अपने संग के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें।
आज प्रबंधन के युग में चौबीस घण्टे हमें अच्छे और बुरे लोगों से मिलना पड़ता है। कई लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए हमसे संबंध बना लेते हैं। हो सकता है हम भी अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे संपर्क रखते हों। लेकिन भागवत का भक्त इस बात के लिए सचेत रहे कि व्यावहारिक और सांसारिक संपर्कों से कहीं कुसंग न हो जाए। यहां आकर भगवान उद्धवजी को एक दृष्टांत सुनाते हैं। राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गए थे। कुसंग मोह पैदा करता है और आदमी का पतन हो जाता है।
इस मामले में विवेक से काम न लिया तो बचना है मुश्किल क्योंकि....
उद्धवजी! पहले तो सम्राट पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था। बाद में शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियां न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।पुरूरवा ने बाद में पश्चाताप के साथ कहा मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया। मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूं।
वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके।काम हमारे मन को ढंक लेता है। शरीर को वश में कर लेता है।
इसीलिए कहा जाता है कि काम का बाण सीधे हमारे मन को बेधता है। वह सीधे मन में उतरता है और मन को वश में करके, उससे शरीर पर शासन करता है। हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है कि हम मन के मत से चलते हैं। मन हमारी सवारी करता है, वो जिधर ले जाता है उधर ही हम चल पड़ते हैं। मन को समझाना, साधना बहुत मुश्किल हो जाता है। मन से सीधे वो बुद्धि पर प्रहार करता है। मन काम के वश में हो जाए तो फिर बुद्धि को वश में करना कोई बड़ी बात नहीं है।
इसीलिए कहा गया है कि कई बारबुद्धिमान, ज्ञानी, तत्वज्ञानी लोग भी काम के जाल में ऐसे उलझ जाते हैं कि अच्छे बुरे के सारे भेद की समझ ही मिट जाती है। सो, काम से बचने का एक ही तरीका है, वह है ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन हमें मन के प्रभाव से बचाता है। हम मन के अधीन नहीं होते, मन हमारे अधीन हो जाता है। जब मन सध जाए तो बुद्धि कभी पराभाव में नहीं जाएगी। मन को नहीं साधा तो काम का बाण लगना तय है। इस बाण से कोई नहीं बच सकता।
इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है।
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