शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

इसलिए अष्टावक्र का शरीर टेड़ा हो गया...

उशीनर तीर्थ के बाद मुनि लोमेश ने कहा उद्दालक के पुत्र वेतकेतु इस पृथ्वी में मंत्रशास्त्र में पारंगत समझे जाते हैं। ये जो यह फल-फूलों से सम्पन्न आश्रम उन्ही का है। आप इसके दर्शन कीजिए। इस आश्रम में महर्षि वेतकेतु को साक्षात सरस्वती देवी के दर्शन हुए थे। उद्दालक मुनि का कहोड नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य था। उसने अपने गुरू देव की बहुत सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने बहुत जल्द सब वेद पढ़ा दिए। अपनी कन्या सुजाता का उसके साथ विवाह कर दिया। कुछ समय बीतने के बाद सुजाता गर्भवती हुई। वह गर्भ इंद्र के समान तेजस्वी था। एक दिन कहोड वेदपाठ कर रहे थे। उस समय वह बोला पिताजी आप रातभर वेद पाठ करते हैं लेकिन ठीक-ठाक नहीं होता।
शिष्यों के बीच में ही इस प्रकार का आक्षेप करने से पिता को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसे शाप दिया कि तू पेट से ही टेढ़ी-टेढ़ी बातें करता है। इसीलिए तू आठ जगह से टेढ़ा पैदा होगा। जब अष्टावक्र पेट में बढऩे लगे तो सुजाता को बहुत दुख हुआ। उसन एकान्त में अपने धनहीन पति को धन लाने की प्रार्थना की। तब अष्टावक्र से इसके विषय में कुछ मत कहना इसी कारण अष्टावक्र को पैदा होने के बाद कुछ भी पता न चला।
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भागवत ३२४

यह बात सिर्फ बुद्धिमान लोग ही समझते हैं....
ब्रम्ह सत्य है, ब्रम्ह आनन्द प्रदायक है और वह मोहक श्रेष्ठतम सुन्दर है। इसीलिए उसे सत्यम, शिवम् एवं सुन्दरम् कहा जाता है।
भगवत् गीता में-''परम ब्रम्ह अक्षर है, उसका स्वभाव अध्यात्म कहलाता है-भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला भूत-भाव और सृष्टि एवं संहार कर्म है।
और यही ब्रम्ह ''तपसा चीयते ब्रम्ह, तस्य ज्ञान मयं तप: मुण्डकोपनिशद 1, 1, 4-9 अर्थात् ब्रम्ह तप द्वारा निर्गुण से सगुण हो गया। चीयते का अर्थ फलना-फूलना है। यह अध्यात्म भाव है। यह आत्मज्ञान प्राधान है।
आइये जानते हैं भागवत में भगवान को उठाने के लिए श्रुतियां क्या कहती हैं। श्रुतियां कहती हैं-भगवान! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फंसाने वाली माया का नाश कर दीजिए। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियां हैं उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। इसलिए आपके बिना यह माया मिट नहीं सकती।
जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी बाप बचे रहते हैं। जैसे घट, मिट्टी का प्याला, कसोरा आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है।मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे-ईंट, पत्थर या काठ पर, होगा वह पृथ्वी पर ही, क्योंकि वे सब पृथ्वी स्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।
लोग सत्व, रज, तम-इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस माया नदी के स्वामी, उसके नचाने वाले हैं।भगवन प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें, यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना।
भगवन आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बांध लेते हैं।
इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का बन्धन जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं, जगत् के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।श्रुतियां कह रही हैं-भगवन सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं।
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पूजा के समय मंत्र बोलना जरूरी क्यों होता है?

हिन्दू धर्म में पूजा करने को बहुत महत्व दिया जाता है। छोटे या बड़े किसी भी तरह के उत्सव या आयोजन के प्रारंभ से पहले पूजा या अनुष्ठान जरूर किया जाता है। पूजा या अनुष्ठान चाहे किसी भी देवता का हो बिना मंत्र जप के पूरा नहीं होता है। लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि पूजन के समय मंत्र जप क्यों किया जाता है? दरअसल मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है।
मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है। जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।

बड़ा बनने के लिए क्या जरूरी है?

अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी। एक बार वह उद्दालक की गोद में बैठा था। उसी समय श्रुतकेतु आये और उन्होंने पिता की गोद से अष्टावक्र को खींचा और कहा यह गोदी तेरे पिता की नहीं हैं। श्वेतकेतु की यह बात सुनकर अष्टावक्र को बहुत दुख हुआ।
उसने घर जाकर अपनी माता से पूछा मां मेरे पिता कहा गए हैं। इससे सुजाता को बहुत भय हुआ और उसने शाप के डर से सब बात बता दी। यह सब रहस्य सुनकर उन्होंने श्वेतकेतु से मिलकर यह सलाह की कि हम दोनों राजा जनक के यज्ञ में चलें। मैंने सुना है वह यज्ञ बहुत विचित्र है। वहां हम ब्राह्मणों के बड़े-बड़े शास्त्रार्थ सुनेंगे। ऐसी सलाह करके वे दोनों मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धि सम्पन्न यज्ञ के लिए चल दिए। यज्ञशाला के दरवाजे पर पहुंचकर वे भीतर जाने लगे तो द्वारपाल ने कहा आप लोगों को प्रणाम है। राजा के आदेशनुसार हमारा निवेदन है उस पर ध्यान दें। इस यज्ञशला में बालकों को जाने की आज्ञा नहीं है, केवल वृद्ध और विद्वान ब्राह्मण ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं।
तब अष्टावक्र ने द्वारपाल मनुष्य अधिक सालों की उम्र होने से, बाल पक जाने से या धन से बड़ा नहीं माना जाता। ब्राह्मण तो वही बड़ा है जो वेदों का वक्ता हो। ऋषियों ने ऐसा नियम बताया है। चाहो तो किसी भी विद्वान के साथ मुझसे शास्त्रार्थ करवा लो मैं उसे हराकर दिखाऊंगा। द्वारपाल बोला ठीक है मैं तुम्हे ले चलता हूं पर वहां जाकर तुम्हे विद्वान जैसा काम करके दिखाना होगा।
ऐसा कहकर द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। तब अष्टावक्र ने कहा राजन मैंने सुना है आपके यहां एक बंदी है। जो ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर देता है। वह बंदी कहा है मैं उससे मिलूंगा।तब राजा ने कहा आज तक कई लोग मेरे पास ये विचार लेकर आए पर उसे कोई नहीं हरा सका। उसके बाद बंदी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ करवाया गया जिसमे अष्टावक्र विजय हुआ।

डंडे मारे बैल को...निशान पड़े संत की पीठ पर!

धर्म में एक बड़ी अच्छी बात कही गई है- 'आत्मवत सर्वभूतेषू' यानी कि सभी में चाहे वह पशु-पक्षी हो या मनुष्य हो उनमें अपना ही रूप देखना। अध्यात्म भी यही कहता है कि ऊपर से देखने पर पैड की डालियां भले ही अलग-अलग नज़र आती हों, लेकिन मूल रुप से यानी कि जड़ों से वे एक-दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी होती है। ठीक वैसे ही सृष्टि से सभी प्राणी आपस अभिन्न रूप में जुड़े होते हैं।
सभी का सभी के साथ कितना गहरा और अटूट रिश्ता है इस बात को एक उदाहरण के द्वारा और भी आसानी समझने के लिये आइये चलते हैं एक सुंदर कथा की ओर.....
प्रसिद्ध संत केवलराम एक बार बैलगाड़ी में बैठ कर किसी गांव कथा करने क लिये जा रहे थे। वे जिस गांव के लिये बैलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे उसकी दूरी काफी ज्यादा थी। पूरे 12 घंटों की यात्रा थी इसीलिये केवलराम जी के मन में समय का कुछ सदुपयोग करने का विचार आया। संत ने यात्रा के साथ-साथ गाड़ीवन यानी बैलगाड़ी चलाने वाले को 'श्रीकृष्ण चरित कथामृत' की कथा सुनाने लगे।
कथा इतनी रसभरी थी कि गाड़ीवान पूरी तरह से कथा में खो गया। अचानाक उसका ध्यान गया कि बैल बहुत धीमी गति से चलने लगे हैं। बैलों की धमी चाल को देखकर गाड़ीवान को गुस्सा आ गया और अपने स्वभाव के अनुसार ही उसने एक बैल की पीठ पर जोर-जोर से 2-4 डन्डे जड़ दिये। लेकिन इतने में ही एक अजीब घटना हुई। जैसे ही गाड़ीवान ने बैल की पीठ पर सोटे मारे गाड़ी मे बैठे हुए संत केवलरामजी अपनी जगह से अचानक गिर पड़े और कराहने लगे। अचानक हुई संत की इस हालत को देखकर गाड़ीवान आश्चर्य और घबराहट से भर गया। वह दौड़कर संत के पास पहुंचा तो यह देख कर उसकी आंखें फटी की फटी रह गई कि बैल को मारे गए डन्डों की चोट के निशान उन संत की पीठ पर भी बन गए हैं। गाड़ीवान का ध्यान गया कि संत केवलराम एकटक उस बैल को ही देखे जा रहे थे।
....सभी को अपना ही रूप मानने की ज्ञान भरी बातें तो गाड़ीवान ने कई बार सुन रखी थी लेकिन उसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखकर संत की अद्भुत करुणा और अपनेपन के आगे उसने बारम्बार प्रणाम किया और अपने कर्म के लिये बेहद दुखी होकर क्षमायाचना भी की।

अगर स्वर्ग चाहते हैं तो यह जरूर करें...

सभी चाहते हैं स्वर्ग मिल जाए या स्वर्ग जैसी स्थितियों का समावेश जिंदगी में हो जाए। दार्शनिकों ने कहा है हमारा होना ही स्वर्ग है। जिस ढंग का जीवन हम जीते हैं उसी ढंग से स्वर्ग और नरक अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं। एक संत हुए हैं सुंदरदासजी।
ये प्रसिद्ध संत दादूजी के शिष्य थे और खंडेलवाल वैश्य समाज में राजस्थान के दोसा में पैदा हुए थे। इन्होंने बड़ी अद्भुत पंक्तियां लिखी हैं। एक जगह इन्होंने लिखा है -

सुंदर सतगुरु आपनैं किया अनुग्रह आइ।
मोह-निसा में सोवते हमको लिया जगाई।।


सुंदरदासजी ने गुरु के महत्व पर बहुत सुंदर लिखा है। जो स्वर्ग की खोज में हों उन्हें जीवन में गुरु और संत का महत्व समझना चाहिए। जितनी देर हम संतों के साथ बैठेंगे समझ लीजिए स्वर्ग के निकट हैं या स्वर्ग में ही बैठे हैं। संत तीन बातें करते हैं और इसीलिए उनके तीन रूप माने गए हैं - पहला तो वे सूरज हैं, जो सोए हुए हैं उनको जगाते हैं।
दूसरा, वे पवन की भांति हैं, सोए हुए को हिलाने के लिए हवा की भूमिका में रहते हैं और यदि आदमी तब भी न उठे तो संत, पंछी की तरह होते हैं शोर करेंगे कि अब तो उठ जाओ। सूर्य, पवन और पंछी तीनों का अपना कोई स्थाई ठिकाना नहीं होता। जो लोग विस्मरण में पड़े हैं ये लोग उनके भीतर स्मरण कराते हैं। संत के सान्निध्य में समझ में आ जाता है कि स्वर्ग का अर्थ है- परिष्कृत, गुण-ग्राही, विधायक दृष्टिकोण, हर शुभ का स्वीकार। फकीर की फकीरी हमें यही समझाती है। जहां आप सहमत होना सीखें वहीं स्वर्ग घटा है।
इसलिए सुंदरदासजी की घोषणा है जो उनके नाम के अनुरूप ही है कि जीवन सुंदर तब है जब सबकुछ स्वीकार्य है और उसी के साथ शांति भी जीवन में उतर जाए। इसलिए स्वर्ग चाहते हों तो संतों का सान्निध्य बनाए रखिए।

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गुरुवार, 28 जुलाई 2011

अद्भुत त्रियोग:

30 जुलाई को होगा शिव, सूर्य और शनि का मिलन
30 जुलाई को शिवजी की भक्ति के सावन माह की अमावस्या है। इस वर्र्ष यह दिन एक अनूठा त्रियोग लेकर आया है। इस दिन शिव, सूर्य और शनि का मिलन होने जा रहा है।
कई वर्षों के बाद इस प्रकार का अनूठा त्रियोग 30 जुलाई को बन रहा है। इस वर्ष श्रावण में शनि अमावस्या आ रही है। इस संबंध में श्री श्री 1008 महामंडलेश्वर परमहंस दाती महाराज ने बताया कि शिवजी शनि देव के गुरु माने गए हैं और सूर्य शनि के पिता। सावन के माह में शनि अमावस्या आने का यही अर्थ है कि शिव, शनि का मिलन इस दिन होगा। इसके साथ ही इस दिन सूर्य और शनि का त्रिएकादश संबंध बन रहा है। अत: इस दिन शनि का अपने पिता और गुरु से मिलन के योग बन रहे हैं।
दाती महाराज के अनुसार 30 जुलाई 2011 प्रात:काल 2:07 मिनट पर भारत का वृषभ लग्न में शनि अमावस्या का प्रारंभ हो रही है। इस दिन शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या से त्रस्त व्यक्तियों को शिवजी की आराधना से फल की प्राप्ति होगी। इसके साथ धन, परिवार या अन्य क्षेत्रों से जुड़ी सभी समस्याओं का निराकरण अमावस्या पर विशेष पूजन-अर्चन से किया जा सकता है। www.bhaskar.com

बिना चावल रखे भगवान को दीपक नहीं लगाना चाहिए क्योंकि...

दीपक का पूजन में बहुत महत्व है। भगवान के समक्ष जब तक दीपक नहीं जलाया जाता है। हिन्दू पंरपराओं के अनुसार तब तक पूजन पूरा होना संभव ही नहीं है। इसीलिए पूजा शुरू होने से पहले दीपक जलाया जाता है। फिर पूजा के समापन के समय आरती की जाती है।
पूजा में दीपक के नीचे चावल रखे जाते हैं। चावल को शुद्धता का प्रतीक माना गया है।दीपक को पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। हिन्दू धर्म में दीपक को देव रूप माना जाता है। इसीलिए किसी भी तरह की पूजा शुरू करने से पहले दीपक का तिलक लगाकर पूजन किया जाता है। उसके बाद दीपक को आसन दिया जाता है यानी दीपक को स्थान दिया जाता है।
दीपक के नीचे चावल ना रखें जाने पर इसे अपशकुन माना जाता है। यदि दीपक के नीचे चावल नहीं हो तो दीपक अपूर्ण होता है। मान्यता है कि यदि दीपक को आसन देकर पूजा में ना रखा जाए तो भगवान भी पूजन में आसन ग्रहण नहीं करते हैं। साथ ही चावल को लक्ष्मीजी का प्रिय धान भी माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि पूजन के समय दीपक को चावल का आसन देने से घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि शुक्रवार के दिन लक्ष्मी मां के सामने चावल की ढेरी बनाकर उसके ऊपर घी का दीपक लगाने से धन लाभ होता है।

नववधु के लिए कौन से श्रंगार जरूरी माने गए हैं?

हिन्दू धर्म में नववधु के लिए कुछ श्रंगार अनिवार्य माना माने गए हैं।है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी इन सभी श्रंगारों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना गया है। इसीलिए सभी नववधु के लिए ये सोलह श्रंगार बहुत जरूरी और एक तरह का शुभ शकुन माने गए हैं।
बिन्दी - सुहागिन स्त्रियां कुमकुम या सिन्दुर से अपने ललाट पर लाल बिन्दी जरूर लगाती है और इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
सिन्दुर - सिन्दुर को स्त्रियों का सुहाग चिन्ह माना जाता है। विवाह के अवसर पर पति अपनी पत्नि की मांग में सिंन्दुर भर कर जीवन भर उसका साथ निभाने का वचन देता है।
काजल - काजल आँखों का श्रृंगार है। इससे आँखों की सुन्दरता तो बढ़ती ही है, काजल दुल्हन को लोगों की बुरी नजर से भी बचाता है।
मेंहन्दी - मेहन्दी के बिना दुल्हन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है। परिवार की सुहागिन स्त्रियां अपने हाथों और पैरों में मेहन्दी रचाती है। नववधू के हाथों में मेहन्दी जितनी गाढी़ रचती है, ऐसा माना जाता है कि उसका पति उतना ही ज्यादा प्यार करता है।
शादी का जोडा़ - शादी के समय दुल्हन को जरी के काम से सुसज्जित शादी का लाल जोड़ा पहनाया जाता है।
गजरा-दुल्हन के जूड़े में जब तक सुगंधित फूलों का गजरा न लगा हो तब तक उसका श्रृंगार कुछ फीका सा लगता है।
मांग टीका - मांग के बीचोंबीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिन्दुर के साथ मिलकर वधू की सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है। राजस्थान में "बोरला" नामक आभूषण मांग टीका का ही एक रुप है। ऐसी मान्यता है कि इसे सिर के ठीक बीचोंबीच इसलिए पहना जाता है कि वधू शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय लें।
नथ - विवाह के अवसर पर पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेने के बाद में देवी पार्वती के सम्मान में नववधू को नथ पहनाई जाती है।
कर्ण फूल - कान में जाने वाला यह आभूषण कई तरह की सुन्दर आकृतियों में होता है, जिसे चेन के सहारे जुड़े में बांधा जाता है।

हार - गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनबध्दता का प्रतीक माना जाता है। वधू के गले में वर व्दारा मंगलसूत्र (काले रंग की बारीक मोतियों का हार जो सोने की चेन में गुंथा होता है) पहनाने की रस्म की बड़ी अहमियत होती है। इसी से उसके विवाहित होने का संकेत मिलता है।
बाजूबन्द - कड़े के समान आकृति वाला यह आभूषण सोने या चान्दी का होता है। यह बांहो में पूरी तरह कसा रहता है, इसी कारण इसे बाजूबन्द कहा जाता है।
कंगण और चूडिय़ाँ - हिन्दू परिवारों में सदियों से यह परम्परा चली आ रही है कि सास अपनी बडी़ बहू को मुंह दिखाई रस्म में सुखी और सौभाग्यवती बने रहने के आशीर्वाद के साथ वही कंगण देती है, जो पहली बार ससुराल आने पर उसकी सास ने दिए थे। पारम्परिक रूप से ऐसा माना जाता है कि सुहागिन स्त्रियों की कलाइयां चूडिय़ों से भरी रहनी चाहिए।
अंगूठी - शादी के पहले सगाई की रस्म में वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को अंगूठी पहनाने की परम्परा बहुत पूरानी है। अंगूठी को सदियों से पति-पत्नी के आपसी प्यार और विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा है।
कमरबन्द - कमरबन्द कमर में पहना जाने वाला आभूषण है, जिसे स्त्रियां विवाह के बाद पहनती है। इससे उनकी छरहरी काया और भी आकर्षक दिखाई देती है। कमरबन्द इस बात का प्रतीक कि नववधू अब अपने नए घर की स्वामिनी है। कमरबन्द में प्राय: औरतें चाबियों का गुच्छा लटका कर रखती है।
बिछुआ - पैरें के अंगूठे में रिंग की तरह पहने जाने वाले इस आभूषण को अरसी या अंगूठा कहा जाता है। पारम्परिक रूप से पहने जाने वाले इस आभूषण के अलावा स्त्रियां कनिष्का को छोडकर तीनों अंगूलियों में बिछुआ पहनती है।
पायल- पैरों में पहने जाने वाले इस आभूषण के घुंघरूओं की सुमधुर ध्वनि से घर के हर सदस्य को नववधू की आहट का संकेत मिलता है।

ऐसा सोचना व बोलना भी भारी पाप है

पाप-पुण्य के कई बातें कही जाती है। कुछ लोग जिसे पाप मानते हैं, दूसरे उसे ही उचित या सही ठहरा देते हैं। जो बात किसी के लिये उसका कर्तव्य और धर्म है वह सिकी के लिये घोर पाप या नीच कृत्य हो सकता है।
सरल और थोड़े से शब्दों में यदि पाप की परिभाषा देना हो तो कहा जा सकता है कि- अपने स्वार्थ यानी मतलब के लिये किसी को धोखा देना, उसका हक हड़पना, गुमराह करना और उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाना ही दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर्म है।
आइये चलते हैं कि एक बेहद सुन्दर कथा की ओर जो पाप के एक नए ही रूप से आपका परिचय कराती है....
स्वामी विवेकानंद अपने अमेरिका प्रवास से विदाई ले रहे थे। उनके भाषणों ने पूरे अमेरिका में धूम मचा रखी थी। सभागार सुनने वालों से खचाखच भरे होते थे। उनके व्याख्यानों में बम छूटते थे। लोगों के अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक धारणाओं को स्वामी जी अपने अचूक तर्कों और वैज्ञानिक विश्लेषणों से तहस-नहस कर देते थे। आज इस बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि ईसाइयों के देश में यह अकेला हिन्दू संन्यासी कितने साहस और पौरुष के साथ भारतीय अध्यात्म की पताका फहरा रहा था।
ईसाई श्रोताओं के बीच हमारा यह योद्धा संन्यासी जोर से उद्घोष करता है-'' पश्चाताप मत करो( कन्फेशन), पश्चाताप मत करो.....यदि आवश्यक हो तो उसे थूक हो, परंतु आगे बढ़ो! बढ़ते चलो !! पश्चाताप के द्वारा अपने को बंधनों में मत डालो। अपने पवित्र, चिरमुक्त तथा परमात्मा के साकार रूप आत्मा को जानकर पाप के बोझ जैसा कुछ जो भी, उसे फेंक डालो। किसी को भी पापी कहने वाला खुद ईश्वर की निंदा करता है। तुम सभी सम्मोहित हो, इससे बाहर निकलो। याद रखो कि तुम सभी ईश्वर की दिव्य संतानें हो, अपनी महानता और दिव्यता को सदैव याद रखो। और उस दिव्यता के अनुरूप ही तुम्हारा जीवन होना चाहिये।''
स्वामी विवेकानंद के इन महान तेजस्वी विचारों का ही कमाल था कि उनके आध्यात्मिक विचार तेज गति से सारे संसार में फेल गए।

भागवत ३२३

ये दो बातें मुश्किलों से बचा सकती हैं...
दो चीजों को भूलमत जो चाहे कल्याण। अयंभावी मृत्यु इक और दूजे श्री भगवान।
इन दो की स्मृति साधक को अनेक दुविधाओं, कदाचरणों, ममता जनित क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बचा सकती है। इससे ज्ञानोदय होने में सहायता मिलती है। महात्मा या सद्गुरु शक्तिपात करके विराट पुरुष के दर्शन से मिलने वाले आनन्द का अनुभव तब ही करा सकते हैं जब निष्काम कर्म द्वारा चित्त शुद्ध कर लिया गया हो, निष्ठा को अपने में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो अपने अन्तर को कपट रहित निर्मल कर लिया हो और सब प्राणी जिसमें आश्रित हो उस परमात्मा को जानो। अन्य सबकुछ तुच्छ समझकर छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।
परमात्मा सत्य है। उसे सत्य निष्ठ ही जान सकता है, अन्य नहीं। सत्य का आचरण कल्याणकारी होता है। सत्य की प्रतिष्ठा से क्रिया सफल हो जाती है। सत्य से ही ब्रम्ह का अनुभव किया जा सकता है। इससे चित्त दर्पण स्वच्छ, निर्मल होता है फिर वह प्रतिबिम्ब रूप में स्पष्टत: भासित होता है। यह उसका दर्शन है। वस्तुत: वह मन, बुद्धि से परे तथा इन्द्रियातीत है। अनुभवगम्य ब्रम्ह बखानने का विषय नहीं है। फिर यह अनुभव ध्यान में हो या प्रतीक-पूजन में।
नियमित पूजन-भजन और ध्यान साधन करने वाला साधक चिन्ता, भय, विषाद, शोक आदि से सर्वथा मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके सान्निध्य में अन्य भी शान्ति रूपी सुगन्ध का अनुभव कर लेते हैं।
यह पूर्ण या आंशिक ब्रम्हानुभूति का प्रभाव कहा जा सकता है। वैसे पूर्ण ब्रम्हानुभूति अत्यन्त दुष्कर है लेकिन आंशिक प्राप्ति भी बिना सत्याचरण के सम्भव नहीं। सत्याचरण इसलिए आवश्यक है कि ब्रम्ह सत्य है। उस परम सत्य को जगत-सत्य में खोजने के लिए तीर्थाटन, सत्संग, महात्माओं के दर्शन, प्रतीक दर्शन आदि किए जाते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक क्षेत्र की रचना परम सत्य के द्वारा ही की गई है, इसलिए उसे झूठा कैसे कहें, हालांकि दार्शनिक शंकर चिन्तन में ब्रम्ह सत्य जगत मिध्या स्वीकारा गया है। उसको चुनौती नहीं दी जा सकती है। नित्य-अनित्य व अक्षर-क्षर का भेद तो करना ही होगा। ब्रम्ह अक्षर अनन्त और तेजरूप चिन्मय है, जबकि जगत और जगत का सम्पूर्ण व्यवहार और स्वरूप अन्तवान है। अनन्त और अन्त में मूलभूत अन्तर तो है ही।
दूसरे ब्रम्हानुभूति चिर आनन्द का विषय हैं। जगतानुभूति चाहे प्रारम्भ में मोहवशात ब्राम्ह और क्षणिक आनन्द दे दे किन्तु वह अल्पकाल या कालान्तर में दु:खदायी होती है। पुत्र, विवाह या व्यवसाय सुख दे किन्तु विछोह महा कष्टप्रद होता है। भगवतीय विछोह या तो होता नहीं है और यदि प्रारब्धवशात् हो गया तो भी आनन्दानुभूति उसी प्रकार होती है जैसी कि महारासलीला के मध्य गोपियों को हुई थी।
तीसरे महारास लीला उस ब्रम्ह की अत्यन्त सुन्दरतम प्रेम-प्रदर्शन की लीला कही जा सकती है, जिससे प्रेम किया जाता है। उसमें सुन्दरतम देखने की दृष्टि हमेशा रहती है। वह सुन्दर दिखाई भी देता है। ब्रम्ह ने सुन्दर सुष्टि का निर्माण किया, उससे सुन्दर कोई हो नहीं सकता, क्योंकि सुन्दर ही सुन्दर का निर्माण करता है।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

जब नहीं होंगी लड़कियां

यह कहानी चीन के एक गांव में रहने वाली झांग मेई की है। 37 साल की झांग मेई देहाती औरत है और उस समाज में औरत की हालत का जीता-जागता बयान है जिसमें आदमियों की तुलना में औरतों की संख्या बहुत कम हैं। हमारे देश से भी कम। दुबली-पतली झांग मेई को तिब्बत के पास के एक सीमांत पहाड़ी गांव से बीस साल पहले औरतों की खरीद-फरोख्त करने वाले एक शख्स ने यहां लाकर पैसों के बदले ब्याह दिया था। तब वह 17 बरस की थी और उसे नहीं पता था कि कहां ले जाया जा रहा है। आखिर उसका अपहरण नहीं किया गया था। उसे उसके माता-पिता ने पैसों के बदले बेच दिया था।
लंबे सफर के दौरान झांग मेई ने पहली बार शहर और बड़े आधुनिक बाजार देखे थे। यहीं एक बाजार में किसी ने उसकी फोटो खींची थी जो आज भी उसने संभालकर रखी है। इसमें उसके कमर तक लटकते लंबे बाल देखते ही बनते हैं। लेकिन इस गांव में पैसों के बदले ब्याह दी गई झांग मेई ने आते ही वे लंबे घने बाल कटवा दिए। जिस शख्स से उसकी शादी कर दी गई थी वह हालांकि सज्जन था, लेकिन उम्र में पंद्रह साल बड़ा था। वह कुरूप और गांव का सबसे गरीब आदमी भी था। झांग मेई को पहले ही दिन बता दिया गया कि गुजारे के लिए उसें हाड़ तोड़ मेहनत करनी होगी और छुट्टी एक दिन की भी नहीं मिलेगी। अपने पैतृक गांव जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। आज हालत यह है कि वह घर से भेजी गई तस्वीरों में अपनी बहन के बच्चों को बड़ा होते हुए देखती है।
सबसे दुखद बात यह कि झांग मेई जिस दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास का शिकार हुई, वह खुद उसे ही दोहराने को विवश है। शादी होते ही उस पर दबाव था कि वह एक बेटे को जन्म दे। बेटा हुआ लेकिन दो बेटियों के बाद। लेकिन बच्चे जैसे-जैसे बड़े हुए पति ने कहा कि वह उनका खर्चा नहीं उठा सकता। लिहाजा दोनों लड़कियों को परवरिश के लिए उसने झांग मेई के माता-पिता के घर भिजवा दिया। जो माता-पिता झांग मेई का खर्च नहीं उठा सके और उसे पैसों के बदले सुदूर अनजाने गांव में ब्याहने को मजबूर हो गए, वे एक पीढ़ी बाद उसकी बेटियों के साथ क्या करेंगे? जाहिर है, झांग मेई की कहानी उनकी बेटियों के साथ भी दोहराई जाएगी।
यह करुण कहानी लिखी है चीन में विज्ञान पत्रकारिता कर रही मारा व्हिस्टेंडाल ने अपनी नई किताब में जिसका शीर्षक है अननेचुरल सेलेक्शन : चूजिंग बॉयेज ओवर गल्र्स एंड द कॉन्सीक्वेंसेज ऑफ ए वर्ल्ड फुल ऑफ मेन। मारा एशियाई देशों में लड़कियों की बजाय लड़कों के ‘अप्राकृतिक चुनाव’ की तह में जाकर पड़ताल करती हैं और बताती हैं कि वह दुनिया कैसी होगी जिसमें स्त्रियां बहुत कम और आदमी बहुत ज्यादा होंगे।
अपने देश में हम जानते हैं कि स्त्री-पुरुष आबादी का अनुपात किस तेजी से गड़बड़ा रहा है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब 2011 के जनगणना के आंकड़ों ने कई राज्यों और जिलों में चौंकाने वाली स्थिति का ब्योरा उजागर किया था। ऐसे में वे देश हमारे लिए एक सबक हो सकते हैं जहां समाज में महिला और पुरुष आबादी का संतुलन और भी ज्यादा बिगड़ चुका है और इसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं।
मारा बताती हैं कि एशिया की आबादी में 16 करोड़ औरतें ‘गायब’ हो चुकी हैं। यह अमेरिका की आधी आबादी के बराबर हैं। ये गायब औरतें दरअसल लड़कियों की भ्रूण या शिशु हत्या का नतीजा हैं। चीन और भारत तो इन देशों में अग्रणी हैं ही, वियतनाम, ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे कई दूसरे देशों में भी लिंगानुपात के बिगड़ने का बदतरीन चेहरा सामने आ रहा है।चौंकाने वाली बात यह कि अब यह सिर्फ एशिया की ही समस्या नहीं रही। अल्बानिया, जॉर्जिया, अजरबैजान और आर्मीनिया जैसे पूर्वी यूरोपीय देशों और अमेरिका के भी कुछ समाजों में लोग यह सुनिश्चित करने लगे हैं कि उनकी संतानों में बेटा जरूर हो।
दुनिया में 100 महिलाओं पर 105 पुरुषों का अनुपात आदर्श माना जाता है। ऐसा इसलिए कि लड़ाई जैसे जोखिमपूर्ण कार्यो में भागीदारी के कारण पुरुष की असमय मृत्यु का खतरा अधिक होता है। इस प्राकृतिक संतुलन में थोड़ी भी गड़बड़ी के नतीजे विनाशकारी हो सकते हैं। आज हालत यह है कि चीन में 100 स्त्रियों पर 121 और भारत में 112 पुरुष हैं। चीन के बंदरगाह पर बसे शहर लिआनयुगांग में हालत इतनी बदतर है कि 100 औरतों पर 163 पुरुष हैं। यही नहीं, 1990 के दशक में कुछ दौर ऐसे थे जब दक्षिण कोरिया के कुछ शहरों में 100 लड़कियों का जन्म होता था, वहीं 200 लड़के जन्मते थे। बदतरीन इलाकों में यह अनुपात 100 लड़कियों पर 150 लड़कों का है।
वस्तुओं के मामले में यह होता है कि जब वे कम मात्रा में उपलब्ध होती हैं तो उनका मूल्य बढ़ जाता है। लेकिन लड़कियों के मामले में ऐसा नहीं। लिंगानुपात बिगड़ने का खामियाजा भी स्त्रियों को ही भुगतना पड़ रहा है। मारा बताती हैं कि ताईवान और कोरिया में जहां सबसे पहले लड़कियों से छुटकारा पाने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा, आदमियों के लिए शादी के लिए लड़की खोजना मुश्किल हो गया। वहां अविवाहित लड़कों के लिए मैरिज टूर आयोजित किए जाते हैं जो उन्हें 10,000 डॉलर में वियतनाम ले जाते हैं। इसमें विमान यात्रा, रहने और खाने का खर्च शामिल होता है। वहां देहाती महिलाएं उनके लिए कतार में खड़ी की जाती हैं और उनमें से एक को चुनकर वे शादी के लिए खरीदते हैं।
लिंगानुपात गड़बड़ाने का एक नतीजा यह हो रहा है कि इससे प्रभावित इलाकों में वेश्यावृत्ति बढ़ी है। एक से ज्यादा भाइयों के साथ शादी की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। यह भी होने लगा है कि लोग गरीब परिवारों की कम उम्र की लड़कियों को खरीदकर लाते हैं, उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करते हैं और फिर शादी की उम्र हो जाने पर अपने बेटों से शादी कर देते हैं। मारा महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को लड़कियों की घटती संख्या का नतीजा मानती हैं। वे बताती हैं कि भारत के जिन हिस्सों में लिंगानुपात गड़बड़ा रहा है, वहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध बढ़े हैं।
एशिया के इन समाजों में परिवार में लड़के की चाह तो सदियों से रही हैं, फिर ऐसा क्यों है कि लिंगानुपात बिगड़ने की समस्या अभी ही पैदा हुई है। मारा की रिसर्च बताती है कि इसके पीछे अमेरिका और पश्चिमी देशों में 1960 और 70 के दशक में अपनाई गई जनसंख्या नियंत्रण की आक्रामक नीति जिम्मेदार है। वह कहती हैं कि 1951 में संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या विभाग ने घोषणा की थी कि दुनिया में आबादी का विस्फोट दस्तक देने वाला है। जल्दी ही यह विस्फोट खासकर चीन और भारत जैसे देशों में दिखाई देने लगा। यह माना गया कि इन देशों में परिवारों में बेटे की पारंपरिक चाह के कारण आबादी बढ़ रही है। मारा ठोस ब्योरों के आधार पर बताती हैं कि तभी पश्चिमी नीति-निर्माता ऐसे तरीकों पर विचार करने लगे जिनसे पहला बच्च ही बेटा हो ताकि दंपती बड़े परिवार के लिए विवश न हों। इसी नीति के तहत एशियाई देशों में गर्भ में भ्रूण की पहचान के लिए अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीकों का प्रचार किया गया और उन्हें सहज सुलभ बनाया गया। इसी का नतीजा आज लड़कियों और लड़कों के बिगड़ते अनुपात में दिखाई दे रहा है।
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दिलेर मछुआरे

बरसात का मौसम आ पहुंचा। दरिया, नदी, नाले, समंदर सभी में पानी की लहर-बहर है। यूं भी इन दिनों गर्मी इतनी ज़्यादा है कि लोगों ने तंग आकर दरिया, समंदर या झीलों और तालाबों का रुख़ किया है। जिन शहरों से दरिया गुज़रते हैं या जहां नहरें बहती हैं, वहां लोगों को लहरों के साथ तैरते हुए देखा जा सकता है। इस शौक़ में कई लोग डूब जाते हैं। इसके बावजूद कोई भी समंदर या दरिया के पानी में उतरने से बाज़ नहीं आता।
इसी तरह बहुत-से लोग शौक़िया मछली पकड़ते हुए नज़र आते हैं। मछुआरों की तो बात ही क्या है। ये उनकी कमाई के दिन हैं। जितनी ज़्यादा मछलियां पकड़ेंगे, उतने ही रुपए हाथ आएंगे। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें इन कामों में लुत्फ़ आता है, जिनमें जान जाने का ख़तरा बहुत ज़्यादा हो। ये लोग अपनी जान हथेली पर रखकर तरह-तरह के करतब दिखाते हैं और इन्हें इस बात का खौफ़ नहीं होता कि ज़रा-सी ग़लती उनकी जान ले लेगी।
अब से सैकड़ों बरस पहले दरिया को पार करने या मछली पकड़ने के लिए जान पर खेल जाना लोगों का शौक़ या मजबूरी थी। वे अक़्सर एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाने, कश्तियों पर तिजारत का माल लादकर ले जाने या मछलियां पकड़ने के नित नए तरीक़े इख़्ितयार करते हैं। सिंध में आज भी ऐसे कई तरीक़े इस्तेमाल होते हैं। मटका भी तैरने और मछलियां पकड़ने के लिए पुराने ज़माने से इस्तेमाल होता आया है। सोहनी-महिवाल की मशहूर दास्तान में ये ज़िक्र मिलता है कि सोहनी अपने महिवाल से मिलने के लिए मटके के सहारे दरिया पार करती थी। अपनी ज़िंदगी के आख़िरी रोज़ भी वह मटके का सहारा लेकर दरिया पार करते हुए डूब गई थी। दरअसल मटका कच्च था, रास्ते में बताशे की तरह घुल गया। हमारे पंजाब में अब भी लोगों को मटके के ज़रिए दरिया पार करते देखा जा सकता है। सोहनी-महिवाल का क़िस्सा तीन-चार सौ बरस पुराना है। इससे अंदाज़ा होता है कि इससे पहले भी तैरने के लिए मटका इस्तेमाल होता होगा।
सिंधी बुज़ुर्गो का कहना है कि सिंध के मछुआरे ‘मंछर झील’ में पल्ला मछली पकड़ने के लिए एक किनारे से दूसरे किनारे तक जाल लगाते थे। ये जाल मटके पर तैरते हुए लगाया जाता था और जब मछलियां इसमें फंस जाती थीं तो मटके पर तैरने वाले जाल में फंसी हुई मछलियां निकालकर मटके में डालते जाते थे। किसी ज़माने में ‘मंछर झील’ बहते हुए दरिया-ए-सिंध का हिस्सा थी और ‘मंछर झील’ के मछुआरे इस तरह मछलियां पकड़ने के लिए मशहूर थे। पल्ला मछली की ये ख़ासियत है कि वह पानी के बहाव के उलटी तरफ़ तैरती है। ये तरीक़ा इसे पकड़ने के लिए काफ़ी अच्छा समझा जाता था। आज भी मछुआरे ‘मंछर’ और ‘कींझर’ झील में मछलियां पकड़ते हैं।
कुछ अरसा पहले एक टीवी चैनल पर डाक्युमेंट्री दिखाई गई थी। इसमें दरिया-ए-सिंध जहां से निकलता है, यानी तिब्बत का इलाक़ा, वहां से नीचे की तरफ़ लोगों को दरिया में मटके इस्तेमाल करते दिखाया गया था। सिंध में मछलियां पकड़ने के लिए पीतल और तांबे के मटके इस्तेमाल करने की परंपरा पुरानी है। ख़ासतौर पर ‘मंछर झील’ में, क्योंकि वहां चार-पांच फीट गहरा पानी होता है।
हमारे सिंध में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बड़ी मशक में हवा भरकर उसके सहारे तैरते हुए दूर-दराज़ के इलाक़ों में जाते और वहां से भैंसे चोरी करके लाते थे। वे मशक को अपने बदन के साथ बांध लेते और दोनों पैर भैंसे की गर्दन में फंसाकर तैरते थे। रात में कहीं ज़मीन पर रुक जाते और सुबह फिर भैंसे के साथ सफ़र शुरू कर देते। शूरो और चांग क़बीले के लोग इस हवाले से काफी मशहूर थे। इन्हें दरिया का शेर कहा जाता था। ये बहुत ज़्यादा ताक़तवर और दिलेर होते थे और मगरमच्छों से मुक़ाबला करने से भी नहीं डरते थे। ‘कींझर झील’ में मटकों के ज़रिए मछलियां पकड़ने वाले ज़्यादातर लोगों का ताल्लुक़ गंधर्व क़बीले से है, जो इस फ़न में माहिर समझे जाते हैं। इनका ताल्लुक़ मशहूर लोककथा ‘नूरी जाम तमाची’ के किरदार नूरी से जोड़ा जाता है।
सैकड़ों साल पुरानी दास्तानों का Êिाक्र निकले तो कुछ लोग इनकी हक़ीक़त पर शक करते हैं। लेकिन दास्तानें तो हमारे चारों तरफ़ ही बिखरी हुई हैं। कुछ दिनों पहले हमारे यहां एक किताब आई जिसमें उन लड़कियों का क़िस्सा है जो पाकिस्तान से ब्याह कर ब्रिटेन गईं और वहां शादी के जाल में फंसकर जल बिन मछली की तरह तड़पती हैं। ये वे लड़कियां हैं जो ग़रीब घरानों से थीं, जिन्हें अंग्रेÊाी नहीं आती थी और जिनके मां-बाप को सुहाने ख्वाब दिखाकर इंग्लिस्तान से आए लोग गांव और छोटे शहरों से ब्याह कर लंदन, मैनचेस्टर, ब्रेडफोर्ड या लेड्Êा ले गए। वहां जाकर इन लड़कियों को मालूम हुआ कि उनसे शादी करने वालों ने और उनके अपने घर वालों ने शादी के नाम पर सरासर धोखा किया है। ऐसी बहुत-सी लड़कियां बीवी बनाकर लाई जाती हैं और फिर वे औरतों के बाÊार में हर रात बिकती हैं। और इस तरह जो रक़म मिलती है उसके मालिक होते हैं इनके ‘शौहर’। अगर वे इस गंदे काम से इंकार करें तो उन्हें मारा-पीटा जाता है, भूखा रखा जाता है और हर तरह की तकलीफ़ दी जाती है। ये लड़कियां अंग्रेजी नहीं जानतीं इसलिए अपनी परेशानी किसी को बता नहीं सकतीं। अगर कोई अंग्रेÊा सोशल वर्कर इनकी मदद करना चाहे तो वे उनके सामने यह सोचकर ख़ामोश रहती हैं कि उन पर गुÊारने वाली मुसीबत की ख़बर उनके घर वालांे को हो गई तो उन्हें बहुत दुख होगा और उनके ख़ानदान की नाक कट जाएगी। इस मुश्किल से सिर्फ़ हÊारों पाकिस्तानी लड़कियां ही नहीं गुÊार रहीं, इनमें भारत, बांग्लादेश, श्रीलंका से शादी के नाम पर झांसा देकर ब्रिटेन ले जाई जाने वाली लड़कियां भी शामिल हैं। इस किताब में जहां अलग-अलग ‘केस स्टडीÊा’ दी गई हैं, वहीं इंग्लिस्तान, अमेरिका या यूरोप के किसी भी मुल्क से आने वाले अनजाने रिश्तों के बारे में लड़कियों और उनके घर वालों को कुछ मशवरे भी दिए गए हैं।

जल्द छोड़ें बुरी आदत

रंगपुर में राज्यवर्धन नामक एक कारोबारी रहता था। उसका बुद्घिवर्धन नामक एक पुत्र भी था। राज्यवर्धन के पास यूं तो ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ था लेकिन उसे एक दुख भी था। उसके बेटे में कई बुरी आदतें थीं। उसे मदिरा के साथ जुए की लत भी लग गई थी। धन की अधिकता के चलते उसकी तमाम बुरे लोगों से मित्रता हो गई थी जो उसके पैसे से मौज-मजा करते और साथ ही उसमें बुरी आदतें भी डाल रहे थे। इस संकट से निजात पाने के लिए राज्यवर्धन ने राज्य के एक विद्वान से मदद करने का आग्रह किया। वह सज्जन राज्यवर्धन के घर आए और उसके बेटे से मिले। थोड़ी बहुत बातचीत के बाद वह बुद्घिवर्धन के साथ उसके खूबसूरत बगीचे की सैर पर निकल गए। वहां उन्होंने यूं ही छोटी घास की पत्तियों की ओर इशारा कर बुद्घिवर्धन से उन्हें नोचने के लिए कहा।
वह मुस्कराया और उसने उस नन्हे पौधे को दो अंगुलियों और अपने अंगूठे से पकड़कर आसानी से उखाड़ फेंका। फिर उन्होंने उससे थोड़े बड़े पौधे को उखाड़ने को कहा। इस बार बुद्घिवर्धन को थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन पौधा उखड़ गया। इसके बाद बुजुर्ग सज्जन ने एक वृक्ष की ओर इशारा किया। बुद्घिवर्धन को हैरानी हो रही थी कि आखिर ये सज्जन इन पौधों के पीछे क्यों पड़े हुए हैं। बहरहाल तमाम कोशिशों के बाद भी भला एक आदमी से पेड़ क्या उखड़ता? पसीना-पसीना हो चुके बुद्घिवर्धन ने आखिरकार अपने हाथ खड़े कर दिए और कहा - यह असंभव है। अब मुस्कराने की बारी बुजुर्ग सज्जन की थी। उन्होंने कहा - बेटे बुद्घिवर्धन बुरी आदतों के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही है। अगर उन्हें शुरुआत में ही सुधार लिया जाए तो वे आसानी से दूर हो जाती हैं लेकिन जैसे-जैसे वे पुरानी हो जाती हैं ऐसा करना मुश्किल हो जाता है।

सबक
बुरी आदतों से जितना जल्द पीछा छुड़ाएंगे उतनी ही आसानी होगी। क्योंकि पुरानी आदतें जल्द नहीं जातीं। समय रहते संभलना जरूरी है अन्यथा कहीं इतनी देर न हो जाए कि घातक परिणामों का सामना करना पड़े। www.bhaskar.com

इसलिए बाज ने राजा से मांगा उनका मांस...

युधिष्ठिर व अन्य पांडव लोमेश मुनि के साथ कई तीर्थो की यात्रा करते हुए। उज्जानक तीर्थ पहुंचे। इसके पास ही यह कुशवान सरोवर है। यहीं राजा उशीनर इन्द्र से अधिक धार्मिक हो गए थे। इसीलिए अग्रि और इन्द्र दोनों उनकी परीक्षा लेने पहुंचे। इन्द्र ने बाज का रूप धारण किया और अग्रि ने कबूतर का। इस तरह वे उशीनर की यज्ञ शाला में पहुंचे।
तब बाज के डर से कबूतर अपनी रक्षा के लिए राजा की गोदी में जाकर छुप गया। तब बाज ने कहा राजन आप इस कबूतर को मुझे दे दीजिए। मैं भूख से मर रहा हूं। यह कबूतर मेरा आहार है। आप धर्म के लोभ से मेरा आहार ना छिने। तब राजा ने कहा यह मेरी शरण में आया है। इसने जान बचाने के लिए मेरा आश्रय लिया है। इसे तुम्हारे चंगुल में न पडऩे दूं तो यह अधर्म है। तब बाज बोला सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं। मैंने बहुत दिनों से भोजन नहीं किया है। यदि आज आपने मुझे भोजन से वंचित किया तो मैं मर जाऊंगा। तब राजा ने कहा आप ठीक कह रहे हैं। आप अच्छी बाते कह रही हैं, क्योंकि आप साक्षात गरुड़ का रूप है। धर्म के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं।
लेकिन मैं मेरी शरण में आए इस पक्षी को त्याग नहीं सकता। अगर आपक ो इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस काटकर तराजू में रख दीजिए। जब वह तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाए तो वहीं मुझे दे दीजिए। उसी से मेरी तृप्ति हो जाएगी। तब राजा ने अपना मांस काटकर तौलना आरंभ किया। यह देखकर बाज बोला मैं इन्द्र हूं और ये अग्रिदेव हैं। हम आपकी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आए थे।

है न काबिले तारीफ जज्बा!

कहते हैं कि चाह अगर सच्ची हो तो मंजिल तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। जरूरत है उस तीव्र प्यास की जो सीधे आत्मा को परमात्मा से जोड़ देती है। ऐसे एक नहीं बल्कि सैकड़ों उदाहदण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि मनुष्य जब कुछ पाने के लिये अपने जीवन की बाजी लगाने को तैयार हो जाता है तो अपने मकसद में कामयाबी अवश्य ही मिलती है। इस बात की हकीकत और गहराई को समझने के लिये आइये चलते हैं एक सच्चे घटना प्रसंग की ओर...

एक गांव में एक फकीर रहता था। गांव के बच्चों को सत्य, प्रेम और दूसरों की मदद करने की शिक्षा देना ही उसका प्रतिदिन का पसंदीदा कार्य था। खाली वक्त में वह किसी एकांत स्थान पर जाकर ईश्वर का ध्यान करता और जिंदगी में आए अनेक दुखों को भुलाकर भगवान को हमेशा धन्यवाद ही देता रहता। वह अपना पेट भरने के लिये गांव में घर-घर जाकर भिक्षा

मांगता और पेट भरने के लिये पर्याप्त होने पर वापस लौट आता।

रोज की तरह ही एक दिन वह गांव में भिक्षा मांग रहा था। एक घर से दूसरे घर जाते हुए वह बिना देखे ही बस यही पुकारता कि- भगवान तेरी जय हो। एक घर से दूसरे की ओर जाने में वह भूल ही गया कि वह जहां खड़े होकर भिक्षा के लिये पुकार रहा है वह किसी का घर नहीं बल्कि गांव की एक मात्र बहुत पुरानी मस्जिद है। उसकी आदत थी कि वह हमेशा अपना सिर झुकाकर ही रखता था इसलिये उसे पता ही नहीं चला कि वह मस्जिद के सामने खड़ा होकर भीख मांग रहा है। उस रास्ते से गुजरते हुए व्यक्ति ने उसे देखा तो फकीर के पास आकर बोला- बाबा क्या आपको दिखाई नहीं देता कि यह किसी का घर नहीं बल्कि मस्जिद है यहां तुम्हें कौन भिक्षा देगा। जाओ- जाओ किसी के घर जाकर मांगों जो अवश्य कुछ खाने को मिल जाएगा।

उस राहगीर की बात सुनकर उस फकीर के दिमाग में अचानक बिजली सी कोंध गई। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। फकीर सोचने लगा कि यह मस्जिद तो खुद ईश्वर का ही घर है, क्या यहां आकर भी मेरी झोली खाली रह जाएगी। जब एक सामान्य सा मनुष्य इतनी दया दिखाता है कि कुछ न कुछ तो दे ही देता है तो क्या इस संसार के मालिक को मुझ पर दया नहीं आएगी। कहते हैं कि यही सोचता हुआ वह फकीर मस्जिद के सामने ही बैठ गया। उसकी आंखों से लगातार आंसू बहते जा रहे थे, सुबह से रात हो गई लेकिन वह फकीर अपनी जगह से हिला तक नहीं। यहां तक कि पूरे तीन दिन हो गए लोंगों ने उसे खूब समझाने की कोशिश कर ली लेकिन वह बगैर जवाब दिये बस मस्जिद के भीतर ही देखता रहता। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन चेहरे पर हंसी थी उसे लगा जैसे आज उसकी असली आंखें खुल गईं। और कहते हैं कि चोथें दिन सुबह-सुबह वहां एक चमत्कार घटित हो गया। बिजली सी चमक गई एक तेज रोशनी हुई और उस फकीर को जाने ऐसा क्या मिल गया कि वह तो बस नाचने लगा, झूमने लगा। लोग कहते हैं कि उस दिन के बाद से उस फकीर में कई चमत्कारी शक्तियां आ गईं थी। उसके छूने मात्र से लोगों के दु:ख, दर्द और बीमारियां मिट जाती थीं।
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इससे हो सकता है हमारा और समाज का विकास...

अच्छी बातें जहां कहीं भी मिलें स्वीकार करके अपने भीतर उतारना चाहिए लेकिन इसी समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अच्छाई और शांति हमारे भीतर से फिर बाहर निकले और समूचे समाज में फैले। यह जब दो तरफा होगा तभी इसके परिणाम सही मिलेंगे।
स्वामी अवधेशानंद गिरिजी एक जगह कहते हैं- प्रत्येक व्यक्ति इस तरह का जीवन जी रहा है कि उसकी जिंदगी कई हिस्सों में बंट जाती है- भौतिक शरीर, मन, बुद्धि। और इन सबके अलावा एक आध्यात्मिक पक्ष है भगवान। इन स्तरों पर हम अपने आप को बिखरा हुआ महसूस करते हैं जबकि इनमें तालमेल होना चाहिए, एक रिदम होना चाहिए, एक भरोसा होना चाहिए।
हम सही तरीके से पूरे व्यक्तित्व के रूप में संगठित नहीं हो पाते। इसका एक कारण यह है कि हम लोग अपने आध्यात्मिक पक्ष से ठीक से परिचित नहीं हो पाते। यदि अपने व्यक्तित्व को सम्पूर्ण बनाना है तो अपने आध्यात्मिक पक्ष को विकसित भी करना पड़ेगा और उससे परिचित भी होना होगा। इसमें एक बाधा है अहंकार।
अहंकार हमें तोड़ता है, जोड़ता नहीं। लेकिन अहंकार का भाव आसानी से जाता भी नहीं है। आप इसे जितना मिटाने की कोशिश करेंगे यह उतना ही नई-नई शक्लों में सामने आ जाता है। और कुछ नहीं तो विनम्रता के रूप में ही आ जाएगा। अहंकार को मिटाने से अच्छा है उसे समझा जाए। बिना इसे समझे यह मिटेगा नहीं, बल्कि समझ आई और यह गया। अहंकार के अंधकार को हटाने के लिए समझ एक दीए का काम करेगा।
अहंकार हटा और हमें अपने भीतर उतरने में सुविधा हुई। भीतर उतरते ही हमारा सबसे पहला जुड़ाव परमात्मा से होगा। प्रभु में प्रेम है, प्रकाश है, शांति है, आनंद है और चेतन है। यही सब हमारे भीतर आएगा और हमारे व्यक्तित्व के टूटे हुए हिस्से फिर जुड़ जाएंगे।
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क्यों शिवजी को पूजा में नहीं चढ़ाना चाहिए मेंहदी?

शिव को देवों के देव यानी महादेव माना गया है। कहते हैं शिव के पूजन से मनोकामना बहुत जल्दी पूरी होती है। वैसे तो भगवान शिव के पूजन की अनेकानेक विधियां हैं।इनमें से प्रत्येक अपने आप में पूर्ण है और आप अपनी इच्छानुसार किसी भी विधि से पूजन या साधना कर सकते हैं।भगवान शिव क्षिप्रप्रसादी देवता हैं,अर्थात सहजता से वे प्रसन्न हो जाते हैं। इसीलिए उनके पूजन की विधि भी उतनी ही सरल है। शिव मात्र एक लोटे जल से भी प्रसन्न हो जाते हैं तथा अपने भक्तों का उद्धार करते हैं। लेकिन भोलेनाथ को पूजा में मेंहदी नहीं चढ़ाई जाती।
दरअसल इससे जुड़ी एक कथा के अनुसार मेंहदी का पौधा कामधेनु के रक्त से उत्पन्न माना जाता है। इसीलिए पूजा में शिवजी को मेंहदी नहीं चढ़ाई जाती है। उस कथा के अनुसार जमदग्रि ऋषि के पास कामधेनु गाय थी। जिसे सहस्त्रार्जुन ने आश्रम से ले जाना चाहा और उसने इसी कोशिश में कामधेनु को कुछ तीर मारे और जब उन तीरों से घायल कामधेनु का रक्त जमीन पर गिरा तो मेंहदी का पौधा उत्पन्न हुआ। इसीलिए हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार शिवजी को मेंहदी नहीं चढ़ाई जाती।
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जरूरी है अपने अंदर की शक्ति को जगाना क्योंकि....

इस विषय में मैं तुम्हे एक पुरानी कथा बताता हूं। यह नारद और ऋषि श्रेष्ठ नारायण का संवाद है। एक समय की बात है नारदजी विभिन्न लोकों में विचरण करने के लिए बदरिकाश्रम गए। वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारदजी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारदजी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनाई जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रम्ह के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गई थी।
भगवान नारायण ने कहा-नारदजी! पुराने समय की बात है। एक बार जनलोक में वहां रहने वाले ब्रम्हा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रम्हचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रम्हसत्र यानी प्रवचन हुआ था। उस समय तुम मेरी श्वेत द्वीपाधिपति अनिरूद्ध-मूर्तिका दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप चले गए थे। उस समय वहां उस ब्रम्ह के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी।सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार-ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई श्रोता बनकर बैठ गए। अद्भुत सत्संग हुआ था वह।
सनन्दनजी ने कहा-जिस प्रकार प्रात:काल होने पर सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाए हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं तब प्रलय के अन्त में श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं।अब आगे भागवत में दार्शनिक प्रसंग आया है। परीक्षित ने श्रुतियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा है। श्रुतियों में (यानी वेद के शब्दों में) भगवान के स्वरूप का वर्णन किस प्रकार किया जाता है। शुकदेवजी द्वारा जो उत्तर दिया गया उसे भागवत में संतों ने वेद स्तुति का नाम दिया है। यह प्रसंग एक गहरा वार्तालाप है।श्रुतियां परमात्मा को जगा रही हैं यह प्रतिकात्मक घटना है। हम भी अपने भीतर रह रहे परमात्मा को ऐसे ही उठाएं। भक्त अपनी इन्द्रियों से श्रुतियंों का काम लेता है। इस उदाहरण में एक कथन स्मरण करने योग्य है।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

कैसे हुआ घटोत्कच का जन्म?

युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीम हिडिम्बा के साथ चले गए। हिडिम्बा भीम को आकाशमार्ग से लेकर उड़ गई। तब हिडिम्बा ने सुंदर स्त्री का रूप धारण कर लिया और तरह-तरह से वह भीम को रिझाने लगी। हिडिम्बा भीमसेन से मीठी-मीठी बातें करते हुए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, गुफाओं आदि में विहार करने लगी। समय आने पर हिडिम्बा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका मुख विशाल, नुकीले दांत, तीखी दाढ़ें और विशाल शरीर था।
राक्षसों की माया से वह तुरंत ही जवान हो गया। उसके सिर पर बाल नहीं थे। भीम तथा हिडिम्बा ने उसके घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देखकर उसका नाम घटोत्कच रख दिया।
घटोत्कच पाण्डवों के प्रति बड़ी श्रद्धा और प्रेम रखता था तथा पाण्डव भी उस पर स्नेह रखते थे। इस प्रकार भीम की प्रतिज्ञा पूरी होने पर हिडिम्बा ने पाण्डवों को जाने के लिए हामी भर दी। तब घटोत्कच ने कुंती व पाण्डवों को नमस्कार कर पूछा कि मैं किस प्रकार आपकी सेवा कर सकता हूं।
घटोत्कच की बात सुनकर कुंती ने घटोत्कच से प्रेमपूर्वक कहा कि तू कुरुवंश में पैदा हुआ है और पाण्डवों का सबसे बड़ा पुत्र है। इसलिए समय आने पर इनकी सहायता करना। तब घटोत्कच ने कहा कि जब भी आप मेरा स्मरण करेंगे मैं तुरंत आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा। ऐसा कहकर वह उत्तर दिशा की ओर चला गया।

...और राजा की कोख से हुआ पुत्र का जन्म

युधिष्ठिर ने पूछा युवानश्व के पुत्र मान्धाता तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। उनका जन्म किस प्रकार हुआ है? लोमेश मुनि ने कहा राजा युवनाश्च इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुआ था। उसने एक सहस्त्र अश्वमेघ करके भी बहुत से यज्ञ किए और उन सभी में बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं दी। अपने मंत्रियों को राज्य की बाघ डोर सौंपकर वे वन में रहने लगे। एक बार महर्षि भृगु ने पुत्र प्राप्त करने के लिए यज्ञ कराया। रात्रि के समय उपवास से गला सूख जाने के कारण राजा को बहुत प्यास लगी। उसने आश्रम के भीतर जाकर पानी मांगा।
जब लोग रात के समय जागरण से थककर गहरी नींद में थे। किसी ने उनकी आवाज न सुनी। महर्षि ने एक बड़ा जल का कलश रख था। राजा ने उसे पी लिया क्योंकि कुछ देर में तपोधन भृगुपुत्र के सहित सब मुनिजन उठे और उन सभी ने उस घड़े को जल से खाली देखा। तब उन सभी ने आपसे में मिलकर पूछा कि यह किसका काम है। इस पर युवनाश्व सच-सच कह दिया कि मेरा है। यह सुनकर भृगपुत्र ने कहा राजन् - यह काम अच्छा नहीं हुआ। तुम्हारे एक महान् बलवान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हो इसी उद्देश्य से ही मैंने यह जल अभिमंत्रित करके रखा है।
अब जो हो गया उसे भी पलटा नहीं जा सकता। अवश्य ही जो कुछ हुआ है वह दैवकी की ही प्रेरणा से हुआ है। तुमने प्यास के कारण अभिमंत्रित जल पिया है। इसीलिए अब तुम्हे ही प्रसव करना होगा। फिर सौ वर्ष बीतने के बाद राजा की बांयी कोख फाड़कर एक सूर्य जैसा ही तेजस्वी बालक निकला। ऐसा होने पर भी बहुत आश्चर्य हुआ कि इससे राजा की मौत नहीं हुई। इस पर बालक को देखने के लिए खुद इंद्र आए। उनसे देवताओं ने पूछा यह बालक क्या पीएगा। तब इन्द्र ने उसके मुंह में अंगुली डालकर कहा मेरी अंगुली पिएगा। इसीलिए उसका नाम मांधाता होगा।

भागवत ३२१

संबंधों को निभाएं तो कुछ इस तरह...
भागवत में ही भगवान के चौथे अवतार वामनदेव की कथा है। असुरों के राजा बलि जो भगवान के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था ने यज्ञ का आयोजन किया। देवताओं के हित को देखकर भगवान ने वामन रूप अवतार लिया लिया और राजा बलि के यज्ञ में चले गए। दान मांगा, राजा बलि ने संकल्प लिया, गुरु शुक्राचार्य ने रोका फिर भी नहीं माने वामन को तीन पग भूमि दान दी। वामन देव ने दो ही पग में धरती और आकाश नाप लिया, तीसरा पग कहां रखूं वामन ने पूछा।
राजा बलि जो जानते थे कि देवताओं ने उनका यज्ञ रुकवाने के लिए छल किया है, फिर भी अपने संकल्प से नहीं हटे। भगवान उसे जीतने आए थे, उसने भगवान को जीत लिया। वामन ने जब बलि से पूछा कि तीसरा पैर कहा रखूं तो राजा बलि ने नि:संकोच खुद को आगे कर दिया। भगवान के पैरों के नीचे अपना सिर धर दिया। भगवान के भार से वह पाताल में चला गया लेकिन उसके सत्यव्रत और भक्तिभाव से विष्णु प्रसन्न हो गए तो वर मांगने को कहा।
बलि ने विष्णु को अपने राज्य का द्वारपाल बना लिया। भगवान भक्त के नगर की पहरेदारी करने लग गए। यह होता है समर्पण। अपना सबकुछ उसे सौंप दो फिर आपसे दूर कुछ भी नहीं रहेगा। इसी यात्रा में भगवान राजा के साथ-साथ ब्राह्मण के घर भी जाते हैं और साथ में मुनियों को भी ले जाते हैं। एक तो भगवान बताना चाहते हैं कि मेरा समानता में विश्वास है और दूसरे भगवान सतत् सक्रियता का संदेश देते हैं। मेलजोल बनाए रखो। आज जिस जीवन में जी रहे हैं मनुष्य अपनों से ही कटता जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण से सीखें संबंधों का निर्वहन कैसे करें।
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पैनी नजर और एकनिष्ठा ने उसे बनाया सफल

बड़े खुशनसीब होते हैं वे जिनका सपना पूरा हो जाता है। वरना तो ज्यादातर लोगों को यही कह कर अपने मन को समझाना होता है कि- किसी को मुकम्मिल जंहा नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आंसमा नहीं मिलता। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। मंजिल के मिलने के पीछे लक का हाथ तो होता है, पर एक सीमा तक ही, वरना चाह और कोशिश अगर सच्ची हो तो कायनात भी साथ देती है।
अगर आपको जीवन में सफल बनना है तो अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है। आपकी पूरी नजर आपके लक्ष्य पर होनी चाहिए। तभी आपकी सफलता निश्चित हाती है। आइये चलते हैं एक वाकये की ओर...
एक मोबाइल कम्पनी में इन्टरव्यू के लिए के लिए कुछ लोग बैठै थे सभी एक दूसरे के साथ चर्चाओं में मशगूल थे तभी माइक पर एक खट खट की आवाज आई। किसी ने उस आवाज पर ध्यान नहीं दिया और अपनी बातों में उसी तरह मगन रहे। उसी जगह भीड़ से अलग एक युवक भी बैठा था। आवाज को सुनकर वह उठा और अन्दर केबिन में चला गया। थोड़ी देर बाद वह युवक मुस्कुराता हुआ बाहर निकला सभी उसे देखकर हैरान हुए तब उसने सबको अपना नियुक्ति पत्र दिखाया । यह देख सभी को गुस्सा आया और एक आदमी उस युवक से बोला कि हम सब तुमसे पहले यहां पर आए हैं तो तुम्हें अन्दर कैसे बुला लिया। युवक बोला कि आप सब नाराज न हों आप सभी के लिए संकेत आया था पर आप सभी अपनी बातें में मशगूल थे। उन लोगों को जिस जगह पर किसी की आवश्यकता थी वे सारे गुण मेरे अन्दर मौजूद मिले इस लिए उन्होंने मुझे रख लिया।
कहानी बताती है कि सफलता के लिए आपका लक्ष्य के प्रति सचेत रहना जरूरी है तभी आपको सफलता प्राप्त हो सकती है।

चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं

मंदिर जाने से जुड़ी हिन्दू धर्म में अनेक परंपराएं हैं। दर्शन के बाद सीधे हाथ में चरणामृत ग्रहण करना भी एक परंपरा है। कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिए क्योंकि इससे किए जाने वाले कार्य का जल्द ही सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता हैं।
इसीलिए हर धार्मिक कार्य चाहे वह यज्ञ हो या दान-पुण्य सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए। जब हम हवन करते हैं और यज्ञ नारायण भगवान को आहूति दी जाती है तो वो सीधे हाथ से ही दी जाती है।मंदिर में दर्शन के बाद सीधे हाथ से तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से कई तरह की बीमारियां तो दूर होती ही हैं। साथ ही इससे नकारात्मक विचार दूर होते हैं।
लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं। चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं? दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है। कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है। इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।
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पूजा के समय सिर पर रुमाल रखना जरूरी क्यों है?

पौराणिक कथाओं में नायक, उपनायक तथा खलनायक भी सिर को ढंकने के लिए मुकुट पहनते थे। यही कारण है कि हमारी परंपरा में सिर को ढकना स्त्री और पुरुषों सबके लिए आवश्यक किया गया था। सभी धर्मों की स्त्रियां दुपट्टा या साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढंककर रखती थी। इसीलिए मंदिर या किसी अन्य धार्मिक स्थल पर जाते समय या पूजा करते समय सिर ढकना जरूरी माना गया था। पहले सभी लोगों के सिर ढकने का वैज्ञानिक कारण था। दरअसल विज्ञान के अनुसार सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है। ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है। मौसम के मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों पर आतें हैं।
इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है।
इसी कारण सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल था। इसके बाद धीरे-धीरे समाज की यह परंपरा बड़े लोगों को या भगवान को सम्मान देने का तरीका बन गई। साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि सिर के मध्य में सहस्त्रारार चक्र होता है। पूजा के समय इसे ढककर रखने से मन एकाग्र बना रहता है। इसीलिए नग्र सिर भगवान के समक्ष जाना ठीक नहीं माना जाता है। यह मान्यता है कि जिसका हम सम्मान करते हैं या जो हमारे द्वारा सम्मान दिए जाने योग्य है उनके सामने हमेशा सिर ढककर रखना चाहिए। इसीलिए पूजा के समय सिर पर और कुछ नहीं तो कम से कम रूमाल ढक लेना चाहिए। इससे मन में भगवान के प्रति जो सम्मान और समर्पण है उसकी अभिव्यक्ति होती है।
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सोमवार, 25 जुलाई 2011

इस चमत्कारी शहतूत में छुपे हैं कमाल के गुण!


हमारे यहां फलों और शाक-शब्जियों को आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा में सदैव से ही सेहत के लिये बेहद लाभदायक बताया जाता रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों से भी यही बात साबित और सिद्ध हो रही है। हाल ही में हुई एक शोध में शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया है कि शहतूत में एंटी एज यानी उम्र को रोकने वाला गुण होता है।

अध्ययन में यह पाया गया कि शहतूत बालों के लिये भी बेहद लाभदायक होता है। परीक्षण के दौरान देखा गया कि शहतूत में दूसरे लाभदायक फ लों की तुलना में 79 प्रतिशत ज्यादा एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है। डेली एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक अध्ययन में पाया गया कि शहतूत के जूस में एंटीऑक्सीडेंट संतरे से दोगुना होता है।
इसके अलावा शहतूत में रेजवर्टेरोल पाया जाता है जिसमें स्वास्थ को लाभ पहुंचाने वाला गुण पाया जाता है। रेजवर्टेरोल के बारे में माना जाता है कि यह शरीर में फैले प्रदूषण को साफ करता है और संक्रमित चीजों को बाहर निकालता है।
रीक्षण में पाया गया कि शहतूत में ऐसे गुण पाए जाते हैं जिससे आंखों की गड़बड़ी ठीक हो सकती है। यहां तक कि लंग कैंसर का जोखिम कम हो सकता है और कोलोन और प्रोस्टेट कैंसर से बचा जा सकता है।

भौंचक्के रह जाएंगे...

खुद अपनी ही त्वचा की जादुई सामर्थ्य को जानकर!!!
एक कहावह है जिसे हम सभी ने कई बार कहा और सुना होगा। कहावत यह है- 'दीये तले अंधेरा'। यानी दीपक अपने उजाले में दूर की चीजों को तो साफ-साफ दिखा देता है लेकिन खुद दीये के तले यानी नीचे अंधेरा ही पसरा रहता है। लगता है कि दीये की जो मजबूरी है, वही इंसान की भी है।
खुद के विषय में ऐसी कई बातें हैं जो व्यक्ति आज तक नहीं जानता। तिलिस्मी दिमाग, मन, सपने, जन्म-मृत्यु, उदासी, आनंद..... ऐसी कई बातें हैं जिनका ठीक-ठीक कारण खोज पाना आज भी उतना ही कठिन और अनसुलझी पहेली के समान है। इंसानी शरीर की ही बात करें तो हम पाएंगे कि अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।
शरीर का सबसे बाहरी भाग यानी कि त्वचा भी अपने में ऐसी कई आश्चर्यजनक खूबियां रखती है जिसे अधिकांश लोग नहीं जानते होंगे। क्या स्वयं आपको भी इस लेख को पढऩे से पहले अपने शरीर की त्वचा की इन खूबियों के बारे में पता था...
पांच का काम अकेले:
यदि त्वचा की विद्युत शक्ति को उत्तेजित किया जा सके, तो उसमें इतनी शक्ति उत्पन्न हो सकती है कि वह अकेली ही
पांचों इंद्रियों (देखना, सुनना, सूंघना, छूना और स्वाद लेना) की भूमिका निभा सकती है।
छू कर सब जान लेना:
त्वचा से एक विशिष्ट प्रकार का वैद्युतिक प्राण-प्रवाह निकलता है, जो शरीर के चारों और एक आभामंडल बना लेता है। इस स्पर्शेंद्रिय द्वारा वर्ण पहचान कर किसी भी व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्तरों के बारे में सब कुछ जाना जा सकता है।
आभामंडल का निर्माण:
औसत शरीर में त्वचा ने करीब 1.75 वर्गमीटर या 20 वर्ग फीट घेर रखा है, जिससे निकलने वाले आभामंडल को थर्मोग्राफी से मापा जा सकता है।
ऊर्जा का उत्सर्जन:
हमारे शरीर की त्वचा हर समय 875 वाट शक्ति की ऊर्जा उत्सर्जित करती है जो रेडियेशन या इन्फ्रारेड से भी परे के स्तर की होती है।
कायाकल्प:
पूरे शरीर की त्वचा हर 50 दिन में एक बार पुरानी त्वचा के स्थान पर नई कोशिका द्वारा बदलकर पूरा कायाकल्प कर लेती है, जिसका वजन लगभग 18 कि.ग्रा. होता है।
.... है न आपकी त्वचा अनेक जादुई क्षमताओं से सम्पन्न।
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3 महीने लगातार करें....त्वचा का रंग बदलने लगेगा

प्रकाश, उजाला और निखार हमेशा से ही तारीफ की नजरों से देखे जाते हैं। अक्सर कुछ लोग अपने सांवले रंग से परे शान रहते हैं। सांवला रंग कभी किसी के करियर में रुकावट बनता है तो कभी शादी ब्याह में। ज्यादातर लड़के लड़कियां भी अपने लिए गोरे रंग के हमसफर को प्रीफर करते है।अगर आप अपने सांवले रंग से परेशान हैं तो घबराइये नहीं कुछ आसान आयुर्वेद नुस्खे ऐसे हैं जिनसे आपका सांवलापन पूरी तरह नहीं मगर काफी हद तक दूर हो सकता है।
1. एक बाल्टी ठण्डे या गुनगुने पानी में दो नींबू का रस मिलाकर गर्मियों में कुछ महीने तक नहाने से त्वचा का रंग निखरने लगता है (इस विधि को करने से त्वचा से सम्बन्धी कई रोग ठीक हो जाते हैं )।
2. आंवला का मुरब्बा रोज एक नग खाने से दो तीन महीने में ही रंग निखरने लगते है।
3. गाजर का रस आधा गिलास खाली पेट सुबह शाम लेने से एक महीने में रंग निखरने लगता है। रोजाना सुबह शाम खाना खाने के बाद थोड़ी मात्रा में सांफ खाने से खून साफ होने लगता है और त्वचा की रंगत बदलने लगती है। 4. प्रतिदिन खाने के बाद सोंफ का सेवन करें।
5. रात को सोने से पहले गुनगुने पानी के साथ नियमित रूप से त्रिफला चूर्ण का सेवन करें।

धर्मशास्त्रों के अनुसार बर्थ-डे पर क्या और क्यों नहीं करना चाहिए?

जन्मदिन हर व्यक्ति के जीवन का बहुत ही विशेष दिन होता है। इसीलिए सभी लोग चाहे वो आम हो या खास अपने बर्थ-डे को विशेष तरह से मनाना पसंद करते हैं। कुछ लोग इस दिन अपने घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान करना पसंद करते हैं तो कुछ अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के साथ पार्टी करना पसंद करते हैं। जन्मदिन चाहे कैसे भी मनाएं। मतलब सिर्फ अपनी खुशियों और खास लम्हों को अपनों के साथ बांटने से है या कहें सेलीब्रेशन से है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार यदि हम अपना जन्मदिन मनाएं तो हमारे शास्त्रों के अनुसार जन्मदिन के दिन कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें करना शास्त्रों में अच्छा नहीं माना गया है। ये कार्य इस प्रकार है।
जन्मदिन पर नाखून एवं बाल काटना, वाहन से यात्रा करना, कलह, हिंसाकर्म, अभक्ष्यभक्षण (न खाने योग्य पदार्थ खाना), अपेयपान (न पीने योग्य पदार्थ पीना), स्त्रीसंपर्क से प्रयत्नपूर्वक बचना चाहिए। इसी तरह दीपक का बुझना आकस्मिक मृत्यु, अर्थात् अपमृत्युसे संबंधित है। इसे अशुभ माना गया है। इसीलिए मोमबत्ती जलाकर जन्मदिन नहीं मनाना चाहिए। हिंदू संस्कृति के अनुसार दिन सूर्योदयसे आरंभ होता है। यह समय ऋषि-मुनियोंकी साधना का समय है, इसलिए वातावरणमें सात्त्विकता अधिक होती है और सूर्योदयके पश्चात् दी गई शुभकामनाएं फलदायी सिद्ध होती हैं। इसलिए रात के समय जन्मदिन की बधाई देने से बचना चाहिए।

इस समय ना सोएं ना लेटे क्योंकि....

कई लोग समय की कमी के कारण शाम के वक्त आराम करते हैं। शाम को सोना शास्त्रों की दृष्टि से अनुचित माना जाता है।क्या कारण है कि शाम को सोना वर्जित माना जाता है?वैसे देखा जाए तो सोने के रात्रि को ही श्रेष्ठ माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार तो दिन भी नहीं सोना चाहिए। दिन में सोने से आयु घटती है, शरीर पर अनावश्यक चर्बी बढ़ती है, आलस्य बढ़ता है आदि। इसलिए दिन में सोना प्रतिबन्धित है। सिर्फ वृद्ध, बालक एवं रोगियों के मामले में यहां स्वीकृति है। इस प्रकार जब शास्त्रों में दिन में सोने पर पाबंदी है तो शाम का समय तो वैसे भी संध्या-आचमन का होता है। शाम का समय देवताओं की आराधना एवं संध्या का होता है।
इस समय सोने से शरीर में शिथिलता आती है और नकारात्मक विचारों का आगमन होता है। इस समय तो पूरे भक्तिभाव से भगवान की पूजा-अर्चना एवं संध्या करनी चाहिए।शाम को सोने के साथ ही खाना खाना, पढ़ाई करना एवं मैथुन कर्म करना भी वर्जित है। कहते हैं इन कर्मों को शाम को करने से आयु तो घटती ही है, साथ ही यश, लक्ष्मी, विद्या आदि सभी का नाश हो जाता है। इसलिए शाम को सोना शास्त्रोक्त विधान के अनुसार अनुचित माना गया है।

भागवत ३२०

बस यही सबसे बड़ी जीत है....
संत, ऋषि, मुनि, साधु ये सब उसी को कहते हैं जिसने विषयों को जीत लिया, मन को नियंत्रित कर लिया। सब उसी के नाम हैं। यह जरूरी नहीं है कि वह संन्यास ले, भगवा वस्त्र पहने या जंगलों में रहे। मन को जीतना ही सबसे बड़ा काम है, जिसने इसे कर लिया वह स्वत: संत हो जाएगा। फिर चाहे संसार में रहे या जंगल में।
मन को जीतने के लिए विषयों पर विजय पाना आवश्यक है। विषय हमारे लिए रुकावट पैदा करते हैं। विषयों को जीतना हमारे लिए सबसे बड़ी जंग है। विषयों को जीतने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं इन्हें मिटाने के लिए मन पर नियंत्रण होना चाहिए। बुराइयों से निपटने के लिए वैराग्य जगाना पड़ता है। वैराग्य जगाने के लिए परमात्मा में मन लगाना जरूरी है।
विषयों से वैराग्य तब ही होगा जब निर्विषयी मन बनेगा। मन को निर्विषयी बनाना उसका पथान्तर करना है, इसकी सहज वृत्ति जगतमुखी है, इसे परमात्मा मुखी बनाने का अभ्यास करना आवश्यक है। महापुरुषों के वचनों सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय, सत्संग, भजन, एकान्तवास, कीर्तन, गायन (भक्ति गीत) आदि ऐसी आध्यात्मिक साधन युक्त परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं जिससे मन एकाग्रता के अनुकूल बनता है। इन्हें ध्यान का अंग भी कहा जा सकता है।
फिर वही सवाल उठता है कि महापापी-वैरी पुन: पुन: उपद्रव करे, बाधाएं डाले तब साधक के सामने शरणागति के अलावा कोई मार्ग नहीं रहता। वह अपने इष्ट से, अपनी अंतरात्मा से, अपनी अंतरशक्ति से निरन्तर प्रार्थना करता रहे। दुर्गासप्तसती में ऐसी ही प्रार्थना की गई है-''सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम।
सर्वेश्वरी-तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करो।राजसिक- प्रमाद, अनियमितता, तन-अ-रक्षण आदि बाधाएं हैं और शत्रु है-काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि। यह हमें याद रखना है। माँ के भौतिक रूप में कोई शत्रु नहीं सब उसकी सन्तान हैं।
बाधाएं और शत्रु जब समाप्त हो जाते हैं, तब मन में उठती तरंगें शान्त हो उसे निर्मल, निर्विकारी जल की मानिन्द स्तब्ध या स्थिर कर देती है। तब परमात्मा को जानने या उसके दर्शन करने की स्थिति बनती है। उसका प्रतिबिम्ब जो अन्तर आत्मा में है दृश्य होता है।

जानिए कैसे थे पांच सबसे अनमोल रत्न!!

हीरे, मोती, नग, माणिक....जाने कितने ही प्रकार के बेशकीमती रत्न इस धरती पर पाए जाते हैं। कोहेनूर हीरे से लेकर, सूर्य और चंद्र मणियों तक जाने कितने ही बहुमूल्य रत्नों के नाम लिये जाते हैं। लेकिन कुछ रत्न ऐसे होते हैं जिनको दुनिया के सबसे कीमती यानी अनमोल रत्न कहा जा सकता है।
क्या आप जानते हैं कि दुनिया के सबसे ज्यादा कीमती रत्न कौन से हैं? आइये चलते हैं एक बड़ी प्यारी कथा की ओर जो रत्नों की कीमत की परिभाषा ही बदल देगी....
बहुत पुरानी मगर वास्तविक घटना है, महर्षि कपिल रोज गंगा नदी में नहाने के लिये जाते थे। जिस रास्ते से वे जाते उसमें एक बूढ़ी महिला का घर आता था। वह बूढ़ी विधवा ब्राह्मणी या तो चरखा कातती मिलती या ईश्वर के ध्यान में डूबी हुई। उस वृद्ध विधवा को देखकर महर्षि कपिल को एक दिन उस पर दया आ गई।
वे उसके पास पहुंच कर बोले- '' बहिन! मैं इस आश्रम का कुलपति हूं। मेरे कई शिष्य राजा और उसके परिवार के हैं। अगर तुम कहो तो में राजा से कहकर तुम्हारी आर्थिक मदद करवा दूं। तुम्हारी यह कठोर गरीबी मुझसे देखी नहीं जाती।'' विधवा ब्राह्मणी ने महर्षि का बड़ा आभार माना और बोली- '' देव! आपका हार्दिक धन्यवाद , पर आपने मुझे पहचानने में भूल की है। क्योंकि न तो मैं गरीब-दरिद्र हूं और न ही बेसहारा हूं। मेरे पास 5 ऐसे रत्न हैं जिनके बल पर मैं चाहूं तो राजाओं से भी बढ़कर वैभव-विलास खड़ा कर सकती हूं।'' कपिल मुनि ने बड़े ही आश्चर्य से पूछा- '' भद्रे! कहां हैं वे पांच रत्न, क्या मैं उनको देख सकता हूं?''
ब्राह्मणी ने कपिल मुनि को बड़े आदर-सम्मान के साथ आसन पर बैठाया। ....इतनी ही देर में पांच सुन्दर, स्वस्थ, विनम्र बच्चे घर में आए। पहले माँ को प्रणाम किया एवं कपिल मुनि को पहचान कर साष्टांग प्रणाम किया। बेहद साधारण कपड़ों में भी वे सद्गुणों के तेज के कारण राजकुमारों से भी बढ़कर लग रहे थे। गुरुकुल से लोटे उन पांचों बालकों के गुण पारखी कपिल ने बगैर बताए ही जान लिये।
महर्षि ने ब्राह्मणी को प्रणाम करते हुए कहा- ''भद्रे! तुमने सच कहा था तुम्हारे पास बेश कीमती अनमोल रत्न हैं, जिस घर में ऐसे ऐसे गुणवान और संस्कारी बच्चे होंगे वहां दरिद्रता और असहायता हो ही कैसे सकते हैं। तुम्हारे योग्य बच्चे चाहें तो कुछ ही समय में धन-समृद्धि और वैभव के पहाड़ खड़े कर सकते हैं।''

हनुमान से सीखें प्लानिंग को सफल कैसे बनाया जाए....

योजना जितनी स्पष्ट पूर्व नियोजित होगी परिणाम उतने ही सफलता लिए रहेंगे। आइए, किसी कार्य से पूर्व प्लानिंग कैसे की जाए हनुमानजी से सीख लें। सुंदरकाण्ड में जब वे सीताजी की खोज के लिए लंका की ओर उडऩे की तैयारी कर रहे थे तब तुलसीदासजी ने लिखा -

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।


समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमानजी खेल-खेल में ही कूद कर उस पर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके हनुमानजी उस पर से बड़े वेग से उछले। यहां एक शब्द आया है कौतुक यानी खेल-खेल।
हनुमानजी जा तो रहे थे युद्धभूमि में लेकिन वृत्ति थी खेल की। हनुमानजी कहते हैं जिंदगी को खेल की तरह लिया जाए। खेल में भी एक हारेगा, दूसरा जीतेगा। लेकिन खेल में प्रतिस्पर्धा होती है हिंसा नहीं होती, वैमनस्य नहीं होता। हारने वाला खिलाड़ी जानता है एक दिन फिर जीतने का मौका मिलेगा।
पर्वत पर चढऩे का अर्थ है अपना आधार दृढ़ रखा। जिन्हें जीवन में लम्बी छलांग लगाना हो उन्हें अपना बेस मजबूत रखना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है योजना व्यवस्थित रखी जाए उसके बाद काम किया जाए। दृढ़ आधार का एक और अर्थ है जिंदगी की ईमारत की नींव बचपन होती है। जिसका बचपन दृढ़ है, सुलझा हुआ है उसकी जवानी फिर नहीं लडख़ड़ाएगी।
आगे शब्द लिखा है - बार-बार। हनुमानजी ने श्रीरामजी को बार-बार याद किया। अपने हर अभियान में परमात्मा को निरंतर याद रखिएगा। भक्त का जीवन सांप-सीढ़ी के खेल की तरह होता है। कभी शीर्ष पर तो कभी सांप के मुंह में अटक कर वापस पूंछ पर आना पड़ता है। भक्ति करते हुए कभी बहुत अच्छा लगता है तो दुर्गुण के थपेड़ों से अचानक पतन भी हो जाता है। इसलिए हनुमानजी सिखाते हैं कि परमात्मा से जुड़ाव की निरंतरता बनाए रखें।

शनिवार, 23 जुलाई 2011

...और वे बुढ़े से हो गए जवान

यह बात सुनकर राजा शर्याति ने बिना विचारे च्यवन ऋषि को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर च्यवन मुनि प्रसन्न हो गए। सती सुकन्या भी अपने तप के नियमों का पालन करते हुए। प्रेमपूर्वक तपस्वी की परिचर्चा करने लगे। एक दिन सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम में खड़ी थी। उस समय उस पर अश्विनी कुमारों की दृष्टी पड़ी। वह साक्षात देवराज की कन्या के समान अंगो वाली थी। तब अश्चिनीकुमारों ने उसके समीप जाकर कहा तुम किसकी पुत्री हो और किसकी पत्नी हो इस वन में क्या करती हो?

यह सुनकर सुकन्या ने सहज भाव से कहा मैं महाराज शर्याति की कन्या और महर्षि च्यवन की पत्नी हूं। तब अश्विनी कुमार बोले हम देवताओं के वैद्य हैं तुम्हारे पति को युवा और रूपवान कर सकते हैं। यह बात अपने पति से जाकर कहो उनकी यह बात उनकी पत्नी ने जाकर उन्हें बताई। मुनि ने अपनी स्वीकृति दे दी। तब उसने अश्विनी कुमारों से वैसा करने के लिए कहा अश्विनीकुमारों ने कहा मुनि इस सरोवर में प्रवेश करें। महर्षि च्यवन रूपवान होने को उत्सुक थे। उन्होंने तुरंत जल में प्रवेश किया। उनके साथ अश्विनीकुमारों ने भी उनमें गोता लगाया। फिर एक मुहूर्त बीतने पर वे तीनों उस सरोवर से बाहर निकले तो वे सभी युवा, दिव्यरूपधारी आकृति वाले थे। उन तीनों को ही देखकर अनुराग में वृद्धि होती थी।

उन तीनों ने ही कहा सुन्दरि हम तीनों में से एक को वर लो। सुकन्या एक बार तो सहम गई उसके मन से निश्चय करके उसने अपने पति को पहचान लिया। इस प्रकार अपनी पत्नी और मनमाना रूप व यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अश्चिनीकुमारों से बोले में वृद्ध था, तुमने मुझे रूप और यौवन दिया है। इसलिए मैं भी तुम्हे सौमपान का अधिकार दिलवाऊंगा। यह सुनकर अश्विनी कुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे।

भागवत २१८-२१९

वो हमें गिरने नहीं देते, सभांल लेते हैं...
अर्जुन को यह अनुभव होता था कि वह अकेला ही श्रीकृष्ण का बड़ा भक्त है लेकिन कृष्ण ने उसे उस ब्राह्मण से मिलाकर यह भ्रम दूर कर दिया। भगवान की यह विशेषता है कि अगर उनका भक्त अभिमान के वशीभूत होने लगे, किसी बुराई के समीप जाने लगे तो भगवान उसे गिरने नहीं देते, उसे संभाल लेते हैं। भक्त को अहसास भी नहीं होने देते हैं और उसके सारे कष्ट, अभिमान, कुराइयां हर लेते हैं। अगर भक्त लायक है तो स्वत: ही समझ जाता है। भगवान ऐसी ही लीलाएं दिखा रहे हैं, अर्जुन का अभिमान अब जाता रहा। भक्ति निष्काम हो गई। अर्जुन श्रीकृष्ण के और नजदीक हो गए। अभी सर्वस्व समर्पित नहीं किया था अब वह भी कर दिया। भक्त और भगवान एक हो गए हैं।

वैसे भी माना जाता है कि अर्जुन श्रीकृष्ण एक ही हैं, नर और नारायण के अवतार हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं सभी में मेरा अंश है। हम भी उन्हीं नारायण के अंश हैं।
एक कथा है - एक गांव में कोई ग्वाला था, भगवान को बहुत मानता था। गांवों में जात-पात की परम्परा बहुत थी उन दिनों। ब्राम्हण और क्षत्रियों का दबदबा था। अछूतों का कोई दर्जा नहीं था उनके बीच। गांव में सबसे अलग उनका स्थान था।
एक दिन गांव में कोई संत पहुंचे। वे जात-पात नहीं मानते थे सो हर किसी को उनके दर्शन करने की, उपदेश सुनने की आजादी थी। फिर भी श्रेष्ठी वर्ग का दबदबा था सो छोटी जात वालों को दर्शन के लिए बाद में बुलाया जाता।संत से यह सुब देखा न गया। उन्होंने समझाया कि सब समान हैं, सभी भगवान का अंश हैं। उस ग्वाले ने संत की बात सुनी, वह बात उसके दिल में बैठ गई। वह भी सबसे कहने लगा कि हम भी भगवान के ही बनाए हैं, उसके ही अंश हैं। यह सुन ऊंचे समाज वालों से नहीं रहा गया। गरीबों पर अत्याचार और बढ़ गए। संत से यह अमानवीयता देखी न गई। वे गांव छोड़कर चले गए।

रावण क्यों मारा गया, उसका सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया?
कहने का आशय यह है कि हम भले ही मूर्ति पूजा करें लेकिन चित्त को उसमें स्थिर करके करें। बस उसी में खुद को पूरी तरह टिका दें। भगवान उस प्रतिमा, उस पत्थर से भी प्रकट हो जाएगा।ऐसी ही भक्ति के हमारे शास्त्रों में दो उदाहरण हैं। एक भक्त प्रहलाद का जिसे उसके पिता ने खम्भे से भगवान को बुलाने की चुनौती दी और खम्भा तोड़कर खुद नारायण नृसिंह के रूप में प्रकट हो गए। दूसरा उदाहरण मीराबाई का है, जिन्होंने कृष्ण की प्रतिमा को ही अपना पति मान लिया। जिन्दगीभर उसी प्रतिमा को लेकर भक्ति की। जब जहर दिया गया तो गोविन्द का नाम लेकर हंसकर पी गई। मीराबाई को कुछ नहीं हुआ, उधर प्रतिमा नीली पड़ गई।
मिथिला के राजा का नाम था बहुलाष्व। उनमें अहंकार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाष्व दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मंगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया। भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, शुकदेव, बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे। वे जहां-जहां पहुंचते, वहां-वहां के नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती।
भगवान अपने साथ अनेक ऋषिमुनियों को लेकर चलते हैं। वैसे भी श्रीकृष्ण अकेले कम ही रहे। उनका उद्देश्य रहता है भक्तों को साधु-संत और विद्वान पुरुषों की निकटता प्राप्त हो। कृष्ण का हमेशा यही प्रयास रहा कि पूजनीय संत, विद्वान उनके आसपास रहें। किसी भी समय वे अकेले न रहें। हर परेशानी के समय विद्वान और संत उनके पास रहें। दरअसल श्रीकृष्ण ने मानवजाति को यह संदेश दिया है कि आप स्वयं कितने ही विद्वान क्यों न हो जाएं। कितने ही सक्षम क्यों न हों फिर भी आपके साथ विद्वानों का होना जरूरी है। हमेशा संतों की छत्रछाया में रहें। आप पर आती मुश्किलें स्वत: लौट जाएंगी।
यह बात विचारणीय है कृष्ण के जीवन के हर पल में मानव जाति के लिए कई संकेत छिपे हैं। संतों का, विद्वानों का साथ क्यों जरूरी है, वो भी श्रीकृष्ण जैसे सर्वसमर्थ पूर्णावतार को। यह जिन्दगी के लिए एक संकेत है। हम अपने मद में संत-विद्वानों का अपमान कर देते हैं। इससे हमारी सिद्धि नष्ट हो जाती है।
रावण क्यों मारा गया, सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया उसका। रावण ने तमाम जिन्दगी संतों, विद्वानों का विरोध किया, तपस्वियों को मरवा डाला। उसकी लंका में भी एक ही साधु पुरुष था विभीषण। रावण अगर सुरक्षित था तो वह केवल लंका में विभीषण की उपस्थिति के कारण। याद रखिए आप तब तक सुरक्षित रहेंगे जब तक एक भी सज्जन आपके साथ है, जैसे ही संत पुरुष आपका साथ छोड़ दें समझ लें कि अब अंत नजदीक है। विभीषण को छोडऩे के बाद रावण खुद कितने दिन जी पाया।इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संतों का साथ हमेशा चाहिए। अगर जीवन में कोई पुण्य काम न आए तो आपको एक यही पुण्य बचा सकता है।
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सिर्फ शिवजी को चढ़ाना ही नहीं खाना भी चाहिए बिल्वपत्र क्योंकि...

शिव के पूजन अर्चन से भक्तों पर उनकी विशेष कृपा होती है। शिवजी को पूजन के समय बिल्वपत्र विशेष रूप से अर्पित किए जाते हैं। सावन में शिवलिंग पर नियमित रूप से बिल्वपत्र सिर्फ चढ़ाना ही नहीं बल्कि उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक महत्व भी बहुत अधिक है। वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि बेल के पत्ते बिल्व पत्र में छूने से वह गुण है कि उक्त कमी को पूरा कर देता है।
बिल्व पत्र तोड़े जाने के बाद भी 20 -21 दिन तक यह गुण रहता है शायद इसीलिये सावन में बेल पत्ते को बार बार छूने के लिए इसको धार्मिक महत्व दिया गया हो वैसे बेल और बेल पत्ते में अन्य औषधीय गुण भी होते है। बिल्वपत्र उत्तम वायुनाशक, कफ- मिटाने वाला है। ये कृमि व दुर्गन्ध का नाश करते हैं। बिल्वपत्र उडऩशील तैल व इगेलिन, इगेलेनिन नामक क्षार-तत्त्व आदि औषधीय गुणों से भरपूर हैं।
बिल्वपत्र ज्वरनाशक, वेदनाहर, कृमिनाशक, संग्राही (मल को बाँधकर लाने वाले) व सूजन उतारने वाो हैं। ये मूत्र के प्रमाण व मूत्रगत शर्करा को कम करते हैं।कहते हैं सावन में नियमित रूप से शिव को बिल्व पत्र अर्पित करके यदि उसमे से बिल्वपत्र खाया भी जाए तो मधुमेह रोगियों को विशेष लाभ होता है। बिल्व शरीर के सूक्ष्म मल का शोषण कर उसे मूत्र के द्वारा बाहर निकाल देते हैं। इससे शरीर की शुद्धि हो जाती है। बिल्वपत्र दिल व दिमाग दोनों सवस्थ्य रहते हैं। शरीर को पुष्ट व सुडौल बनाते हैं।

धर्मशास्त्रों के अनुसार बर्थ-डे पर क्या और क्यों नहीं करना चाहिए?

जन्मदिन हर व्यक्ति के जीवन का बहुत ही विशेष दिन होता है। इसीलिए सभी लोग चाहे वो आम हो या खास अपने बर्थ-डे को विशेष तरह से मनाना पसंद करते हैं। कुछ लोग इस दिन अपने घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान करना पसंद करते हैं तो कुछ अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के साथ पार्टी करना पसंद करते हैं। जन्मदिन चाहे कैसे भी मनाएं। मतलब सिर्फ अपनी खुशियों और खास लम्हों को अपनों के साथ बांटने से है या कहें सेलीब्रेशन से है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार यदि हम अपना जन्मदिन मनाएं तो हमारे शास्त्रों के अनुसार जन्मदिन के दिन कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें करना शास्त्रों में अच्छा नहीं माना गया है। ये कार्य इस प्रकार है।
जन्मदिन पर नाखून एवं बाल काटना, वाहन से यात्रा करना, कलह, हिंसाकर्म, अभक्ष्यभक्षण (न खाने योग्य पदार्थ खाना), अपेयपान (न पीने योग्य पदार्थ पीना), स्त्रीसंपर्क से प्रयत्नपूर्वक बचना चाहिए। इसी तरह दीपक का बुझना आकस्मिक मृत्यु, अर्थात् अपमृत्युसे संबंधित है। इसे अशुभ माना गया है। इसीलिए मोमबत्ती जलाकर जन्मदिन नहीं मनाना चाहिए। हिंदू संस्कृति के अनुसार दिन सूर्योदयसे आरंभ होता है। यह समय ऋषि-मुनियोंकी साधना का समय है, इसलिए वातावरणमें सात्त्विकता अधिक होती है और सूर्योदयके पश्चात् दी गई शुभकामनाएं फलदायी सिद्ध होती हैं। इसलिए रात के समय जन्मदिन की बधाई देने से बचना चाहिए।

इन्द्र उन्हें सोमपान से रोकना चाहता था क्योंकि...

ऋषि च्यवन ने अश्विनीकुमारों से कहा मैं वृद्ध था तुमने जो यौवन मुझे दिया। मैं इसलिए तुम्हे सोमपान का अधिकार दिलवाऊंगा।
यह सुनकर अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या उस आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे। जब शर्याति ने सुना कि च्यवन मुनि युवा हो गए हैं तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपनी सेना सहित आश्रम पहुंचे। राजा और रानी को ऐसा लगा मानों उन्हें पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया हो। फिर च्यवन मुनि ने राजा से कहा मैं आपसे यज्ञ करवाऊंगा। आप सारी सामग्री तैयार करवाइए। राजा ने बहुत प्रसन्नता से उनकी बात मान ली। जब यज्ञ का दिन आया। ें महर्षि च्यवन ने यज्ञ की शुरूआत की। उन्होंने अपनी यज्ञ का कुछ भाग अश्विनी कुमारों को दे दिया। तब इन्द्र ने उन्हें रोकते हुए। ये चिकित्साकार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण कर मृत्युलोक में भी विचरते रहते हैं। इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे हो सकता है। जब च्यवन ऋषि देखा कि देवराज बार-बार उसी बात पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने उनकी उपेक्षा कर अश्विनीकुमारों को देने के लिए उत्तम सोमरस लिया। उन्हें इस प्रकार अश्विनीकुमारों के लिए सोमरस लेते देख इन्द्र को भयंकर क्रोध आया। इन्द्र उन पर वज्र छोडऩे को उद्धत हुआ। वो जैसे ही प्रहार करने लगे कि च्यवन ने उनकी भुजाओं को स्तंभित कर दिया। उन्होंने अपने तपोबल से मद नामक एक राक्षस उत्पन्न किया। इससे इन्द्र को बड़ा ही दुख हुआ। उसके बाद अश्विनीकुमारों ने सोमपान किया। उसके बाद इन्द्र ने च्यवन मुनि से क्षमा मांगी। उसके बाद च्यवन मुनि का कोप शांत हुआ।

सफलता के लिए सबसे जरूरी है यह चीज...

दृढ़ निश्चय कार्य की सफलता के लिए जरूरी है। इस निश्चय में निश्चलता और जोड़ देना चाहिए। यानी हम कार्य को पूरा करने के लिए जितने अनुशासित रहेंगे उतने ही विनम्र भी होंगे। निश्चय मतलब अपने ही प्रति अनुशासन हेतु कठोर होना और निश्चल यानी दूसरों के मामले में कुटिल भावना न रखना।
अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों का अपने ही द्वारा पालन करना कोई आसान काम नहीं है। बड़े-बड़े इसमें चूक जाते हैं। अपने अनुशासन का पालन करने के लिए हमें सतत् स्वयं के गुण-दोषों की पहचान और आंकलन करना होगी। इसके लिए एक सरल तरीका है सत्संग करते रहना। सत्संग में या तो हम किसी महापुरुष को सुन रहे होते हैं, देख रहे होते हैं और उन्हीं के द्वारा पहले बीत गए कुछ अवतारों, फकीरों की जीवनी सुन रहे होते हैं।
जीवन का जो भी श्रेष्ठ होता है वह सत्संग में उस समय उतर रहा होता है। लिहाजा कोई चूक न हो जाए इसलिए आत्म अनुशासन काम आता है। अपने व्यक्तित्व में दृढ़ता लाने के लिए सत्संग के माध्यम से महान हस्तियों की जीवन शैली को ऐसे सुना जाए जैसे पहले उन लोगों ने जीवन जिया है। चाहे राम हों या कृष्ण, जीसस हों या महावीर, बुद्ध हों। इन सबका जीवन बिल्कुल ऐसा था जैसे बांसुरी। बंसी अपनी आकृति और कृति से एक बड़ा सुंदर संदेश देती है। उसके अपने पेट में कुछ नहीं होता।
जैसी फूंक मारी गई और उंगलियां चलाई गई वह मधुर संगीत संसार में फेंक देती है। इसी प्रकार हम सब परमात्मा की अंधरों की बंसी बन जाएं। स्वर हमारा होगा, क्रिया उसकी होगी। यही आत्म अनुशासन का एक स्वरूप है। इस अनुभूति में हम दृढ़ भी होंगे और निश्चल भी।

तरक्की... ऐसा करने से ही मिल सकती है

कई बार ऐसा होता है कि हम मन लगाकर ईमानदारी से अपना काम करते हैं इसके बाद भी हमारी तरक्की नहीं होती। जबकि जो व्यक्ति कई मामलों में हमसे कमतर होता है, उसकी तरक्की जल्दी हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं और अपने मालिक के प्रति घ्रणा से भर जाते हैं।
आइये चलते हैं एक सुन्दर सी कथा की ओर, जो काम और तरक्की के बीच के संबंधों और बारीक कारणों से पर्दा उठाती है...
किसी गांव में हरिया नाम का एक लकड़हारा रहता था। वह अपने मालिक के लिए रोज जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता था। यह काम करते हुए उसे पांच साल हो चुके थे लेकिन मालिक ने न तो कभी उसकी तारीफ की और न ही वेतन बढ़ाया। थोड़े दिनों बाद उसके मालिक ने जंगल से लकडिय़ां काटकर लाने के लिए बुधिया नाम के एक और लकड़हारे को भी नौकरी दे दी। बुधिया अपने काम में बड़ा माहिर था। वह हरिया से ज्यादा लकडिय़ां काटकर लाता था। एक साल के अंदर ही मालिक ने उसका वेतन बढ़ा दिया। यह देखकर हरिया बहुत दु:खी हुआ और मालिक से इसका कारण पूछा।
मालिक ने कहा कि पांच साल पहले तुम जितने पेड़ काटते थे आज भी उतने ही काटते हो। तुम्हारे काम में कोई फर्क नहीं आया है जबकि बुधिया तुमसे ज्यादा पेड़ काटकर लाता है। यदि तुम भी कल से ज्यादा पेड़ काटकर लाओगे तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ जाएगा। हरिया ने सोचा कि बुधिया भी उतनी ही देर काम करता थे जितनी देर मैं। तो भी वह ज्यादा पेड़ कैसे काट लेता है। यह सोचकर वह बुधिया के पास गया और उससे इसका कारण पूछा। बुधिया ने बताया कि वह कल काटने वाले पेड़ को एक दिन पहले ही चुन लेता है ताकि दूसरे दिन इस काम में वक्त खराब न हो। इसके अलावा रोज कुल्हाड़ी में धार भी करता है इससे पेड़ जल्दी कट जाते हैं और कम समय में ज्यादा काम हो जाता है।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

पांच बातों का ध्यान जिंदगी भर रखें

मेडीकल सांइस के क्षेत्र में चाहे कितनी ही तरक्की हो गई हो, लेकिन कुछ रोग आज भी जानलेवा बने हुए हैं। ऐसी ही
ला-इलाज बीमारियों में केंसर भी एक है। यह बात अवश्य है कि केंसर की जानकारी समय रहते लगने पर इसको संभाला और समाप्त किया जा सकता है किन्तु अधिकांस दुखद घटनाओं में होता यह है कि जब तक पता चलता है बात हाथ से निकल चुकी होती है।
शरीर को लेकर बरती गई जरा सी लापरवाही कई बार भयानक दु:ख का कारण बन जाती है। इसलिये समझदारी इसी में है कि हर अपने तन-मन को लेकर हमेशा जागरूक और जिम्मेदार रहें। तो आइये जानते हैं कुछ ऐसे ही बेहद आसान और कारगर उपाय, जिन्हें अपने डेली रुटीन में शामिल करके आप केंसर जैसी भयानक बीमारी से काफी हद तक सुरक्षित हो जाते हैं। ये पांचों उपााय योग, आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा का सम्मिलित रूप हैं......
-प्रतिदिन सुबह खाली पेट पांच पत्तियां तुलसी की मुंह में रखकर जब तक चूंसते रहें, जब तक कि ये समाप्त न हो जाएं।
-प्रतिदिन सोने से पूर्व गुनगुने पानी के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन करें।
-प्रतिदिन सूर्योदय की पहली किरणों का सेवन करते हुए कम से कम 2 से 3 मील तक मॉर्निग वाक करें।
-चुनिंदा आसन और प्राणायाम को अपनी नियमित दिनचर्या में शामिल करें, यह काम किसी कुशल योग मार्गदर्शक की
देखरेख में करना सुरक्षित रहता है।
-नशीले पदार्थों- चाय, कॉफी, तंबाकू, अधिक टीवी देखना, तेज म्यूजिक सुनना ......आदि से जितना हो सकें बच कर रहें।

जब भी मंदिर जाएं, सबसे पहले यहां झुकाना चाहिए सिर

मंदिर एक ऐसा स्थान जहां हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, जहां जाने वाले व्यक्ति को अद्भुत मानसिक शांति की अनुभूति होती है। सुख में भगवान को याद करे ना करें लेकिन दुख में सभी भगवान को जरूर याद करते हैं। भगवान को मनाने के लिए देवस्थानों और मंदिरों में प्रार्थना करते हैं। शास्त्रों के अनुसार मंदिरों के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बताए गए हैं।
मंदिरों में जाने से पूर्व ध्यान रखें कि सबसे पहले किसे प्रणाम करना चाहिए? सभी मंदिरों के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश की प्रतिमा या कोई प्रतीक चिन्ह अवश्य ही रहता है, सबसे पहले इन्हीं श्रीगणेशजी को प्रणाम करना चाहिए। श्रीगणेश को प्रथम पूज्य माना गया है। वेद-पुराण के अनुसार इस संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं। शिवजी ने गणेशजी को प्रथम पूज्य होने का वरदान दिया है।
इसी वजह से कोई मांगलिक कर्म, पूजन आदि में सबसे पहले गणेशजी की आराधना ही की जाती है। किसी भी भगवान के मंदिर में जाए सबसे पहले भगवान गणपति का ही स्मरण करना चाहिए। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण होती है और सभी देवी-देवताओं की कृपा आप पर बनी रहती है।

शहद की यह खूबी, किसी को भी ताज्जुब में डाल देगी!

सुना है कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर की गई हर इच्छा पूरी हो जाती है। लेकिन आज तक ऐसे किसी वृक्ष की खोज नहीं हो सकी है। लेकिन अभी-अभी एक ऐसे वृक्ष के बारे में पता चला है जिसे प्रकृति ने एक अनोखी खाशियत से नवाजा है। इस पैड़ की खाशियत इसके फू लों में छुपी है। क्योंकि इसके फूलों से बना शहद दुनिया के सर्वोत्तक एंटीबॉयोटिक का काम करता है।
इस विलक्षण पैड़ का नाम है-मनुका, और यह न्यूज़ीलैंड के जंगलों में पाया जाता है। वेल्स यूनिवर्सिटी द्वारा किये गए शोध से पता चला है कि इस पैड़ के फूलों से बना शहद बेहद असरदार होता है। इस शहद को मधुमक्खियां न्यूज़ीलैंड के मनुका वृक्षों से पराग इक_ा करके बनाती हैं। पूरी दुनिया में ज़ख्मों के इलाज के लिए इस शहद का पहले से ही इस्तेमाल किया जा रहा है।
शोधकर्ता, मनुका पैड़ से बने शहद में मौजूद बैक्टीरिया से लडऩे की क्षमता को और बेहतर तरीक़े से जान लेना चाहते थे ताकि हमारे अस्पतालों में पाए जाने वाले कुछ बेहद मुश्किल बैक्टीरिया संक्रमणों से निपटा जा सके। सबसे सामान्य बैक्टीरिया स्ट्रेप्टोकोक्की और स्यूडोमोनड्स पर किए प्रयोगों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि मनुका पैड़ से निर्मित शहद बैक्टीरिया को कोशिकाओं तक पहुंचने से रोक देता है जो कि किसी भी गंभीर संक्रमण की शुरुआत की सबसे अहम कड़ी होती है.
प्रयोगों के आधार पर ये संकेत मिलता है कि दवाओं को बेअसर करनेवाले संक्रमणों के इलाज के लिए मनुका शहद को अगर एंटीबायोटिक दवाओं के साथ मिलाकर दिया जाए तो ये ज़्यादा असरदार साबित हो सकता है।

नजर से बचने के लिए काला धागा क्यों बांधा जाता है?

जब भी हमारे खुशियां दुख में बदल जाए या हमेशा प्राप्त होने वाला धन लाभ अचानक हानि में बदल जाए या परिवार का आपसी तालमेल बिगड़ जाए इसी प्रकार की घटनाएं होने लगे तक संभव है कि आपको या आपके परिवार या आपकी जॉब या व्यवसाय को किसी की बुरी नजर लगी हो। इससे बचने के लिए ज्योतिष में कई तरीके बताए गए हैं। जैसे छोटे बच्चों या लड़कियों की सुंदरता को किसी भी बुरी नजर न लगे इसके लिए उन्हें काला टीका लगाना चाहिए। बुरी नजर लगने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी मौजूद हैं। हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है। यह पंच तत्व हैं- पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और आकाश।
इन्हीं पंच तत्वों से मिलने वाली ऊर्जा ही हमारे शरीर का संचालन करती हैं। इनसे मिलने वाली ऊर्जा से ही हम सभी सुविधाओं को प्राप्त करते हैं। जब किसी इंसान की बुरी नजर हमारी सुविधाओं को लगती है तब इन पंच तत्वों से मिलने वाली संबंधित सकारात्मक ऊर्जा हम तक नहीं पहुंच पाती है। इसीलिए गले में काला धागा बांधा जाता है। यह तो वैज्ञानिक मान्यता है कि काला रंग उष्मा का अवशोषक होता है। यह माना जाता है कि काला धागा बुरी नजर को या बुरा ऊर्जाओं को अवशोषित कर लेता है व उनका प्रभाव हम पर नहीं पडऩे देता है। इसीलिए बुरी नजर लगने पर काला धागा बांधा जाता है।

दुनिया जीतने के लिये चाहिये ऐसा जज्बा!!

कहते हैं कि धन-दौलत पाने पर अक्सर व्यक्ति का दिमाग ठिकाने पर नहीं रहता। इसी दुनिया में खुद हमने ही देखा है कि कितने ही लोग हैं जो सुख-समृद्धि पाते ही गलत रास्ते पर या अय्याशी, आलस्य और दिखावे के रास्ते पर चल पड़ते हैं, जबकि पद, पैसा और प्रतिष्ठा पाकर भी जिनके कदम नहीं लडख़ड़ाते वही लंबे समय तक कामयाबी के शिखर पर टिक पाते हैं।
पद-प्रतिष्ठा पाने पर भी व्यक्ति को कैसे धैर्य और संयम की जरूरत होती है, यह जानने के लिये आइये चलते हैं एक सुंदर कथा की ओर....
यह एक ऐतिहासिक और वास्तविक घटना है- नादिरशाह करनाल (हरियाणा) के मैदान में मुहम्मदशाह की सेना को पराजित करके दिल्दी पहुंचा। मुहम्मदशाह को हराने के बावजूद नादिरशाह ने शिष्टाचाार के नाते उसे अपने बास ही बैठाया। नादिरशाह को प्यास लगी तो उसने पानी मांगा। पुराने शाही ठाट-बाट की परंपरा के चलते पानी मांगने पर तुरंत वहां नगाड़ा बजने लगा जैसे वहां कोई बड़ा उत्सव मन रहा हो। दस-बारह सेवक पूरे राजसी अदब के साथ दौड़कर आए। किसी के पास पानी से भरा सोने का पात्र जो हीरे-मातियों से सजा था, किसी के पास रूमाल, किसी के पास केवड़ा....। नादिरशाह को यह सब नाटक और अनावश्यक दिखावा- आडम्बर देखकर बड़ा बेतुका लगा। चिढ़कर नादिरशाह ने अपने पर्सनल भिस्ती को आवाज लगाई। भिस्ती तत्काल दौड़कर आया तो नादिरशाह ने अपने सिर का लोहे का टोप आगे कर दिया और उसमे पानी लेकर अपनी प्यास बुझाकर असली यौद्धा सैनिक जैसा व्यवहार किया। नादिरशाह के इस व्यवहार को देखकर सारे दरबारी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। क्योंकि अभी तक उन्होंने शाही ठाट-बाट का बढ़-चढ़ कर दिखावा ही होते हुए देखा था।
वीर नादिरशाह दरबारियों के मन की बात समझ गया। वह बड़े ही गंभीर स्वर में मुहम्मदशाह और बाकी दरबारियों की और मुखातिब होकर बोला- '' यदि हम भी तुम्हारी तरह दिखावे और अय्यासी की जिंदगी जीने का शौक रखते तो विजेता बनकर ईरान से भारत तक नहीं पहुंच पाते। तुम पर हमारी जीत का अहम् कारण दिखावे से दूरी और सच्चे सैनिक का जीवन जीना ही है''
नादिरशाह की बात सुनकर मुहम्मदशाह और उसके अय्याश दरबारियों के सर शर्म जिल्लत से नीचे झुक गए।
.....इस कथा का सबसे कीमती सबक यही है कि विजेता बनने और फिर बने रहने के लिये व्यक्ति में संयम, सादगी और
लगातार कठोर परिश्रम की खूबियों का होना बहुत अनिवार्य है।
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भागवत ३१७

जरूरी है जिम्मेदारियों को निभाना क्योंकि....
गृहस्थ का उद्देश्य परमात्मा के निकट जाने का नहीं उसे अपने निकट बुलाने का है। यह एक तरह का वशीकरण है। संन्यास में संन्यासी भगवान के निकट पहुंचकर उसे अपने वश में करने का प्रयास करता है, गृहस्थ का वशीकरण इससे विपरीत खुद भगवान के प्रति समर्पित होने का है। उसके रचे संसार का पालन कर, कर्तव्यों का निर्वहन कर वह भगवान को समर्पित हो जाता है। फिर भगवान खुद उसके वश में होकर उसे ढूंढने निकल पड़ते हैं। एक कथा है कि एक संन्यासी किसी गांव में पहुंचा। वहां मंदिर में एक पुजारी रहता था, जो बहुत धार्मिक स्वभाव का था, उसके पत्नी और बच्चे भी आज्ञाकारी थे। पुजारी भगवान की सेवा तो करता था लेकिन उसका मन फिर भी बेचैन रहता था कि भगवान को पाना है। साधु गांव में पहुंचे तो उसकी इच्छा और अधिक बलवती हो गई।
पुजारी ने संन्यास लेने की ठान ली और परिवार को रोता-बिलखता छोड़ साधु के साथ चला गया। गांववालों ने बहुत समझाया, पत्नी और पुत्र ने पैर पकड़ लिए लेकिन वह नहीं माना। उसकी पत्नी भी काफी समझदार और धार्मिक थी, सो नियति का खेल समझकर इसे स्वीकार कर लिया। पुत्र की जिम्मेदारी, मंदिर की सेवा और खेती भी उसके जिम्मे आ गई।
वह सारी बातें भूलकर अपनी जिम्मेदारी निभाने लगी। पुत्र को गुरु के पास भेज दिया अच्छी शिक्षा के लिए। मंदिर में सुबह-शाम पूजा का सिलसिला भी बंद नहीं होने दिया और खेती भी मुरझाने नहीं दी। वह जब भी भगवान की पूजा करती तो एक ही बात दोहराती कि मेरे पति को भगवान आपकी प्राप्ति जल्दी हो, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया है।
उधर पुजारी साधु के साथ वन-वन भटकने लगा। एक दिन उसे भगवान नारायण गुजरते दिखाई दिए। उसने पैर पकड़ लिए, भगवान आपके दर्शन हो गए। भगवान ने उससे कहा-हट जा मैं अभी तेरे लिए नहीं आया हूं। मुझे कहीं और जाना है। कोई मेरा इंतजार कर रहा है। पुजारी ने पूछा मैं भी तो आपके लिए सबकुछ छोड़कर भटक रहा हूं। आपका इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए कब आएंगे।
नारायण ने कहा-अभी तुम्हें बहुत समय लगेगा। तुमने मेरी तलाश तो की लेकिन मैंने तुम्हें जो काम सौंपा था वह नहीं किया।
जारी बोला-कौन सा काम भगवन, मैं तो दिन-रात आपकी ही सेवा कर रहा हूं। इसके सिवा तो मेरी जिंदगी में कुछ और रह ही नहीं गया है।भगवान बोले- मैंने अपनी एक भक्त और उसके पुत्र की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी थी लेकिन तुम उस जिम्मेदारी से मुंह छिपाकर भाग आए। पुजारी को समझते देर नहीं लगी कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर आया है। बस उसकी आंखें खुल गई। फिर गांव की ओर लौट पड़ा।
गांव में आया तो देखा उसकी पत्नी की चारों ओर जय-जयकार हो रही है। कच्चे मकान की जगह महल खड़ा है। पुत्र राजकुमारों जैसे कपड़े पहने था। घर में नौकर-चाकरों की कतार लगी थी।मंदिर में गया तो खुद नारायण बैठे, उसकी पत्नी का बनाया भोग खा रहे हैं। पत्नी की सेवा और जिम्मेदारियों के पालन से भगवान प्रसन्न हो गए। पुजारी ने अपनी पत्नी से क्षमा मांगी। नारायण ने उसे आशीर्वाद दिया। कहा-तुझे तेरे तप के कारण नहीं, तेरी पत्नी के सेवाभाव और तुम्हारे प्रति उसकी श्रद्धा के कारण दे रहा हूं।कथा का सारांश यह है कि भगवान ने आपको जो जिम्मेदारियां दी हैं सबसे पहले उसका पालन करें।
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बुधवार, 20 जुलाई 2011

शनिदेव को मनाने के लिए हनुमानजी को तेल क्यों चढ़ाते हैं?

हनुमानजी को संकटमोचन कहा जाता है। कहते हैं हनुमानजी अपने सभी भक्तों के जीवन से संकट को हर लेते हैं। अधिकतर ज्योतिष शनि देव को प्रसन्न करने के लिए या उनके कोप को कम करने के लिए हनुमान के पूजन को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार शनि और हनुमान से जुड़ी एक कथा है।
कथा के अनुसार शनि को स्वभाव से क्रुर ग्रह माना गया है। शनि का स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उन्होंने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माने तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीडि़त शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा और उन्हें तेल अर्पित करेगा वे उस पर कृपा करेंगे। इसीलिए शनि की साढ़े-साती या किसी भी तरह से शनि का अशुभ प्रभाव होने पर उससे मुक्ति के लिए हनुमानजी को तेल अर्पित किया जाता है।
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सावन में शिवलिंग पर दूध क्यों चढ़ाया जाता है?

हमारे हिंदू धर्म में त्रिदेवों अर्थात भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का अपना एक विशिष्ट स्थान है और इसमें भी भगवान शंकर का चरित्र जहाँ अत्यधिक रोचक हैं वहीं यह पौराणिक कथाओं में अत्यधिक गूढ रहस्यों से भी भरा हुआ है। भगवान शिव को विश्वास का प्रतीक माना गया है क्योंकि उनका अपना चरित्र अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है जैसे शिव का अर्थ है जो शुभकर व कल्याणकारी हो, जबकि शिवजी का अपना व्यक्तित्व इससे जरा भी मेल नहीं खाता, क्योंकि वे अपने शरीर में इत्र के स्थान पर चिता की राख मलते हैं तथा गले में फूल-मालाओं के स्थान पर विषैले सर्पों को धारण करते हैं। वे अकेले ही ऐसे देवता हैं जो लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। सावन में शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का विशेष महत्व माना गया है। इसीलिए शिव भक्त सावन के महीने में शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उन पर दूध की धार अर्पित करते हैं।
पुराणों में भी कहा गया है कि इससे पाप क्षीण होते हैं। लेकिन सावन में शिवलिंग पर दूध चढ़ाने का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक महत्व भी है। सावन के महीने में दूध का सेवन नहीं करना चाहिए। शिव ऐसे देव हैं जो दूसरों के कल्याण के लिए हलाहल भी पी सकते हैं। इसीलिए सावन में शिव को दूध अर्पित करने की प्रथा बनाई गई है क्योंकि सावन के महीने में गाय या भैस घास के साथ कई ऐसे कीड़े-मकोड़ो को भी खा जाती है। जो दूध को स्वास्थ्य के लिए गुणकारी के बजाय हानिकारक बना देती है। इसीलिए सावन मास में दूध का सेवन न करते हुए उसे शिव को अर्पित करने का विधान बनाया गया है।

खुशी और सुकून का असली रहस्य- यह है

जो गृहस्थ में हैं उन्हें लगता है कि इस दुनियादारी में रहते हुए सच्ची खुशी और मन का सुकून नहीं मिल सकता, लेकिन ऐसी सोच में सच्चाई नहीं है। क्योंकि खुशी और शांति हालातों पर नहीं बल्कि खुद व्यक्ति के सही नजरिये पर निर्भर होती है।
इस बात को समझने के लिये आइए चलते हैं एक सुन्दर कथा की ओर....
प्रसिद्ध राजा अश्वघोष के मन में वैराग्य हो गया यानी संसार और दुनियादारी से उसे अरुचि हो गई। घर-परिवार को छोड़कर वे यहां-वहां ईश्वर और सच्ची शांति की खोज में भटकने लगे। कई दिनों के भूखे प्यासे अश्वघोष एक दिन भटकते हुए एक किसान के खेत पर पहुंचे। अश्वघोष ने देखा कि वह किसान बड़ा ही प्रशन्न, स्वस्थ व चेहरे से बड़ा ही संतुष्ट लग रहा था। अश्वघोष ने किसान से पूछा- ''मित्र तुम्हारी इस प्रशन्नता और संतुष्टि का राज क्या है? देखने में तो तुम थोड़े गरीब या सामान्य ही लगते हो। ''किसान ने जवाब दिया कि-'' सभी जगह ईश्वर के दर्शन और परिश्रम में ही परमात्मा का अनुभव करना ही मेरी इस प्रशन्नता और संतुष्टि का कारण है।''
अश्वघोष ने कहा-''मित्र उस ईश्वर के दर्शन और अनुभव मुझे भी करा दोगे तो मुझपर बड़ी कृपा होगी।'' अश्वघोष की इच्छा जानकर किसान ने कहा- ''ठीक है... पहले आप कुछ खा-पी लें, क्योंकि तुम कई दिनों के भूखे लग रहे हो।''
किसान ने घर से आई हुई रोटियां दो भागों में बांटीं। दोनों ने नमक मिर्ची की चटनी से रोटियां खाईं। फिर किसान ने उन्हें खेत में हल चलाने के लिये कहा। थोड़ी देर में ही श्रम से थके हुए और कई दिनों बाद मिले भोजन की तृप्ति के कारण राजा अश्वघोष को नींद आने लगी। किसान ने आम के पेड़ के नीचे छाया में उन्हें सुला दिया। जब राजा अश्वघोष सो कर उठे, तो उस दिन जो शांति और हलकेपन का अहसास हुआ वह महल की तमाम सुख-सुविधाओं में भी आज तक नहीं हुआ था।
....राजा को किसान से पूछे गए अपने प्रश्र का जवाब खुद ही मिल गया। जिसकी तलाश में राजा दर-दर भटक रहा था वह शांति का रहस्य राजा को मिल गया कि ईश्वर पर अटूट आस्था और परिश्रम ही सारी समस्याओं का हल है।

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आपका भविष्य तय करती है आपकी संगत
एक सुंदर कथा है। संतों की संगत का असर हम पर कैसे पड़ता है।कथा है एक नगर के बाहर जंगल में कोई साधु आकर ठहरा। संत की ख्याति नगर में फैली तो लोग आकर मिलने लगे। प्रवचनों का दौर शुरू हो गया।
संत की ख्याति दिन रात दूर-दूर तक फैलने लगी। लोग दिनभर संत को घेरे रहते थे। एक चोर भी दूर से छिपकर उनको सुनता था। रात को चोरी करता और दिन में लोगों से छिपने के लिए जंगल में आ जाता। वह रोज सुनता कि संत लोगों से कहते हैं कि सत्य बोलिए। सत्य बोलने से जिंदगी सहज हो जाती है। एक दिन चोर से रहा नहीं गया, लोगों के जाने के बाद उसने अकेले में साधु से पूछा-आप रोजाना कहते हो कि सत्य बोलना चाहिए, उससे लाभ होता है लेकिन मैं कैसे सत्य बोल सकता हूं।संत ने पूछा-तुम कौन हो भाई?चोर ने कहा-मैं एक चोर हूं।संत बोले तो क्या हुआ। सत्य का लाभ सबको मिलता है। तुम भी आजमा कर देख लो।
चोर ने निर्णय लिया कि आज चोरी करते समय सभी से सच बोलूंगा। देखता हूं क्या फायदा मिलता है। उस रात चोर राजमहल में चोरी करने पहुंचा। महल के मुख्य दरवाजे पर पहुंचते ही उसने देखा दो प्रहरी खड़े हैं। प्रहरियों ने उसे रोका-ऐ किधर जा रहा है, कौन है तूं।
चोर ने निडरता से कहा-चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं। प्रहरियों ने सोचा कोई चोर ऐसा नहीं बोल सकता। यह राज दरबार का कोई खास मंत्री हो सकता है, जो रोकने पर नाराज होकर ऐसा कह रहा है। प्रहरियों ने उसे बिना और पूछताछ किए भीतर जाने दिया।

चोर का आत्म विश्वास और बढ़ गया। महल में पहुंच गया। महल में दास-दासियों ने भी रोका। चोर फिर सत्य बोला कि मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। दास-दासियों ने भी उसे वही सोचकर जाने दिया जो प्रहरियों ने सोचा। राजा का कोई खास दरबारी होगा।अब तो चोर का विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया, जिससे मिलता उससे ही कहता कि मैं चोर हूं। बस पहुंच गया महल के भीतर।
कुछ कीमती सामान उठाया। सोने के आभूषण, पात्र आदि और बाहर की ओर चल दिया। जाते समय रानी ने देख लिया। राजा के आभूषण लेकर कोई आदमी जा रहा है। उसने पूछा-ऐ कौन हो तुम, राजा के आभूषण लेकर कहां जा रहे हो।चोर फिर सच बोला-चोर हूं, चोरी करके ले जा रहा हूं। रानी सोच में पड़ गई, भला कोई चोर ऐसा कैसे बोल सकता है, उसके चेहरे पर तो भय भी नहीं है। जरूर महाराज ने ही इसे ये आभूषण कुछ अच्छा काम करने पर भेंट स्वरूप पुरस्कार के रूप में दिए होंगे। रानी ने भी चोर को जाने दिया। जाते-जाते राजा से भी सामना हो गया। राजा ने पूछा-मेरे आभूषण लेकर कहां जा रहे हो, कौन हो तुम?
चोर फिर बोला- मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। राजा ने सोचा इसे रानी ने भेंट दी होगी। राजा ने उससे कुछ नहीं कहा, बल्कि एक सेवक को उसके साथ कर दिया। सेवक सामान उठाकर उसे आदर सहित महल के बाहर तक छोड़ गया।
अब तो चोर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने सोचा झूठ बोल-बोलकर मैंने जीवन के कितने दिन चोरी करने में बरबाद कर दिए। अगर चोरी करके सच बोलने पर परमात्मा इतना साथ देता है तो फिर अच्छे कर्म करने पर तो जीवन कितना आनंद से भर जाएगा।चोर दौड़ा-दौड़ा संत के पास आया और पैरों में गिर पड़ा। चोरी करना छोड़ दिया और उसी संत को अपना गुरू बनाकर उन्हीं के साथ हो गया।संत की संगत ने चोर को बदल दिया। कथा का सार यही है कि जो सच्चा संत होता है वह हर जगह अपना प्रभाव छोड़ता ही है।

राजकुमारी ने अनजाने में ऋषि च्यवन की आंखें फोड़ दी तो.....

इस तरह उस तीर्थ की कहानी सुनने के बाद पांडव शर्याति यज्ञ स्थान पर पहुंचे। लोमेश मुनि ने एक स्थान कि ओर संकेत करते हुए युधिष्ठिर से कहा महाराज यह शर्याति यज्ञ स्थान है। यहां कौशिक मुनि ने अश्विनीकुमार सहित सौमपान किया था। इसी स्थान पर महर्षि च्यवन ने इन्द्र को स्तब्ध कर दिया था। यहीं उन्हें राजकुमारी सुकन्या प्राप्त हुई थी। तब युधिष्ठिर ने पूछा च्यवनमुनि को क्रोध क्यों हुआ? उन्होंने इन्द्र को स्तब्ध क्यों किया? अश्विनीकुमारों को उन्होंने सोमपान का अधिकारी कैसे बनाया?

महर्षि भृगु का च्यवन नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा। वह मुनिकुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर वीरासन में बैठा रहा। धीरे -धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर घास और लताओं से ढक लिया। उनके शरीर पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। वे चारों तरफ से देखने पर केवल मिट्टी का एक पिंड जान पड़ते थे। इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आया। उसकी चार सुन्दरी रानियां और एक सुंदर कन्या थी। उसका नाम सुकन्या थी। वह कन्या अपनी सहेलियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के उस बांबी के पास आ गई उसमें से च्यवन मुनि की चमकती आंखे देखकर उसे कौतुहल हुआ। फिर उसने बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसे कांटे से छेद दिया। इस प्रकार आंखे फूट जाने के कारण उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने शर्याति की सेना के मल-मूत्र बंद कर दिए।

सेना कि यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां च्यवनऋषि रहते हैं। वे स्वभाव के बहुत क्रोधी हैं। उनका जाने-अनजाने में किसने अपमान किया है। यह बात जब सुकन्या को मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती-घूमती बांबी के पास आ गई। वहां मैंने उस बांबी में जुगनू से चमकते हुए जीव को छेद दिया। यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बांबी के पास गए। वहां उन्हें च्यवन ऋषि दिखाई दिए। राजा ने उनसे क्षमा मांगी। तब उन्होंने कहा इस गर्वीली कन्या जिसने मेरी आंखें फोड़ी हैं। मैं इसे पाकर ही क्षमा कर सकता हूं।

दुनिया जीतने के लिये चाहिये ऐसा जज्बा!!

कहते हैं कि धन-दौलत पाने पर अक्सर व्यक्ति का दिमाग ठिकाने पर नहीं रहता। इसी दुनिया में खुद हमने ही देखा है कि कितने ही लोग हैं जो सुख-समृद्धि पाते ही गलत रास्ते पर या अय्याशी, आलस्य और दिखावे के रास्ते पर चल पड़ते हैं, जबकि पद, पैसा और प्रतिष्ठा पाकर भी जिनके कदम नहीं लडख़ड़ाते वही लंबे समय तक कामयाबी के शिखर पर टिक पाते हैं।
पद-प्रतिष्ठा पाने पर भी व्यक्ति को कैसे धैर्य और संयम की जरूरत होती है, यह जानने के लिये आइये चलते हैं एक सुंदर कथा की ओर....
यह एक ऐतिहासिक और वास्तविक घटना है- नादिरशाह करनाल (हरियाणा) के मैदान में मुहम्मदशाह की सेना को पराजित करके दिल्दी पहुंचा। मुहम्मदशाह को हराने के बावजूद नादिरशाह ने शिष्टाचाार के नाते उसे अपने बास ही बैठाया। नादिरशाह को प्यास लगी तो उसने पानी मांगा। पुराने शाही ठाट-बाट की परंपरा के चलते पानी मांगने पर तुरंत वहां नगाड़ा बजने लगा जैसे वहां कोई बड़ा उत्सव मन रहा हो। दस-बारह सेवक पूरे राजसी अदब के साथ दौड़कर आए। किसी के पास पानी से भरा सोने का पात्र जो हीरे-मातियों से सजा था, किसी के पास रूमाल, किसी के पास केवड़ा....। नादिरशाह को यह सब नाटक और अनावश्यक दिखावा- आडम्बर देखकर बड़ा बेतुका लगा। चिढ़कर नादिरशाह ने अपने पर्सनल भिस्ती को आवाज लगाई। भिस्ती तत्काल दौड़कर आया तो नादिरशाह ने अपने सिर का लोहे का टोप आगे कर दिया और उसमे पानी लेकर अपनी प्यास बुझाकर असली यौद्धा सैनिक जैसा व्यवहार किया। नादिरशाह के इस व्यवहार को देखकर सारे दरबारी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। क्योंकि अभी तक उन्होंने शाही ठाट-बाट का बढ़-चढ़ कर दिखावा ही होते हुए देखा था।
वीर नादिरशाह दरबारियों के मन की बात समझ गया। वह बड़े ही गंभीर स्वर में मुहम्मदशाह और बाकी दरबारियों की और मुखातिब होकर बोला- '' यदि हम भी तुम्हारी तरह दिखावे और अय्यासी की जिंदगी जीने का शौक रखते तो विजेता बनकर ईरान से भारत तक नहीं पहुंच पाते। तुम पर हमारी जीत का अहम् कारण दिखावे से दूरी और सच्चे सैनिक का जीवन जीना ही है''
नादिरशाह की बात सुनकर मुहम्मदशाह और उसके अय्याश दरबारियों के सर शर्म जिल्लत से नीचे झुक गए।
.....इस कथा का सबसे कीमती सबक यही है कि विजेता बनने और फिर बने रहने के लिये व्यक्ति में संयम, सादगी और
लगातार कठोर परिश्रम की खूबियों का होना बहुत अनिवार्य है।
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मंगलवार, 19 जुलाई 2011

क्यों पड़ गई रानी कौशल्या धर्मसंकट में?

कैकयी दुखी हो रही है वे अपनी सखियों को दुख और शोक के कारण जवाब नहीं दे रही है। नगर में सारे स्त्री पुरूष इस तरह विलाप कर रहे हैं। सभी दुख की आग में जल रहे हैं। रामजी माता कौसल्या के पास गए। उनका मन प्रसन्न है क्योंकि रामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई को ही राजतिलक क्यों किया जाता है?
अब माता कैकयी की आज्ञा पाकर और पिता की मौन सहमति से वह सोच मिट गई। रामजी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, उसे अपने गले से लगा लिया और उन पर गहने और कपड़े न्यौछावर किए। रामजी ने इसे अपना धर्म जानकर माता से बहुत कोमल वाणी में कहा पिताजी मुझको वन का राज्य दिया है, जहां सब तरह से मेरा बड़ा काम बनने वाला है।
चौदह वर्ष वन में रहकर पिताजी के वचन को प्रमाणित करके। तेरे चरणों के दर्शन करूंगा। उस प्रसंग को देखकर वे गूंगी जैसी रह गई। उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। धर्म और स्नेह दोनों ने ही कौसल्याजी को बुद्धि से घेर लिया। वे सोचने लगी अगर मैं पुत्र को रख लेती हूं और भाइयों का विरोध होता है। यदि वन को जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है। इस तरह सोचकर रानी धर्म संकट में पड़ गई।

मोटापे से परेशान हैं तो यह उपाय करें

वर्तमान की भागदौड़ भरी जिंदगी में मोटापा एक गंभीर बीमारी के रूप में उभरकर सामने आया है। इसका सबसे बड़ा कारण अनियमित दिनचर्या व असंयमित खान-पान है। मोटापा वाकई में एक रोग हैं। अगर आप भी मोटापे के कारण परेशान हैं तो यह उपाय करें।
उपाय
अपने हाथ के चार अंगुल नाप का काला धागा लेकर अनामिका अंगुली में लपेट लें और एक शुद्ध रांगे की अंगूठी लेकर उसके ऊपर पहन लें। अंगूठी इस प्रकार पहनें की धागा किसी को दिखाई न दें। इस उपाय से मोटापा धीरे-धीरे अपने आप कम हो जाएगा और आप पहले की तरह स्लिम हो जाएंगे। यह टोटका रविवार के दिन करें।

एक घी के दीपक से बदल जाएंगे आपकी कुंडली के ग्रह-नक्षत्र

ज्योतिष में बताए गए नौ ग्रहों में से शनि को सबसे क्रूर ग्रह माना गया है। इसके साथ ही राहु और केतु भी सामान्यत: अशुभ ग्रह ही माने जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली यह तीनों ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो उसे हमेशा ही परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इन तीनों ग्रहों का आपस में गहरा संबंध है।

शनि, राहु और केतु के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए ज्योतिष में कुछ उपाय बताए गए हैं। इन तीनों ग्रह के लिए एक सटीक उपाय बताया गया है। इस एक तीनों ही ग्रहों के दोष दूर हो जाते हैं। यदि कोई व्यक्ति शनि की साढ़ेसाती, ढैय्या या राहु-केतु के कालसर्प योग से त्रस्त है तो उसे हर शनिवार की रात किसी पीपल के पेड़ के नीचे घी का दीपक जलाएं। इस समय व्यक्ति का मुंह पश्चिम दिशा की ओर होना चाहिए। इसके साथ ही शनि, राहु, केतु और अपने इष्टदेव से प्रार्थना करें।
इस उपाय से कुछ ही दिनों में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे। शनि, राहु या केतु की वजह से यदि किसी व्यक्ति के जीवन में धन संबंधी या अन्य कोई परेशानियां हो तो वे दूर हो जाएंगी। रुके हुए कार्य पूर्ण हो जाएंगे।

खूब पीएं ऐसी चाय...

नुकसान नहीं, फायदा होगा!!
अभी तक आपने यही सुना होगा कि चाय सेहत के लिये बहुत हानिकारक होती है, लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक पहलू है। हानिकारक समझे जाने वाली यही चाय आपके लिये बेहद लाभदायक भी हो सकती है। तरीके बदलने से परिणाम भी बदल जाते हैं। सही तरीके से बनी चाय आपके लिये काफी फायदेमंद हो सकती है। आइये जाने कि गुणों से भरपूर ऐसी लाभदायक चाय किस तरह बनती है....

आवश्यक सामग्री:
तुलसी के सुखाए हुए पत्ते (जिन्हें छाया में रखकर सुखाया गया हो) 500 ग्राम, दालचीनी 50 ग्राम, तेजपात 100 ग्राम,

ब्राह्मी बूटी 100 ग्राम, बनफ शा 25 ग्राम, सौंफ 250 ग्राम, छोटी इलायची के दाने 150 ग्राम, लाल चन्दन 250 ग्राम और काली मिर्च 25 ग्राम। सब पदार्थों को एक-एक करके इमाम दस्ते (खल बत्ते) में डालें और मोटा-मोटा कूटकर सबको मिलाकर किसी बर्नी में भरकर रख लें। बस, तुलसी की चाय तैयार है।
बनाने की विधि
आठ प्याले चाय के लिए यह 'तुलसी चाय' का मिश्रण (चूर्ण) एक बड़ा चम्मच भर लेना काफ ी है। आठ प्याला पानी एक तपेली में डालकर गरम होने के लिए आग पर रख दें। जब पानी उबलने लगे तब तपेली नीचे उतार कर एक चम्मच मिश्रण डालकर फौरन ढक्कन से ढक दें। थोड़ी देर तक सीझने दें फिर छानकर कप में डाल लें। इसमें दूध नहीं डाला जाता। मीठा करना चाहें तो उबलने के लिए आग पर तपेली रखते समय ही उचित मात्रा में शकर डाल दें और गरम होने के लिए रख दें।
फायदे:
ऊपर बताए गए प्रयोग से बनी चाय आपको ताजगी और स्फूर्ति के साथ ही तंदरुस्ती का अतिरिक्त लाभ भी दे सकती है। तुलसी की चाय प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाकर रोगों से बचाने वाली, स्फू र्तिदायक, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाली होती है।