रविवार, 27 फ़रवरी 2011

यमुना नदी काली क्यों है?

यमुना या कालिंदी नदी को गंगा की ही तरह पवित्र माना जाता है। यमुना को श्रीकृष्ण की परम भक्त माना जाता है। गंगा को ज्ञान की प्रतीक माना जाता है तो यमुना भक्ति की। कृष्ण की भक्ति में रंगी यमुना नदी का पानी काला दिखाई देता है।
यमुना नदी का उद्गम यमनोत्री से हुआ है। यमनोत्री उत्तरांचल में स्थित है। इस नदी को कालिंदी भी कहा जाता है क्योंकि यह कलिंद नामक पर्वत से निकलती है। गंगा के समानांतर बहते हुए यह नदी प्रयाग में गंगा में मिल जाती है।
प्रयाग में यमुना नदी का काला पानी गंगा में मिलते हुए साफ दिखाई देता है। शास्त्रों के अनुसार यमुना सरस्वती नदी की सहायक नदी रही है। जो बाद में गंगा में मिलने लगी। गंगा ज्ञान की प्रतीक है और यमुना भक्तिरस की धारा है। कृष्ण रंग में रंगी यमुना का जल प्रेम की गहनता लिए श्रीकृष्ण के श्याम वर्ण (काला) के समान ही दिखाई देता है।
शास्त्रों के अनुसार यमुना नदी को यमराज की बहन माना गया है। यमराज और यमुना दोनों का ही स्वरूप काला बताया जाता है जबकि यह दोनों ही परम तेजस्वी सूर्य की संतान है। फिर भी इनका स्वरूप काला है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य की एक पत्नी छाया थी, छाया दिखने में भयंकर काली थी इसी वजह से उनकी संतान यमराज और यमुना भी श्याम वर्ण पैदा हुए। यमुना से यमराज से वरदान ले रखा है कि जो भी व्यक्ति यमुना में स्नान करेगा उसे यमलोक नहीं जाना पड़ेगा। दीपावली के दूसरे दिन यम द्वितीया को यमुना और यमराज के मिलन बताया गया है। इसी वह से इस दिन भाई-बहन के लिए भाई दूज के रूप में मनाया जाता है।
यमुना श्रीकृष्ण की भक्ति में पूरी तरह लीन है। इस वजह से भी इसके पानी का रंग काला माना जाता है।
धार्मिक महत्व के अतिरिक्त प्राकृतिक कारण यह है कि यमुना जिन स्थानों से बहकर निकलती है वहां की मिट्टी और वातावरण यमुना के जल को श्याम वर्ण प्रदान करते है।

सरस्वती का वाहन हंस क्यों?

अच्छी शिक्षा और अच्छे संस्कार के लिए मां सरस्वती की आराधना आवश्यक मानी गई है। इसके लिए विद्या की देवी सरस्वती की पूजा करते समय सभी ने देखा होगा कि मां हंस पर विराजित हैं। देवी के सभी चित्रों और प्रतिमाओं में उन्हें हंस पर आसीन भी दिखाया गया है। इसी वजह से इन्हें हंसवाहिनी भी कहा जाता है परंतु देवी सरस्वती हंस पर ही क्यों विराजित हैं?
मां सरस्वती का वाहन हंस है, इसके कई संदेश बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार देवी सरस्वती विद्या की देवी हैं और उनका स्वरूप श्वेत वर्ण बताया गया है। उनका वाहन भी श्वेत हंस ही है। सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है। यह श्वेत वर्ण शिक्षा देता है कि अच्छी विद्या और संस्कार के लिए आवश्यक है कि आपका मन शांत और पवित्र हो। आज के समय में सभी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करना होती है, मेहनत के साथ ही माता सरस्वती की कृपा भी उतनी आवश्यक है। यदि आपका मन शांत और पवित्र नहीं होगा तो देवी की कृपा प्राप्त नहीं और पढ़ाई में सफलता प्राप्त नहीं होगी।
देवी का वाहन हंस यही संदेश देता है कि मां सरस्वती की कृपा उसे ही प्राप्त होती है जो हंस के समान विवेक धारण करने वाला है। केवल हंस में ही वह विवेक होता है कि वह दूध और पानी को अलग-अलग कर सकता है। सभी जानते हैं कि हंस दूध ग्रहण और पानी छोड़ देता है। इसी तरह हमें भी बुरी सोच को छोड़कर अच्छाई को ग्रहण करना चाहिए। साथ हंस का श्वेत रंग यह बताता है कि विद्या ग्रहण करने के लिए मन शांत और पवित्र रहे। इससे हमारा मन एकाग्र होता है, पढ़ाई में मन लगता है। आज अच्छे जीवन के लिए शिक्षा अति आवश्यक है और अच्छी के लिए हमें हंस की तरह विवेक रखने की जरूरत है।

रविवार को ही छुट्टी क्यों मनाते है?

सन डे यानि छुट्टी का दिन... मौज-मस्ती का दिन... आराम का दिन... इस दिन दुनियाभर में कोई भी इंसान काम करना पसंद नहीं करता। रविवार को ही छुट्टी क्यों मनाई जाती है? इसका कोई धार्मिक कारण नहीं है फिर भी रविवार को ही छुट्टी मनाई जाती है।
सप्ताह के सातों दिनों में सन डे सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हिंदी कैलेंडर के अनुसार रविवार से सप्ताह की शुरुआत मानी जाती है। वहीं इंग्लिश कैलेंडर के अनुसार रविवार सप्ताह का अंतिम दिन होता है। हिंदी पंचांग के अनुसार रविवार सूर्य का दिन है और इस दिन सूर्य सहित सभी देवी-देवताओं की आराधना का विधान है। हिंदुओं शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि रविवार सप्ताह का प्रथम दिन होता है और इस दिन पूजादि करने से पूरे सप्ताह मन शांत रहता है, सभी कार्य बिना किसी परेशानी के सफल हो जाते हैं। इस दिन सभी लोगों से धार्मिक कार्य आदि करने के उद्देश्य से ही रविवार को अवकाश घोषित किया गया। ताकि व्यक्ति के दिमाग पर कार्य का दबाव न रहे और वह ईश्वर में ध्यान लगा सके।
वहीं इंग्लिश कैलेंडर के अनुसार सन डे सप्ताह का अंतिम दिन होता है। पूरे सप्ताह के कार्य करने के पश्चात वीकएंड में शरीर और दिमाग को आराम देने के उद्देश्य से रविवार को ऑफ रखा जाता है। ताकि व्यक्ति से काम का प्रेशर हट जाए और फिर से रिफ्रेश होकर नए सप्ताह में नई ऊर्जा के साथ कार्य कर सके। इसी उद्देश्य की वजह से दुनियाभर में रविवार को अवकाश रखा जाता है।

घड़ी बाएं हाथ पर ही क्यों बांधते हैं?

दुनियाभर में अधिकांश लोग अपनी कलाई पर घड़ी बांधते हैं। अधिकतर पुरुष बाएं हाथ यानि लेफ्ट हैंड पर ही घड़ी बांधते हैं, जबकि बहुत कम पुरुष सीधे हाथ में घड़ी बांधते हैं। वहीं महिलाएं सीधे हाथ पर घड़ी बांधना अधिक पसंद करती हैं।
हालांकि यह परंपरा किसी धर्म से संबंधित नहीं फिर भी यह काफी प्रचलित है। आखिर इसकी क्या वजह है कि पुरुष लेफ्ट हैंड की कलाई पर ही घड़ी बांधते हैं। इसके पीछे का तर्क यह है कि हम अधिकांश कार्य सीधे हाथ से ही करते हैं (लेफ्ट हैंडेड को छोड़कर)। इन कार्यों में हर प्रकार का कार्य शामिल है। कुछ भारी कार्य होते हैं तो कुछ जोखिम भरे, तो कुछ कार्य झटके वाले होते हैं। यदि ऐसे में सीधे हाथ में घड़ी बांधी जाए और इस प्रकार के कार्य किए जाते हैं तो निश्चित ही घड़ी खराब हो जाएगी। यदि कोई व्यक्ति लेखन आदि कार्य भी सीधे हाथ से करता है तब भी सीधे हाथ में घड़ी बांधना काफी परेशानियों भरा ही होगा। बाएं हाथ में घड़ी हमेशा सुरक्षित ही रहती है और हर परिस्थिति में समय देखने के लिए सुविधाजनक है।
हिंदू धर्म में अधिकांश कार्य सीधे हाथ से ही करने का विधान है। पूजादि कार्यों में भी सीधा हाथ ही उपयोग किया जाता है। ऐसे में पूजनकर्म में घड़ी से किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो इस वजह से भी घड़ी सीधे हाथ में ही पहनना पसंद किया जाता है।

बजरंगबली को हनुमान क्यों कहते हैं?

सभी के कष्ट-क्लेश दूर करने वाले पवन कुमार श्री हनुमान सभी की आस्था और विश्वास के केंद्र हैं। वैसे तो अंजनीपुत्र के कई नाम है परंतु उनका नाम हनुमान सर्वाधिक प्रचलित है। इनका बचपन में नाम मारूति रखा गया था लेकिन बाद में इन्हें हनुमान के नाम जाना जाने लगा।
एक रोचक प्रसंग है जिसकी वजह से मारूति को हनुमान नाम मिला। श्रीराम चरित मानस के अनुसार हनुमानजी की माता का नाम अंजनी और पिता वानरराज केसरी है। हनुमानजी को पवन देव का पुत्र भी माना जाता है। केसरी नंदन जब काफी छोटे थे तब खेलते समय उन्होंने सूर्य को देखा। सूर्य को देखकर अजंनीपुत्र ने सोचा कि यह कोई खिलोना है और वे सूर्य की उड़ चले। जन्म से ही मारूति को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी अत: वे कुछ ही समय में सूर्य के समीप पहुंच गए और अपना आकार बड़ा करके सूर्य को मुंह में निगल लिया। पवनपुत्र द्वारा जब सूर्य को निगल लिया गया तब सृष्टि में अंधकार व्याप्त हो गया इससे सभी देवी-देवता चिंतित हो गए। सभी देवी-देवता पवनपुत्र के पास विनति करने पहुंचे कि वे सूर्य को छोड़ दें लेकिन बालक मारूति ने किसी की बात नहीं मानी। इससे क्रोधित होकर इंद्र ने उनके मुंह पर वज्र से प्रहार कर दिया। इस वज्र प्रहार से उनकी ठुड्डी टूट गई। ठुड्डी को हनु भी कहा जाता है। जब मारूति की ठुड्डी टूट गई तब पवन देव ने अपने पुत्र की यह दशा देखकर अति क्रोधित हो गए और सृष्टि से वायु का प्रवाह रोक दिया। इससे और अधिक संकट बढ़ गया। तब भी देवी-देवताओं ने बालक मारूति को अपनी-अपनी शक्तियों उपहार स्वरूप दी। तब पवन देव का क्रोध शांत हुआ। तभी से मारूति की ठुड्डी अर्थात् हनु टूट जाने की वजह से सभी देवी-देवताओं ने इनका नाम हनुमान रखा।

गणेश-विष्णु की पीठ के दर्शन क्यों ना करें...

उज्जैन. हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि देवी-देवताओं के दर्शन मात्र से हमारे सभी पाप अक्षय पुण्य में बदल जाते हैं। फिर भी श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन वर्जित किए गए हैं।
गणेशजी और भगवान विष्णु दोनों ही सभी सुखों को देने वाले माने गए हैं। अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करते हैं और उनकी शत्रुओं से रक्षा करते हैं। इनके नित्य दर्शन से हमारा मन शांत रहता है और सभी कार्य सफल होते हैं।
गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है। इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित किया गया है। गणेशजी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। गणेशजी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है इनकी पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। गणेशजी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ नहीं देखना चाहिए। जाने-अनजाने पीठ देख ले तो श्री गणेश से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें। तब बुरा प्रभाव नष्ट होगा।
वहीं भगवान विष्णु की पीठ पर अधर्म का वास माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है जो व्यक्ति इनकी पीठ के दर्शन करता है उसके पुण्य खत्म होते जाते हैं और धर्म बढ़ता जाता है।
इन्हीं कारणों से श्री गणेश और विष्णु की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए।

छींक सुनाई दे तो, कुछ देर क्यों रुकें?

उज्जैन. भविष्य में होने वाली संभावित घटनाओं के संबंध में हमें पहले जानकारी मिल जाए इसलिए कुछ शकुन और अपशकुन बनाए गए हैं। जिससे हमें मालूम हो जाए कि वे घटनाएं शुभ फल देने वाली है या अशुभ।
इन्हीं शकुन-अपशकुन में छींक भी शामिल है। ऐसा माना जाता है कि जब भी किसी शुभ कार्य के लिए जाते समय यदि छींक सुनाई दे तो निकट भविष्य में कुछ बुरा होने वाला है।
घर से निकलते वक्त या कोई नया काम शुरू करते समय छींक सुनाई दे तो इसे शुभ नहीं माना जाता है। इस संबंध में पुराने समय से ही मान्यता है कि ऐसा होने पर हमें कुछ देर रुक जाना चाहिए और पानी पीकर फिर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढऩा चाहिए। यह व्यवस्था इसलिए लागू की गई है कि इससे हम कुछ देर रुक जाएं और यदि कुछ बुरा होने वाला हो तो वह समय टल जाए। इसी संभावना के चलते ऐसी परंपरा बनी है कि छींक सुनने के बाद कुछ क्षण रुकें और पानी पीएं। छींक एक संकेत मात्र है किसी अशुभ घटना से बचने के लिए।
कब आती है छींक?

छींक वैसे तो एक सामान्य क्रिया है। इस संबंध विज्ञान यह कहता है कि जब हमारी श्वास लेने की क्रिया में कोई रुकावट आ जाए या नाक में कोई कीटाणु, जीवाणु या कचरा फंस जाए तो हमें छींक आ जाती है। छींक कब आएगी? यह बता पाना संभव नहीं है, यह ऐसी क्रिया है जो कि अचानक घट जाती है। जब छींक आती है तो कुछ क्षण से हमारे शरीर का पूरा सिस्टम प्रभावित हो जाता है। छींक का इतना प्रभाव होता है कि हम छींकते समय आंख खोलकर नहीं रख सकते, आंखें भी बंद हो जाती है।

शनि से परेशान हनुमानजी को क्यों पूजें?

उज्जैन. शनि, एक ऐसा ग्रह है जिसके प्रभाव से सभी भलीभांति परिचित हैं। ऐसा माना जाता है कि शनि अति क्रूर ग्रह है। जिस भी व्यक्ति की कुंडली में शनि अशुभ प्रभाव देने वाला होता है उसका जीवन काफी दुखों और असफलताओं से भरा होता है। शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए श्रीराम के परम भक्त हनुमानजी की आराधना करना ही श्रेष्ठ उपाय है।
शनि के बचने के लिए हनुमानजी को क्यों पूजते हैं? इस संबंध में हिंदू धर्म शास्त्रों में एक कथा बहुप्रचलित है। कथा के अनुसार हनुमानजी अपने इष्ट देव श्रीराम के ध्यान में लीन थे। तभी सूर्यपुत्र शनि उनके समक्ष आ पहुंचा। शनि घमंड भरे स्वर में हनुमानजी को युद्ध के लिए ललकारने लगा। शनि की चुनौति के जवाब में हनुमानजी ने विनम्रता पूर्वक कहा कि इस समय में प्रभु श्रीराम के ध्यान में लीन हूं अत: अभी आप मुझे क्षमा करें, मैं आपसे युद्ध नहीं कर सकता। यह सुनकर शनिदेव और अधिक क्रोधित हो गए। वे हनुमानजी से युद्ध करने की जिद पर अड़ गए। हनुमानजी द्वारा बहुत समझाने के बाद भी जब शनि युद्ध टालने के लिए नहीं माने तो हनुमान ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया। शनि बहुत प्रयत्न के बाद भी खुद को आजाद नहीं करा पाएं और हनुमानजी पर प्रहार करने लगे। तब पवनपुत्र ने उन्हें पत्थरों पर पटकना शुरू कर दिया, जिससे शनिदेव का अहंकार चूर-चूर हो गया और वे हनुमानजी क्षमायाचना करने लगे।

केसरी नंदन ने क्षमायाचना के बाद उन्हें छोड़ दिया और उनसे निवेदन किया कि वे भगवान श्रीराम के किसी भी भक्त को परेशान ना करें। इस पर शनिदेव ने कहा कि अब से वे श्रीराम सहित आपके (हनुमानजी के) भक्तों को भी परेशान नहीं करेंगे। ऐसे श्रद्धालुओं पर शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या का भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस घटना के बाद से ही शनि से पीडि़त लोगों को हनुमानजी की भक्ति करने की सलाह दी जाती है।

कैसे संदेश भेजा स्वर्गीय पाण्डु ने युधिष्ठिर के लिए?

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...मायासुर द्वारा अर्जुन से उसकी सेवा स्वीकार करने का निवेदन करना और उसके द्वारा भव्य सभा का निर्माण अब आगे...पाण्डवों की सभा में एक दिन देवर्षि नारद आए। नारद जी ने युधिष्ठिर को कुटनीति व राजनीति से संबंधित कई बातें बताई। तब युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा नारदजी आपने सभी लोकों की सभाए देखी हैं तो मुझे उन सभी सभाओं का वर्णन सुनाएं। तब देवर्षि ने युधिष्ठिर को देवता, वेद, यम, ऋषि, मुनि आदि की सभाओं का वर्णन सुनाया। नारद जी ने यमराज की सभा में मौजुद सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया।
युधिष्ठिर ने उनसे पूछा नारद जी आपने मेरे पिता पाण्डु को किस प्रकार देखा था। तब देवर्षि ने कहा मैं आपको राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाता हूं। हरिशचन्द्र एक वीर सम्राट थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।आपके पिता राजा हरिशचन्द्र का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्य लोक जा रहा हूं। तब उन्होंने आपके लिए यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा युधिष्ठिर तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं चिरकालिक आनंद भोगूंगा। नारदजी ने कहा मैंने आपके पिता से कहा कि मैं उनका यह संदेश आप तक पहुंचा दूंगा। युधिष्ठिर आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। देवर्षि नारद इतना कहकर ऋषियों सहित वहां से चले गए।

आज ऐसा भी करके देखिए....

किसी एक दिन सुबह से यह तय कर लें कि आज हम जड़ वस्तुओं से वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा प्राणवान से करते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे जूते-चप्पल, दरवाजे, हमारी कार का दरवाजा, हमारा पेन, रसोई के सामान इन सबसे आपका व्यवहार ऐसा हो जैसे ये सब जीवित हैं। इनको स्पर्श करते समय महसूस करें कि इनमें भी प्राण हैं। हमारा पूरा व्यवहार इनके साथ बदल दें।
आज तृण से ब्रह्म तक सबको खूब मान दीजिए, स्नेह दीजिए, संवेदना बहा दीजिए। रोज जिन चीजों को हम अवॉइड कर जाते हैं आज उन्हें गौर से देखिए। उनका इस्तेमाल पूरे सलीके से कीजिए। एक दिन उनके नाम कर दीजिए। यदि पेन हाथ में है तो अपने हृदय की संवेदना को उससे जोड़ दीजिए, समझ लीजिए कोई नवजात शिशु हाथ में है। यदि आप रसोई घर में हैं तो प्रत्येक बर्तन में प्राण देखिए। आज किसी बर्तन को पटकना नहीं है।
कुछ जिन्दा तजुर्बा करना है, अपना व्यवहार बदल दीजिए। आज उन्हें ऐसे न पटकें जैसे रोज पटकते हैं। आज सलीका दूसरा होगा। दिनभर जड़ के साथ खूब चेतन व्यवहार करें। ये प्रयोग आपके भीतर प्रत्येक के लिए प्रेम का आरम्भ कराएगा। हो सकता है हमें कुछ अजीब सा लगे लेकिन इसे पागलपन न समझें। पागल तो हम तब हैं जब जड़ के साथ निष्प्राण व्यवहार कर रहे हैं। इनके साथ जरा सा चेतन हुए कि आप होश में आ जाएंगे।
आपका आनन्द बढ़ जाएगा। राम अवतार में सेतु निर्माण के समय वानर जब पत्थर को हाथ में उठाते थे और उसके नीचे राम लिखते थे उसका अर्थ ही यही था कि जड़ वस्तु भी उनके हृदय से जुड़ी हुई है। जिसने जड़ से प्रेम कर लिया वह फिर सारे संसार के प्रति प्रेम में डूब जाता है।

संतान सुख के बारे में भी बताते हैं सपनें

कहते हैं बच्चे भगवान का रूप होते हैं। हर पति-पत्नी की इच्छा होती है कि उनके यहां भी एक सुंदर सा बच्चा अठखेलियां करें। उनकी यह इच्छा पूरी होनी वाली है इसकी सूचना सपनें भी दे देते हैं। धन लाभ-हानि, मृत्यु तथा विवाह के अलावा सपने संतान सुख के बारे में भी बताते हैं। ऐसे ही कुछ सपनों की जानकारी नीचे दी जा रही है-
1- यदि कोई विवाहित स्त्री स्वप्न में छोटे बच्चे की स्वेटर आदि बुनती है तो उसे शीघ्र ही संतान सुख मिलता है।
2- स्वप्न में यदि किसी को सुंदर व नवजात शिशु दिखाई दे तो उसे भी सुंदर संतान का सुख प्राप्त होता है।
3- यदि किसी को सपने में हरे-भरे खेत दिखे तो उसे संतान की प्राप्ति होती है।
4- सपने में यदि अनार दिखाई दे तो संतान के साध धन लाभ भी होता है।
5- जो व्यक्ति सपने में सफेद महल, सफेद तोरण या सफेद छत देखता है तो उसे धन व संतान की प्राप्ति होती है।
6- यदि सपने में किसी को अपने नाखून बढ़े हुए दिखाई दें तो उसे धन-सम्पत्ति व संतान सुख मिलता है।
7- यदि नि:संतान व्यक्ति सपने में दर्पण में अपना मुख देखता है तो उसे संतान प्राप्ति होती है।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

जय छत्तीसगढ़

नक्सल क्षेत्र में दौड़ेंगी ट्रेनें
रायपुर.देश में सबसे कम रेल कनेक्टिविटी वाला छत्तीसगढ़ भविष्य का सबसे ज्यादा रेल लाइन वाला राज्य कहलाएगा। रेलमंत्री ममता बेनर्जी ने धमतरी से कांकेर के बीच रेल लाइन के सर्वेक्षण को मंजूरी देकर घोर नक्सल क्षेत्रों में रेल विस्तार की संभावनाओं पर मुहर लगा दी है।
राज्य के महाराष्ट्र बार्डर के गढ़चिरौली-वाडसा नई रेलवे लाइन को भी मंजूरी मिल गई है। यहां रेलवे लाइन बनने से रावघाट के रास्ते जगदलपुर से गढ़चिरौली की सीधे रेल संपर्क की संभावनाएं होंगी। धुर नक्सली क्षेत्रों को रेल लाइन से जोड़ने का सीधा अर्थ है नक्सली क्षेत्रों में विकास की नई संभावनाएं। रायपुर से 84 किमी की धमतरी रेल लाइन का काम इसी साल से जमीनी स्तर पर शुरू हो जाएगा।
3-4 सालों के भीतर इस लाइन में बड़ी ट्रेनें दौड़ने लगेंगी। धमतरी से कांकेर की दूरी 60 किमी की है। इस रेल लाइन को सर्वेक्षण की मंजूरी मिल गई है। जानकारों का मानना है कि आगामी बजट में इसके निर्माण को हरी झंडी मिलने की उम्मीद है। इससे राज्य के नक्सल प्रभावित इलाकों के हर शहर रेलवे के संपर्क में आ जाएंगे।
महाराष्ट्र-छग-आंध्रा के बीच रेल सेवा
आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी नियंत्रण की वजह से धीरे-धीरे रेल संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। रेल मंत्रालय ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली-वाडसा रेलवे लाइन के निर्माण को हरी झंडी दे दी है। यह लाइन अब जल्द ही तैयार होगी। यह बेहद ही घना जंगल क्षेत्र है और इस क्षेत्र में दूर-दूर तक रेलवे लाइन का नामोनिशान नहीं है।
वाडसा से गढ़चिरौली रेलवे लाइन बनने से गढ़चिरौली से रावघाट के लिए भी सीधी रेल सेवा की संभावना बनेगी। यह इसलिए संभव है क्योंकि दल्लीराजहरा से 95 किमी लंबी रावघाट के लिए वर्तमान में रेल लाइन का निर्माण चल रहा है।
रावघाट से 140 किमी लंबी जगदलपुर रेल परियोजना प्रस्तावित है। इसका सर्वेक्षण हो चुका है। अब गढ़चिरौली से रावघाट के लिए करीब 90 किमी के परियोजना पर विचार होता है, तो यह सीधे महाराष्ट्र से छत्तीसगढ़ होते हुए जगदलपुर के रास्ते विशाखापटनम के लिए सीधी सेवा कहलाएगी।
रायपुर-कांकेर की दूरी घटेगी
धमतरी-कांकेर रेल लाइन के बनने से रायपुर से कांकेर के लिए सीधी रेल सेवा होगी। भविष्य में फिर कांकेर से जगदलपुर सीधी रेल लाइन की डिमांड की जा सकती है। इसके प्रस्ताव पर भी रेलवे विचार कर रहा है ताकि रायपुर से धमतरी, कांकेर और वहां से जगदलपुर होते हुए सीधे विशाखापटनम के लिए रेल सेवा उपलब्ध होगी।
ऐसे संभव है बड़ा रेल नेटवर्क
नक्सल इलाकों में सरकार को नक्सली गतिविधियों पर काबू पाना होगा ताकि रेलवे की तमाम परियोजनाओं को हरी झंडी मिल सके। कांकेर से जगदलपुर के लिए लगभग 150 किमी की रेल परियोजना खूबसूरत लाइन बन सकती है। कोकण रेलवे के बाद यह घनी घाटियां और जंगलों से गुजरने वाली अहम रेलवे लाइन कहलाएगी।

महिला हैंडबॉल टीम ने छत्तीसगढ़ को फिर दिलाया सोना
रायपुर/रांची.24वें नेशनल गेम्स में छत्तीसगढ़ महिला हैंडबॉल टीम ने लगातार दूसरी बार स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। छत्तीसगढ़ ने फाइनल में महाराष्ट्र को 33-16 से हराकर खिताब जीता। असम में 2007 में हुए नेशनल गेम्स में भी महिला टीम ने खिताब अपने नाम किया था। इस तरह से राज्य को नेशनल गेम्स में सातवां पदक मिला।
शुक्रवार को रांची के इंडोर स्टेडियम में खेले गए फाइनल मुकाबले में माधवी ने मैच का पहला अंक छत्तीसगढ़ को दिलाया। इसके बाद दोनों ही टीमों के बीच अच्छी टक्कर देखने को मिली और हॉफ टाइम तक छत्तीसगढ़ की टीम महाराष्ट्र से 12-9 से आगे थी।
दूसरे हॉफ में छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियों ने महाराष्ट्र को वापसी का मौका नहीं दिया और मैच 30-19 से अपने नाम कर लिया। छत्तीसगढ़ की ओर से वेंकट लक्ष्मी ने सर्वाधिक 10 गोल किए। इसके अलावा अनिता राव ने 6 और करिश्मा साहू ने 5 गोल किए।
पेनाल्टी दर पेनाल्टी: छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र दोनों ही टीमों ने फाइनल में आठ-आठ गोल पेनाल्टी से किए। मैच के पहले हॉफ में महाराष्ट्र के खिलाड़ियों ने छह गोल पेनाल्टी से ही किए। जीत के बाद छत्तीसगढ़ टीम की कप्तान अनामिका मुखर्जी ने कहा कि हमें अपने शानदार खेल के दम पर सोना जीता।
201 खिलाड़ी और सात पदक
नेशनल गेम्स में शामिल होने राज्य के 18 खेलों में 201 खिलाड़ी झारखंड पहुंचे थे। इतने बड़े दल से राज्य को केवल सात ही तमगा मिला। क्या खेल संघ और खेल विभाग करोड़ों रुपए खर्च करके केवल सात पदक की ही आशा लगाए बैठा था?
अब जबकि अगले नेशनल गेम्स की मेजबानी छत्तीसगढ़ को करना है तो खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए राज्य खेल संघों को पूरी ताकत झोंकनी होगी, नहीं तो हम पदकों के दोहरे अंक के लिए भी तरस जाएंगे।

250 शराब दुकानें बंद होंगी
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने अपने बजट भाषण में प्रदेश की 250 शराब दुकानों को बंद करने का ऐलान किया। वर्तमान में 1000 शराब दुकानें हैं। सीएम डॉ. सिंह ने बताया कि इससे सरकार को 100 करोड़ रुपए का घाटा होगा।
उन्होंने कहा कि सरकार लोगों को नशा मुक्त करने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। इसके तहत 2000 से कम आबादी वाले 250 गांवों में स्थित देशी और विदेशी शराब दुकानों को बंद किया जाएगा। इसके बाद इसे और विस्तारित किया जाएगा।
सरकार प्रदेश में पूर्णत: शराबबंदी चाहती है। 1 अप्रैल 2011 से ये दुकानें बंद कर दी जाएंगी। इनसे होने वाली राजस्व हानि की पूर्ति दूसरे मदों से कर ली जाएगी। यह एक बड़ा क्रांतिकारी कदम है। सरकार प्रदेश की जनता को नशामुक्त रखना चाह रही है।

राजधानी को मिली कई सौगात
राजधानी रायपुर को प्रदेश के बजट में खास तवज्जो दी गई है। रायपुर में केंद्रीय ग्रंथालय खोलने की घोषणा की गई। बजट में रायपुर में सह शिक्षा पॉलीटेक्निक खोलने के लिए भी प्रावधान किया गया है। रायपुर मेडिकल कालेज में उपकरण खरीदने के लिए 49 लाख रुपए का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री ने नगर निगम को भी भारी राशि दी है। 10 नगर निगमों को मूलभूत सुविधाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए 100 करोड़ रुपए एकमुश्त अनुदान दिया जाएगा। जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के तहत रायपुर में जल प्रदाय योजना के लिए 245 लाख रुपए का प्रावधान किया गया है। रायपुर सहित 10 नगरों में नजूल भूमि के हवाई सर्वे के लिए 2.32 लाख रुपए रखे गए हैं।
नई राजधानी के लिए मिली राशि
नई राजधानी में विकास के लिए भी बजट में प्रावधान किया गया है। नया रायपुर में अंडरग्राउंड इलेक्ट्रिसिटी और सिवरेज प्रोजेक्ट के लिए 64 लाख रुपए दिए गए हैं। नई राजधानी में रेल लाइन और रेलवे स्टेशनों के निर्माण के लिए 10 लाख रुपए रखे गए हैं। नई राजधानी में सरकारी कर्मचारियों के आवासीय भवनों व विभागाध्यक्ष कार्यालयों के भवन निर्माण के लिए 137 लाख रुपए का प्रावधान किया गया है।

मंदिरों में चमड़ा वर्जित क्यों?

हम जब भी मंदिर या किसी धर्मस्थल पर जाते हैं तो अपने जूते, बैल्ट, पर्स इत्यादि बाहर ही छोड़कर जाते हैं।
ये सभी वस्तुएं अधिकतर चमड़े की बनी होती हैं। तो क्या कारण है कि मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा पहनकर नहीं जाना चाहिए?
मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा वर्जित क्यों है?
चमड़े को धार्मिक दृष्टि से अपवित्र माना जाता है। चमड़े की वस्तु पहनकर कोई भी पूजा-अनुष्ठान नहीं किया जा सकता।
चूंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनाया जाता है इसलिए अपवित्र माना जाता है। इसलिए धर्म की दृष्टि से चमड़ा अपवित्र है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी चमड़े की बनी वस्तुओं को अपवित्र माना जाता है। विज्ञान भी यह सिद्ध कर चुका है कि चमड़े में पशुओं की खाल का उपयोग किया जाता है।
मरे हुए जानवरों के शरीर से चमड़ा उतारकर आज फैशन की उच्चकोटि की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। किसी की बलि लेकर उसके शरीर की खाल का यह इस्तेमाल कैसे पवित्र माना जा सकता है?
इन वस्तुओं को दुर्गन्ध रहित बनाने के लिए केमिकल्स का प्रयोग करते हैं जो शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। आप खुद ही इस बात को सच मानते हैं कि किसी भी वस्तु को साफ करने या अच्छा बनाने के लिए उसे पानी से धोया जाता है।
पर चमड़ा पानी में खराब होने लगता है और सडऩे लगता है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। इसलिए जहां तक हो सके चमड़े के उपयोग से बचना चाहिए।
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नवरात्रि में ही क्यों होते हैं तांत्रिक अनुष्ठान?

नवरात्रि को देवी आराधना का सर्वोत्तम समय माना जाता है। चैत्र और अश्विन मास में पडऩे वाली नवरात्रि का हिन्दू त्योहारों में बड़ा महत्व है।
अश्विन मास की नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि भी कहा जाता है। इसमें अश्विन मास की नवरात्रि को तो तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
ऐसा क्यों होता है कि दोनों ही नवरात्रियां माता पर्व के दिन हैं, फिर भी तांत्रिक अनुष्ठानों व सिद्धियों के लिए अश्विन नवरात्रि को ही श्रेष्ठ माना जाता है? क्या इस समय में तांत्रिक अनुष्ठान पूरे करने से उनका विशेष फल मिलता है?
इस नवरात्रि पर्व को सिद्धि के लिए विशेष लाभदायी माना गया है। नवरात्रि में की गयी पूजा, जप-तप साधना, यंत्र-सिद्धियां, तांत्रिक अनुष्ठान आदि पूर्ण रूप से सफल एवं प्रभावशाली होते हैं।
चूंकि मां स्वयं आदि शक्ति का रूप हैं और नवरात्रों में स्वयं मूर्तिमान होकर उपस्थित रहती हैं और उपासकों की उपासना का उचित फल प्रदान करती हैं।
सृष्टि के पांच मुख्य तत्वों में देवी को भूमि तत्व की अधिपति माना जाता है। तंत्र-मंत्र की सारी सिद्धियां इस धरती पर मौजूद सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से जुड़ी होती हैं।
नवरात्रि के नौ दिनों में चूंकि चारों ओर पूजा और मंत्रों का उच्चारण होता है, इससे नकारात्मक ऊर्जा कमजोर पड़ जाती है। इन नौ दिनों में सकारात्मक ऊर्जा अपने पूरे प्रभाव में होती है।
इस कारण जो भी काम किया जाता है उसमें आम दिनों की अपेक्षा बहुत जल्दी सफलता मिलती है। तंत्र-मंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है। तंत्र की सिद्धि आम दिनों के मुकाबले बहुत आसानी से और कम समय में मिलती है।

क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत?

एकांत का मतलब होता है-अकेलापन। एकांत शब्द का अर्थ ही है एक के बाद अंत अर्थात अकेला। जब भी मनुष्य ने जीवन के अनसुलझे प्रश्रों के उत्तर ढ़ूंढऩे का प्रयास किया है उसने एंकात की तलाश की है।
क्या एकांत हमारे जीवन में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है?
क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत में रहना?
जब भी हम अकेले होते हैं तब हमारी गति बाह्य न होकर आंतरिक होती है। एकांत के क्षणों में मैं से सामना अपने आप हो जाता है।
वैसे भी सभी सभ्यताएं इस बात पर जोर देती हैं कि कैसे भी मैं से साक्षात्कार हो जाए। आत्म-साक्षात्कार के लिए एकांत सहायक तत्व है इसीलिए अंतर्मुखी व्यक्ति हमेशा एकांत की तलाश में रहता है।
अनगिनत महान आत्माओं ने एकांत में ही अपने आप को पहचान पाया है।
यह तो सर्वविदित है कि भीड़ हमेशा ही निर्माण की भूमिका निभाने की बजाय विनाश ज्यादा करती है, इसलिए भीड़ को मूर्खता का प्रतीक माना जाता है। एकांत के कारण फैसले लेना काफी सुविधाजनक होता है।
एकांत जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है। इससे हमें अपने अंर्तमन में झांकने का मौका मिलता है और हम अपना मूल्यांकन खुद ही कर सकते हैं।

शनिदेव लंगड़े क्यों हैं?

शनि को ज्योतिष शास्त्र का सबसे कू्र ग्रह माना जाता है। कहते हैं कि जिसकी कुण्डली में शनि नकारात्मक भाव में बैठा हो उसका तो भगवान ही मालिक है।
शनि सूर्यदेव के पुत्र हैं ओर इनकी माता का नाम संज्ञा है। कहते हैं शनिदेव लंगड़े हैं।
क्या वास्तव में ऐसा है?
और यदि ऐसा है तो क्यों शनिदेव लंगड़े हैं?
शनिदेव के लंगड़े होने की एक पौराणिक कथा है। एक बार सूर्यदेव का तेज सहन न कर पाने से संज्ञा ने अपने शरीर से अपनी प्रतिमूर्ति छाया को प्रकट किया और उन्हें पुत्र और पति की जिम्मेदारी सौंप कर तपस्या करने लगीं।
उधर छाया भी सूर्यदेव के साथ रहने लगीं। इस बीच छाया से सूर्यदेव को पांच पुत्र उत्पन्न हुए पर वे भी छाया का रहस्य नहीं जान सके। छाया भी अपने बच्चों का ज्यादा ध्यान रखती थीं।
एक बार शनिदेव भूख से व्याकुल होकर छाया के पास गए और उन्होंने उनसे भोजन मांगा। पर छाया ने उनकी बात अनसुनी करते हुए अपने बच्चों को भोजन देना शुरू कर दिया।
यह देखते ही शनिदेव को गुस्सा आ गया और अपने क्रोधी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने छाया को मारने के लिए अपना पैर उठाया। उसी समय छाया ने शनिदेव को शाप देते हुए कहा कि तेरा यह पैर अभी टूट जाए। बस तभी से शनिदेव लंगड़े हो गए।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिग्रह बहुत धीमी गति से चलते वाला ग्रह है। यह एक राशि को ढ़ाई वर्ष में पार करता है। इस कारण भी ज्योतिष शास्त्रीय इसे लंगड़ा ग्रह कहते हैं।

आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?

बरसात के मौसम में जब कभी आकाश में काले-काले बादल छाए होते हैं तो मन बड़ा प्रफुल्लित होता है। उस पर भी यदि हल्की-फुल्की बारिश के छींटें पड़ जाएं जो ऐसा लगता है मानो प्रकृति आज हम पर दिल खोलकर प्यार बरसा रही है।

ऐसे सुंदर मौसम में आकाश में इन्द्रधनुष उभर आना प्रकृति-प्रेमियों के लिए सोने में सुहागा वाली कहावत सच होने जैसा है।
पर आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
क्या इसकी कोई धार्मिक मान्यता भी है?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता है। आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट होने का अर्थ यह है कि वर्षा के देवता इन्द्र अपने धनुष सहित नभ मण्डल में वर्षा करने के लिए उपस्थित हैं।
सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। बादल जल वाष्प होते हैं मतलब उनमें वर्षा करने के लिए जल भरा होता है।
जैसे ही सूर्य की किरणें बादलों की सतह से टकराती हैं तो वे परावर्तित होती हैं और इन्द्रधनुष यानि सप्तरंगी के रूप में दिखाई देती हैं। बादलों से टकराकर जब सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनता है तो लोग आसानी से ये अनुमान लगा लेते हैं कि अभी बादल छाये हुए हैं और बारिश होगी।
इन्द्रधनुष के निकलते ही मोर नाचने लगते हैं और हर तरफ खुशी का माहौल

क्यों जरूरी है जीवन में मौन?

मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है।
मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे।
पर क्या मौन इतना ही जरूरी है?
क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता?
मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है। इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।

क्यों पवित्र माना जाता है गो-मूत्र?

गाय को हिन्दू संस्कृति में पवित्र माना जाता है। गाय को माता भी कहा गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास माना गया है।
गाय के पूरे शरीर को ही पवित्र माना गया है लेकिन गाय का मूत्र सर्वाधिक पवित्र माना जाता है।
ऐसा क्यों होता है?
जिस चीज को अपवित्र कहा जाता हो वही मूत्र जब गाय का होता है तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। क्या इसके पीछे भी कोई कारण है?
गोमूत्र में पारद और गन्धक के तात्विक गुण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। गोमूत्र का सेवन करने पर प्लीहा और यकृत के रोग नष्ट हो जाते हैं।
गोमूत्र कैंसर जैसे भयानक रोगों को भी ठीक करने में सहायक है। दरअसल गाय का लीवर चार भागों में बंटा होता है। इसके अन्तिम हिस्से में एक प्रकार एसिड होता है जो कैंसर जैसे भयानक रोग को जड़ से मिटाने की क्षमता रखता है।
इसके बैक्टिरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गो-मूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।

नवरात्रि में पूजा के नौ दिन ही क्यों?


हर साल में दो बार पडऩे वाली नवरात्रि को मां शक्ति की आराधना के लिए सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। शक्ति के साधक इस समय का बेसब्री से इंतजार करते हैं।
इन दिनों तांत्रिक साधनाओं में भी अद्भुत वृद्धि हो जाती है। कहते हैं कि ये समय तंत्र-साधनाओं के लिए भी एकदम उपयुक्त होता है।
पर क्या कभी सोचा है कि नवरात्रि में पूजा-अर्चना के मात्र 9 दिन ही क्यों होते हैं?
जब नवरात्रि में पूजा पाठ का इतना ही महत्व है तो 9 दिन से अधिक की नवरात्रि क्यों नहीं मनाते?
नवरात्रि मूलत देवी यानि शक्ति की आराधना का पर्व है। यह पर्व प्रकृति में स्थित शक्ति को समझने और उसकी आराधना करने का है।
शक्ति के नौ रूपों को ही मुख्य रूप से पूजा जाता है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा देवी, कूष्मांडा देवी, स्कंद माता, कात्यायनी, मां काली, महागौरी और सिद्धिदात्री- ये देवी के नौ रूप हैं जिनको नवरात्रि के नौ दिनों में पूजा जाता है।
जिस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन पूजनीय होते हैं उसी तरह नौ अंक भी प्राकृत होते हैं। शून्य से लेकर नौ तक की अंकावली में नौ अंक सबसे बड़ा है।
फिर साधना भी नौ दिन की ही उपयुक्त मानी गई है। किसी भी मनुष्य के शरीर में सात चक्र होते हैं जो जागृत होने पर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
नवरात्रि के नौ दिनों में से 7 दिन तो चक्रों को जागृत करने की साधना की जाती है। 8वें दिन शक्ति को पूजा जाता है। नौंवा दिन शक्ति की सिद्धि का होता है। शक्ति की सिद्धि यानि हमारे भीतर शक्ति जागृत होती है।
अगर सप्तचक्रों के अनुसार देखा जाए तो यह दिन कुंडलिनी जागरण का माना जाता है।
इसलिए नवरात्रि नौ दिन की ही मनाई जाती है। (www.bhaskar.com)

महिलाओं का शमशान में जाना वर्जित क्यों?

शमशान ऐसी जगह है जहां कोई अपनी खुशी से जाना नहीं चाहता। यह ऐसा स्थान है जहां जीवन के अंत में सभी को जाना है। यहां जीवित अवस्था में केवल पुरुषों को जाने की अनुमति दी जाती है। शास्त्रों द्वारा स्त्रियों का यहां जाना वर्जित किया गया है।
शमशान का दृश्य किसी के भी हृदय को हिला देने वाला होता है। कोई भी कमजोर हृदय वाला इंसान वहां बड़ी मुश्किल से ही जा पाता है। महिलाओं का हृदय बहुत ही कोमल और जल्दी दुखी होने वाला होता है। महिलाओं को शमशान में जाना इसीलिए वर्जित किया गया है कि वहां का दृश्य देख पाना उनके लिए बहुत ही मुश्किल होता है।
साथ ही शमशान में बुरी शक्तियां हमेशा सक्रीय रहती है। ऐसी शक्तियों स्त्रियां पर बहुत जल्दी प्रभाव डालती है। जिससे उनके पागल होने का खतरा रहता है। शमशान के वातावरण में मृत शरीरों की वजह से कई विषेले कीटाणु मौजूद रहते हैं जो कि स्त्रियों को तुरंत ही बीमार कर सकते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य की दृष्टि से शमशान में जाना वर्जित किया गया है।

सूर्यास्त के बाद ही शादी क्यों!

शादी एक ऐसा मौका होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। ऐसे में विवाह संबंधी सभी कार्य पूरी सावधानी और शुभ मुहूर्त देखकर ही किए जाते हैं। विवाह में सबसे मुख्य रस्म होती है फेरों की।
हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है और हमारे धर्म में गौधूली बेला में फेरे करवाए जाना सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। गोधूली बेला यानी संध्या का समय जब गायें जंगल से लौटकर आती है। तब उनके पैरों से धूल उड़ती है। उस समय को गौधूली बैला कहा जाता है।
हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय में लक्ष्मी का निवास होता है और जब गायें लौटकर आती हैं तो ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मी अपने घर आती है। इसलिए संध्या के इस समय ही गृहलक्ष्मी को अपने घर की बहू बनाया जाता है ताकि उसके आने से घर में हमेशा सुख-संपदा बनी रहे।
साथ ही संध्या के इस समय को सूर्य और चन्द्रमा के मिलन का समय माना गया है। जिस तरह इस समय होने वाला सूर्य और चन्द्रमा का मिलन हमेशा के लिए अमर रहता है। उसी तरह इस समय वर-वधु की शादी को अधिक महत्व दिया गया ताकि उनकी जोड़ी हमेशा के लिए सूर्य और चन्द्र की तरह अमर रहे।

खाना सीधे हाथ से ही क्यों खाते हैं?

हमारे रोजाना किए जाने वाले सबसे जरूरी कामों में से ही एक काम हैं भोजन। भोजन से ही हमारे शरीर को कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हमारे देश में हर छोटे से छोटे या बड़े से बड़े कार्य से जुड़ी कुछ परंपराए बनाई गई है। वैसे ही भोजन करने से जुड़ी हुई भी कुछ मान्यताएं हैं जैसे खाना जमीन पर बैठकर खाना, खाना खाने से पहले भगवान को भोग लगाना, आदि। खाने से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण मान्यता है कि खाना हमेशा सीधे हाथ से ही खाना चाहिए। लेकिन कुछ लोगों को उल्टे हाथ से खाना खाने की आदत होती है तो वे ये सोचते है कि खाना सीधे हाथ से ही खाएं ऐसा जरूरी तो नहीं है। दरअसल हमारी हर मान्यता के पीछे कोई न कोई कारण है।
सीधे हाथ से खाना इसलिए खाते हैं क्योंकि हिन्दू धर्म में यह माना जाता है कि हर शुभ काम या अच्छा काम जिससे आप जल्द ही सकारात्मक परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं वह काम सीधे हाथ से करना चाहिए। इसीलिए हर धार्मिक कार्य चाहे वह यज्ञ हो या दान-पुण्य सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए । जब हम हवन करते हैं और यज्ञ नारायण भगवान को आहूति दी जाती है तो वो सीधे हाथ से ही दी जाती है। दरअसल सीधे हाथ को सकरात्मक ऊर्जा देने वाला माना जाता है। भोजन करने को भी हमारी परंपरा में एक तरह का हवन माना गया है। हमारे शरीर को भोजन के रूप में दी गई हर एक आहूति से हमें पूरी ऊर्जा मिले। यही सोचकर हमारे पूर्वजों ने यह मान्यता बनाई की खाना सीधे हाथ से ही खाना चाहिए।
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अमावस्या को लड़कियों को खुले बाल करके नहीं घुमना चाहिए क्योंकि

लड़कियों को बाल खुले रखने को मना किया जाता है। विशेषकर अमावस्या की रात को लड़की को खुले बाल करके बाहर नहीं निकलना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि अमावस्या की रात को नकारात्मक शक्तियां अधिक सक्रिय रहती हैं खुले बाल करके घुमने से लड़कियों को बहुत ही जल्द अपने प्रभाव में ले लेती हैं। यहां नकारात्मक शक्ति से अभिप्राय है कि आसुरी प्रवृत्तियां। अमावस की रात बुरी शक्तियां अपने पूरे बल में होती हैं। इन शक्तियों को लड़कियां पूरी तरह प्रभावित करती हैं। जिससे वे उन्हें अपने प्रभाव में लेने की कोशिश करती हैं।
इन शक्तियों के प्रभाव में आने के बाद लड़कियों का मानसिक स्तर व्यवस्थित नहीं रह पाता और उनके पागल होने का खतरा बढ़ जाता है। विज्ञान के अनुसार अमावस और हमारे शरीर का गहरा संबंध है। अमावस का संबंध चंद्रमा से है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत पानी है जिसे चंद्रमा सीधे-सीधे प्रभावित करता है। ज्योतिष में चंद्र को मन का देवता माना गया है। अमावस के दिन चंद्र दिखाई नहीं ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती है।
जब चंद्र नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर के पानी में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। इन्हीं कारणों से अमावस्या के दिन लड़कियों को खुले बाल रखकर घुमने से मना किया जाता है। चंद्रमा हमारे शरीर के जल को किस प्रकार प्रभावित करता है इस बात का प्रमाण है समुद्र का ज्वारभाटा। पूर्णिमा और अमावस के दिन ही समुद्र में सबसे अधिक हलचल दिखाई देती है क्योंकि चंद्रमा जल को शत-प्रतिशत प्रभावित करता है।
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बेटियों के ससुराल में खाना क्यों नहीं खाते!

कहते हैं बेटियां बाबुल के आंगन की शोभा होती है। जिस घर में बेटियां नहीं होती उस घर का हर त्यौहार या उत्सव सूना सा लगता है। हमारे यहां बेटियों को लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। लेकिन यह भी सच है कि बेटियों को एक दिन अपने ससुराल जाना होता है क्योंकि यही परंपरा है। आपने बढ़े-बुजूर्गों को अक्सर कहते सुना होगा कि बेटियों के ससुराल में माता-पिता या अन्य मायके वालों को खाना नहीं खाना चाहिए या पानी नहीं पीना चाहिए। आज लड़कियां तेजी से हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है।
इसलिए इस मान्यता को लोगों ने अंधविश्वास मान लिया है। दरअसल ये मान्यता कोई अंधविश्वास नहीं है। हर परंपरा के पीछे हमारे पूर्वजों की कोई गहरी सोच जरूर रही है। बेटी शादी में कई रस्में होती है। जिनके बिना शादी होती ही नहीं है। उन्हीं रस्मों में से एक है कन्यादान। कन्यादान शादी का मुख्य अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुण्य कर्म है और इससे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में कई नियम बनाए गए हैं ताकि दान करने वाले को अधिक से अधिक धर्म लाभ प्राप्त हो सके। ऐसा ही एक नियम है दिए हुए दान का उपयोग नहीं करना। जिस तरह ब्राह्मण को दिया हुआ दान वापस नहीं लिया जाता या दान की हुई गाय का दूध नहीं पीया जाता है। उसी तरह शादी में संकल्प कर कन्या का दान वर को किया जाता है। इसलिए एक बार कन्या को दान करने के बाद उसके ससुराल में भोजन करना या उसके घर का पानी भी नहीं पीये जाने का रिवाज बनाया गया था।

तो आप भी हो जाएंगे मालामाल

वर्तमान समय में अधिकांश लोग आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं। यदि जीवन आर्थिक रूप से सुरक्षित नहीं है तो आए दिन नई समस्याएं आती रहती हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो कमाते तो बहुत हैं लेकिन पैसा उनके पास टिकता नहीं है और वे कभी पैसों की समस्याओं से निकल ही नहीं पाते। अगर आपके साथ भी यही परेशानी है तो नीचे लिखे टोटके करने से पैसों की समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाएगी साथ ही आपकी जीवन भी खुशहाल होगा।
- एकाक्षी नारियल को लाल कपड़े में बांधकर तिजोरी में रखें।
- सफेद पलाश के फूल, चांदी की गणेश प्रतिमा व चांदी में मड़ा हुए एकाक्षी नारियल को अभिमंत्रित कर तिजोरी में रखें।
- घर के मुख्य दरवाजे पर कुमकुम से स्वास्तिक बनाएं और बासमती चावल की ढेरी पर एक सुपारी में कलावा बांध कर रख दें। धीरे-धीरे धन की समस्या समाप्त हो जाएगी।
- सुबह शुभ मुहूर्त में एकाक्षी नारियल का कामिया सिन्दूर कुमकुम व चावल से पूजन करें। धन लाभ होने लगेगा।
- बिल्ली की आंवल, सियार सिंगी, हथ्था जोड़ी और कामाख्या का वस्त्र इन तीनों को एक साथ सिंदूर में रखें। उपरोक्त सामग्री में से किसी को भी तिजोरी में रखने से पहले किसी विशेष मुर्हूत में नीचे लिखे मंत्र से अभिमंत्रित करें-
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे

दिल्ली जाएं तो लोटस टेंपल जरूर देखें...

फूलों की सुंदरता सभी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। फूलों में कमल को श्रेष्ठ माना जाता है और यह भारत का राष्ट्रीय पुष्प भी है। कमल का फूल देखने में काफी आकर्षक होता है लेकिन यदि इसी फूल का कोई मंदिर हो, तो उसकी सुंदरता को सीमा नहीं हो सकती। दिल्ली का लोटस टेंपल इसका सजीव उदाहरण है।

देश की राजधानी दिल्ली में कालका माता मंदिर के पीछे नेहरू प्लेस में लोटस टेंपल स्थित है। इसे बहाई समाज द्वारा बनवाया गया है। इसे कमल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह एशिया में बहाई समाज का एकमात्र प्रार्थना केंद्र है। लोटस टेंपल लगभग 26 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसका निर्माण 1980 से 1986 के बीच हुआ। इस मंदिर के आसपास तालाब और बगीचों के कारण इसकी सुंदरता और अधिक बढ़ जाती है। यहां कोई मूर्ति नहीं है। यहां प्रतिदिन सभी धर्मों को मानने वाले हजारों लोग आते हैं। सप्ताह के आखिरी दिनों में और अन्य छुट्टियों के अवसर पर यहां पर्यटकों की भीड़ काफी बढ़ जाती है।
कमल का फूल पवित्रता तथा शांति का प्रतीक है। यह कीचड़ में रहने के बावजूद पवित्र तथा स्वच्छ रह कर खिलता है। यह सिखाता है कि हमें समाज की बुराइयों और कुरीतियों के बीच रहते हुए भी खुद को पवित्र बनाए रखना चाहिए। किसी भी प्रकार की कोई बुराई हमें प्रभावित ना कर सके, ऐसा हमारा स्वभाव होना चाहिए।
कमल मंदिर में विशाल मैदान है जिस पर हरी घास की चादर फैली हुई है, जो कि आंखों को सुकून प्रदान करती है। मंदिर की ईमारत सफेद पत्थर से बनी हुई है। जिसे देखने से मन को शांति प्राप्त होती है।

भागवत 202 : गोपियां रो रही हैं क्योंकि....

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियां इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आंखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का अक्रूर नाम नहीं होना चाहिए था। सखी हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गए और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिए कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मन में आवे करो। अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेश्टा कर रहा है।

गोपियां परमात्मा से अलग होने का जिम्मेदार भी विधाता को ही ठहरा रही हैं। यह भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा है। कन्हैया उनके लिए अभी भी एक माखन चोर, रास रचाने वाला, उन्हें अपनी लीलाओं से हंसाने और आनंदित करने वाला एक ग्वाल-बाल ही था, वो परम योगेश्वर को अपना सखा, अपने बीच का ही मानती थीं, न कि कोई अवतार। असल में भगवान मिलते भी तभी हैं जब हम उसे अपना, अपने जैसा अपने बीच का मानें, चाहे पिता, भाई, रखा या पति, तभी वह हमारे जीवन में उतरता है।
गोपियां वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं, परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गईं और लाज छोड़कर 'हे गोविन्दÓ! हे दामोदर! हे माधव!Ó इस प्रकार ऊंची आवाज से पुकार-पुकार कर रोने लगीं।
अक्रूरजी को सूझ ही नहीं रहा कि इन गोपियों को कैसे समझाएं। कृष्ण ने गोपियों से कहा मैं तुम सबको प्रसन्न रखने के लिए बांसुरी बजाता था और खेल रचाता था लेकिन अब मुझे जाना ही होगा।
कृष्ण ने मूर्छित राधा को देखा। उनके पास जाकर कान में बोले- राधे! पृथ्वी पर असुर बहुत बढ़ गए हैं। उन पापी राक्षसों का नाष करके पृथ्वी का बोझ हल्का करना है। आज तक तेरे साथ प्रेम से नाचता खेलता रहा। अब जगत् को नचाने जा रहा हूं। मैं तुम सबके साथ भी नाच सकता हूं औरों के साथ भी। सखियों मैं तो जा रहा हूं, किन्तु मेरे प्राण तो यहां तुम्हारे पास ही रहेंगे। मैं अपने प्राण तुम्हारे हृदय में रखकर जा रहा हूं। मेरे प्राणों की रक्षा के लिए तुम अपने प्राणों की रक्षा करना। राधे, मैं आज तक तो तेरे समीप ही था, अब कुछ दूर जा रहा हूं किन्तु हम तो अभिन्न हैं। लीला के हेतु ही हमन अलग-अलग शरीर धारण किए हैं। मुझे अपने प्राणों से भी यह बांसुरी अधिक प्यारी है। तू जब यह बांसुरी बजाएगी तो मैं दौड़ा चला आऊंगा। बाहर के पानी से नहीं आज आंखों से बरसते हुए प्रेमाश्रु से ही मन धोया जा रहा है।
गोपियां रो रही हैं कृष्ण उन्हें धीरज बंधा रहे हैं। मेरे मंगलमय प्रस्थान के समय रोने से अपशकुन होंगे। श्रीकृष्ण रथ पर चढ़े। रथ चलने लगा। गोपियां भी पीछे-पीछे चलने लगीं। कन्हैया के मना करने पर आंसू रुक तो गए, किन्तु फिर बह निकले।
न जाने कन्हैया कब लौटेगा, न जाने कब दर्शन होंगे, फिर रथ के चलने पर बड़े जोरों से रोने लगीं। हे गोविन्द, हे माधव, इस गोकुल को मत उजाड़ो, नाथ इस! गोकुल को अनाथ न करो। हमको भूल न जाना। एक गोपी कह रही है कि तुम्हारे दर्शन के बिना नाथ पानी तक पीने का मेरा नियम कैसे पूरा होगा। यहां कुछ क्षणों के लिए आते रहना, नहीं तो मैं जल ग्रहण नहीं कर पाऊंगी।सारा गांव रो रहा था और अक्रूरजी भी द्रवित हो गए। ग्रामजनों का कृष्ण प्रेम और कृष्ण विरह का दुख देखकर अक्रूरजी की आंखों से भी आंसू बहने लगे।

कैसे संदेश भेजा स्वर्गीय पाण्डु ने युधिष्ठिर के लिए

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...मायासुर द्वारा अर्जुन से उसकी सेवा स्वीकार करने का निवेदन करना और उसके द्वारा भव्य सभा का निर्माण अब आगे...पाण्डवों की सभा में एक दिन देवर्षि नारद आए। नारद जी ने युधिष्ठिर को कुटनीति व राजनीति से संबंधित कई बातें बताई। तब युधिष्ठिर ने नारद जी से कहा नारदजी आपने सभी लोकों की सभाए देखी हैं तो मुझे उन सभी सभाओं का वर्णन सुनाएं। तब देवर्षि ने युधिष्ठिर को देवता, वेद, यम, ऋषि, मुनि आदि की सभाओं का वर्णन सुनाया। नारद जी ने यमराज की सभा में मौजुद सभी राजाओं की उपस्थिति का वर्णन किया।
युधिष्ठिर ने उनसे पूछा नारद जी आपने मेरे पिता पाण्डु को किस प्रकार देखा था। तब देवर्षि ने कहा मैं आपको राजा हरिशचन्द्र की कहानी सुनाता हूं। हरिशचन्द्र एक वीर सम्राट थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था।आपके पिता राजा हरिशचन्द्र का ऐश्वर्य देखकर विस्मित हो गये। जब उन्होंने देखा कि मैं मनुष्य लोक जा रहा हूं। तब उन्होंने आपके लिए यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा युधिष्ठिर तुम मेरे पुत्र हो। यदि तुम राजसूय यज्ञ करोगे तो मैं चिरकालिक आनंद भोगूंगा। नारदजी ने कहा मैंने आपके पिता से कहा कि मैं उनका यह संदेश आप तक पहुंचा दूंगा। युधिष्ठिर आप अपने पिता का संकल्प पूर्ण करें। देवर्षि नारद इतना कहकर ऋषियों सहित वहां से चले गए।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

औरतों के बारे में सोच बदलने का समय है

समाज भले ही आधुनिकता का दावा भरते हों लेकिन महिलाओं के लिए सोच अभी भी दोयम ही है। महिलाओं की क्षमता और चरित्र को लेकर हमेशा संशय के भाव से ही देखा जाता रहा है। आज की नारी भले ही आधुनिका है लेकिन उसके पीछे पुरुष वर्ग की हीन सोच आज भी वैसी ही है।
सचमुच औरत के लिए जमाना कभी नहीं बदला। सत्यनारायण व्रत कथा में साधु नामक वैश्य अपने दामाद के साथ जब व्यापार करने जाता है तो वहां उसे जेल हो जाती है। इस प्रसंग में गांव में रह गई उन दोनों की पत्नियों ने जो गतिविधि की थी उसमें जीवन के संघर्ष का एक नया रूप सामने आता है। एक तो दोनों स्त्रियां गांव में अकेली थीं। उधर उनके पति जेल में थे। अत: समाज ने भी इनकी ओर से मुंह मोड़ लिया। स्त्रियां यदि अकेली हों तो समाज में उनका संघर्ष और बढ़ जाता है। मां-बेटी बहुत परेशान थीं किंतु बेटी के मन में समस्या के समाधान की ललक बनी हुई थी। जिंदगी का कायदा है कि हमें ऐसे सत्य और शक्ति की तलाश करते रहना चाहिए जिन्हें दूसरे नजरअंदाज कर रहे हैं।
दूसरों के द्वारा छोड़े गए अवसरों को तुरंत लपक लें।बेटी कलावती एक दिन एक कथा में पहुंच गई। वह लगातार प्रयासरत थी। जिन व्यक्तियों में चरित्र होता है, दृढ़ता होती है उनका व्यक्तित्व कठिनाई में विशेष आकर्षक रूप ले लेता है। बेटी के मुंह से कथा वाला प्रसंग सुनकर मां के मन में आया और दोनों ने स्वयं व्रत तथा पूजन किया।यहां एक बड़े सूत्र की बात सामने आई है। वैश्य और उसका दामाद कारागृह से इसलिए मुक्त हुए थे कि उन दोनों की पत्नियों ने पूजन और व्रत के माध्यम से उनकी मुक्ति का प्रयास किया था। भारत में नारियां तब भी और अब भी देहरी भीतर और देहरी बाहर दोहरा दायित्व निर्वाह कर रही हैं। इसलिए मातृ शक्ति के संघर्ष को पूरा सम्मान दिया जाए। अपना सबकुछ न्यौछावर करने के बाद माताओं और बहनों की एक ही मांग रहती है कि कुछ पल का सम्मान, कुछ क्षण का स्नेह और समाज का पुरुष वर्ग इन्हें देने में चूक ही जाता है।

प्रकृति की गोद में मिलेगा परमात्मा
डर कर भी पा सकते हैं परमात्मा को
चंचल चित्त में नहीं बनता परमात्मा का चित्र
अगर सीधे पहुंचना हो परमात्मा तक
परमात्मा चाहिए तो माया से ऊपर उठिए
तस्वीरें बढ़ाएगीं परिवार में खुशियां
....इसलिए टूट जाते हैं परिवार
गृहस्थी में जरूरी है मन की शांति और शालीनता
भागवत-3: गृहस्थी का ग्रंथ है भागवत
वासना है गृहस्थी में अशांति का मूल
गृहस्थी के ग्रंथ के रूप में अब रोजाना पढ़ें भागवत
सफल गृहस्थी के सूत्र सीखें कृष्ण से
..तो गृहस्थी वैकुंठ होगी, जंजाल नहीं

कभी खुद के लिए भी निकालें समय

हम भागदौड़ में इतने रम गए हैं कि दुनिया तो ठीक सबसे ज्यादा खुद को ही भूला बैठे हैं। आज हमारे पास खुद के लिए ही समय नहीं है। इससे सबसे बड़ी समस्या यह खड़ी हो गई है कि हमारा खान-पान भी बिगड़ गया है, जो सीधे हमारी प्राणशक्ति को प्रभावित करता है। हम कब, कहां, क्या और कैसे खा रहे हैं इसका ध्यान नहीं रहता है।
आज आदमी इतना अधिक बाहर टिक गया है कि मनुष्यता की भीतर भी एक यात्रा हो सकती है वह भूल ही गया है। आप कितने ही सक्रिय, व्यस्त और परिश्रमी हों अपने भीतर मुड़ना न भूलें। चौबीस घण्टे में कुछ समय खुद के साथ जरूर रहें। दिनभर, रातभर हम सबके साथ रह लेते हैं। अपना काम, उपयोग की सामग्रियां, रिश्ते, घटनाएं इन सबके साथ हमारा वक्त गुजरता है पर खुद के साथ होने में चूक जाते हैं। भीतर उतरने में जितनी बांधाएं हैं उनमें से एक बाधा है हमारा भोजन। हमारे व्यक्तित्व की पहली परत है देह और इसका निर्माण भोजन से होता है। आइए हनुमानजी महाराज से सीखें भोजन का महत्व और सही उपयोग। लंका जलाने जैसा विशाल कार्य करने के पूर्व वे सीताजी के सामने एक निवेदन रखते हैं।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बहुत भूख लगी है। यहां हनुमानजी इशारा कर रहे हैं कितने ही व्यस्त रहें समय पर संतुलित और शुद्ध (शाकाहारी) भोजन अवश्य कर लें। भोजन को काम चलाऊ गतिविधि मानना अपने ही शरीर पर खुद के ही द्वारा एक खतरनाक आक्रमण है। एक ऐसा युद्ध जिसमें आप स्वयं ही शस्त्र हैं और स्वयं ही आहत हैं। आप जितना शुद्ध भोजन ले रहे होंगे उतनी ही आपकी अंतरयात्रा सरल हो रही होगी। इस अल्पाहार के ठीक बाद हनुमानजी को रावण से मिलना था। रावण यानी दुगरुणों का गुच्छा। यदि आप भरे पेट हैं तो दुगरुण खाने की अरूचि की संभावना बनी रहेगी। शुद्ध भोजन भीतर की पारदर्शिता और बाहर की सक्रियता को बढ़ाता है और इसी कारण हनुमानजी लंका जलाने यानी दुगरुण को नष्ट करने जैसा कार्य कर सके। इसलिए आहार बाहरी शरीर को सुंदर और भीतरी शरीर को शांत बनाएगा।

ब्रह्मचर्य तो जवानी में ही काम का है

ब्रह्मचर्य को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं। क्या यह अनिवार्य है या ऐच्छिक यह बहस का विषय भी रहा है। अगर समझा जाए तो ब्रह्मचर्य शक्ति के संग्रह की ही एक प्रक्रिया है। हर आदमी के जीवन में कुछ समय तो ब्रह्मचर्य घटना ही चाहिए। युवावस्था में इसके लिए सबसे ज्यादा प्रयास होने चाहिए। यह हमारे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों विकास के लिए जरूरी है।
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है और जवानी में तो खासतौर पर कि ब्रह्मचर्य आखिर होता क्या है। शाब्दिक अर्थ तो यह है कि जिसकी चर्या ब्रह्म में स्थित हो वह ब्रम्हचारी है। बहुत गहराई में जाएं तो इसका विवाहित या अवाहित होने से उतना संबंध नहीं है जितना जुड़ाव कामशक्ति के उपयोग से है। हरेक के भीतर यह शक्ति जीवन ऊर्जा के रूप में स्थित है। जब कोई परमात्मा, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, सत्य, अहिंसा जैसे आध्यात्मिक तत्वों की शोध में निकलेगा तब उसे इस शक्ति की बहुत जरूरत पड़ेगी और इसे ही ब्रह्मचर्य माना गया है। जिन्हें प्रसन्नता प्राप्त करना हो उन्हें अपने भीतर के ब्रह्मचर्य को समझना और पकड़ना होगा।जानवर और इन्सान में यही फर्क है। ऐसा शरीर तो दोनों के पास रहता है जो पंच तत्वों से बना है। इसी कारण शरीर को जड़ कहा है, लेकिन आत्मा चेतन है। वह विचार और भाव सम्पन्न है।
जानवरों में आत्मा भी है। फर्क यह है कि मनुष्य के भीतर जड़ और चेतन के इस संयोग का उपयोग करने की संभावना अधिक है और यही उसकी विशिष्टता, योग्यता का कारण बनती है। यदि इसका दुरुपयोग हो तो मनुष्य भी जानवर से गया बीता होगा और सद्उपयोग हो तो जानवर भी इन्सान से बेहतर हो जाता है। हम ब्रह्मचर्य के प्रति जागरुक रहें इसके लिए नियमित प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास सहायक होगा। जड़ शरीर को साज-संभाल करने में जितना समय हम खर्च करते हैं उससे आधा भी यदि चेतन, जीवन ऊर्जा के लिए निकालें, थोड़ा अपने ही भीतर जाएं।

अध्यात्म गृहस्थी में रुकावट नहीं, रास्ता है

गृहस्थ के लिए सबसे बड़ी समस्या होती है परमात्मा का ध्यान लगाना। जब कोई गृहस्थ परमात्मा की अध्यात्म की राह पर चल पड़े तो उसे समाज को डर लगने लगता है कि वह सन्यासी न हो जाए। और पूरी तरह गृहस्थी में डूबकर भी परमात्मा का ध्यान नहीं लगा सकते हैं।
अभी भी कई लोग मानते हैं कि अध्यात्म साधना में दाम्पत्य संकट है, गृहस्थी रुकावट है, परिवार बाधा है और नारी तो नर्क का द्वार है। जो लोग भगवान तक पहुंचना चाहें या भगवान को अपने तक लाना चाहें वे ये समझ लें कि एकाकी जीवन से तो भगवान ने स्वयं को भी मुक्त रखा है। ईश्वर के सभी रूप लगभग सपत्नीक हैं। फिर परिवार तथा पत्नी बाधा और व्यवधान कैसे हो सकते हैं। समझने वाली बात यह है कि अध्यात्म ने काम का विरोध किया है स्त्री का नहीं। अनियमित काम भावना स्त्री का पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति घातक है। भारतीय संस्कृति में तो ऋषिमुनियों के अनेक उदाहरण हैं जिन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ ही तपस्या की थी। बाधा तो दूर वे तो सहायक बन गई थीं।
बीते दौर में अध्यात्म साधकों ने विवेकशील चिन्तन को बहुत महत्व दिया था। विवेक के कारण स्त्री-पुरुष का भेद अध्यात्म में मान्य नहीं किया है। जब भेद ही नहीं है तो स्त्री बाधा कैसे होगी। नारी संग और काम भावना बिल्कुल अलग-अलग है। ब्रम्हचर्य को साधने के लिए नारी को नरक की खान बताना दरअसल ब्रम्हचर्य का ही अपमान है। वासना का जन्म, संग से नहीं कुविचार और दुबरुद्धि से होता है। स्त्री-पुरुष के सहचर्य अध्यात्म में पवित्रता से देखा गया है। इसीलिए विवाह के पूर्व स्त्री-पुरुष को आध्यात्मिक अनुभूतियों से जरूर गुजरना चाहिए। पति-पत्नी के सम्बन्धों में पवित्रता और परिपक्वता के लिए आध्यात्मिक अनुभव आवश्यक हैं। इस रिश्ते में जिस तरह से आज अशांति देखी जा रही है इसका निदान केवल भौतिक संसाधनों और तरीकों से नहीं होगा इसमें आध्यात्मिक मार्गदर्शन उपयोगी रहेगा।

भागवत २०१: यह खबर सुनकर यशोदा दुखी हो गई

मथुरा प्रस्ताव से यशोदा दुखी-यह सारी बात जब यशोदा तक पहुंची, तो उनका दिल बैठ गया। यह अकू्रर नहीं क्रूर है। मेरे लला को मत जाने दो। वह चला जाएगा, तो गोकुल उजड़ जाएगा और यदि ले जाना ही है तो बलराम को ले जाओ। कन्हैया को मत ले जाओ। सुना है मथुरा की नारियां बहुत जादूगरनी होती हैं। कुछ ऐसा टोना कर देंगी कि मेरा कन्हैया वापस नहीं आ सकेगा। यशोदा नन्दजी से विनती करती हैं। यदि तुम्हें मथुरा जाना है तो चले जाओ। किन्तु लला को न ले जाओ। वहां उसकी देखभाल कौन करेगा। वह बड़ा शर्मीला है भूखा होने पर मांगता नहीं। उसको मनाकर कौन खिलायेगा। दो तीन दिन पहले ही मैंने बुरा सपना देखा था। मेरा लला मुझे छोड़कर हमेेशा के लिए मथुरा जा रहा है। नन्दबाबा ने यशोदा को ढांढस बंधाते हुए समझाया। कन्हैया 11 बरस का तो हुआ है अब कितने दिनों तक तू उसे अपने घर में रखेगी। उसे बाहर का जगत भी देखना चाहिए। मैं अब उसे गोकुल के राजा बनने योग्य बनाना चाहता हूं। हम दो-चार दिन में मथुरा घूम-फिरकर वापस लौट आएंगे। तू चिन्ता मत कर। मैं इस वृद्धावस्था में कन्हैया के लिए तो जी रही थी। यही तो आधार है मेरा। रात आई, सब सो गए। किन्तु यशोदा की आंखों से नींद दूर चली गई थी। न जाने कल क्या होगा। कन्हैया चला जाएगा। मैं अकेले कैसे जी पाऊंगी।
बार-बार आंगन में आकर सिसकियां भरने लगीं। कन्हैया की आंखें अचानक खुल गईं तो देखा कि सेज पर माता नहीं थी। वह उसे इधर-उधर ढूंढने लगा। माता के गले में हाथ डालकर उसके आंसू पोंछते हुए रोने का कारण पूछने लगा। तू क्यों रोती है मां। तू रोती है तो मुझे बड़ा दुख होता है। कन्हैया की बात सुनकर माता को कुछ तसल्ली हुई। वह कहने लगी वैसे तो कोई विशेष बात नहीं है। तू कल जा रहा है सो मेरी आंखें बरस रही हैं। मुझे छोड़कर तू कहीं भी न जाना। मैं तेरे ही सहारे जी रही हूं। कन्हैया माता को आश्वासन देते हैं तू क्यों चिन्ता करती है मां, मैं जरूर वापस आऊंगा। यद्यपि लला ने यह नहीं बताया कि वह कब लौटेगा माता ने भी नहीं पूछा। वह तो लला के वापस आने की बात सुनकर प्रसन्न हो गई। वह अवष्य लौटेगा, वापस आने की बात सुनकर वह आनन्द में इतनी मग्न हो गई कि यह पूछना ही भूल गई कि वह लौटेगा तो कब लौटेगा। यशोदा ने लला से कहा कि चल अब हम सो जाएं। मां और बेटे दोनों एक ही सेज पर सो गए। आज श्रीकृष्ण ने यशोदा के हृदय में प्रवेश किया। अब कन्हैया बाहर नहीं भीतर ही दिखाई देगा। गोकुल से विदाई-प्रात:काल हुआ, मंगलस्नान समाप्त हुआ, तो माता कन्हैया का श्रृंगार करने लगी। तेरा मनोहर रूप अब मैं कब देख पाऊंगी कन्हैया। कन्हैया ने वापस आने का पुन: वचन दिया। यषोदाजी का मन आज अधीर हो उठा। उन्होंने स्वयं भोजन बनाया और कन्हैया को खिलाया। अक्रुरजी रथ लेकर आंगन में आए। जब गोपियों को समाचार मिला तो वे दौड़ती हुई आ पहुंची। उनमें राधिकाजी भी थीं। उनके मुख पर दिव्य तेज फैला हुआ था और साध्वी जैसा उनका श्रृंगार था। आज तक कभी वियोग हुआ नहीं था। सो आज वियोग का प्रसंग उपस्थित हुआ तो राधिकाजी अचेत-सी हो गईं। वे अचेतावस्था में ही कहने लगीं कि हे प्यारे कृष्ण! मेरा त्याग मत करो, हमें छोड़कर मत जाओ।

कैसे हो गई अग्रि को आहूति से अपच!

तब जन्मेजय ने वैशम्पायनजी से कहा कि अग्रि ऐसा क्यों करना चाहते थे। तब वैशम्पायनजी ने कहा प्राचीन समय की बात है। श्वेतकि नाम का एक राजा था। वह ब्राहा्णों का बहुत सम्मान करता था। उसने कई बड़े-बड़े यज्ञ किए। अन्त में जब सब ब्राहा्रण थक गए। तब राजा ने भगवान शंकर की तपस्या की। भगवान शंकर को प्रसन्न करके ऋषि दुर्वासा से एक महान यज्ञ करवाया।
राजा श्वेतकि अपने परिवार के साथ स्वर्ग सिधारे। उस यज्ञ में बारह वर्ष तक अग्रि देव को लगातार घी की अखण्ड आहूतियां दी गई। जिसके कारण उनकी पाचन शक्ति कमजोर हो गई। रंग फीका पड़ गया और प्रकाश मन्द हो गया। जब अपच के कारण वे परेशान हो गए तो ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रहा्रजी ने कहा तुम खांडव वन को जला दो तो तुम्हारी अरूचि खत्म हो जाएगी। अग्रि देव ने सात बार वन जलाने की कोशिश की लेकिन इन्द्र ने उन्हें सफल नहीं होने दिया।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

रिश्ते ऐसे हों

आजकल पति-पत्नी के रिश्तों में तनाव बढ़ गया है। लंबे समय तक बातें नहीं होती। एक-दूसरे की आवश्यकताओं को समझते नहीं, भावनाओं को पहचानते नहीं। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें शब्दों की आवश्यकता ही न पड़े, बिना कहे-बिना बताए आप समझ जाएं कि आपके साथी के मन में क्या चल रहा है। ऐसी समझ प्रेम से पनपती है। यह रिश्ते का सबसे सुंदर हिस्सा होता है कि आप सामने वाले की बात बिना बताए ही समझ जाएं।
दाम्पत्य के लिए राम-सीता का रिश्ता सबसे अच्छा उदाहरण है। इस रिश्ते में विश्वास और प्रेम इतना ज्यादा है कि यहां भावनाओं आदान-प्रदान के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। एक प्रसंग है वनवास के समय जब राम-सीता और लक्ष्मण चित्रकूट के लिए जा रहे थे। रास्ते में गंगा नदी पड़ती है। गंगा को पार करने के लिए राम ने केवट की सहायता ली। केवट ने तीनों को नाव से गंगा नदी के पार पहुंचाया। केवट को मेहनताना देना था। राम के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था। वे केवट को देने के लिए नजरों ही नजरों में कुछ खोजने लगे।
सीता ने राम के हावभाव से ही उनके मन की बात जान ली। वे बिना कहे ही समझ गई कि राम केवट को देने के लिए कोई भेंट के लायक वस्तु खोज रहे हैं। सीता ने राम की मनोदशा को समझते हुए अपने हाथ से एक अंगुठी निकालकर केवट को दे दी। इस पूरे प्रसंग में न तो राम ने सीता से कुछ कहा और न ही सीता ने राम से कुछ पूछा लेकिन दोनों की ही भावनाओं का आदान-प्रदान हो गया।

क्यों पहनते हैं सोने के कंगन?

खनखन करती चुडिय़ां किसी भी महिला की खूबसूरती को और ज्यादा बड़ा देती है।चुडिय़ां और कंगन नारी श्रंगार का एक अभिन्न हिस्सा है। महिलाएं तरह-तरह की चुडिय़ों की शौकिन होती हैं। लाख, कांच से लेकर सोने-चांदी और हीरे जड़े कंगन तक। कभी गौर किया है आखिर ये चुडिय़ां पहनी क्यों जाती थीं? क्या ये श्रंगार का ही एक हिस्सा हैं या फिर कुछ और कारण भी है? पुरातन काल से नारी श्रंगार में आभूषण प्रमुख थे। सभी आभूषण सोने या चांदी के होते थे। सोने या चांदी के भारी कंगन और कड़े पहने जाने का रिवाज था। इसके पीछे मूल कारण था महिलाओं का कमजोर होना।
चिकित्सकीय दृष्टि से देखें तो महिलाओं को बढ़ती उम्र के साथ हड्डियां कमजोर होने के अलावा कई बीमारियां घेरने लग जाती हैं। सोने और चांदी के कड़े हड्डियों को मजबूत करते थे और लगातार घर्षण से इन धातुओं के गुण भी शरीर को मिलते थे, जिससे महिलाओं को आरोग्य मिलता था तथा अधिक उम्र में भी वे स्वस्थ्य रहती थीं। इसके पीछे एक और कारण यह भी था। वह यह कि सभी की जिंदगी में उतार -चढ़ाव आते हैं। उस बुरे समय ये गहने आर्थिक सहारा भी देते हैं इसीलिए हमारे यहां सोने के कंगन पहनने की परंपरा बनाई गई है।

मौत का राज़?

मौत एक ऐसी सच्चाई जिसे कोई झूठला नहीं सकता। एक न एक दिन मौत सभी को आनी है। इस सच्चाई को जानते हुए भी हम मौत से घबराते हैं। आखिर क्या है मौत का राज़? क्यों होती किसी की मृत्यु? यह वह सवाल है जो मानव मस्तिष्क को हमेशा परेशान करते आए हैं।
अगर आध्यात्मिक रूप से देखा जाए तो मौत का अर्थ है शरीर से प्राण अर्थात आत्मा का निकल जाना। इसके बिना शरीर सिर्फ भौतिक वस्तु रह जाता है। इसे ही मौत कहते हैं। जबकि विज्ञान की दृष्टि से मृत्यु का अर्थ कुछ अलग है। उसके अनुसार शरीर में दो तरह की तरंगे होती हैं भौतिक तरंग और मानसिक तरंग। जब किसी कारणवश इन दोनों का संपर्क टूट जाता है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। साधारणत: मौत तीन प्रकार से होती है- भौतिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक।
किसी दुर्घटना या बीमारी से मृत्यु का होना भौतिक कारण की श्रेणी में आता है। इस समय भौतिक तरंग अचानक मानसिक तरंगों का साथ छोड़ देती है और शरीर प्राण त्याग देता है। जब अचानक किसी ऐसी घटना-दुर्घटना के बारे में सुनकर, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, मौत होती है तो ऐसे समय में भी भौतिक तरंगें मानसिक तरंगों से अलग हो जाती है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु का मानसिक कारण है।
मौत का तीसरा कारण आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक साधना में मानसिक तरंग का प्रवाह जब आध्यात्मिक प्रवाह में समा जाता है तब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है क्योंकि भौतिक शरीर अर्थात भौतिक तरंग से मानसिक तरंग का तारतम्य टूट जाता है। ऋषि मुनियों ने इसे महामृत्यु कहा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार महामृत्यु के बाद नया जन्म नहीं होता और आत्मा जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो जाती है।

भागवत २००-जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?

एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।
यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं।
अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।
आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।
गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।
अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।क्रमश:

शिव पूजा में बिल्वपत्र से भी ज्यादा शुभ है यह फूल

शिव की उपासना में बिल्वपत्र का चढ़ावा बहुत ही शुभ और पुण्य देने वाला माना जाता है। धार्मिक आस्था है कि बिल्वपत्र का शिव को अर्पण जन्म-जन्मान्तर के पाप और दोषों का नाश करता है। वैसे भी शिव की पूजा में कुदरती सामग्रियों के चढ़ावे का महत्व है। जिनमें अनेक तरह-तरह के पेड़-पौधों के पत्ते, फूल और फल शामिल होते हैं।
शास्त्रों के मुताबिक इन फूल-पत्तों में कुछ ऐसे भी हैं, जिनको शिव पूजा में चढ़ाना बिल्वपत्र से भी ज्यादा पुण्य और फलदायी है। इनमें ही एक है शमी के फूल और पत्ते। जानते हैं शमी के फूल-पत्ते शिव पर चढ़ाना कितना शुभ है?
धार्मिक महत्व की दृष्टि से शिव को चढ़ाने जाने वाले फूलों का फल इस तरह है कि-
एक आंकडे का फूल चढऩा सोने के दान के बराबर फल देता है,
एक हजार आंकड़े के फूल के बराबर एक कनेर का फूल फलदायी,
एक हजार कनेर के फूल के बराबर एक बिल्वपत्र फल देता है,
हजार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी,
हजार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा,
हजार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल,
हजार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता,
हजार शमी के पत्तो के बराकर एक नीलकमल,
हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और
हजार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।
इस तरह शमी का फूल शिव को चढ़ाना शिव भक्ति से तमाम मनचाही कामनाओं को पाने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है।

ऐसे हुआ शिव का नंदी अवतार

शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर अयोनिज एवं मृत्युहीन पुत्र का वरदान मांगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा।

तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया उनके ही समान मृत्युहीन तथा अयोनिज पुत्र की मांग की।
भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। एक दिन भगवान शंकर द्वारा भेजे गये मित्रा-वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम आए। उन्होंने नंदी को देखकर कहा कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन देकर कहा- वत्स नंदी! तुम्हें मृत्यु से भय कैसे हो सकता है? तुम अजर-अमर, अदु:खी हो।
मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा। भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों व गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर की प्रतिज्ञा है कि जहां पर नंदी का निवास होगा वहां उनका भी निवास होगा।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

कौन थे द्रोपदी के पुत्र जो पांडवों से हुए?

कृष्ण ने सभी को समझाया। उसके बाद अर्जुन और सुभद्रा का विधिपूर्वक विवाह करवाया गया। विवाह के एक साल बाद तक वे द्वारका में सुभद्रा के साथ ही रहे और कुछ समय पुष्कर में बिताया। वनवास के बारह साल पूरे होने के बाद वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ आए। अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुंचने पर सभी ने उनका बहुत खुशी से स्वागत किया। सुभद्रा लाल रंग के ग्वालियन के वेष में रानिवास गयी। वहां जाकर सुभद्रा ने कुंती का आशीर्वाद लिया। सुभद्रा ने द्रोपदी के पैर छूकर कहा बहन मैं तुम्हारी दासी हूं।

यह सुनकर द्रोपदी ने उसे खुशी से गले लगा लिया। अर्जुन के आ जाने से महल में रौनक आ गयी थी। उनके इन्द्रप्रस्थ लौट आने की खबर सुनकर कृष्ण और बलराम उनसे मिलने इंद्रप्रस्थ आए। उन्होंने सुभद्रा को बहुत सारे उपहार दिए। बलराम और दूसरे यदुवंशी कुछ दिन रूककर वहां से चले गए लेकिन कृष्ण वही रूक गए। समय आने पर सुभद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। द्रोपदी ने भी एक-एक वर्ष के अंतराल से पांचों पांडव के एक-एक पुत्र को जन्म दिया। युधिष्ठिर के पुत्र का नाम प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से उत्पन्न पुत्र का नाम सुतसोम, अर्जुन के पुत्र का नाम श्रुतकर्मा, नकुल के पुत्र का नाम शतानीक, सहदेव के पुत्र का नाम श्रुतसेन रखा गया।
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भागवत १९९: अच्छा सहायक कैसा हो?

नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा, हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं।
उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं। केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है।
उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं। कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!
आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।
इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।क्रमश

अगर परिवार में प्रेम जगाना हो तो....

इस समय हमारे पारिवारिक जीवन में जितनी समस्याएं चल रही हैं उसमें एक बड़ी समस्या है इमोशनल एप्सेंस। संवेदनाओं के अभाव के कारण घर के सदस्य एक दूसरे के प्रति रूखे और सूखे हो गए हैं। अब तो कई घरों में हो रही बातचीत सुन और देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी मॉल के काउंटर पर लेन-देन हो रहा है या किसी कॉर्पोरेट ऑफिस के केबिन में मीटिंग हो रही है या पेढ़ी पर ब्याज-बट्टे का हिसाब चल रहा है।
घर परिवार का हर सदस्य अपना सौदा खुटा रहा है। पिछले दिनों एक खबर सुनने में आई कि गर्भस्थ बालक की मुस्कान थ्री-डी स्केनिंग में फोटो के रूप में प्राप्त हुई है। चिकित्सा विज्ञान के जानकार लोगों का कहना है यह गर्भ में पलने वाले शिशु की संवेदना का मामला है। एक बात तो यह समझने जैसी है कि इसमें मुस्कान संवेदना की प्रतिनिधि क्रिया है। फिर बच्चे की मुस्कान तो और अद्भुत होती है। दरअसल बड़ा जब भी मुस्कराएगा समझ लीजिए बच्चे होने की तैयारी ही कर रहा होगा। अध्यात्म कहता है जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे हम छोटे हो जाएंगे और जितने छोटे होंगे उतने ही विराट के प्रकट होने की संभावना बढ़ जाएगी। बल्कि छोटे होते-होते जितना खो जाएंगे बस उसके बाद फिर उसे पा जाएंगे जिसका नाम परमात्मा है।
वह बच्चा गर्भ में मुस्कराकर यही संदेश दे रहा है कि मैं भीतर जिसके भरोसे मुस्करा रहा हूं हम बाहर भी उसी के भरोसे प्रसन्न रह सकते हैं। यह एक तरह की बायो फीडबेक क्रिया है। जैसे मंदिरों में गुम्बज इसलिए बनाए गए ऊँकार का गुंजन कई गुना होकर हम पर लौट आए। इसी प्रकार भीतर की मुस्कान बाहर और बाहर की स्थितियां भीतर को बायो फीडबेक प्रक्रिया से व्यक्तित्व को शांत बनाने में काम आएगी और शांति जिस भी कीमत पर मिले हासिल कर लेना चाहिए। उस गर्भस्थ शिशु का यही संदेश है।
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बदला लेना नहीं... माफ करना सीखिए

कभी कभी बदले की भावना में आदमी इतना अंधा हो जाता है कि उसे ये ध्यान भी नहीं होता कि ऐसी भावना कहीं न कहीं उसे ही नुकसान पहुंचाएगी क्यों कि किसी के लिए प्रतिशोध की भावना कभी अच्छा फल नहीं देती
एक आदमी ने बहुत बड़े भोज का आयोजन किया परोसने के क्रम में जब पापड़ रखने की बारी आई तो आखिरी पंक्ति के एक व्यक्ति के पास पहुंचते पहुंचते पापड़ के टुकड़े हो गए उस व्यक्ति को लगा कि यह सब जानबूझ करउसका अपमान करने के लिए किया गया है । इसी बात पर उसने बदला लेने की ठान ली।
कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति ने भी एक बहुत बड़े भोज का आयोजन किया और उस आदमी को भी बुलाया जिसके यहां वह भोजन करने गया था। पापड़ परोसते समय उसने जानबूझकर पापड़ के टुकड़े कर उस आदमी की थाली में रख दिए लेकिन उस आदमी ने इस बात पर अपनी कोई प्रतिक्रि या नहीं दी। तब उसने उससे पूछा कि मैने तुम्हें टूआ हुआ पापड़ दिया है तुम्हें इस बात का बुरा नहीं लगा तब वह बोला बिल्कुल नहीं वैसे भी पापड़ को तो तोड़ कर ही खाया जाता है आपने उसे पहले से ही तोड़कर मेरा काम आसान कर दिया है। उस व्यक्ति की बात सुनकर उस आदमी को अपने किये पर बहुत पछतावा हुआ।
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ऐसी स्त्री के संग रहती है लक्ष्मी

व्यावहारिक जीवन के लिए धन सुखी रहने का एक साधन है। धार्मिक हो या सांसारिक नजरिया धन को जीवन की अहम जरूरत बताया गया है। वैसे सुख देव और दु:ख दानव शक्ति का प्रतीक भी है। इसलिए सुख देने वाला हर व्यक्ति, स्थान और साधन देवता के समान पूजित भी हो जाता है।
इसी बात को सामने रख सोचें तो भारतीय धर्म परंपराओं में स्त्री को भी लक्ष्मी रुप मानने के पीछे सुख देने वाली उसकी वह शक्ति है, जो वह मां, बेटी और अन्य सभी रिश्तों के द्वारा सृजन, पालन, सेवा के रूप में परिवार, समाज या जगत को देती है। जिनसे कुटुंब खुशहाल और सुखी होता है। धार्मिक मान्यता भी यही है कि देवता खासतौर पर धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर वास करती है। जहां दरिद्रता और आलस्य न हो। यही कारण है कि जो स्त्री घर की व्यवस्थाओं और माहौल को अपने व्यवहार, आचरण और विचारों से पवित्र रखती है, उसे लक्ष्मी और उस घर में लक्ष्मी का वास माना जाता है।
शास्त्रों में भी बताया गया है कि लक्ष्मी ऐसी स्त्रियों पर हमेशा प्रसन्न रहती है। किंतु इसके लिए उसका व्यवहार और आचरण कैसा होना चाहिए? जानते हैं -
- सच बोलने वाली स्त्री। जिस स्त्री के बोल, व्यवहार और विचारों में सच समाया होता है, उससे लक्ष्मी बहुत खुश रहती है।
- पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली।
- जिस स्त्री का तन, मन और व्यवहार साफ हो।
- धार्मिक यानि देवता, शिक्षित और ब्राह्मणों को सम्मान देने वाली स्त्री।
- घर आए अतिथि की सेवा-सत्कार करने वाली स्त्री।
- सहनशील स्त्री यानि जो स्त्री पति या परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी गलती या दोष को भी माफ कर दे। दूसरे अर्थों में क्षमा का भाव रखने वाली स्त्री।
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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

छत्तीसगढ़ की खबरें

प्रदेश में 1159 हत्याएं और 1094 बलात्कार
रायपुर.प्रदेश में पिछले 13 महीनों में 1159 हत्याएं और 1094 बलात्कार हुए। इसके अलावा 398 लोगों का अपहरण और 3609 लोग सड़क हादसों में मारे गए। राज्य में रोजाना 9 लोग से अधिक सड़क दुर्घटना में मरे। इसी तरह तीन महिलाएं रोज बलात्कार का शिकार हुई। औसतन रोज एक अपहरण हुआ।
कांग्रेस सदस्य धरमजीत सिंह को गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने अतारांकित प्रश्न के जवाब में लिखित में यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि 1 जनवरी 2010 से 30 जनवरी 2011 तक के ये आंकड़े हैं। इस दौरान 132 डकैतियां भी हुईं। मानव तस्करी का एक मामला भी दर्ज किया गया। आंकड़ों में रेलवे थाने में दर्ज दो डकैतियां, एक हत्या और एक बलात्कार भी शामिल है।
सबसे ज्यादा 51 अपहरण रायपुर जिले में और सात डकैतियां भी इसी जिले में हुई। जबकि सबसे कम 6 अपहरण व 8 डकैतियां नारायणपुर जिले में हुए। अपहरण व डकैतियों में रायपुर के बाद महासमुंद, धमतरी, दुर्ग, रजनांदगांव, कवर्धा, गरियाबंद, बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर-चांपा, कोरबा, सरगुजा, जशपुर, कोरिया, बलरामपुर, सूरजपुर, जगदलपुर, दंतेवाड़ा, कांकेर व बीजापुर जिलों का नंबर आता है। अपहरण के 23 और डकैती के 5 मामलों में रिपोर्ट हुई। इनमें से क्रमशः 11 व 4 मामलों का खात्मा कर दिया गया। अपहरण के 126 व डकैती के 53 मामलों में गिरफ्तारी नहीं हो सकी।
सरकार के खिलाफ कोई आक्रोश नहीं : मूणत
नगरीय प्रशासन एवं पर्यावरण मंत्री राजेश मूणत ने कहा कि यह सही नहीं है कि उद्योगों की वजह से प्रदूषण बढ़ रहा है। सरकार प्रदूषण मुक्त पर्यावरण उपलब्ध कराने ठोस कदम उठा रही है। आम लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी नहीं है। श्री मूणत ने विधानसभा में ध्यानाकर्षण के दौरान यह वक्तव्य दिया। कांग्रेस सदस्य डॉ. शक्रजीत नायक ने उद्योगों द्वारा पर्यावरण नियमों का पालन नहीं करने का मुद्दा उठाया था।

फर्जीवाड़े पर कार्रवाई, 95 शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति रद्द
रायपुर.फर्जी प्रमाणपत्रों की मदद से नौकरी पाने वाले मैनपुर जनपद पंचायत के 95 शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति रद्द कर दी गई है। कलेक्टर डॉ. रोहित यादव ने सोमवार को पंचायत अधिनियम की धारा 85 (1) के तहत शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति रद्द करने का आदेश जारी किया। इसकी अनुशंसा जिला पंचायत रायपुर के सीईओ अंकित आनंद ने की थी।
जिला प्रशासन से मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2007 में मैनपुर जनपद के माध्यम से 102 शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति की गई थी। इसमें कई शिक्षाकर्मियों द्वारा फर्जी प्रमाणपत्र जमा किए जाने की शिकायतें शुरू से ही मिल रही थीं। नियुक्तियों को रद्द करने के लिए जिला पंचायत की सामान्य प्रशासन समिति ने पहले ही अनुशंसा की थी, लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
बाद में रिपोर्ट के आधार पर और जांच की गई। इसके बाद जिला पंचायत के सीईओ ने रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करने की अनुशंसा की। नियुक्ति रद्द करने के फैसले को कुछ शिक्षाकर्मियों ने हाईकोर्ट में चुनौती भी दी थी। पहले तो कोर्ट ने उन्हें स्टे दे दिया, लेकिन बाद में नियुक्तियां रद्द करने के आदेश को सही ठहराया।
बड़ी संख्या में शिक्षाकर्मियों के गोलमाल का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी प्रदेश के कुछ जिलों में शिक्षाकर्मियों की नियुक्तियां रद्द कर दी गई हैं। कुछ दिन पहले ही बलौदाबाजार प्रधान पाठक पदोन्नति परीक्षा रद्द करने की अनुशंसा स्कूल शिक्षा सचिव से की गई है।

सबकुछ फर्जी
जिला पंचायत के सदस्यों ने शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति में बड़ा गोलमाल होने की शिकायत की थी। दबाव बढ़ा तो कुछ समय बाद सात शिक्षाकर्मियों ने इस्तीफा दे दिया। जांच में भी प्रशासन ने शिकायतों को सही पाया। 82 शिक्षाकर्मियों के आवेदन के साथ संलग्न किए गए अनुभव, स्काउट एंड गाइड, एनसीसी आदि के प्रमाण-पत्र फर्जी पाए गए। 16 शिक्षाकर्मियों ने कूटरचित प्रमाण-पत्रों से नौकरी हासिल की थी।

सेक्स रैकेट में पकड़ी गईं अभिनेत्रियां भेजी गईं जेल
रायपुर.टिकरापारा में रविवार को पीटा एक्ट के तहत गिरफ्तार छालीवुड की अभिनेत्रियां जेल भेज दी गईं। उनके साथ पकड़े गए ग्राहकों को भी न्यायालय से जेल भेजा गया है। 24 फरवरी तक सभी न्यायिक हिरासत में रहेंगे।
पुलिस ने एक मकान से शिव कुमारी, किरण, मणीराम और अहमद को पकड़ा था। इनमें दोनों युवतियां छालीवुड की कलाकार निकलीं। अभिनेत्रियों के सेक्स के धंधे में लिप्त होने से पुलिस महकमा खुद हैरान है। सोमवार को सुबह महिला पुलिस बल की मौजूदगी में सभी को न्यायालय में पेश किया गया। ऐसी चर्चा है कि कुछ छत्तीसगढ़ी फिल्म कलाकार न्यायालय पहुंचे थे।
अब नहीं मिलेगा छालीवुड में काम
छालीवुड की कुछ अभिनेत्रियों का नाम सेक्स रैकेट में आने के बाद छत्तीसगढ़ फिल्म एसोसिएशन की यहां एक बैठक हुई। इसमें शामिल निर्माता निर्देशकों ने कहा कि वे ऐसे कलाकारों को अपनी फिल्म में काम नहीं देंगे। गौरतलब है कि सेक्स रैकेट में शामिल छालीवुड की अभिनेत्रियों ने कई फिल्मों मंे काम किया है। आने वाली कई फिल्मों में भी इनके नाम हैं।
बैठक में उन्हें आगामी फिल्मों से अलग करने का फैसला लिया गया। एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश अग्रवाल ने कहा कि कुछ लोगों के कारण छालीवुड की छवि पर असर नहीं पड़ेगा। लेकिन अब सभी को सचेत रहने की जरूरत होगी। छालीवुड से जुड़े एक अन्य गुट ने खुलकर सामने आने से इनकार किया और कहा कि मामला इतना छोटा नहीं है। इस संबंध में जांच की जाए तो कई बड़े नाम सामने आ सकते हैं।

क्या तेरा क्या मेरा?

चिटर-पिटर दो दोस्त थे। दोनों ने घुड़दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का मन बनाया। प्रतियोगिता के लिए चिटर-पिटर ने दो घोड़े भी खरीद लिए, लेकिन उन्हें एक दिक्कत थी।

चिटर बड़ा परेशान होकर पिटर से बोला, ‘भाई हमें यह कैसे मालूम पड़ेगा कि कौन-सा घोड़ा तुम्हारा है और कौन सा मेरा?’
पिटर ने जवाब देते हुए कहा, ‘अरे, बस इतनी सी बात। तू परेशान मत हो, मैं अपने घोड़े की पूंछ काट देता हूं। बिना पूंछ वाला घोड़ा मेरा और पूंछ वाला तेरा।’
चिटर-पिटर की बातें एक शरारती लड़का सुन रहा था। उस लड़के ने रात को चुपके से चिटर के घोड़े की पूंछ भी काट दी।
दूसरे दिन जैसे ही दोनों दोस्त घुड़साल में गए, तो उनकी मुश्किलें और बढ़ गईं।
पिटर ने फिर चिटर को समझाते हुए कहा, ‘चिंता मत करो दोस्त, मैं अभी अपने घोड़े का कान काट देता हूं। बस इसके बाद कान वाला घोड़ा तुम्हारा और बिना कान वाल मेरा।’ अब उस शरारती लड़के ने फिर से दूसरे घोड़े का कान भी काट दिया। इससे दोनों दोस्तों की मुश्किलें और भी बढ़ गईं।
पिटर फिर चिटर को शांत कराते हुए बोला, ‘यार परेशान मत हो मैं अभी अपने घोड़े की टांगें काट देता हूं, बस इसके बाद बिना टांगों वाला घोड़ा मेरा और टांगों वाला तुम्हारा।’
उस शरारती लड़के ने दोनों दोस्तों की मुश्किलें दो से चार करने के लिए चुपके से दूसरे घोड़े की टांगें भी काट डालीं। घोड़े के अंगों के काटने का सिलसिला थमा नहीं और एक दिन दोनों घोड़े कटे पेड़ की तरह ज़मीन पर पड़े थे।
बहुत झल्लाकर पिटर चिटर से बोला, ‘बहुत हो गया यार। अब ऐसा कर, कि ये सफेद वाला घोड़ा तेरा है और काला वाला मेरा बेवकूफी की हद हो गई!!’
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गजराज बन गया सरजू...

सूरगढ़ के राजा गजानंद सिंह के राज्य में घोड़ों से भी ज्यादा हाथी थे। राजा वर्ष में एक बार हाथी मेला आयोजित करवाते थे। इस मेले में हाथियों के बीच तरह-तरह की प्रतियोगिताएं होती थीं। सर्वश्रेष्ठ रहने वाले हाथी को गजराज की उपाधि दी जाती थी। गजराज बनने का मतलब होता था, हाथी के लिए वर्षभर खाने का इंतज़ाम राजा की ओर से और दूसरा हाथी के महावत को ईनाम के तौर पर ढेर सारी नकद राशि।

इस बार मेले में सरजू नाम का एक हाथी काफी चर्चा में था। यह पहली बार ही इस मेले में आया था। इसके महावत बिरजू ने हाथी को ह्रष्ट-पुष्ट बनाने और प्रशिक्षित करने में सालभर मेहनत की थी। इसी का परिणाम था कि सरजू आखरी परीक्षा के लिए चुने गए इन हाथियों में शामिल हो गया था। सभी को उम्मीद थी कि इस बार बिरजू का सरजू ही गजराज बनेगा।
आखरी परीक्षा के समय सभी हाथी दौड़ के लिए कतार में खड़े थे। तोप चलने की आवाज़ के साथ ही हाथियों को दौड़ शुरू होनी थी।
इस परीक्षा के समय सूरगढ़ के राजा गजानंद सिंह स्वयं उपस्थित थे। राजा, रानी और राजकुमार एक ऊंचे मंच पर बैठे थे। उनसे थोड़ा नीचे बने अन्य मंच पर राज्य के सामंत, सेठ और अधिकारी बैठे थे। उनसे नीचे दौड़ने के स्थान के दोनों तरफ बल्लियां लगाकर जन साधारण के खड़े होने की जगह बनाई हुई थी। हाथियों की दौड़ देखने काफी संख्या में लोग आए थे। सभी लोग गजराज को देखने के लिए उत्सुक थे। महावत भी खूब जोश में थे। इन दस हाथियों के महावतों में हर कोई यही सोच रहा था कि उसका हाथी ही गजराज बनेगा। पर सभी आशंकित भी थे और जीत के लिए मन ही मन प्रार्थना भी कर रहे थे। बिरजू सोच रहा था, ‘उसका सरजू गजराज बन गया तो उसे खूब पैसा मिलेगा। उनसे अपने टूटे घर की जगह नया घर बना लूंगा और अपने लिए एक खेत भी खरीद लूंगा।’
इतने में तोप से गोला छूटा, महावतों ने इशारा किया और हाथी दौड़ने लगे। लोगों ने भी आवाज़ें करके और तालियां बजाकर हाथी दौड़ का स्वागत किया। देखते ही देखते सरजू सबसे आगे निकल गया। लोग ‘सरजू-सरजू’ चिल्लाने लगे। सरजू आम लोगों की भीड़ के पास से गुज़र रहा था कि अचानक उसके कदम रुक गए। वह भीड़ में खड़े एक आदमी को ध्यान से देख रहा था। वह उसका महावत बिरजू नहीं था। फिर भी वह दौड़ को छोड़कर उसकी तरफ बढ़ा। इतने में दूसरे हाथी आगे निकल गए। यह देखकर लोग हैरान रह गए। ‘अरे! यह क्या हुआ?’ के अलावा उनके मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था। सरजू की बदलती चाल को देखकर बिरजू भी कुछ समझ नहीं पा रहा था।
सरजू इस सबसे बेखबर बल्लियों से परे खड़े गांव के लोगों की ओर बढ़ा। हालांकि दौड़ के मैदान और उनके बीच लकड़ी की मज़बूत बल्लियां थीं, फिर भी कुछ लोग डर कर पीछे हट गए। सरजू सीधा वहीं खड़े एक आदमी के पास गया। बल्ली के ऊपर से उसने अपने सूंड को बढ़ाकर उस आदमी का सिर, कंधा और हाथ छूने लगा। ऐसा लगा, जैसे वह किसी बात के लिए उसे धन्यवाद दे रहा हो। उस आदमी ने भी अपने हाथ से सरजू की सूंड सहलाई और थपकी दी।
इसके बाद सरजू दौड़ने के स्थान पर आकर फिर दौड़ने लगा। तब तक दूसरे हाथी काफी आगे निकल चुके थे। बहुत पीछे दौड़ते सरजू पर अब लोग हंस रहे थे। यह नज़ारा राजा ने भी देखा। वे हैरान थे कि सबसे आगे दौड़ने वाला सरजू अचानक रुक क्यों गया था? वह भीड़ में खड़े उस आदमी के पास क्यों गया?
दौड़ खत्म हो चुकी थी। सभी लोग गजराज की घोषणा की प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन राजा ने गजराज की उपाधि की घोषणा न करके अपने सैनिकों को भेजकर भीड़ में खड़े उस आदमी को बुलाया। राजा ने पूछा, ‘तुम कौन हो और यह हाथी रुक कर तुम्हारे पास क्यों आया?’
उसने कहा, ‘महाराज, मैं एक वैद्य हूं। गांव में रहता हूं। गरीबों और जानवरों का इलाज करता हूं। मैं ना तो सरजू का मालिक हूं और न ही महावत। मैं खुद ही नहीं समझा पाया था कि यह हाथी मेरे पास क्यों आया? लेकिन कई साल पहले जड़ी-बूटियों की खोजने के लिए मैं एक जंगल में गया था। वहां एक गड्ढे में हाथी का एक बच्चा घायल पड़ा था। मैंने गड्ढे में उतरकर उसके घावों पर दवा लगाई थी। दो-तीन दिन तक उसके घावों पर दवा लगाने से वह ठीक होने लगा था। उसके बाद मैं चला आया। हो ना हो वह बच्चा ही यह हाथी है। मैंने तो इसे नहीं पहचाना, लगता है, इसने मुझे पहचान लिया है और मुझे धन्यवाद देने आया था। मुझे खुशी के साथ अफसोस भी हो रहा है। मेरे कारण यह दौड़ से बाहर हो गया और गजराज कहलाने से रह गया।’
राजा ने पूछा, ‘तुम वैद्य हो तो वहां जनसाधारण में क्यों खड़े थे? राज्य के दूसरे वैद्य तो मंच पर सामंतों और अधिकारियों के साथ बैठे हैं।
महाराज, ‘मैं गांव के गरीबों का और जानवरों का इलाज करता हूं। अमीरों का इलाज करने वाले वैद्य हमें अपने से छोटा समझते हैं। हम उनके बराबर कैसे बैठ सकते हैं?’
यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। राजा ने कहा, ‘कम पैसे लेकर गांववासियों और मूक पशुओं का इलाज करने वाला छोटा कैसे हुआ? यदि हमारी राजधानी के वैद्यों की यह सोच है, तो यह बहुत गलत है। आज के बाद तुम अपने को छोटा मत समझना। राजा का इलाज करने वाला राजवैद्य कहलाता है और गांव में चिकित्सा करने वाला वैद्य, वैद्यराज कहलाएगा। जाओ, तुम उस मंच पर बैठ जाओ।’
राजा की यह घोषणा सुनकर राजवैद्य और नगर के दूसरे वैद्यों को अपनी सोच पर शर्म महसूस हुई। वे आगे आकर उस वैद्य को अपने साथ मंच पर लेकर गए। राजा ने हाथियों की तरफ देखा और बोले, ‘दौड़ में प्रथम आने वाला हाथी ही गजराज कहलाने का अधिकारी है। पर सरजू को भी हारा हुआ कैसे कहा जाए? भला करने वाले का अहसान मानना तो मानवीय गुण है। मनुष्य में यह गुण कम होता जा रहा है। पर पशु कहलाने वाले हाथी में अभी यह गुण ज़िंदा है। सरजू ने अहसान प्रकट करने के लिए जीत-हार की परवाह भी नहीं की। इसलिए में इस बार दो हाथियों को गजराज की उपाधि देता हूं। एक सरजू को और एक प्रथम आने वाले हाथी को। इसके बाद लोगों ने इतने ज़ोर से तालियां बजाईं और नारे लगाए कि राजा के आगे की बात किसी को सुनाई ही नहीं दी।
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जब नागकन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई....

अर्जुन वनवास को चल दिए। वे एक दिन गंगा नदी में स्नान करने पहुंचे। गंगा नदी वे स्नान और तर्पण करके हवन करने के लिए बाहर निकलने ही वाले थे कि नागकन्या उलूपी उन पर मोहित हो गई।

उसने कामासक्त होकर अर्जुन को जल के भीतर खींच लिया और अपने भवन में ले गई। अर्जुन ने देखा कि वहां यज्ञ की अग्रि प्रज्वलित हो रही है। उसने उसमें हवन किया और अग्रिदेव को प्रसन्न करके नागकन्या उलूपी से पूछा सुन्दरि तुम कौन हो? तुम ऐसा साहस करके मुझे किस देश लेकर आई होउलूपी ने कहा मैं ऐरावत वंश के नाग की कन्या उलूपी हूं। मैं आपसे प्रेम करती हूं। आपके अतिरिक्त मेरी कोई गति नहीं है। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण किजिए। मुझे स्वीकार किजिए। अर्जुन ने कहा आप लोगों ने द्रोपदी के लिए जो मर्यादा बनाई है। उसे मैं जानती हूं। लेकिन इस लोक में उसका लोप नहीं होता। आप मुझे स्वीकार किजिए वरना मैं मर जाऊंगी। अर्जुन ने धर्म समझकर उलूपी की इच्छा पूर्ण की रातभर वही रहे। दूसरे दिन वहां से चले। चलते समय उलूपी ने उन्हे वर दिया कि तुम्हे किसी भी जलचर प्राणी से कभी कोई भय नहीं रहेगा।

जब अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को रथ पर बैठा लिया?

वहां से लौटकर अर्जुन फिर एक बार मणिपुर गए। चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र हुआ उसका नाम बभ्रुवाहन रखा गया। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा कि आप इस लड़के को ले लिजिए। जिससे इसकी शर्त पूरी हो जाए। उन्होंने चित्रांगदा को भी बभ्रुवाहन के पालन-पोषण के लिए वहां रहने की आवश्कता बताई। उसे राजसुय यज्ञ में अपने पिता के साथ इन्द्रप्रस्थ आने के लिए कहकर तीर्थयात्रा पर आगे चल पड़े। वहां उनकी मुलाकात श्री कृष्ण से हुई। वे कुछ समय तक रेवतक पर्वत पर ही रहने लगे। एक बार यदुवंशी बालक सजधजकर टहल रहे थे। गाजे बाजे नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन सब साथ-साथ में घुम रहे थे।

वहीं कृष्ण की बहिन सभुद्रा भी थी। उसके रूप पर मोहित होकर अर्जुन एकटक उसकी ओर देखने लगे।भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन सुभद्रा पर मोहित हो गए हैं। उन्होंने कहा कि वैसे तो सुभद्रा का विवाह स्वयंवर द्वारा ही होगा लेकिन यह जरू री नहीं है कि वह तुम्हे ही चुनें। इसलिए तुम क्षत्रिय हो तुम चाहो तो उसे हरण करके भी उससे विवाह कर सकते हो। क्षत्रियों में बलपूर्वक हरकर ब्याह करने की भी नीति है। तुम्हारे लिए यह मार्ग प्रशस्त है। भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन ने यह सलाह करके अनुमति के लिए युधिष्ठिर के पास दूत भेजा। युधिष्ठिर ने हर्ष के साथ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। दूत के लौटने के बाद श्री कृष्ण ने अर्जुन वैसी सलाह दे दी। एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करके पर्वत की परिक्रमा की। जब सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई। तब अवसर पाकर अर्जुन ने उसे बलपूर्वक रथ में बिठा लिया। सैनिक यह दृश्य देखकर चिल्लाने लगे। बात दरबार तक पहुंची तब सभी यदुवंशीयों में अर्जन का विरोध होने लगा। तब बलराम ने बोला की आप लोग बिना कृष्ण की आज्ञा के उनका विरोध कैसा कर सकते हैं। जब यह बात कृष्ण के सामने रखी गई तो उन्होने क हा कि अर्जुन जैसा वीर योद्धा जिसे शिव के अलावा कोई नहीं हरा सकता वह अगर मेरी बहन का पति बने तो इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या हो सकती है।

दो-दो शादियां होती हैं उनकी,...

हिंदू धर्म में विवाह को सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह के बाद पति-पत्नी दोनों का जीवन बदलता है साथ ही इनके परिवारों का भी। अधिकांश शादियां तो सफल हो जाती हैं लेकिन कुछ शादियां किसी कारण से असफल होती है। ऐसे अधिकांश लोग फिर दूसरी शादी करते हैं। ज्योतिष के अनुसार मालुम किया जा सकता है यदि किसी व्यक्ति के जीवन में दो शादी के योग होते हैं-
ज्योतिष शास्त्र में एक योग बताया गया है पुनर्विवाह योग यानि फिर से विवाह। कई व्यक्ति ऐसे होते है जिनका पहला विवाह सफल नहीं हो पाता और उन्हें पुन: विवाह करना पड़ता है। कुछ लोग दो से अधिक शादियां भी करते हैं। जन्म कुंडली का सप्तम भाव या स्थान जीवन साथी से संबंधित होता है। स्त्री हो या पुरुष दोनों का विवाह संबंधी विचार इसी स्थान से होता है।
- यदि सप्तम स्थान में गुरु स्थित हो तो शादी में देरी होती है। गुरु की उपस्थिति विवाह को 30 वर्ष की आयु तक खिंचती है। यदि कोई व्यक्ति जाने-अनजाने उसके पहले ही विवाह कर ले तो उसका तलाक होना निश्चित होता है। फिर वह दोबारा विवाह करके ही सुखी हो पाता है।
- यदि सूर्य सप्तम भाव में हो तो तलाक होकर पुनर्विवाह होता है। सूर्य सप्तम होने पर जीवन साथी के साथ सदा अनबन बनी रहती है।
- शुक्र के सप्तम होने पर व्यक्ति के कई अनैतिक संबंध बनते हैं, जिनकी वजह से तलाक होता है और फिर दूसरा विवाह होता है।
- यदि मंगल सप्तम स्थान में है तो यह बहुत ही हानिकारक होता है। यदि यह क्रूर होकर स्थित हो तो जीवन साथी की मृत्यु होने की संभावना होती है या दोनों हमेशा तनाव में ही रहते हैं। ऐसे लोगों का विवाह तो क्या प्रेम संबंध भी नहीं टिक पाता तथा यह साथी के लिए परेशान होते हैं। मंगली जातकों का विवाह देर से हो उतना अच्छा होता है। मंगली का विवाह मंगली से करना ही श्रेष्ठ होता है।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

क्या कहा कुबेर की प्रेमिका ने अर्जुन से?

वीरवर अर्जुन वहां से चलकर समुद्र के किनारे-किनारे अगस्त्यतीर्थ, सौभाग्यतीर्थ, पौलोमतीर्थ, कारन्धमतीर्थ, और भारद्वाज तीर्थ में गये। उन तीर्थो के पास ऋषि-मुनि गंगा में स्नान नहीं करते थे। अर्जुन के पूछने पर मालुम हुआ कि गंगा में बड़े-बड़े ग्राह रहते हैं, जो ऋषियों को निगल जाते हैं। तपस्वीयों के रोकने पर भी अर्जुन ने सौभाग्यतीर्थ में जाकर स्नान किया। जब वहां मगर ने अर्जुन का पैर पकड़ा, तब वे उसे उठाकर ऊपर ले आये । लेकिन उस समय यह बड़ी विचित्र घटना घटी कि वह मगर तत्क्षण एक सुन्दरी अप्सरा के रूप में परिणित हो गए। अर्जुन के पुछने पर अप्सरा ने बतालाया कि मैं कुबेर की प्रेयसीवर्गा नाम की अप्सरा हूं। एक बार मैं अपनी चार सहेलियों के साथ कुबेर जी के पास जा रही थी। रास्ते में एक तपस्वी के तप में हम लोगों ने विघ्र डालना चाहा। तपस्वी के मन में काम का भाव उत्पन्न नहीं हुआ लेकिन क्रोधवश उन्होने शाप दे दिया कि तुम पांचों मगर होकर सौ वर्ष तक पानी रहोगे। नारद से यह जानकर कि पाण्डव अर्जुन यहां आकर थोड़े ही दिनों में हमारा उद्धार कर देंगे। हम लोगों इन तीर्थो में मगर होकर रह रही हैं। आप हमारा उद्धार कर दिजिए। उलूपी के वरदान के कारण अर्जुन को जलचरों से कोई भय नहीं उन्होंने सब अप्सराओं का उद्धार भी कर दिया और उनके प्रयत्न से अधिक वहां के सब तीर्थ बाधाहीन भी हो गये।

क्यों और कब नहीं काटना चाहिए नाखून?

आपने अक्सर हमारे बढ़े- बूजुर्गो को कहते हुए सुना होगा कि गुरुवार को नाखून नहीं काटने चाहिए। अक्सर इस तरह की परंपराओं को लोग अंधविश्वास मानकर उनका पालन नहीं करते हैं। लेकिन हमारे बढ़े-बूजुर्गो द्वारा बनाई गई सारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। अनुभव, उदाहरण, आंकड़े और परिणामों के आधार पर ही कोई नियम या परंपरा परे समाज में स्थान और मान्यता प्राप्त करते हैं। बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल और नाखून काटने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं।
आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन नाखून भूल कर भी नहीं काटना चाहिये। पर आखिर ऐसा क्यों?जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करते तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है। वह यह कि शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन ग्रह-नक्षत्रों की दशाएं तथा अंनत ब्रह्माण्ड में से आने वाली अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म किरणें मानवीय मस्तिष्क पर अत्यंत संवेदनशील प्रभाव डालती हैं। यह स्पष्ट है कि इंसानी शरीर में उंगलियों के अग्र भाग तथा सिर अत्यंत संवेदनशील होते हैं। कठोर नाखूनों और बालों से इनकी सुरक्षा होती है। इसीलिये ऐसे प्रतिकूल समय में इनका काटना शास्त्रों में वर्जित, निंदनीय और अधार्मिक कार्य माना गया है।
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क्यों ना खाएं किसी का झूठा?

खाना या भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है। हम सभी दिन में कम से कम दो बार भोजन या नाश्ता जरूर करते हैं। अधिकांश लोग ऑफिस में या कॉलेज में अपने मित्रों के साथ भोजन करते हैं। एक साथ बैठकर भोजन करने को बहुत अच्छा माना गया है क्योंकि इससे प्रेम बढ़ता है।वहीं इस संबंध में आपने हमेशा अपने बढ़े- बूजुर्गो को यह कहते भी सुना होगा कि हमें किसी का झूठा नहीं खाना चाहिए।
दरअसल इसका कारण यह है कि हर व्यक्ति का भोजन करने का तरीका अलग होता है। कुछ लोग भोजन करने से पहले हाथ नहीं धोते हैं जिसके कारण उनका झूठा खाने वाले को भी संक्रमण हो सकता है। यदि कोई बीमार हो या उसे किसी तरह का संक्रमण हो तो उसका झूठा खाने से आप भी उस संक्रमण से प्रभावित हो सकते हैं। साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि आप जिस व्यक्ति का झूठा खाते हैं उसके विचार नकारात्मक हैं तो वे विचार आपकी सोच को भी प्रभावित करते हैं।