शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

फ्रीज में ना रखे गूंथा हुआ आटा

क्योकि वह आमंत्रित करता है भूतों को !!

गूंथे हुए आटे को उसी तरह पिण्ड के बराबर माना जाता है जो पिण्ड मृत्यु के बाद जीवात्मा के लिए समर्पित किए जाते हैं। किसी भी घर में जब गूंथा हुआ आटा फ्रीज में रखने की परम्परा बन जाती है तब वे भूत-और पितर इस पिण्ड का भक्षण करने के लिए घर में आने शुरू हो जाते हैं जो पिण्ड पाने से वंचित रह जाते हैं। ऐसे भूत और पितर फ्रीज में रखे इस पिण्ड से तृप्ति पाने का उपक्रम करते रहते हैं। जिन परिवारों में भी इस प्रकार की परम्परा बनी हुई है वहां किसी न किसी प्रकार के अनिष्ट, रोग-शोक और क्रोध तथा आलस्य का डेरा पसर जाता है। इस बासी और भूत भोजन का सेवन करने वाले लोगों को अनेक समस्याओं से घिरना
पडता है। आप अपने इष्ट मित्रों, परिजनों व पडोसियों के घरों में इस प्रकार की स्थितियां देखें उनकी जीवनचर्या का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाएंगे कि वे किसी न किसी उलझन से घिरे रहते हैं।
आटा गूंथने में लगने वाले सिर्फ दो-चार मिनट बचाने के लिए की जाने वाली यह क्रिया किसी भी दृष्टि से सही नहीं मानी जा सकती। पुराने जमाने से बुजुर्ग यही राय देते रहे हैं कि गूंथा हुआ आटा रात को नहीं रहना चाहिए। उस जमाने में फ्रीज का कोई अस्तित्व नहीं था फिर भी बुजुर्गों को इसके पीछे रहस्यों की
पूरी जानकारी थी। यों भी बासी भोजन का सेवन शरीर के लिए हानिकारक है ही। भोजन केवल शरीर को ही नहीं,अपितु मन-मस्तिष्क को भी गहरे तक प्रभावित करता है। दूषित अन्न-जल का सेवन न सिर्फ आफ शरीर-मन को बल्कि आपकी संतति तक में असर डालता है। ऋषि-मुनियों ने दीर्घ जीवन के जो सूत्र बताये हैं उनमें ताजे भोजन पर विशेष जोर दिया है। ताजे भोजन से शरीर निरोगी होने के साथ-साथ तरोताजा रहता है और बीमारियों को पनपने से रोकता है। लेकिन जब से फ्रीज का चलन बढा है तब से घर-घर में बासी भोजन का प्रयोग भी तेजी से बढा है। यही कारण है कि परिवार और समाज में तामसिकता का बोलबाला है।
ताजा भोजन ताजे विचारों और स्फूर्ति का आवाहन करता है जबकि बासी भोजन से क्रोध, आलस्य और उन्माद का ग्राफ तेजी से बढने लगा है। शास्त्रों में कहा गया है कि बासी भोजन भूत भोजन होता है और इसे ग्रहण करने वाला व्यक्ति जीवन में नैराश्य,रोगों और उद्विग्नताओं से घिरा रहता है। हम देखते हैं कि प्रायःतर गृहिणियां मात्र दो से पांच मिनट का समय बचाने के लिए रात को गूंथा हुआ आटा लोई बनाकर फ्रीज में रख देती हैं और अगले दो से पांच दिनों तक
इसका प्रयोग होता है। आइये आज से ही संकल्प लें कि आयन्दा यह स्थिति सामने नहीं आए। तभी आप और आपकी संतति स्वस्थ और प्रसन्न रह सकती है और औरों को भी खुश रखने लायक व्यक्तित्व का निर्माण कर सकती है।

बुधवार, 5 नवंबर 2014

बहुत आदर्श है द्रौपदी

शास्त्रों में हैं कुछ ऐसी बातें जो कम ही लोग जानते हैं

महाभारत के अनुसार द्रौपदी राजा द्रुपद की बेटी और पांडवों की पत्नी थी। कौरवों द्वारा आयोजित किए गए जुए के खेल में द्रौपदी को दांव पर लगाया गया। पांडव दांव हार गए और उसके बाद दुशासन ने उसे भरी सभा में अपमानित किया। द्रौपदी के चरित्र के ये वो पहलू हैं, जिनके बारे में अधिकांश लोग जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि द्रौपदी का किरदार बहुत आदर्श है और उससे बहुत कुछ सीखा जाता है तो आइए जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ बेहद रोचक कथाएं ......

गर्भ से नहीं हुआ था द्रौपदी का जन्म

महाभारत ग्रंथ के अनुसार एक बार राजा द्रुपद पांडवों से पराजित होने के कारण परेशान थे। जब से द्रोणाचार्य के कारण युद्ध में उनकी हार हुई, उन्हें एक पल भी चैन नहीं था। राजा द्रुपद चिंता के कारण कमजोर हो गए। वे द्रोणाचार्य को मारने वाले पुत्र की चाह में एक आश्रम से दूसरे आश्रम भटकने लगे। ऐसे ही भटकते हुए वे एक बार कल्माषी नाम के नगर में पहुंचे। उस नगर में ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले और स्नातक ब्राह्मण रहते थे। वहीं, उन्हें दो ब्राह्मण याज और उपयाज मिले। उन्होंने पहले छोटे भाई उपयाज से अपने लिए पुत्र प्राप्ति हवन करने के लिए प्रार्थना की। फिर उपयाज के कहने पर उन्होंने याज से प्रार्थना की। उसके बाद याज ने राजा द्रुपद के यहां पुत्र प्राप्ति के लिए हवन करवाया।
उस अग्रिकुंड से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। वह कुमार अग्रिकुंड से निकलते ही गर्जना करने लगा। वह रथ पर बैठकर इधर-उधर घूमने लगा। उसी वेदी यानी हवनकुंड से कुमारी पांचाली का भी जन्म हुआ। पांचाली यानी राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी कमल की पंखुड़ी के जैसी आंखों वाली, नीले-नीले घुंघराले बालों व कोमल होंठो वाली थी। उसका रंग सांवला था। ऐसा लगता था मानों कोई देवांगना मनुष्य शरीर धारण करके सामने आ गई हो। इसके बाद ब्राह्मणों ने दिव्य कुमार व कुमारी का नामकरण किया। उन्होंने कहा यह कुमार असहिष्णु और बलवान व रूपवान होने के साथ ही कवच कुंडल धारण किए हुए है। इन पर अग्रि का प्रभाव दिखाई देता है। इसलिए इनका नाम धृष्टद्युम्र होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की हैं इनका नाम कृष्णा होगा।

द्रौपदी को क्यों मिले पांच पति

द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े ऋषि की गुणवान कन्या थी। वह रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी थी, लेकिन पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दुखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी उग्र तपस्या के कारण भगवान शिव प्रसन्न हए और उन्होंने द्रौपदी से कहा तू मनचाहा वरदान मांग ले। इस पर द्रौपदी इतनी प्रसन्न हो गई कि उसने बार-बार कहा मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। भगवान शंकर ने कहा तूने मनचाहा पति पाने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है। इसलिए तुझे दुसरे जन्म में एक नहीं पांच पति मिलेंगे। तब द्रौपदी ने कहा मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं। इस पर शिवजी ने कहा मेरा वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता है। इसलिए तुझे पांच पति ही प्राप्त होंगे।

द्रौपदी का किरदार क्यों है महत्वपूर्ण
महाभारत के अनुसार द्रौपदी सुंदर होने के साथ ही बहुत बुद्धिमान स्त्री रही होगी। जब भी पांडव कमजोर पड़े या उन्हें कोई निर्णय लेने में संकोच हुआ। द्रौपदी ने हमेशा एक पत्नी का कर्तव्य निभाया। वो ये बखूबी जानती थी कि उसे कब कितना और कहां बोलना है।

द्रौपदी ने नहीं कहा अंधे का पुत्र अंधा
महाभारत के सभापर्व में मिले वर्णन के अनुसार इंद्रप्रस्थ में आकर राजा युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें हस्तिनापुर से दुर्योधन अपने बंधु-बांधवों सहित उपस्थित हुआ। इस यज्ञ में दूर-दूर देशों के राजा महाराजा भी आए हुए थे। यहां पर दुर्योधन को महल के निरीक्षण के समय तब उपहास का पात्र बनना पड़ा। एक दिन की बात है राजा दुर्योधन उस सभा भवन में भ्रमण करता हुआ स्फटिक मणिमय स्थल पर जा पहुंचा। वहां जल की आशंका से उसने अपने वस्त्र ऊपर उठा लिए। उसके बाद वह सभा में दूसरी ओर चक्कर लगाने लगा और एक स्थान पर वह गिर पड़ा। इससे वह मन ही मन बहुत लज्जित हुआ। फिर स्फटिक मणि के समान स्वच्छ जल से भरी सुशोभित बावली को स्थल मानकर वह वस्त्रों सहित जल में गिर पड़ा। इस दृश्य को देखकर भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव इस पर हंसने लगे। दुर्योधन उपहास नही सह सका। महाभारत के सभापर्व में इस घटना का इतना ही उल्लेख है। इस ग्रंथ में ये कहीं वर्णित नहीं है कि महारानी द्रौपदी राजा दुर्योधन को कहीं मिलीं और उन्होंने उनका उपहास किया।

अपनी इन विशेषताओं के कारण थी पतियों की प्रिय

एक पत्नी को किस तरह अपने पत्नी धर्म का पालन करना चाहिए। इसका द्रौपदी से अच्छा उदाहरण नहीं हो सकता है। महाभारत में एक दृश्य है जहां सत्यभामा द्रौपदी से मिलने आई हैं और दोनों आपस में बातचीत कर रही हैं।
सत्यभामा ने द्रौपदी से पूछा कि सखी मैं देखती हूं कि तुम्हारे पति पांडव तुम्हारे वश में रहते हैं। वे सभी तुम्हारे अधीन है। सो आप ये रहस्य मुझे भी बताएं कि आपके पांच बलशाली पांडव पति आपका इतना सम्मान क्यों करते हैं। तब द्रौपदी बोली सत्यभामा तुम मेरी सखी हो इसलिए मैं तुम्हे बिल्कुल सच बताती हूं।
मैं अहंकार और क्रोध से दूर रहती हूं। मैं अपने मन पर काबू रखकर केवल पति की खुशी देखते हुए उनकी सेवा करती हूं। असभ्यता से खड़ी नहीं होती। उनसे कड़वी बातें नहीं कहती हूं। बुरी जगह पर नहीं बैठती, बुरे आचरण को अपने पास भी नहीं फटकने देती। उनके हर संकेत का अनुसरण करती हूं। चाहे कैसा भी पुरुष हो मेरा मन पांडवों के अलावा किसी पुरुष पर आकर्षित नहीं होता है। पतियों के भोजन किए बिना मैं भोजन नहीं करती हूं।
उनके नहाए बिना मैं नहीं नहाती। जब-जब पति घर आते हैं तो मैं खड़ी होकर आसन और जल देकर उनका सत्कार करती हूं। मैं बातचीत में किसी का तिरस्कार नहीं करती। समय पर भोजन बनाती हूं और सभी को प्रेम से खिलाती हूं। मेरे पति जिस चीज को नहीं खाते, नहीं पीते, सेवन नहीं करते हैं उनसे मैं भी दूर रहती हूं। मेरी सास ने मुझे जो भी धर्म बताएं हैं, मैं उनका पालन करती हूं। विपरित समय में अपने पति का हर संभव सहयोग करती हूं।

रिश्ता कोई भी हो करें पूरा विश्वास

कहते हैं किसी भी रिश्ते की बुनियाद विश्वास होता है। द्रौपदी का चित्रण हमें महाभारत में एक ऐसी पत्नी के  रूप में मिलता है। जो हर परिस्थिति में अपने पति पांडवों पर आंख मूंद कर विश्वास करती है। फिर चाहे पति द्वारा दांव पर लगाया जाना हो या जयद्रथ द्वारा अपहरण या कीचक का बुरी नजर डालना। द्रौपदी ने कभी अपना विश्वास नहीं डगमगाने दिया। एक बार की बात है पांडव द्रौपदी को आश्रम में अकेला छोड़कर धौम्य ऋषि के आश्रम चले गए थे। उस समय सिंधु देश का राजा जयद्रथ विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था। जयद्रथ और उसकी सेना उस समय धौम्य ऋषि के आश्रम के पास से गुजरे।
जयद्रथ की नजऱ आश्रम के बाहर अकेली खड़ी द्रौपदी पर पड़ गई। वह उस पर मोहित हो गया। उसने द्रौपदी के पास जाकर पूछा हे सुंदरी तुम कौन हो? तुम्हारा पति कौन है या तुम कोई दिव्य कन्या हो। जब द्रौपदी ने अपना परिचय दिया और कहा कि मैं महाराज द्रुपद की पुत्री कृष्णा हूं और मेरे पति पांडव हैं। यह सुुनकर जयद्रथ बोला कि उन पांडवों के पास कुछ भी नहीं हैं।
वे अब वनवासी हो गए हैं। तुम मुझ से विवाह कर लो और महलों का सुख भोगो। द्रौपदी ने उसे धित्कारा और कहा वीर होकर ओछी बात करते हो तुम्हे लज्जा नहीं आती। अरे दुष्ट तू मेरे पति पांडवों को नहीं जानता वे तेरी सेना को आसानी से परास्त कर देंगे। यह सुनकर जयद्रथ बोला मेरे पास इतना सेना बल है कि मैं पाण्डवों को धूल चटा दूंगा।
अब तुम्हारे सामने दो रास्ते हैं या तो सीधी तरह से रथ में बैठ जाओ या पांडवों के हार जाने पर मेरे सामने गिड़गिड़ाने को तैयार हो जाओ। द्रौपदी ने कहा मेरा बल मेरी शक्ति महान है। मुझे अपने ऊपर विश्वास है तुम्हारे जोर-जबरदस्ती करने पर भी मैं तुम्हारे सामने नहीं गिड़गिड़ाऊंगी। एक रथ पर एक साथ बैठकर श्रीकृष्ण और अर्जुन आएंगे। जब भीम तेरी तरफ गदा लेकर दौडग़े। जब नकुल और सहदेव तुझ पर टूट पड़ेंगे। तब तुझे पश्चाताप होगा। यह सुनते ही जयद्रथ द्रौपदी को घसीटने लगा।द्रौपदी ने उससे कहा मेरे कुरुवंशी पति शीघ्र ही मुझसे मिलेंगे और तुझे परास्त करेंगे।
जब पांडव फिर से आश्रम पहुंचे तो दासी ने उन्हें बताया कि जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया। यह सुनकर पांचों पांडव द्रौपदी की खोज में निकल पड़े। जब उन्होंने द्रौपदी को जयद्रथ के रथ पर बैठे देखा तो वे आग बबूला हो गए। उन्होंने जयद्रथ और उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया। सारी सेना डरकर भाग गई। अपनी सेना का यह हाल देखकर जयद्रथ ने द्रौपदी को रथ से उतारा और भाग गया।
(sabhar -bhaskar.com )

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

रामायणकाल के 10 मायावी राक्षस

प्राचीनकाल में सुर, असुर, देव, दानव, दैत्य, रक्ष, यक्ष, दक्ष, किन्नर, निषाद, वानर, गंधर्व, नाग आदि जातियां होती थीं। राक्षसों को पहले 'रक्ष' कहा जाता था। 'रक्ष' का अर्थ, जो समाज की रक्षा करें। राक्षस लोग पहले रक्षा करने के लिए नियुक्त हुए थे, लेकिन बाद में इनकी प्रवृत्तियां बदलने के कारण ये अपने कर्मों के कारण बदनाम होते गए और आज के संदर्भ में इन्हें असुरों और दानवों जैसा ही माना जाता है।
देवताओं की उत्पत्ति अदिति से, असुरों की दिति से, दानवों की दनु, कद्रू से नाग की मानी गई है। पुराणों के अनुसार कश्यप की सुरसा नामक रानी से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए, लेकिन एक कथा के अनुसार प्रजापिता ब्रह्मा ने समुद्रगत जल और प्राणियों की रक्षा के लिए अनेक प्रकार के प्राणियों को उत्पन्न किया। उनमें से कुछ प्राणियों ने रक्षा की जिम्मेदारी संभाली, तो वे राक्षस कहलाए और जिन्होंने यक्षण (पूजन) करना स्वीकार किया, वे यक्ष कहलाए। जल की रक्षा करने के महत्वपूर्ण कार्य को संभालने के लिए यह जाति पवित्र मानी जाती थी।
राक्षसों का प्रतिनिधित्व इन दोनों लोगों को सौंपा गया- 'हेति' और 'प्रहेति'। ये दोनों भाई थे। ये दोनों भी दैत्यों के प्रतिनिधि मधु और कैटभ के समान ही बलशाली और पराक्रमी थे। प्रहेति धर्मात्मा था तो हेति को राजपाट और राजनीति में ज्यादा रुचि थी।
रामायणकाल में जहां विचित्र तरह के मानव और पशु-पक्षी होते थे वहीं उस काल में राक्षसों का आतंक बहुत ज्यादा बढ़ गया था। राक्षसों में मायावी शक्तियां होती थीं। वे अपनी शक्ति से देव और मानव को आतंकित करते रहते थे। रामायणकाल में संपूर्ण दक्षिण भारत और दंडकारण्य क्षेत्र (मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़) पर राक्षसों का आतंक था। दंड नामक राक्षस के कारण ही इस क्षेत्र का नाम दंडकारण्य पड़ा था। आओ जानते हैं राम के काल के वे 10 राक्षस, जिनका डंका बजता था।
पहले राक्षस 'हेति' और 'प्रहेति' : राक्षसों का प्रतिनिधित्व दो लोगों को सौंपा गया- 'हेति' और 'प्रहेति'। ये दोनों भाई थे। हेति ने अपने साम्राज्य विस्तार हेतु 'काल' की पुत्री 'भया' से विवाह किया। भया से उसके विद्युत्केश नामक एक पुत्र का जन्म हुआ। उसका विवाह संध्या की पुत्री 'सालकटंकटा' से हुआ। माना जाता है कि 'सालकटंकटा' व्यभिचारिणी थी। इस कारण जब उसका पुत्र जन्मा तो उसे लावारिस छोड़ दिया गया। विद्युत्केश ने भी उस पुत्र की यह जानकर कोई परवाह नहीं की कि यह न मालूम किसका पुत्र है। बस यहीं से राक्षस जाति में बदलाव आया...।
शिव और मां पार्वती की उस अनाथ बालक पर नजर पड़ी और उन्होंने उसको सुरक्षा प्रदान ‍की। उस अबोध बालक को त्याग देने के कारण मां पार्वती ने शाप दिया कि अब से राक्षस जाति की स्त्रियां जल्द गर्भ धारण करेंगी और उनसे उत्पन्न बालक तत्काल बढ़कर माता के समान अवस्था धारण करेगा। इस शाप से राक्षसों में शारीरिक आकर्षण कम, विकरालता ज्यादा रही। शिव और पार्वती ने उस बालक का नाम 'सुकेश' रखा। शिव के वरदान के कारण वह निर्भीक था। वह निर्भीक होकर कहीं भी विचरण कर सकता था। शिव ने उसे एक विमान भी दिया था।
सुकेश के 3 पुत्र : सुकेश ने गंधर्व कन्या देववती से विवाह किया। देववती से सुकेश के 3 पुत्र हुए- 1. माल्यवान, 2. सुमाली और 3. माली। इन तीनों के कारण राक्षस जाति को विस्तार और प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
इन तीनों भाइयों ने शक्ति और ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी की घोर तपस्या की। ब्रह्माजी ने इन्हें शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने और तीनों भाइयों में एकता और प्रेम बना रहने का वरदान दिया। वरदान के प्रभाव से ये तीनों भाई अहंकारी हो गए।
तीनों भाइयों ने मिलकर विश्वकर्मा से त्रिकूट पर्वत के निकट समुद्र तट पर लंका का निर्माण कराया और उसे अपने शासन का केंद्र बनाया। इस तरह उन्होंने राक्षसों को एकजुट कर राक्षसों का आधिपत्य स्थापित किया और उसे राक्षस जाति का केंद्र भी बनाया।
लंका को उन्होंने धन और वैभव की धरती बनाया और यहां तीनों राक्षसों ने राक्षस संस्कृति के लिए विश्व विजय की कामना की। उनका अहंकार बढ़ता गया और उन्होंने यक्षों और देवताओं पर अत्याचार करना शुरू किया जिससे संपूर्ण धरती पर आतंक का राज कायम हो गया।
इन्हीं तीनों भाइयों के वंश में आगे चलकर राक्षस जाति का विकास हुआ। तीनों भाइयों के वंशज में माल्यवान के वज्र, मुष्टि, धिरूपार्श्व, दुर्मख, सप्तवहन, यज्ञकोप, मत्त, उन्मत्त नामक पुत्र और अनला नामक कन्या हुई।
सुमाली के प्रहस्त, अकन्पन, विकट, कालिकामुख, धूम्राश, दण्ड, सुपार्श्व, सहादि, प्रधस, भास्कण नामक पुत्र तथा रांका, पुण्डपोत्कटा, कैकसी, कुभीनशी नामक पुत्रियां हुईं। इनमें से कैकसी रावण की मां थीं। माली रावण के नाना थे। रावण ने इन्हीं के बलबूते पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और शक्तियां बढ़ाईं।
माली के अनल, अनिल, हर और संपात्ति नामक 4 पुत्र हुए। ये चारों पुत्र रावण की मृत्यु पश्चात विभीषण के मंत्री बने थे। रावण राक्षस जाति का नहीं था, उसकी माता राक्षस जाति की थी लेकिन उनके पिता यक्ष जाति के ब्राह्मण थे।

राक्षसराज रावण

माली की पुत्री कैकसी रावण की माता थीं। रावण का अपने नाना की ओर झुकाव ज्यादा था इसलिए उसने देवों को छोड़कर राक्षसों की उन्नति के बारे में ज्यादा सोची। रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का जानकार था। राक्षसों के प्रति उसके लगाव के चलते उसे राक्षसों का मुखिया घोषित कर दिया गया था। रावण ने लंका को नए सिरे से बसाकर राक्षस जाति को एकजुट किया और फिर से राक्षस राज कायम किया। उसने लंका को कुबेर से छीना था। उसे मायावी इसलिए कहा जाता था कि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन और तरह-तरह के जादू जानता था। उसके पास एक ऐसा विमान था, जो अन्य किसी के पास नहीं था। इस सभी के कारण सभी उससे भयभीत रहते थे। मान्यता अनुसार एक शाप के चलते असुरराज विष्णु के पार्षद जय और विजय ने ही रावण और कुंभकर्ण के रूप में फिर से जन्म लेकर धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। द्वापर युग में यही दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इनको 3 जन्मों की सजा थी। रावण ने रक्ष संस्कृति का विस्तार किया था। रावण ने कुबेर से लंका और उनका विमान छीना। रावण ने राम की सीता का हरण किया और अभिमानी रावण ने शिव का अपमान किया था। विद्वान होने के बावजूद रावण क्रूर, अभिमानी, दंभी और अत्याचारी था।

कालनेमि

कालनेमि राक्षस रावण का विश्वस्त अनुचर था। यह भयंकर मायावी और क्रूर था। इसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। रावण ने इसे एक बहुत ही कठिन कार्य सौंप दिया था।
जब राम-रावण युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति लगने से वे बेहोश हो गए थे, तब हनुमान को तुरंत ही संजीवनी लाने का कहा गया था। हनुमानजी जब द्रोणाचल की ओर चले तो रावण ने उनके मार्ग में विघ्न उपस्थित करने के लिए कालनेमि को भेजा।
कालनेमि ने अपनी माया से तालाब, मंदिर और सुंदर बगीचा बनाया और वह वहीं एक ऋषि का वेश धारण कर मार्ग में बैठ गया। हनुमानजी उस स्थान को देखकर वहां जलपान के लिए रुकने का मन बनाकर जैसे ही तालाब में उतरे तो तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमानजी का पैर पकड़ लिया। हनुमानजी ने उसे मार डाला। फिर उन्होंने अपनी पूंछ से कालनेमि को जकड़कर उसका वध कर दिया।

सुबाहु
ताड़का के पिता का नाम सुकेतु यक्ष और पति का नाम सुन्द था। सुन्द एक राक्षस था इसलिए यक्ष होते हुए भी ताड़का राक्षस कहलाई। अगस्त्य मुनि के शाप के चलते इसका सुंदर चेहरा कुरूप हो गया था इसलिए उसने ऋषियों से बदला लेने की ठानी थी। वह आए दिन अपने पुत्रों के साथ मुनियों को सताती रहती थी। यह अयोध्या के समीप स्थित सुंदर वन में अपने पति और दो पुत्रों सुबाहु और मारीच के साथ रहती थी। ताड़का के शरीर में हजार हाथियों का बल था। उसके कारण ही सुंदर वन को पहले ताड़का वन कहा जाता था। सुबाहु भी भयंकर था और वह प्रतिदिन ऋषियों के यज्ञ में उत्पात मचाता था। उसी वन में विश्वामित्र सहित अनेक ऋषि-मुनि तपस्या करते थे। ये सभी राक्षसगण हमेशा उनकी तपस्या में बाधाएं खड़ी करते थे। विश्वामित्र एक यज्ञ के दौरान राजा दशरथ से अनुरोध कर एक दिन राम और लक्ष्मण को अपने साथ सुंदर वन ले गए। राम ने ताड़का का और विश्वामित्र के यज्ञ की पूर्णाहूति के दिन सुबाहु का भी वध कर दिया था। राम के बाण से मारीच आहत होकर दूर दक्षिण में समुद्र तट पर जा गिरा।

मारीच

राम के तीर से बचने के बाद ताड़का पुत्र मारीच ने रावण की शरण ली। मारीच लंका के राजा रावण का मामा था। जब शूर्पणखा ने रावण को अपने अपमान की कथा सुनाई तो रावण ने सीताहरण की योजना बनाई। सीताहरण के दौरान रावण ने मारीच की मायावी बुद्धि की सहायता ली। रावण महासागर पार करके गोकर्ण तीर्थ में पहुंचा, जहां राम के डर के कारण मारीच छिपा हुआ था। वह रावण का पूर्व मंत्री रह चुका था। रावण को देखकर मारीच ने कहा कि राक्षसराज ऐसी क्या आवश्यकता आ पड़ी, जो आपको मेरे पास आना पड़ा।रावण ने गुस्से से भरकर कहा कि राम-लक्ष्मण ने शूर्पणखा के नाक-कान काट दिए और अब हमें उनसे बदला लेना होगा। मारीच ने कहा- हे रावण, श्रीरामचंद्रजी के पास जाने में तुम्हारा कोई लाभ नहीं है। मैं उनका पराक्रम जानता हूं। भला इस जगत में ऐसा कौन है, जो उनके बाणों के वेग को सह पाए। रावण ने मारीच पर क्रोधित होकर कहा कहा- रे मामा! तू मेरी बात नहीं मानेगा तो निश्चय ही तुझे अभी मौत के घाट उतार दूंगा। मारीच ने मन ही मन सोचा- यदि मृत्यु निश्चित है तो श्रेष्ठ पुरुष के ही हाथ से मरना अच्छा होगा। फिर मारीच ने पूछा- अच्छा बताओ, मुझे क्या करना होगा? रावण ने कहा- तुम एक सुंदर हिरण का रूप बनाओ जिसके सींग रत्नमय प्रतीत हो। शरीर भी चित्र-विचित्र रत्नों वाला ही प्रतीत हो। ऐसा रूप बनाओ कि सीता मोहित हो जाए। अगर वे मोहित हो गईं तो जरूर वो राम को तुम्हें पकड़ने भेजेंगी। इस दौरान मैं उसे हरकर ले जाऊंगा। मारीच ने रावण के कहे अनुसार ही कार्य किया और रावण अपनी योजना में सफल रहा। इधर राम के बाण से मारीच मारा गया।

कुंभकर्ण

यह रावण का भाई था, जो 6 महीने बाद 1 द‌िन जागता और भोजन करके फ‌िर सो जाता, क्‍योंक‌ि इसने ब्रह्माजी से न‌िद्रासन का वरदान मांग ल‌िया था। युद्ध के दौरान क‌िसी तरह कुंभकर्ण को जगाया गया। कुंभकर्ण ने युद्घ में अपने व‌िशाल शरीर से वानरों पर प्रहार करना शुरू कर द‌िया इससे राम की सेना में हाहाकार मच गया। सेना का मनोबल बढ़ाने के ल‌िए राम ने कुंभकर्ण को युद्घ के ल‌िए ललकारा और भगवान राम के हाथों कुंभकर्ण वीरगत‌ि को प्राप्त हुआ।

कबंध

सीता की खोज में लगे राम-लक्ष्मण को दंडक वन में अचानक एक विचित्र दानव दिखा जिसका मस्तक और गला नहीं थे। उसकी केवल एक ही आंख ही नजर आ रही थी। वह विशालकाय और भयानक था। उस विचित्र दैत्य का नाम कबंध था। कबंध ने राम-लक्ष्मण को एकसाथ पकड़ लिया। राम और लक्ष्मण ने कबंध की दोनों भुजाएं काट डालीं। कबंध ने भूमि पर गिरकर पूछा- आप कौन वीर हैं? परिचय जानकर कबंध बोला- यह मेरा भाग्य है कि आपने मुझे बंधन मुक्त कर दिया। कबंध ने कहा- मैं दनु का पुत्र कबंध बहुत पराक्रमी तथा सुंदर था। राक्षसों जैसी भीषण आकृति बनाकर मैं ऋषियों को डराया करता था इसीलिए मेरा यह हाल हो गया था।

विराध

विराध दंडकवन का राक्षस था। सीता और लक्ष्मण के साथ राम ने दंडक वन में प्रवेश किया। वहां पर उन्हें ऋषि-मुनियों के अनेक आश्रम दृष्टिगत हुए। राम उन्हीं के आश्रम में रहने लगे। ऋषियों ने उन्हें एक राक्षस के उत्पात की जानकारी दी। राम ने उन्हें निर्भीक किया। वहां से उन्होंने महावन में प्रवेश किया, जहां नाना प्रकार के हिंसक पशु और नरभक्षक राक्षस निवास करते थे। ये नरभक्षक राक्षस ही तपस्वियों को कष्ट दिया करते थे। कुछ ही दूर जाने के बाद बाघम्बर धारण किए हुए एक पर्वताकार राक्षस दृष्टिगत हुआ। वह राक्षस हाथी के समान चिंघाड़ता हुआ सीता पर झपटा। उसने सीता को उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया।उसने राम और लक्ष्मण पर क्रोधित होते हुए कहा- तुम धनुष-बाण लेकर दंडक वन में घुस आए हो। तुम दोनों कौन हो? क्या तुमने मेरा नाम नहीं सुना? मैं प्रतिदिन ऋषियों का मांस खाकर अपनी क्षुधा शांत करने वाला विराध हूं। तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हें यहां ले आई है। मैं तुम दोनों का अभी रक्तपान करके इस सुन्दर स्त्री को अपनी पत्नी बनाऊंगा। विराध ने हंसते हुए कहा- यदि तुम मेरा परिचय जानना ही चाहते हो तो सुनो! मैं जय राक्षस का पुत्र हूं। मेरी माता का नाम शतह्रदा है। मुझे ब्रह्माजी से यह वर प्राप्त है कि किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र न तो मेरी हत्या ही कर सकती है और न ही उनसे मेरे अंग छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यदि तुम इस स्त्री को मेरे पास छोड़कर चले जाओगे तो मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं तुम्हें नहीं मारूंगा। राम और लक्ष्मण ने उससे घोर युद्ध किया और उसे हर तरह से घायल कर दिया। फिर उसकी भुजाएं भी काट दीं। तभी राम बोले- लक्ष्मण! वरदान के कारण यह दुष्ट मर नहीं सकता इसलिए यही उचित है कि हमें भूमि में गड्ढा खोदकर इसे बहुत गहराई में गाड़ देना चाहिए। लक्ष्मण गड्ढा खोदने लगे और राम विराध की गर्दन पर पैर रखकर खड़े हो गए। तब विराध बोला- हे प्रभु! मैं तुम्बुरू नाम का गंधर्व हूं। कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। मैं शाप के कारण राक्षस हो गया था। आज आपकी कृपा से मुझे उस शाप से मुक्ति मिल रही है। राम और लक्ष्मण ने उसे उठाकर गड्ढे में डाल दिया और गड्ढे को पत्थर आदि से पाट दिया।

अहिरावण

अहिरावण एक असुर था। अहिरावण पाताल में स्थित रावण का मित्र था जिसने युद्ध के दौरान रावण के कहने से आकाश मार्ग से राम के शिविर में उतरकर राम-लक्ष्मण का अपहरण कर लिया था। जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए विभीषण के भेष में राम के शिविर में घुसकर अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था, तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमानजी पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट उनके ही पुत्र मकरध्वज से हुई। उनको मकरध्वज के साथ लड़ाई लड़ना पड़ी, क्योंकि मकरध्वज अहिरावण का द्वारपाल था।मकरध्वज ने कहा- अहिरावण का अंत करना है तो इन 5 दीपकों को एकसाथ एक ही समय में बुझाना होगा। यह रहस्य ज्ञात होते ही हनुमानजी ने पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया। उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरूड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन 5 मुखों को धारण कर उन्होंने एकसाथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया और श्रीराम-लक्ष्मण को मुक्त किया। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का राजा नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

खर और दूषण

ये दोनों रावण के 'विमातृज' (सौतेले भाई) थे। ऋषि विश्रवा की 2 और पत्नियां थीं। खर, पुष्पोत्कटा से और दूषण, वाका से उत्पन्न हुए थे जबकि कैकसी से रावण का जन्म हुआ था। खर-दूषण को भगवान राम ने मारा था। खर और दूषण के वध की घटना रामायण के अरण्यक कांड में मिलती है।
शूर्पणखा की नाक काट देने के बाद वह खर और दूषण के पास गई थी। खर और दूषण ने अपनी- अपनी सेना तैयार कर वन में रह रहे राम और लक्ष्मण पर हमला कर दिया था, लेकिन दोनों भाइयों ने मिलकर अकेले ही खर और दूषण का ‍वध कर दिया।

मेघनाद

मेघदाद को इंद्रजित भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने स्वर्ग पर आक्रमण करके उस पर अपना अधिकार जमा लिया था। मेघनाद बहुत ही शक्तिशाली और मायावी था। उसने हनुमानजी को बंधक बनाकर रावण के समक्ष प्रस्तुत कर दिया था। दिव्य शक्तियां : रावण के पुत्रों में मेघनाद सबसे पराक्रमी था। माना जाता है कि जब इसका जन्म हुआ तब इसने मेघ के समान गर्जना की इसलिए यह मेघनाद कहलाया। मेघनाद ने युवास्था में दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की सहायता से 'सप्त यज्ञ' किए थे और शिव के आशीर्वाद से दिव्य रथ, दिव्यास्त्र और तामसी माया प्राप्त की थी। उसने राम की सेना से मायावी युद्ध किया था। कभी वह अंतर्धान हो जाता, तो कभी प्रकट हो जाता। विभीषण ने कुबेर की आज्ञा से गुह्यक जल श्वेत पर्वत से लाकर दिया था, जिससे नेत्र धोकर अदृश्य को भी देखा जा सकता था। श्रीराम की ओर के सभी प्रमुख योद्धाओं ने इस जल का प्रयोग किया था, जिससे मेघनाद से युद्ध किया जा सके। मेघनाद का वध : इसने राम लक्ष्मण पर दिव्य बाण चलाया जो नागपाश में बदल गया। इससे राम लक्ष्मण मूर्छित होकर गिर पड़े। राक्षस सेना में खुशी लहर छा गई जबकि वानर सेना का मनोबल टूटने लगा। विपरीत स्थिति देखकर हनुमान जी पवन वेग से उड़ते हुए गरूड़ जी को लेकर आए। गरूड़ जी ने नागपाश को काटकर राम-लक्ष्मण को बंधन मुक्ति किया। राम लक्ष्मण स्वस्थ होकर वानर सेनाका मनोबल बढ़ाने लगे मेघनाद को जब राम लक्ष्मण के जीवित होने की सूचना मिली तो वह अपनी सेना लेकर फिर युद्घ करने आया। इस बार लक्ष्मण और मेघनाद का प्रलंयकारी युद्घ आरंभ हुआ। दोनों एक दूसरे पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करने लगे। दोनों के युद्घ को देखकर आकश के देवता भी हैरान थे। तभी लक्ष्मण ने एक दिव्य वाण भगवान राम का नाम लेकर मेघनाद पर छोड़ दिया। वाण मेघनाद का सिर काटते हुए आकश में दूर तक लेकर चला गया। मेघनाद की इस स्थिति को देखकर राक्षस सेना का मनोबल पूरी तरह टूट गया और प्राण बचाकर नगर की ओर भागने लगे। रावण को जब मेघनाद की मृत्यु का समाचार मिलता तो शोक के कारण वह जड़वत अपने सिंहासन पर बैठ गया।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

अनोखी तरकीब

- पराग ज्ञानदेव चौधरी
बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गयी। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।
सबकुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक-एक छड़ी दी। सभी छड़ियाँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।
सब को छड़ी देने के बाद काजी बोला, "इन छड़ियों को आप सब अपने अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छड़ियों की खासियत यह है कि यह चोर के पास जा कर ये एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती हैं। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।"
काजी की बात सुन कर सभी अपनी अपनी छड़ी ले कर अपने अपने घर चल दिए।
उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उस ने सोचा, "अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सब के सामने कैसी सजा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जााए। ताकि काजी को कुछ भी पता नहीं चले।'
चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।
अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशीखुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी छड़ी ले कर खुशी खुशी काजी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।
काजी १-१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उस ने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया।

और चाँद फूट गया

- पूर्णिमा वर्मन
आशीष और रोहित के घर आपस में मिले हुए थे। रविवार के दिन वे दोनों बड़े सवेरे उठते ही बगीचे में आ पहुँचे।
" तो आज कौन सा खेल खेलें ?" रोहित ने पूछा। वह छह वर्ष का था और पहली कक्षा में पढ़ता था।
"कैरम से तो मेरा मन भर गया। क्यों न हम क्रिकेट खेलें ?" आशीष ने कहा। वह भी रोहित के साथ पढ़ता था।
"मगर उसके लिये तो ढेर सारे साथियों की ज़रूरत होगी और यहाँ हमारे तुम्हारे सिवा कोई है ही नहीं।" रोहित बोला।
वे कुछ देर तक सोचते रहे फिर आशीष ने कहा, "चलो गप्पें खेलते हैं।"
"गप्पें? भ़ला यह कैसा खेल होता है?" रोहित को कुछ भी समझ में न आया।
"देखो मैं बताता हूँ आ़शीष ने कहा, "हम एक से बढ़ कर एक मज़ेदार गप्प हाँकेंगे। ऐसी गप्पें जो कहीं से भी सच न हों। बड़ा मज़ा आता है इस खेल में। चलो मैं ही शुरू करता हूँ यह जो सामने अशोक का पेड़ है ना रात में बगीचे के तालाब की मछलियाँ इस पर लटक कर झूला झूल रही थीं। रंग बिरंगी मछलियों से यह पेड़ ऐसा जगमगा रहा था मानो लाल परी का राजमहल।"
अच्छा! रोहित ने आश्चर्य से कहा, "और मेरे बगीचे में जो यूकेलिप्टस का पेड़ है ना इ़स पर चाँद सो रहा था। चारों ओर ऐसी प्यारी रोशनी झर रही थी कि तुम्हारे अशोक के पेड़ पर झूला झूलती मछलियों ने गाना गाना शुरू कर दिया।"
"अच्छा! कौन सा गाना?" आशीष ने पूछा। "वही चंदामामा दूर के पुए पकाएँ बूर के।" रोहित ने जवाब दिया।
"अच्छा! फिर क्या हुआ?"
"फिर क्या होता, मछलियाँ इतने ज़ोर से गा रही थीं कि चाँद की नींद टूट गयी और वह धड़ाम से मेरी छत पर गिर गया।"
"फिर?"
"फिर क्या था, वह तो गिरते ही फूट गया।"
"हाय, सच! चाँद फूट गया तो फिर उसके टुकड़े कहाँ गये?" आशीष ने पूछा।
वे तो सब सुबह-सुबह सूरज ने आकर जोड़े और उनपर काले रंग का मलहम लगा दिया। विश्वास न हो तो रात में देख लेना चाँद पर काले धब्बे ज़रूर दिखाई देंगे।"
अच्छा ठीक है मैं रात में देखने की कोशिश करूँगा।" आशीष ने कहा। वह एक नयी गप्प सोच रहा था।
"हाँ याद आया, आशीष बोला, "पिछले साल जब तुम्हारे पापा का ट्रांसफर यहाँ नहीं हुआ था तो एक दिन खूब ज़ोरों की बारिश हुई। इतनी बारिश कि पानी बूँदों की बजाय रस्से की तरह गिर रहा था। पहले तो मैं उसमें नहाया फिर पानी का रस्सा पकड़ कर ऊपर चढ़ गया। पता है वहाँ क्या था?"
"क्या था?" रोहित ने आश्चर्य से पूछा।
"वहाँ धूप खिली हुई थी। धूप में नन्हें नन्हें घर थे, इन्द्रधनुष के बने हुए। एक घर के बगीचे में सूरज आराम से हरी-हरी घास पर लेटा आराम कर रहा था और नन्हंे-नन्हें सितारे धमाचौकड़ी मचा रहे थे "
"सितारे भी कभी धमाचौकड़ी मचा सकते हैं?" रानी दीदी ने टोंक दिया। न जाने वो कब आशीष और रोहित के पास आ खड़ी हुई थीं और उनकी बातें सुन रही थीं।
"अरे दीदी, हम कोई सच बात थोड़ी कह रहे हैं।" रोहित ने सफाई दी।
"अच्छा तो तुम झूठ बोल रहे हो?" रानी ने धमकाया।
"नहीं दीदी, हम तो गप्पें खेल रहे हैं और हम खुशी के लिये खेल रहे हैं, किसी का नुक्सान नहीं कर रहे हैं।" आशीष ने कहा।
"भला ऐसी गप्पें हाँकने से क्या फायदा जिससे किसी का उपकार न हो। मैने एक गप्प हाँकी और दो बच्चों का उपकार भी किया।"
"वो कैसे ?" दोनों बच्चों ने एक साथ पूछा।
अभी अभी तुम दोनों की मम्मियाँ तुम्हें नाश्ते के लिये बुला रही थीं। उन्हें लगा कि तुम लोग बगीचे में खेल रहे होगे लेकिन मैने गप्प मारी कि वे लोग तो मेरे घर में बैठे पढ़ाई कर रहे हैं। उन्होंने मुझसे तुम दोनों को भेजने के लिये कहा हैं।
यह सुनते ही आशीष और रोहित गप्पें भूल कर अपने-अपने घर भागे। उन्हें डर लग रहा था कि मम्मी उनकी पिटाई कर देंगी लेकिन मम्मियों ने तो उन्हें प्यार किया और सुबह-सुबह पढ़ाई करने के लिये शाबशी भी दी। रानी दीदी की गप्प को वे सच मान बैठी थीं।

ईमानदारी

- चित्रा रामास्वामी
विक्की अपने स्कूल में होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह को ले कर बहुत उत्साहित था। वह भी परेड़ में हिस्सा ले रहा था।
दूसरे दिन वह एकदम सुबह जग गया लेकिन घर में अजीब सी शांति थी। वह दादी के कमरे में गया, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ी।
"माँ, दादीजी कहाँ हैं?" उसने पूछा।
"रात को वह बहुत बीमार हो गई थीं। तुम्हारे पिताजी उन्हें अस्पताल ले गए थे, वह अभी वहीं हैं उनकी हालत काफी खराब है।
विक्की एकाएक उदास हो गया।
उसकी माँ ने पूछा, "क्या तुम मेरे साथ दादी जी को देखने चलोगे? चार बजे मैं अस्पताल जा रही हूँ।"
विक्की अपनी दादी को बहुत प्यार करता था। उसने तुरंत कहा, "हाँ, मैं आप के साथ चलूँगा।" वह स्कूल और स्वतंत्रता दिवस के समारोह के बारे में सब कुछ भूल गया।
स्कूल में स्वतंत्रता दिवस समारोह बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया। लेकिन प्राचार्य खुश नहीं थे। उन्होंने ध्यान दिया कि बहुत से छात्र आज अनुपस्थित हैं।
उन्होंने दूसरे दिन सभी अध्यापकों को बुलाया और कहा, "मुझे उन विद्यार्थियों के नामों की सूची चाहिए जो समारोह के दिन अनुपस्थित थे।"
आधे घंटे के अंदर सभी कक्षाओं के विद्यार्थियों की सूची उन की मेज पर थी। कक्षा छे की सूची बहुत लंबी थी। अत: वह पहले उसी तरफ मुड़े।
जैसे ही उन्होंने कक्षा छे में कदम रखे, वहाँ चुप्पी सी छा गई। उन्होंने कठोरतापूर्वक कहा, "मैंने परसों क्या कहा था?"
"यही कि हम सब को स्वतंत्रता दिवस समारोह में उपस्थित होना चाहिए," गोलमटोल उषा ने जवाब दिया।
"तब बहुत सारे बच्चे अनुपस्थित क्यों थे?" उन्होंने नामों की सूची हवा में हिलाते हुए पूछा।
फिर उन्होंने अनुपस्थित हुए विद्यार्थियों के नाम पुकारे, उन्हें डाँटा और अपने डंडे से उनकी हथेलियों पर मार लगाई।
"अगर तुम लोग राष्ट्रीय समारोह के प्रति इतने लापरवाह हो तो इसका मतलब यही है कि तुम लोगों को अपनी मातृभूमि से प्यार नहीं है। अगली बार अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम सबके नाम स्कूल के रजिस्टर से काट दूँगा।"
इतना कह कर वह जाने के लिए मुड़े तभी विक्की आ कर उन के सामने खड़ा हो गया।
"क्या बात है?"
"महोदय, विक्की भयभीत पर दृढ़ था, मैं भी स्वतंत्रता दिवस समारोह में अनुपस्थित था, पर आप ने मेरा नाम नहीं पुकारा।" कहते हुए विक्की ने अपनी हथेलियाँ प्राचार्य महोदय के सामने फैला दी।
सारी कक्षा साँस रोक कर उसे देख रही थी।
प्राचार्य कई क्षणों तक उसे देखते रहे। उनका कठोर चेहरा नर्म हो गया और उन के स्वर में क्रोध गायब हो गया।
"तुम सजा के हकदार नहीं हो, क्योंकि तुम में सच्चाई कहने की हिम्मत है। मैं तुम से कारण नहीं पूछूँगा, लेकिन तुम्हें वचन देना होगा कि अगली बार राष्ट्रीय समारोह को नहीं भूलोगे। अब तुम अपनी सीट पर जाओ।

क्या आप जानते हैं

- हेमलता यादव,जयपुर
महीनों के नाम कैसे पड़े
महीने के नामों को तो हम सभी जानते हैं, लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि महीनों के यह नाम कैसे पड़े एवं किसने इनका नामकरण किया। नहीं न! तो जानिए......
जनवरी : रोमन देवता 'जेनस' के नाम पर वर्ष के पहले महीने जनवरी का नामकरण हुआ। मान्यता है कि जेनस के दो चेहरे हैं। एक से वह आगे तथा दूसरे से पीछे देखता है। इसी तरह जनवरी के भी दो चेहरे हैं। एक से वह बीते हुए वर्ष को देखता है तथा दूसरे से अगले वर्ष को। जेनस को लैटिन में जैनअरिस कहा गया। जेनस जो बाद में जेनुअरी बना जो हिन्दी में जनवरी हो गया।
फरवरी : इस महीने का संबंध लेटिन के फैबरा से है। इसका अर्थ है 'शुद्धि की दावत।' पहले इसी माह में 15 तारीख को लोग शुद्धि की दावत दिया करते थे। कुछ लोग फरवरी नाम का संबंध रोम की एक देवी फेबरुएरिया से भी मानते हैं। जो संतानोत्पत्ति की देवी मानी गई है इसलिए महिलाएं इस महीने इस देवी की पूजा करती थीं ताकि वे प्रसन्न होकर उन्हें संतान होने का आशीर्वाद दें।
मार्च : रोमन देवता 'मार्स' के नाम पर मार्च महीने का नामकरण हुआ। रोमन वर्ष का प्रारंभ इसी महीने से होता था। मार्स मार्टिअस का अपभ्रंश है जो आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। सर्दियां समाप्त होने पर लोग शत्रु देश पर आक्रमण करते थे इसलिए इस महीने को मार्च नाम से पुकारा गया।
अप्रैल : इस महीने की उत्पत्ति लैटिन शब्द 'एस्पेरायर' से हुई। इसका अर्थ है खुलना। रोम में इसी माह कलियां खिलकर फूल बनती थीं अर्थात बसंत का आगमन होता था इसलिए प्रारंभ में इस माह का नाम एप्रिलिस रखा गया। इसके पश्चात वर्ष के केवल दस माह होने के कारण यह बसंत से काफी दूर होता चला गया। वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के सही भ्रमण की जानकारी से दुनिया को अवगत कराया तब वर्ष में दो महीने और जोड़कर एप्रिलिस का नाम पुनः सार्थक किया गया।
मई : रोमन देवता मरकरी की माता 'मइया' के नाम पर मई नामकरण हुआ। मई का तात्पर्य 'बड़े-बुजुर्ग रईस' हैं। मई नाम की उत्पत्ति लैटिन के मेजोरेस से भी मानी जाती है।
जून : इस महीने लोग शादी करके घर बसाते थे। इसलिए परिवार के लिए उपयोग होने वाले लैटिन शब्द जेन्स के आधार पर जून का नामकरण हुआ। एक अन्य मतानुसार जिस प्रकार हमारे यहां इंद्र को देवताओं का स्वामी माना गया है उसी प्रकार रोम में भी सबसे बड़े देवता जीयस हैं एवं उनकी पत्नी का नाम है जूनो। इसी देवी के नाम पर जून का नामकरण हुआ।
जुलाई : राजा जूलियस सीजर का जन्म एवं मृत्यु दोनों जुलाई में हुई। इसलिए इस महीने का नाम जुलाई कर दिया गया।
अगस्त : जूलियस सीजर के भतीजे आगस्टस सीजर ने अपने नाम को अमर बनाने के लिए सेक्सटिलिस का नाम बदलकर अगस्टस कर दिया जो बाद में केवल अगस्त रह गया।
सितंबर : रोम में सितंबर सैप्टेंबर कहा जाता था। सेप्टैंबर में सेप्टै लेटिन शब्द है जिसका अर्थ है सात एवं बर का अर्थ है वां यानी सेप्टैंबर का अर्थ सातवां किन्तु बाद में यह नौवां महीना बन गया।
अक्टूबर : इसे लैटिन 'आक्ट' (आठ) के आधार पर अक्टूबर या आठवां कहते थे किंतु दसवां महीना होने पर भी इसका नाम अक्टूबर ही चलता रहा।
नवंबर : नवंबर को लैटिन में पहले 'नोवेम्बर' यानी नौवां कहा गया। ग्यारहवां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला एवं इसे नोवेम्बर से नवंबर कहा जाने लगा।
दिसंबर : इसी प्रकार लैटिन डेसेम के आधार पर दिसंबर महीने को डेसेंबर कहा गया। वर्ष का 12वां महीना बनने पर भी इसका नाम नहीं बदला।

प्रेरक प्रसंग - पंडित जी और नाविक


आज गंगा पार होनेके लिए कई लोग एक नौकामें बैठे, धीरे-धीरे नौका सवारियों के साथ सामने वाले किनारे की ओर बढ़ रही थी,एक पंडित जी भी उसमें सवार थे। पंडित जी ने नाविक से पूछा “क्या तुमने भूगोल पढ़ी है ?”
भोला- भाला नाविक बोला “भूगोल क्या है इसका मुझे कुछ पता नहीं।”
पंडितजी ने पंडिताई का प्रदर्शन करते कहा, “तुम्हारी पाव भर जिंदगी पानी में गई।”
फिर पंडित जी ने दूसरा प्रश्न किया, “क्या इतिहास जानते हो? महारानी लक्ष्मीबाई कब और कहाँ हुई तथा उन्होंने कैसे लडाई की ?”
नाविक ने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की तो  पंडित जी ने विजयीमुद्रा में कहा “ ये भी नहीं जानते तुम्हारी तो आधी जिंदगी पानी में गई।”
फिर विद्या के मद में पंडित जी ने तीसरा प्रश्न पूछा “महाभारत का भीष्म-नाविक संवाद या रामायण का केवट और भगवान श्रीराम का संवाद जानते हो ?”
अनपढ़ नाविक क्या कहे, उसने इशारे में ना कहा, तब पंडित जी मुस्कुराते हुए बोले “तुम्हारी तो पौनी जिंदगी पानी में गई।”
तभी अचानक गंगा में प्रवाह तीव्र होने लगा। नाविक ने सभी को तूफान की चेतावनी दी, और पंडितजी से पूछा “नौका तो तूफान में डूब सकती है, क्या आपको तैरना आता है?”
पंडित जी गभराहट में बोले “मुझे तो तैरना-वैरना नहीं आता है ?”
नाविक ने स्थिति भांपते हुए कहा ,“तब तो समझो आपकी पूरी जिंदगी पानी में गयी। ”
कुछ ही देर में नौका पलट गई। और पंडित जी बह गए।
मित्रों ,विद्या वाद-विवाद के लिए नहीं है और ना ही दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। लेकिन कभी-कभी ज्ञान के अभिमान में कुछ लोग इस बात को भूल जाते हैं और दूसरों का अपमान कर बैठते हैं। याद रखिये शाश्त्रों का ज्ञान समस्याओं के समाधान में प्रयोग होना चाहिए शश्त्र बना कर हिंसा करने के लिए नहीं।
कहा भी गया है, जो पेड़ फलों से लदा होता है उसकी डालियाँ झुक जाती हैं। धन प्राप्ति होने पर सज्जनों में शालीनता आ जाती है। इसी तरह , विद्या जब विनयी के पास आती है तो वह शोभित हो जाती है। इसीलिए संस्कृत में कहा गया है , ‘विद्या विनयेन शोभते। ’

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

दीपावली पर तोरण से बढ़ाएं घरों की रौनक

दीपावली के अवसर पर लोग अपने घरों को सजाने के लिए मेन गेट से लेकर स्टोर थी तक कोई कसर बाकी नहीं छो़ड़ते। हर व्यक्ति का सपना होता है कि उसका घर कुछ अलग दिखे और कुछ अलग दिखने के लिए घरों में दीए, कैंडिल,झालर और झूमरों को लगाने में लोग लाखों रुपए तक खर्च कर देते हैं। यदि पूरी सजावट के बाद घर के दरवाजों को छो़ड़ दिया जाए तो बात वाजिब न होगी, इसलिए दरवाजों को सजाने के लिए बाजार में तरह-तरह के तोरण आ गए हैं।

लोक कलात्मकता
आदिवासी महिलाओं के द्वारा बनाए गए तोरणों में एक अद्भुत लोक कलात्मकता है। इनमें उपयोग होने वाली वाली मोटी रस्सी जिसे हम रस्सी ही समझते हैं ये असल में रस्सी नहीं, बल्कि ना़ड़ा होता है जिसके ऊपर रेशम के रंगीन धागों को हाथ से लपेटा जाता है। फिर हाथ से ही गुड्डा-गुडिया, चिडिया और कई आकृतियां तैयार की जाती हैं, जिनके अंदर लक़ड़ी का बुरादा और स्पंज भरा जाता है। फिर उनकी चमक बढ़ाने के लिए उन पर सितारे लगाए जाते हैं। इसके अलावा आपको घंटी वाले, घुंघरु वाले, कौ़ड़ी लगे, कांच से ज़ड़े, रंगीन मोतियों से सजे, कप़ड़े वाले, बासकेट से सजे छोटे-बड़े तोरण भी मिल जाएंगे। ये तोरण लंबे और आड़े दोनों प्रकार के हैं। इनकी कीमत 50 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक है।

आम लोग तैयार नहीं कर पाते
सामान्य तोरणों की अपेक्षा इन तोरणों को बनाने में कुछ ज्यादा समय लगता है। एक तोरण को तैयार करने में लगभग तीन से चार दिन का समय लग जाता है। इसे आम लोग तैयार नहीं कर पाते, इनके लिए कुछ विशेष लोगों की आवश्यकता होती है। पहले इन लोगों को प्रशिक्षण दिया जाता है। उसके बाद ही ये कारीगर एक अच्छा तोरण तैयार कर पाते हैं।

चार दिन में बनता है एक तोरण
गुजरात के पुरषोत्तम आदिवासी ने बताया कि 100 लोगों का समूह मिलकर यह काम करता है। इसको बनाने के लिए जो कच्ची साम्रगी की आवश्यकता होती है जिसे वे अहमदाबाद से लेकर आते हैं। करीब चार दिन की कड़ी मेहनत के बाद एक तोरण तैयार होता है, जिसमें मात्र 30-40 रुपए का मुनाफा होता है।

और भी हैं शहर में
लोग अपने घरों में पहले आम के पत्तों के तोरण लगाते थे लेकिन वे एक ही दिन की रौनक हुआ करते थे, बदलते दौर के साथ अब आम के पत्तों की जगह प्लास्टिक के पत्तों का इस्तेमाल किया जाने लगा है। इन तोरणों में रेशम के धागों के अलावा प्लास्टिक के पत्तों का इस्तेमाल किया गया है। कुछ में प्लेन पत्ते तो कुछ में पत्तों पर गणेश और लक्ष्मी जी की छोटी-छोटी आकृतियों को लगाया है। साथ ही कलश और रुद्राक्ष के साथ छोटी-छोटी घंटियों को भी लगाकर कुछ अलग लुक देने का प्रयास किया गया है।

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

जीवन का सार....

दुख एक मानसिक कल्पना है। कोई पदार्थ, व्यक्ति या क्रिया दुख नहीं है। संसार के सब नाम-रूप गधा-हाथी, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि खिलौने हैं। हम अपने को खिलौना मानेंगे तो गधा या हाथी होने का सुख-दुख होगा, अपने को स्वर्ण, मूल्यधातु देखेंगे तो यह मनुष्य देह नहीं रहेंगे। हम विराट् हैं, साक्षात्‌ ब्रह्म है। जो मनुष्य इस जगत प्रपंच को सत्य देखता है, उसे माया ने ठग लिया है। जो पहले भी नहीं थे, आगे भी नहीं रहेंगे, बीच में थोड़ी देर को दिखाई दे रहे हैं, उन्हीं को सब कुछ समझ कर माया मोहित मनुष्य व्यवहार कर रहा है। तत्वज्ञान शिक्षा देता है कि जो कुछ दिखाई दे, उसे दिखाई देने दो, जो बदलता है, उसे बदलने दो, जो आता-जाता है, उसे आने जाने दो। यह सब जादू का खेल है। 
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।
पुराणों में एक कथा आती है- महाराज जनक के जीवन में कोई भूल हो गई थी। मरने पर उन्हें यमलोक जाना पड़ा। वहां उससे कहा गया- नरक चलो। महाराज जनक तो ब्रह्मज्ञानी थे। उन्हें क्या स्वर्ग, क्या नरक। वे प्रसन्नतापूर्वक चले गए। नरक में पहुंचे तो चारों ओर से पुकार आने लगी- 'महाराज जनक जी! तनिक यहीं ठहर जाइए।' 


महाराज जनक ने पूछा- 'यह कैसा शब्द है?' 
यमदूतों ने कहा-'नरक के प्राणी चिल्ला रहे हैं।' 
जनक ने पूछा-'क्या कह रहे हैं ये?' 
यमदूत बाले-'ये आपको रोकना चाहते हैं।' 
जनक ने आश्चर्य से पूछा-'ये मुझे यहां क्यों रोकना चाहते हैं?' 
यमदूत बोले- 'ये पापी प्राणी अपने-अपने पापों के अनुसार यहां दारुण यातना भोग रहे हैं। इन्हें बहुत पीड़ा थी। अब आपके शरीर को स्पर्श करके वायु इन तक पहुंची तो इनकी पीड़ा दूर हो गई। इन्हें इससे बड़ी शांति मिली।' 
जनक जी बोले-'हमारे यहां रहने से इन सबको शांति मिलती है, इनका कष्ट घटता है तो हम यहीं रहेंगे।'
तात्पर्य यह है कि भला मनुष्य नरक में पहुंचेगा तो नरक भी स्वर्ग हो जाएगा और बुरा मनुष्य स्वर्ग में पहुंच जाए तो स्वर्ग को भी नरक बना डालेगा। अतः देखना चाहिए कि हम अपने चित्त में नरक भरकर चलते हैं या स्वर्ग लेकर। जब हमें लगता है कि समस्त विश्व मेरी आत्मा में है, तब रोग-द्वेष, संघर्ष-हिंसा के लिए स्थान कहां रह जाता है? 

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

सांसदों को इतना ज्यादा वेतन क्यों

सांसदों के वेतन, भत्तों और पेंशन पर नजर डाले तो आप चौक जाएंगे । एक दशक में इनमें हुआ इजाफा हैरत में डाल सकता है। इनके निर्धारण और जांच के लिए भारत में कोई स्वतंत्र संस्था तक नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में ऐसी संस्थाएं हैं, जो पारदर्शिता का ख्याल रखती हैं। सांसदों के वेतन के निर्धारण के लिए भारत और दूसरे देशों में अपनाई जाने वाली व्यवस्थाओं में क्या फर्क है और इस मामले में देश के लिए कौन-सी व्यवस्था कारगर है, बता रहे हैं सत्येंद्र कनौजिया :

भारत में क्या होता है?
भारत में सांसदों के वेतन और भत्तों का निर्धारण 'सैलरीज ऐंड अलाउंसेस ऑफ मिनिस्टर्स ऐक्ट', 1952 के तहत किया जाता है। इस कानून में अब तक 28 बार संशोधन हो चुका है। कैबिनेट सांसदों को मिलने वाले वेतन और भत्तों में संशोधन के लिए प्रस्ताव लाती है और संसद उसे पास कर कानून का रूप दे देती है। ऐसे संशोधनों पर बहस नहीं होती। आमतौर पर इन्हें ध्वनिमत से पारित कर दिया जाता है। आगे कुछ आंकड़े दिए जा रहे हैं, जिनसे सांसदों के मूल वेतन, दैनिक भत्ते और पेंशन में 1954 से 2000 और 2000 से 2010 के बीच हुए संशोधनों का हवाला है।
ये आंकड़े काफी हद तक तस्वीर साफ कर देते हैं। 1954 से 2000, यानी 46 सालों में सांसदों के मूल वेतन में जहां महज 167 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं 2000 से 2010 के बीच इसमें 1150 फीसदी का इजाफा हुआ। जहां तक वेतन, भत्तों और पेंशन में संशोधन का सवाल है तो इसे उचित ठहराया जा सकता है। लेकिन यह उम्मीद करना कि लाभार्थी यानी हमारे सांसद अपने वेतन और भत्तों का निर्धारण करते वक्त तटस्थ और पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगे ठीक नहीं है। कई विकसित देशों में इस मुद्दे से निपटने के लिए स्वतंत्र संस्थाएं हैं।

विकसित देशों का हाल
ऑस्ट्रेलिया: यहां की 'रिम्यूनरेशन ट्रिब्यूनल' नाम की स्वतंत्र संस्था पर ऑस्ट्रेलियाई सांसदों के वेतन और भत्तों के निर्धारण और उनमें संशोधन की जिम्मेदारी है। हालांकि पहले ऑस्ट्रेलिया की संसद के पास ही सांसदों के भत्तों और वेतन तय करने का अधिकार था। 1971 में जस्टिस केर की अगुवाई में एक समिति बनाई गई, जिसने सांसदों के वेतन की जांच के लिए स्टैंडिंग ट्रिब्यूनल के गठन की सिफारिश की, तब जाकर रिम्यूनिरेशन ट्रिब्यूनल एक्ट, 1973 बना।
अमेरिका: अमेरिका में सांसदों के वेतन के निर्धारण में खुद सांसदों की भागीदारी बेहद कम होती है। अमेरिकी संविधान में हुआ 27वां संशोधन सांसदों को सत्र के दौरान अपने वेतन में इजाफा करने से रोकता है।
यूनाइटेड किंगडम: यहां कई ऐसी स्वतंत्र संस्थाएं हैं, जो वेतन में मनमानी बढ़ोतरी से रोकती हैं। इसके अलावा वे यह देखती हैं कि सांसद सार्वजनिक जीवन में उच्च आदर्शों का पालन कर रहे हैं या नहीं।

भारत के लिए क्या है आदर्श
यूके के मॉडल को भारत के संदर्भ में सबसे आदर्श माना जा सकता है। वहां जो संस्थान सांसदों के वेतन आदि को तय करते हैं, उनके मानक भी अलग-अलग हैं।
पार्ल्यामेंटरी कमिश्नर फॉर स्टैंडर्ड्स: यह संसद का एक स्वतंत्र अधिकारी होता है, जो सांसदों की संपत्तियों और उनके खिलाफ शिकायतें दर्ज करता है।नैशनल लेवल कमिटी ऑन स्टैंडर्ड्स इन पब्लिक लाइफ : यह कमिटी सरकार को सार्वजनिक जीवन में अपनाए जाने वाले एथिकल स्टैंडर्ड्स(नैतिक मानदंडों) पर सलाह देती है। इसकी स्थापना 1994 में हुई। बीते सालों में इस कमिटी ने राजनीतिक पाटिर्यों की संपत्तियों, सांसदों के खर्चों और भत्तों समेत कई अहम रिपोर्ट तैयार की हैं।

रिव्यू बॉडी ऑन सीनियर सैलरीज (एसएसआरबी) : एसएसआरबी समय-समय पर प्रधानमंत्री को सांसदों और मंत्रियों के वेतन, भत्तों और पेंशन पर सलाह देती है। यह लॉर्ड चांसलर और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर डिफेंस को न्यायिक पदों पर बैठे लोगों, सीनियर सिविल सर्वेंट, सशस्त्र सेनाओं के सीनियर अधिकारियों को लेकर वेतन पर समय-समय पर सलाह देती है।
पार्ल्यामेंटरी स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (आईपीएसए) : यह पार्ल्यामेंटरी स्टैंडर्ड्स ऐक्ट, 2009 के जरिए अस्तित्व में आई। आईपीएसए सांसदों के खर्चों, वेतन और पेंशन की निगरानी और उन पर नियंत्रण रखती है। वह नियमित रूप से उनके खर्चों की जानकारी प्रकाशित करती है।

ब्रिटेन से जुड़े कुछ फैक्ट्स
1 अप्रैल, 2010 के आंकड़े के मुताबिक, ब्रिटेन के एक सांसद की सालाना आय 65,738 पाउंड है।
ब्रिटेन में सांसदों को सालाना आय मिलने की शुरुआत 1911 में हुई। उस वक्त यह 400 पाउंड थी।
2010 के आम चुनावों के बाद से सांसदों के वेतन और भत्तों का निर्धारण आईपीएसए करती है।
ब्रिटेन के सांसद आम जनता की तरह टैक्स और नैशनल इंश्योरेंस देते हैं।
वहां सांसदों को कंजेशन चार्ज से कोई राहत नहीं दी गई है।

ऐसे बनते हैं शंकराचार्य

प्राचीन भारतीय सनातन परम्परा के विकास और हिंदू धर्म के प्रचार व प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है। उन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में फैलाने के लिये भारत के चारों कोनों में चार शंकराचार्य मठों (पूर्व में गोवर्धन, जगन्नाथपुरी, पश्चिम में शारदामठ, गुजरात, उत्तर में ज्योतिर्मठ, बद्रीधाम और दक्षिण में शृंगेरी मठ, रामेश्वर) की स्थापना की थी। ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दी में स्थापित किये गये ये चारों मठ आज भी चार शंकराचार्यों के नेतृत्व में सनातन परम्परा का प्रचार व प्रसार कर रहे हैं। आदि शंकराचार्य ने इन चारों मठों के अलावा पूरे देश में बारह ज्योतिर्लिंगों की भी स्थापना की थी।
आदि शंकराचार्य को अद्वैत परम्परा का प्रवर्तक माना जाता है। उनका कहना था कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। हमें अपनी अज्ञानता के कारण ही ये दोनों अलग अलग प्रतीत होते हैं।
क्या हैं ये मठ
ये मठ गुरु शिष्य परम्परा के निर्वहन का प्रमुख केंद्र हैं। पूरे भारत में सभी संन्यासी अलग अलग मठ से जुड़े होते हैं। इन मठों में शिष्यों को संन्यास की दीक्षा दी जाती है। संन्यास लेने के बाद दीक्षित नाम के बाद एक विशेषण लगा दिया जाता है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह संन्यासी किस मठ से है और वेद की किस परम्परा का वाहक है। सभी मठ अलग अलग वेद के प्रचारक होते हैं और इनका एक विशेष महावाक्य होता है। मठों को पीठ भी कहा जाता है। आदि शंकराचार्य ने इन चारों मठों में अपने योग्यतम शिष्यों को मठाधीश बनाया था। यह परम्परा आज भी इन मठों में प्रचलित है। हर मठाधीश शंकराचार्य कहलाता है और अपने जीवनकाल में ही अपने सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी बना देता है।
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ
1. श्रृंगेरी मठ
यह मठ भारत के दक्षिण में रामेश्वरम् में स्थित है। इसके तहत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद सरस्वती, भारती और पुरी सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस मठ का महावाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' है और मठ के तहत 'यजुर्वेद' को रखा गया है। इस मठ के पहले मठाधीश आचार्य सुरेश्वर थे। वर्तमान में स्वामी भारती कृष्णतीर्थ इस मठ के 36 वें मठाधीश हैं।
2. गोवर्धन मठ
गोवर्धन मठ भारत उड़ीसा के पुरी में है। गोवर्धन मठ के तहत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ' आरण्य ' सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस मठ का महावाक्य है ' प्रज्ञानं ब्रह्म ' और इस मठ के तहत ' ऋग्वेद ' को रखा गया है। इस मठ के पहले मठाधीश आदि शंकराचार्य के पहले शिष्य पद्मपाद हुए। वर्तमान में निश्चलानंद सरस्वती इस मठ के 145 वें मठाधीश हैं।
3. शारदा मठ
शारदा ( कालिका ) मठ गुजरात में द्वारकाधाम में है। इसके तहत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ' तीर्थ ' और ' आश्रम ' सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस मठ का महावाक्य है ' तत्त्वमसि ' और इसमें ' सामवेद ' को रखा गया है। शारदा मठ के पहले मठाधीश हस्तामलक ( पृथ्वीधर ) थे। हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे। वर्तमान में स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती इस मठ के 79 वें मठाधीश हैं।
4. ज्योतिर्मठ
ज्योतिर्मठ उत्तराखण्ड के बद्रिकाश्रम में है। ज्योतिर्मठ के तहत दीक्षा लेने वाले संन्यासियों के नाम के बाद ' गिरि ', ' पर्वत ' और ' सागर ' सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाया जाता है जिससे उन्हें उस संप्रदाय का संन्यासी माना जाता है। इस मठ का महावाक्य ' अयमात्मा ब्रह्म ' है। इस मठ के अंतर्गत अथर्ववेद को रखा गया है। ज्योतिर्मठ के पहले मठाधीश आचार्य तोटक बनाए गए थे। वर्तमान में कृष्णबोधाश्रम इस मठ के 44 वें मठाधीश हैं।
इन चार मठों के अलावा तमिलनाडु स्थित कांची मठ को भी शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया हुआ माना जाता है लेकिन यह विवादित माना गया है। वर्तमान में इस मठ के मठाधीश स्वामी जयेंद्र सरस्वत ी है। 

मणिपुर की सम्पूर्ण जानकारी

मणिपुर में कई रोचक पहलू हैं, जो लोग घूमने - फिरने के बहुत शौकीन हैं, उनके लिए मणिपुर में बहुत कुछ खास है। भारत के इस पूर्वोत्‍तर राज्‍य में सिरउई लिली, संगाई हिरण, लोकतक झील में तैरते द्वीप, दूर - दूर तक फैली हरियाली, उदारवादी जलवायु और परंपरा का सुंदर मिश्रण देखने का मिलता है। इस जगह की यात्रा कभी कठिन नहीं होती और हमेशा रोचक रहती है।

मणिपुर
सोशल नेटवर्क पर इसे शेयर करें
मणिपुर राज्‍य, उत्‍तर में नागालैंड, दक्षिण में मिजोरम, पश्चिम में असम और पूर्व में वर्मा की सीमा से जुड़ा हुआ है।
यात्रा के विषय में जानकारी - मणिपुर में पर्यटकों की रूचि के अनुरूप स्‍थल
इम्‍फाल, मणिपुर की राजधानी है जो प्राकृतिक सुंदरता और वन्‍यजीवन से घिरी हुई है। कई लोग इस बात को सुनकर आश्‍चर्यचकित हो जाते हैं कि पोलो खेल की उत्‍पत्ति इम्‍फाल में हुई थी। इसजगह कई प्राचीन अवशेष, मंदिर और स्‍मारक हैं। इम्‍फाल में द्वितीय विश्‍व युद्ध के इम्‍फाल के युद्ध और कोहिमा के युद्ध का उल्‍ल्‍ेख मिलता है। यह स्‍थल यहां आने वाले पर्यटकों को मणिपुर के साथ जोड़ता है। श्री गोविंद जी मंदिर, कांगला पैलेस, युद्ध स्‍मारक, महिलाओं के द्वारा चलाया जाने वाले बाजार - इमा केथेल, इम्‍फाल घाटी और दो बगीचे इस जगह को पूरी तरह से पर्यटन के लायक बनाते हैं।
मणिपुर पर्यटन का सबसे अह्म पहलू चंदेल है जो एक जिला और शहर है, साथ ही इसे म्‍यांमार के लिए प्रवेश द्वार भी माना जाता है। चंदेल और तामेंगलांग में चारों तरफ वनस्‍पतियों और जीवों की विविध प्रजातियां पाई जाती हैं। चंदेल में मोरेह, मणिपुर के व्‍यावसायिक केंद्र होने के लिए होता है। तामेंगलांग में ऑरेंज महोत्‍सव, यहां के स्‍थानीय निवासियों और आने वाले पर्यटकों के बीच फल उत्‍सव के रूप में जाना जाता है, जो आंगतुकों के लिए खासा आकर्षण है।
सेनापति में कई छोटे - छोटे गांव हैं जो इस क्षेत्र को पर्यटन के लिए विशिष्‍ट बनाते हैं। माराम खुलेन, मक्‍खेल और इतिहास में दर्ज यांगखुल्‍लेन चोटी, माओ मणिपुर राज्‍य के लिए प्रवेश द्वार हैं। वहीं पुरूल, ताऊटो की भूमि है जो राज्‍य का लोकप्रिय खेल है।
सिर्फ घूमना - फिरना और मस्‍ती : झीलों, गार्डन और चोटियों की सैर
लोकतक झील, दुनिया की सबसे बड़ी बहने वाली झीलों में से एक है और इसमें तैरने वाले द्वीपों के कारण यह मणिपुर के बिश्‍नुपुर में एक पर्यटन आकर्षण है। इन द्वीपों पर मछुआरे अस्‍थायी रूप से निवास करते हैं। लोकतक झील पर सेन्‍द्रा द्वीप एक पिकनिक स्‍पॉट है जहां सैर के लिए अवश्‍य जाना चाहिए। यहां केईबुल लाम्‍जाओ राष्‍ट्रीय पार्क भी है जहां संगाई हिरण पाएं जाते हैं और इस पार्क के पास में ही एक झील भी बहती है।
तामेंगलांग में जाईलद झील एक बेहद खूबसूरत स्‍थल है और साहसिक गतिविधियों में रूचि रखने वाले पर्यटक यहां आने के लिए उत्‍सुक रहते हैं। वहीं मणिपुर के थौबेल जिले की बेथोउ झील भी अपने आसपास फैली सुंदरता के कारण विख्‍यात है और भारी संख्‍या में लोग यहां सैर करने आते है।
मणि‍पुर का थौबल जिला एक कृषि प्रधान क्षेत्र है जहां धान की पैदावार भारी मात्रा में होती है, ये फसल इस क्षेत्र को देखने में बेहद सुंदर बना देती है। थौबल में इकॉप झील, लाउसी झील, पुमलेन झील व अन्‍य झीलें शामिल हैं। वहीं उखरूल में स्थित काचाऊफुंग झील एक प्राकृतिक संरचना है जो खायांग झरने के पास में स्थित है। चुराचांदपुर में नगालोई झरना और खुगा बांध भी पर्यटन स्‍थल हैं।
हालांकि, उखरूल की शिरूउई कुशांग चोटी, में शिरूउई लिली दूर - दूर तक फैले हैं जो गर्मियों के दौरान यहां के वातावरण को बेहद खास और प्‍यारा बना देते हैं। चंदेल का घास का मैदान यहां काफी दूर तक फैला हुआ है जो असमान और ऊंचा - नीचा है इसके बावजूद भी यहां खिलने वाले जंगली लिली के कारण गर्मियों का मौसम पर्यटन के लायक होता है। इसीलिए मणिपुर की सुंदरता हमेशा पर्यटकों को लुभाती है कि वह यहां आएं और भ्रमण करें, जितना अन्‍य कोई स्‍थान उन्‍हे प्राकृतिक सुंदरता को देखने के लिए आकर्षित नहीं करता।

सिक्किम की सम्पूर्ण जानकारी

 (सिखिम भी) भारत का एक पर्वतीय राज्य है। सिक्किम की जनसंख्या भारत के राज्यों में न्यूनतम[1] तथा क्षेत्रफल गोआ के पश्चात न्यूनतम है। सिक्किम नामग्याल राजतन्त्र द्वारा शासित एक स्वतन्त्र राज्य था, परन्तु प्रशासनिक समस्यायों के चलते तथा भारत से विलय के जनमत के कारण १९७५ में एक जनमत-संग्रह के अनुसार भारत में विलीन हो गया।[2] उसी जनमत संग्रह के पश्चात राजतन्त्र का अन्त तथा भारतीय संविधान की नियम-प्रणाली के ढाचें में प्रजातन्त्र का उदय हुआ।[3]
अंगूठे के आकार का यह राज्य पश्चिम में नेपाल, उत्तर तथा पूर्व में चीनी तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तथा दक्षिण-पूर्व में भूटान से लगा हुआ है। भारत का पश्चिम बंगाल राज्य इसके दक्षिण में है।[4] अंग्रेजीनेपालीलेप्चाभूटियालिंबू तथा हिन्दी आधिकारिक भाषाएँ हैं परन्तु लिखित व्यवहार में अंग्रेजी का ही उपयोग होता है। हिन्दू तथाबज्रयान बौद्ध धर्म सिक्किम के प्रमुख धर्म हैं। गंगटोक राजधानी तथा सबसे बड़ा शहर है।[5]
अपने छोटे आकार के बावजूद सिक्किम भौगोलिक दृष्टि से काफ़ी विविधतापूर्ण है। कंचनजंगा जो कि दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है, सिक्किम के उत्तरी पश्चिमी भाग में नेपाल की सीमा पर है और इस पर्वत चोटी को प्रदेश के कई भागो से आसानी से देखा जा सकता है। साफ सुथरा होना, प्राकृतिक सुंदरता एवं राजनीतिक स्थिरता आदि विशेषताओं के कारण सिक्किम भारत में पर्यटन का प्रमुख केन्द्र है।

नाम का मूल

'सिक्किम' शब्द का सर्वमान्य स्रोत लिम्बू भाषा के शब्दों सु (अर्थात "नवीन") तथा ख्यिम (अर्थात "महल" अथवा "घर" - जो कि प्रदेश के पहले राजा फुन्त्सोक नामग्याल के द्वारा बनाये गये महल का संकेतक है) को जोड़कर बना है। तिब्बती भाषा में सिक्किम को दॅञ्जॉङ्ग, अर्थात "चावल की घाटी" कहा जाता है।[6]

इतिहास

गुरु रिन्पोचे, सिक्किम के संरक्षक सन्त की मूर्ति.नाम्ची की मूर्ति १८८ फीट पर विश्व में उनकी सबसे ऊँची मूर्ति है।
बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का ८वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है। अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की। मान्यता के अनुसार १४वीं सदी में ख्ये बुम्सा, पूर्वी तिब्बत में खाम केमिन्यक महल के एक राजकुमार को एक रात दैवीय दृष्टि के अनुसार दक्षिण की ओर जाने का आदेश मिला। इनके ही वंशजों ने सिक्किम में राजतन्त्र की स्थापना की। १६४२ इस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल(राजा) घोषित किया गया। इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ।
फुन्त्सोंग नामग्याल के पुत्र, तेन्सुंग नामग्याल ने उनके पश्चात १६७० में कार्य-भार संभाला। तेन्सुंग ने राजधानी को युक्सोम से रबदेन्त्से स्थानान्तरित कर दिया। सन १७०० में भूटान में चोग्याल की अर्ध-बहन, जिसे राज-गद्दी से वंचित कर दिया गया था, द्वारा सिक्किम पर आक्रमण हुआ। तिब्बतियों की सहयता से चोग्याल को राज-गद्दी पुनः सौंप दी गयी। १७१७ तथा १७३३ के बीच सिक्किम को नेपाल तथा भूटान के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा जिसके कारण रबदेन्त्से का अन्तत:पतन हो गया।[3]
सिक्किम के पुराने राजशाही का ध्वज
1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी। नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया। पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया। नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम १८१४ कागोरखा युद्ध रहा।
सिक्किम और नेपाल के बीच हुई सुगौली संधि तथा सिक्किम और ब्रतानवी भारत के बीच हुई तितालिया संधि के द्वारा नेपाल द्वारा अधिकृत सिक्किमी क्षेत्र सिक्किम को वर्ष १८१७ में लौटा दिया गया। यद्यपि, अंग्रेजों द्वारा मोरांग प्रदेश में कर लागू करने के कारण सिक्किम और अंग्रेजी शासन के बीच संबंधों में कड़वाहट आ गयी। वर्ष १८४९ में दो अंग्रेज़ अफसर, सर जोसेफ डाल्टन और डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल, जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे। इन दोनों अफसरों को सिक्किम सरकार द्वारा बंधी बना लिया गया। नाराज़ ब्रिटिश शासन ने इस हिमालयी राज्य पर चढाई कर दी और इसे १८३५ में भारत के साथ मिला लिया। इस चढाई के परिणाम वश चोग्याल ब्रिटिश गवर्नर के आधीन एक कठपुतली राजा बन कर रह गया।[7]
१९४७ में एक लोकप्रिय मत द्वारा सिक्किम का भारत में विलय को अस्वीकार कर दिया गया और तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया। इसके तहत भारत सिक्किम का संरक्षक हुआ। सिक्किम के विदेशी, राजनयिक अथवा सम्पर्क संबन्धी विषयों की ज़िम्मेदारी भारत ने संभाल ली।
सन १९५५ में एक राज्य परिषद् स्थापित की गई जिसके आधीन चोग्याल को एक संवैधानिक सरकार बनाने की अनुमति दी गई। इस दौरान सिक्किम नेशनल काँग्रेस द्वारा पुनः मतदान और नेपालियों को अधिक प्रतिनिधित्व की मांग के चलते राज्य में गडबडी की स्थिति पैदा हो गई। १९७३ में राजभवन के सामने हुए दंगो के कारण भारत सरकार से सिक्किम को संरक्षण प्रदान करने का औपचारिक अनुरोध किया गया। चोग्याल राजवंश सिक्किम में अत्यधिक अलोकप्रिय साबित हो रहा था। सिक्किम पूर्ण रूप से बाहरी दुनिया के लिये बंद था और बाह्य विश्व को सिक्किम के बारे मैं बहुत कम जानकारी थी। यद्यपि अमरीकन आरोहक गंगटोक के कुछ चित्र तथा अन्य कानूनी प्रलेख की तस्करी करने में सफल हुआ। इस प्रकार भारत की कार्यवाही विश्व के दृष्टि में आई। यद्यपि इतिहास लिखा जा चुका था और वास्तविक स्थिति विश्व के तब पता चला जब काजी (प्रधान मंत्री) नें १९७५ में भारतीय संसद को यह अनुरोध किया कि सिक्किम को भारत का एक राज्य स्वीकार कर उसे भारतीय संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए। अप्रैल १९७५ में भारतीय सेना सिक्किम में प्रविष्ट हुई और राजमहल के पहरेदारों को निःशस्त्र करने के पश्चात गंगटोक को अपने कब्जे में ले लिया। दो दिनों के भीतर सम्पूर्ण सिक्किम राज्य भारत सरकार के नियंत्रण में था। सिक्किम को भारतीय गणराज्य मे सम्मिलित्त करने का प्रश्न पर सिक्किम की ९७.५ प्रतिशत जनता ने समर्थन किया। कुछ ही सप्ताह के उपरांत १६ मई १९७५ मे सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का २२ वां प्रदेश बना और सिक्किम मे राजशाही का अंत हुआ।
वर्ष २००२ मे चीन को एक बड़ी शर्मिंदगी के सामना तब करना पड़ा जब सत्रहवें कर्मापा उर्ग्यें त्रिन्ले दोरजी, जिन्हें चीनी सरकार एक लामा घोषित कर चुकी थी, एक नाटकीय अंदाज में तिब्बत से भाग कर सिक्किम की रुम्तेक मठ मे जा पहुंचे। चीनी अधिकारी इस धर्म संकट मे जा फँसे कि इस बात का विरोध भारत सरकार से कैसे करें। भारत से विरोध करने का अर्थ यह निकलता कि चीनी सरकार ने प्रत्यक्ष रूप से सिक्किम को भारत के अभिन्न अंग के रूप मे स्वीकार लिया है।
चीनी सरकार की अभी तक सिक्किम पर औपचारिक स्थिति यह थी कि सिक्किम एक स्वतंत्र राज्य है जिस पर भारत नें अधिक्रमण कर रख्खा है।[3][8] चीन ने अंततः सिक्किम को २००३ में भारत के एक राज्य के रूप में स्वीकार किया जिससे भारत-चीन संबंधों में आयी कड़वाहट कुछ कम हुई। बदले में भारत नें तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग स्वीकार किया। भारत और चीन के बीच हुए एक महत्वपूर्ण समझौते के तहत चीन ने एक औपचारिक मानचित्र जारी किया जिसमें सिक्किम को स्पष्ट रूप मे भारत की सीमा रेखा के भीतर दिखाया गया। इस समझौते पर चीन के प्रधान मंत्री वेन जियाबाओ और भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने हस्ताक्षर किया। ६ जुलाई २००६ को हिमालय के नाथुला दर्रे को सीमावर्ती व्यापार के लिए खोल दिया गया जिससे यह संकेत मिलता है कई इस क्षेत्र को लेकर दोनों देशों के बीच सौहार्द का भाव उत्पन्न हुआ है।[9]

भूगोल

सिक्किम के पश्चिम में हिमालय की चोटियाँ
अंगूठे के आकार का सिक्किम पूरा पर्वतीय क्षेत्र है। विभिन्न स्थानों की ऊँचाई समुद्री तल से २८० मीटर (९२० फीट) से ८,५८५ मीटर (२८,००० फीट) तक है।कंचनजंगा यहाँ की सबसे ऊंची चोटी है। प्रदेश का अधिकतर हिस्सा खेती। कृषि के लिये अन्युपयुक्त है। इसके बावजूद कुछ ढलान को खेतों में बदल दिया गया है और पहाड़ी तरीके से खेती की जाती है। बर्फ से निकली कई धारायें मौजूद होने की वजह से सिक्किम के दक्षिण और पश्चिम में नदियों की घाटियाँ बन गईं हैं। यह धारायें मिलकर टीस्ता एवं रंगीत बनाती हैं। टीस्ता को सिक्किम की जीवन रेखा भी कहा जाता है और यह सिक्किम के उत्तर से दक्षिण में बहती है। प्रदेश का एक तिहाई हिस्सा घने जंगलों से घिरा है।
सिक्किम के उत्तर में हिमालय पर्वत श्रंखला
उत्तर सिक्किम में स्थित गुरुडांगमार सरोवर
हिमालय की ऊँची पर्वत श्रंखलाओं ने सिक्किम को उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं मे अर्धचन्द्राकार। अर्धचन्द्र में घेर रखा है। राज्य के अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र अधिकतर राज्य के दक्षिणी भाग मे, हिमालय की कम ऊँचाई वाली श्रंखलाओं मे स्थित हैं। राज्य मे अट्‌ठाइस पर्वत चोटियाँ, इक्कीस हिमानी, दो सौ सत्ताईस झीलें। झील (जिनमे चांगु झीलगुरुडोंग्मार झील और खेचियोपल्री झीलें। खेचियोपल्री झीले शामिल हैं), पाँच गर्म पानी के चश्मे। गर्म पानी का चश्मा और सौ से अधिक नदियाँ और नाले हैं। आठ पहाड़ी दर्रे सिक्किम को तिब्बत, भूटान और नेपाल से जोड़ते हैं।[4]
Cities and towns of Sikkim.

भूतत्व

सिक्किम की पहाड़ियाँ मुख्यतः नेस्ती(gneissose) और अर्द्ध-स्कीस्तीय(half-schistose) पत्थरों से बनी हैं, जिस कारण उनकी मिट्टी भूरी मृत्तिका, तथा मुख्यतः उथला और कमज़ोर है। यहाँ की मिटटी खुरदरी तथा लौह जारेय से थोड़ी अम्लीय है। इसमें खनिजी और कार्बनिक पोषकों का अभाव है। इस तरह की मिट्टी सदाबहार और पर्णपाती वनों के योग्य है।
सिक्किम की भूमि का अधिकतर भाग केम्ब्रिया-पूर्व(Precambrian) चट्टानों से आवृत है जिनकी आयु पहाड़ों से बहुत कम है। पत्थर फ़िलीतियों। फ़िलीत(phyllite) और स्कीस्त से बने हैं इस कारणवश and therefore the slopes are highly susceptible to weathering and prone to erosion. This, combined with the intense rain, causes extensive soil erosion and heavy loss of soil nutrients through leaching. इस के परिणाम स्वरूप यहां आये दिन भूस्खलन होते रहते हैं, जो बहुत से छोटे गावों और कस्बों का शहरी इलाकों से संपर्क विछ्छेद कर देते हैं।[4]

गरम पानी के झरने

सिक्किम में गरम पानी के अनेक चश्मे हैं जो अपनी रोगहर क्षमता के लिये विख्यात हैं। सबसे महत्वपूर्ण गरम पानी के च्श्मे फुरचाचुयुमथांगबोराँगरालांग,तरमचु और युमी सामडोंग हैं। इन सभी चश्मों में काफी मात्रा में सल्फर पाया जाना है और ये नदी के किनारे स्थित हैं। इन गरम पानी के चश्मों का औसत तापमान ५० °C (सेल्सियस) तक होता है।

मौसम

यहाँ का मौसम जहाँ दक्षिण में शीतोष्ण कटिबंधी है तो वहीं टुंड्रा प्रदेश के मौसम की तरह है। यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28 °सै (82 °फै) से ऊपर यां 0 °सै (32 °फै) से नीचे जाता है। सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दीगर्मीबसंत औरपतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है। अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18 °सै (64 °फै) रह्ता है। सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है। हिम रेखा लगभग ६००० मीटर (१९६०० फीट) है।
मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है। प्रदेश में लगातार बारिश होने का कीर्तिमान ११ दिन का है। प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -४० °C से भी कम हो जाता है। शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है।[4]

उपविभाग

सिक्किम के चार जनपद और उनके मुख्यालय
सिक्किम में चार जनपद हैं। प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है। चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है। कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है। सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं।
यह चार जिले पूर्व सिक्किमपश्चिम सिक्किमउत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोकगेज़िंगमंगन एवं नामची हैं।[5] यह चार जिले पुन: विभिन्न उप-विभागों में बाँटे गये हैं। "पकयोंग" पूर्वी जिले का, "सोरेंग" पश्चिमी जिले का, "चुंगथांग" उत्तरी जिले का और "रावोंगला" दक्षिणी जिले का उपविभाग है।[10]

जीव जंतु एवं वनस्पति

बुरुंश (रोह्डोडैंड्रौन) सिक्क्म का राजवृक्ष है
सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में पारिस्थितिक गर्मस्थान में भारत के तीन पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक बसा हुआ है। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा तरह के पौधे भी पाये जाते हैं। इतने छोटे से इलाके में ऐसी भिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है।
The flora of Sikkim includes the rhododendron, the state tree, with a huge range of species occurring from subtropical to alpine regions.Orchidsfigslaurelbananassal trees and bamboo in the lower altitudes of Sikkim, which enjoy a sub-tropical type climate. In the temperate elevations above 1,500 metres, oakschestnutsmaplesbirchsalders, and magnolias grow in large numbers. The alpine type vegetation includes juniperpinefirscypresses and rhododendrons, and is typically found between an altitude of ३,५०० metres to ५,००० m. Sikkim boasts around ५,००० flowering plants, ५१५ rare orchids, ६० primulas species, ३६ rhododendrons species, ११ oaks varieties, २३ bamboos varieties, १६ conifer species, ३६२ types of ferns and ferns allies, ८ tree ferns, and over ४२४ medicinal plants. The orchid Dendrobium nobile is the official flower of Sikkim.
The fauna includes the snow leopard, the musk deer, the Bhoral, the Himalayan Tahr, the red panda, the Himalayan marmot, the serow, the goral, the barking deer, the common langur, the Himalayan Black Bear, the clouded leopard, the Marbled Cat, the leopard cat, the wild dog, the Tibetan wolf, the hog badger, the binturong, the jungle cat and the civet cat. Among the animals more commonly found in the alpine zone are yaks, mainly reared for their milk, meat, and as a beast of burden.
सिक्किम के पक्षी जगत में प्रमुख हैं - Impeyan pheasant, the crimson horned pheasant, the snow partridge, the snow cock, the lammergeyerand griffon vultures, as well as golden eaglesquailploverswoodcocksandpiperspigeonsOld World flycatchersbabblers and robins. यहां पक्षियों की कुल 550 प्रजातियां अभिलिखित की गयी हैं, जिन में से कुछ को विलुप्तप्रायः घोषित किया गया है।[4]

अर्थ-व्यवस्था

वृहत् अर्थव्यवस्थासंबंधी प्रवाह[संपादित करें]

यह सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी सिक्किम के सकल घरेलू उत्पाद के प्रवाह की एक झलक है (करोड़ रुपयों में)[11]
सालसकल घरेलू उत्पाद
१९८०५२
१९८५१२२
१९९०२३४
१९९५५२०
२०००९७१
२००३२३७८.६ [1]
२००४ के आँकड़ों के अनुसार सिक्किम का सकल घरेलू उत्पाद $४७८ मिलियन होने का अनुमान लगाया गया है।
सिक्किम एक कृषि प्रधान। कृषि राज्य है और यहाँ सीढ़ीदार खेतों में पारम्परिक पद्धति से कृषि की जाती है। यहाँ के किसान इलाईचीअदरकसंतरासेबचायऔर पीनशिफ आदि की खेती करते हैं।[5]चावल राज्य के दक्षिणी इलाकों में सीढ़ीदार खेतों में उगाया जाता है। सम्पूर्ण भारत में इलाईची की सबसे अधिक उपज सिक्किम में होती है। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण और परिवहन की आधारभूत सुविधाओं के अभाव में यहाँ कोई बड़ा उद्योग नहीं है। मद्यनिर्माणशाला,मद्यनिष्कर्षशालाचर्म-उद्योग तथा घड़ी-उद्योग सिक्किम के मुख्य उद्योग हैं। यह राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित हैं- मुख्य रूप से मेल्ली और जोरेथांग नगरों में। राज्य में विकास दर ८.३% है, जो दिल्ली के पश्चात राष्ट्र भर में सर्वाधिक है।[12]
इलायची सिक्किम की मुख्य नकदी फसल है
हाल के कुछ वर्षों में सिक्किम की सरकार ने प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देना प्रारम्भ किया है। सिक्किम में पर्यटन का बहुत संभावना है और इन्हीं का लाभ उठाकर सिक्किम की आय में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। आधारभूत संरचना में सुधार के चलते, यह उपेक्षा की जा रही है पर्यटन राज्य में अर्थव्यवस्था के एक मुख्य आधार के रूप में सामने आयेगा। ऑनलाइन सट्टेबाजी राज्य में एक नए उद्योग के रूप में उभर कर आया है। "प्लेविन" जुआ, जिसे विशेष रूप से तैयार किए गए अंतकों पर खेला जाता है, को राष्ट्र भर में खूब वाणिज्यिक सफलता हासिल हुई है।[13][13] राज्य में प्रमुख रूप से ताम्बाडोलोमाइटचूना पत्थरग्रेफ़ाइटअभ्रकलोहा औरकोयला आदि खनिजों का खनन किया जाता है।[14]
जुलाई ६२००६ को नाथूला दर्रा, जो सिक्किम को ल्हासातिब्बत से जोड़ता है, के खुलने से यह आशा जतायी जा रही है कि इससे सिक्किम की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा, भले वे धीरे-धीरे ही देखने को मिलें। यह दर्रा, जो १९६२ में १९६२ भारत-चीन युद्ध। भारत-चीन युद्ध के पश्चात बंद कर दिया गया था, प्राचीन रेशम मार्ग का एक हिस्सा था और ऊनछाल और मसालों। मसाला के व्यापार में सहायक था।[9]

परिवहन

सिक्किम में कठिन भूक्षेत्र के कारण कोई हवाई अड्डा अथवा रेल स्टेशन नहीं है। समीपतम हवाईअड्डा बागदोगरा हवाईअड्डासिलीगुड़ीपश्चिम बंगाल में है। यह हवाईअड्डा गंगटोक से १२४ कि०मी० दूर है। गंगटोक से बागदोगरा के लिये सिक्किम हेलीकॉप्टर सर्विस द्वारा एक हेलीकॉप्टर सेवा उपलब्ध है जिसकी उड़ान ३० मिनट लम्बी है, दिन में केवल एक बार चलती है और केवल ४ लोगों को ले जा सकती है।[15]गंगटोक हैलीपैड राज्य का एकमात्र असैनिक हैलीपैड है। निकटतम रेल स्टेशन नई जलपाईगुड़ी में है जो सिलीगुड़ी से १६ किलोमीटर। कि०मी० दूर है।[5]
राष्ट्रीय राजमार्ग ३१A सिलीगुड़ी को गंगटोक से जोड़ता है। यह एक सर्व-ऋतु मार्ग है तथा सिक्किम में रंग्पो पर प्रवेश करने के पश्चात तीस्ता नदी के समानान्तर चलता है। अनेक सार्वजनिक अथवा निजी वाहन हवाई-अड्डे, रेल-स्टेशन तथा और सिलिगुड़ी को गंगटोक से जोड़ते हैं। मेल्ली से आने वाले राजमार्ग की एक शाखा पश्चिमी सिक्किम को जोड़ती है। सिक्किम के दक्षिणी और पश्चिमी शहर सिक्किम को उत्तरी पश्चिमी बंगाल के पर्वतीय शहर कलिम्पोंग और दार्जीलिंग से जोड़ते हैं। राज्य के भीतर चौपहिया वाहन लोकप्रिय हैं क्योंकि यह राज्य की चट्टानी चढ़ाइयों को आसानी से पार करने में सक्षम होते हैं। छोटी बसें राज्य के छोटे शहरों को राज्य और जिला मुख्यालयों से जोड़ती हैं।[5]

जनसांख्यिकी

मानवजातीय रूप से सिक्किम के अधिकतर निवासी नेपाली हैं जिन्होंने प्रदेश में उन्नीसवीं सदी में प्रवेश किया। भूटिया सिक्किम के मूल निवासियों में से एक हैं, जिन्होंने तिब्बत के खाम जिले से चौदवीं सदी में पलायन किया और लेप्‍चा, जो स्थानीय मान्यतानुसार सुदूर पूर्व से आये माने जाते हैं। प्रदेश के उत्तरी तथा पूर्वी इलाक़ों में तिब्बती बहुतायत में रहते हैं। अन्य राज्यों से आकर सिक्किम में बसने वालों में प्रमुख हैं मारवाड़ी लोग। मारवाड़ी, जो दक्षिण सिक्किम तथा गंगटोक में दुकानें चलाते हैं;बिहारी जो अधिकतर श्रमिक हैं; तथा बंगाली लोग। बंगाली
हिन्दू धर्म राज्य का प्रमुख धर्म है जिसके अनुयायी राज्य में ६०.९% में हैं।[16] बौद्ध धर्म के अनुयायी २८.१% पर एक बड़ी अल्पसंख्या में हैं।[16] सिक्किम में ईसाई। ईसाइयों की ६.७% आबादी है जिनमे मूल रूप से अधिकतर वे लेपचा हैं जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के उत्तरकाल में संयुक्त राजशाही। अंग्रेज़ीधर्मोपदेशकों के प्रचार के बाद ईसाई मत अपनाया। राज्य में कभी साम्प्रदायिक तनाव नहीं रहा। मुसलमानों की १.४% प्रतिशत आबादी के लिए गंगटोक के व्यापारिक क्षेत्र में और मंगन में मस्जिद। मस्जिदें हैं।[16]
नेपाली सिक्किम का प्रमुख भाषा है। सिक्किम में प्रायः अंग्रेज़ी और हिन्दी भी बोली और समझी जाती हैं। यहाँ की अन्य भाषाओं मे भूटियाजोङ्खाग्रोमागुरुंगलेप्चालिम्बुमगरमाझीमझवारनेपालभाषा,दनुवारशेर्पासुनवार भाषा। सुनवारतामाङथुलुंगतिब्बती और याक्खा शामिल हैं।[5][17]
५,४०,४९३ की जनसंख्या के साथ सिक्किम भारत का न्यूनतम आबादी वाला राज्य है,[18] जिसमें पुरुषों की संख्या २,८८,२१७ है और महिलाओं की संख्या २,५२,२७६ है। सिक्किम में जनसंख्या का घनत्व ७६ मनुष्य प्रतिवर्ग किलोमीटर है पर भारत में न्यूनतम है। विकास दर ३२.९८% है (१९९१-२००१)। लिंगानुपात ८७५ स्त्री प्रति १००० पुरुष है। ५०,००० की आबादी के साथ गंगटोक सिक्किम का एकमात्र महत्तवपूर्ण शहर है। राज्य में शहरी आबादी लगभग ११.०६% है।[10] प्रति व्यक्ति आय ११,३५६ रु० है, जो राष्ट्र के सबसे सर्वाधिक में से एक है।[17]

संस्कृति

ल्होसारके दौरान लाचुंग में गुम्पा नृत्य
सिक्किम के नागरिक भारत के सभी मुख्य हिन्दू त्योहारों जैसे दीपावली और दशहरा, मनाते हैं। बौद्ध धर्म के ल्होसारलूसोंगसागा दावाल्हाबाब ड्युचेनड्रुपका टेशी और भूमचू वे त्योहार हैं जो मनाये जाते हैं। लोसर - तिब्बती नव वर्ष लोसर, जो कि मध्य दिसंबर में आता है, के दौरान अधिकतर सरकारी कार्यालय एवं पर्यटक केन्द्र हफ़्ते भर के लिये बंद रहते हैं। गैर-मौसमी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये हाल ही में बड़ा दिन। बड़े दिन को गंगटोक में प्रसारित किया जा रहा है।[19]
पाश्चात्य रॉक संगीत यहाँ प्रायः घरों एवं भोजनालयों में, गैर-शहरी इलाक़ों में भी सुनाई दे जाता है। हिन्दी संगीत ने भी लोगों में अपनी जगह बनाई है। विशुद्ध नेपाली रॉक संगीत, तथा पाश्चात्य संगीत पर नेपाली काव्य भी काफ़ी प्रचलित हैं। फुटबॉल एवं क्रिकेट यहाँ के सबसे लोकप्रिय खेल हैं।
नूडल पर आधारित व्यंजन जैसे थुक्पा, चाउमीन, थान्तुक?, फाख्तु?, ग्याथुक? और वॉनटन? सर्वसामान्य हैं। मःम, भाप से पके और सब्जियों से भरे पकौडि़याँ, सूप के साथ परोसा हुआ भैंस का माँस। भैंस अथवा सूअर का माँस। सुअर का माँस लोकप्रिय लघु आहार है। पहाड़ी लोगों के आहार में भैंस, सूअर, इत्यादि के माँस की मात्रा बहुत अधिक होती है। मदिरा पर राज्य उत्पाद शुल्क कम होने के कारण राज्य में बीयर?, विस्की?, रम? और ब्रांडी इत्यादि का सेवन किया जाता है।
सिक्किम में लगभग सभी आवास देहाती हैं जो मुख्यत: कड़े बाँस के ढाँचे पर लचीले बाँस का आवरण डाल कर नानाये? जाते हैं। आवास में ऊष्मा का संरक्षण करने के लिए इस पर गाय के गोबर का लेप भी किया जाता है। राज्य के अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में अधिकतर लकड़ी के घर बनाये जाते हैं।

राजनीति और सरकार

The White Hall complex houses the residences of the Chief Minister and Governor of Sikkim.
भारत के अन्य राज्यों के समान, केन्द्रिय सरकार द्वारा निर्वाचित राज्यपाल राज्य शासन का प्रमुख है। उसका निर्वाचन मुख्यतः औपचारिक ही होता है, तथा उसका मुख्य काम मुख्यमंत्री के शपथ-ग्रहण की अध्यक्षता ही होता है। मुख्यमंत्री, जिसके पास वास्तविक प्रशासनिक अधिकार होते हैं, अधिकतर राज्य चुनाव में बहुमत जीतने वाले दल अथवा गठबंधन का प्रमुख होता है। राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श पर मंत्रीमण्डल? नियुक्त करता है। अधिकतर अन्य राज्यों के समान सिक्किम में भी एकसभायी (एकसदनी? unicameral) सदन वाली विधान सभा ही है। सिक्किम को भारत की द्विसदनी विधानसभा के दोनों सदनों, राज्य सभा तथा लोक सभा में एक-एक स्थान प्राप्त है। राज्य में कुल ३२ विधानसभा सीटें? हैं जिनमें से एक बौद्ध संघ के लिए आरक्षित है। सिक्किम उच्च न्यायालय देश का सबसे छोटा उच्च न्यायालय है।[20]
State symbols[5]
राज्य पशुलाल पाण्डा
राज्य पक्षीरक्त महूका?
राज्य वृक्षबरुंश?
राज्य फूलपीनशिफ?
१९७५ में, राजतंत्र के अंत के उपरांत, कांग्रेस को १९७७ के आम चुनावों में बहुमत प्राप्त हुआ। अस्थिरता के एक दौर के बाद, १९७९ में,सिक्किम संग्राम परिषद पार्टी के नेता नर बहादुर भंडारी के नेतृत्व में एक लोकप्रिय मंत्री परिषद का गठन हुआ। इस के बाद, १९८४ और १९८९ के आम चुनावों में भी भंडारी ही विजयी रहे। १९९४ में सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रन्ट के पवन कुमार चामलिंग राज्य के मुख्यमंत्री बने। १९९९ और २००४ के चुनावों में भी विजय प्राप्त कर, यह पार्टी अभी तक सिक्किम में राज कर रही है।[7][15]

अवसंरचना

तिब्ब्त विज्ञान संग्रहालय एवं शोध केन्द्र
सिक्किम की सड़कें बहुधा भूस्खलन तथा पास की धारों द्वारा बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, परन्तु फिर भी सिक्किम की सड़कें अन्य राज्यों की सड़कों की तुलना में बहुत अच्छी हैं। सीमा सड़क संगठन(BRO), भारतीय सेना का एक अंग इन सड़कों का रख-रखाव करता है। दक्षिणी सिक्किम तथा रा०रा०-३१अ की सड़कें अच्छी स्थिति में हैं क्योंकि यहाँ भूस्खलन की घटनाएँ कम है। राज्य सरकार १८५७.३५ कि०मी० का वह राजमार्ग जो सी०स०सं० के अन्तर्गत नहीं आता है, का रख-रखाव करती है।[10]
सिक्किम में अनेक जल विद्युत बिजली स्टेशन (केन्द्र) हैं जो नियमित बिजली उपलब्ध कराते हैं, परन्तु संचालन शक्ति अस्थिर है तथा स्थायीकारों (stabilisers) की आवश्यकता पड़ती है। सिक्किम में प्रतिव्यक्ति बिजली प्रयोग १८२ kWh है। ७३.२% घरों में स्वच्छ जल सुविधा उपलब्ध है,[10] तथा अनेक धाराओं के परिणाम स्वरूप राज्य में कभी भी अकाल या पानी की कमी की परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं हुई हैं। टिस्टा नदी पर कई जलविद्युत केन्द्र निर्माणशील हैं तथा उनका पर्यावरण पर प्रभाव एक चिन्ता का विषय है।

पत्राचार

रुम्टेक विहार सिक्किम की सबसे प्रसिद्ध धरोहर है तथा वर्ष २००० में यह समाचारों में थी
दक्षिणी नगरीय क्षेत्रों में अंग्रेजी, नेपाली तथा हिन्दी के दैनिक पत्र हैं। नेपाली समाचार-पत्र स्थानीय रूप से ही छपते हैं परन्तु हिन्दी तथा अंग्रेजी के पत्र सिलिगुड़ी में। सिक्किम में नेपाली भाषा में प्रकाशित समाचार पत्रों की मांग विगत दिनों में बढ़ी हैं। समय दैनिकहाम्रो प्रजाशक्तिहिमाली बेला और साङ्गीला टाइमस्इत्यादि नेपाली समाचार पत्र गंगटोक से प्रकाशित होते हैं जिनमें हाम्रो प्रजाशक्ति राज्य का सबसे बड़ा और लोकप्रिय समाचार पत्र है। अंग्रेजी समाचार पत्रों मेंसिक्किम नाओ और सिक्किम एक्सप्रेसहिमालयन मिरर स्थानीय रूप से छपते हैं तथा द स्टेट्समैन तथा द टेलेग्राफ़ सिलिगुड़ी में छापे जाते हैं जबकि द हिन्दू तथा द टाइम्स ऑफ़ इन्डिया कलकत्ता में छपने के एक दिन पश्चात् गंगटोकजोरेथांगमेल्ली तथा ग्याल्शिंग पहुँच जाते हैं। सिक्किम हेराल्ड सरकार का आधिकारिक साप्ताहिक प्रकाशन है। हाल-खबर सिक्किम का एकमात्र अंतर्राष्ट्रिय समाचार का मानकीकृत प्रवेशद्वार है। सिक्किम सें 2007-में नेपाली साहित्य का ऑनलाइन पत्रिका टिस्टारंगीत शुरु हुई है जिस का संचालन साहित्य सिर्जना सहकारी समिति लिमिटेड] करती है।
अन्तर्जाल सुविधाएँ जिला मुख्यालयों में तो उपलब्ध हैं परन्तु ब्रॉडबैंड सम्पर्क उपलब्ध नहीं है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अभी अन्तर्जाल सुविधा उपलब्ध नहीं है। थाली विद्युत-ग्राहकों (Dish antennae) द्वारा अधिकतर घरों में उपग्रह दूरदर्शन सरणि (satellite television channels) उपलब्ध हैं। भारत में प्रसारित सरणियों के अतिरिक्त नेपाली भाषा के सरणि भी प्रसारित किये जाते हैं। सिक्किम केबलडिश टी० वी०दूरदर्शन तथा नयुम (Nayuma) मुख्य सेवा प्रदाता हैं। स्थानीय कोष्ठात्मक दूरभाष सेवा प्रदाताओं (cellular phone service provider) की अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जिनमें भा०सं०नि०लि० की सुविधा राज्य-विस्तृत है परन्तुरिलायन्स इन्फ़ोकॉम तथा एयरटेल केवल नगरीय क्षेत्रों में है। राष्ट्रिय अखिल भारतीय आकाशवाणी राज्य का एकमात्र आकाशवाणी केन्द्र है।[21]

शिक्षा

साक्षरता प्रतिशत दर ६९.६८% है, जो कि पुरुषों में ७६.७३% तथा महिलाओं में ६१.४६% है। सरकारी विद्यालयों की संख्या १५४५ है तथा १८ निजी विद्यालय भी हैं जो कि मुख्यतः नगरों में हैं।[10] उच्च शिक्षा के लिये सिक्किम में लगभग १२ महाविद्यालय तथा अन्य विद्यालय हैं। सिक्किम मणिपाल विश्वविद्यालय आभियान्त्रिकी, चिकित्सा तथा प्रबन्ध के क्षेत्रों में उच्च शिक्षा प्रदान करता है। वह अनेक विषयों में दूरस्थ शिक्षा भी प्रदान करता है। राज्य-संचालित दो बहुशिल्पकेंद्र, उच्च तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र (Advanced Technical Training Centre) तथा संगणक एवं संचार तकनीक केन्द्र (Centre for Computers and Communication Technology) आदि आभियान्त्रिकी की शाखाओं में सनद पाठ्यक्रम चलाते हैं। ATTC बारदांग, सिंगताम तथा CCCT चिसोपानि,नाम्ची में है। अधिकतर विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिये सिलीगुड़ीअथवा कोलकाता जाते हैं। बौद्ध धार्मिक शिक्षा के लिए रुमटेक गोम्पा द्वारा संचालित नालन्दा नवविहार एक अच्छा केंद्र है।