गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

नया साल : शराब से ना करें बर्बाद

31 दिसंबर की रात युवाओं के बीच शराब पानी की तरह बहेगी। देश का युवा अपने हाथों अपने आपको बर्बाद करेगा। यह समझना गलत है कि शराब पीने के दुष्परिणाम केवल वही भुगतता है। दरअसल इस लत का खामियाजा पूरे परिवार और बाद में पूरे समाज को उठाना पड़ता है। पूरे जीवन को प्रभावित करने वाली लत की शुरुआत भी इन्हीं पार्टियों से होती है।
यह तो हम सभी जानते हैं कि शराबखोरी एक बीमारी है जिसका इलाज किया जा सकता है, लेकिन बहुत कम लोग इसे स्वीकार करेंगे कि यह एक 'पारिवारिक बीमारी' है।
अधिक शराब का सेवन हर तरह से खतरनाक है। इससे लीवर सिरोसिस (जिगर का सिकुड़ना) जैसी जानलेवा बीमारी के शिकार होने की संभावना रहती है। विदेशी सर्वेक्षणों का सहारा लेकर कई डॉक्टर यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि प्रतिदिन 60 एमएल शराब का सेवन किया जा सकता है, लेकिन भारतीय परिस्थितियों में यह अत्यंत हानिकारक है। यहाँ सप्ताह में एक या दो दिन से अधिक शराब का सेवन हानिकारक है। भारत पश्चिम की अपेक्षा अधिक गर्म देश है, इसलिए यहाँ कोशिश करनी चाहिए कि सप्ताह में 60 एमएल से अधिक शराब का सेवन न किया जाए।
शराब के अधिक सेवन की वजह से जिगर क्षतिग्रस्त होने लगता है। बार-बार क्षतिग्रस्त होने के कारण जिगर में रेशा (फाइब्रोसिस) बनने लगता है जिससे जिगर सिकुड़ने लगता है। उसमें छोटी-बड़ी गाँठ पड़ जाती है। यह लीवर सिरोसिस है। यदि लीवर में सिर्फ सूजन आए, लेकिन रेशे में न बदले तो उस अवस्था को हेपेटाइटिस कहा जाता है।
शराबखोरी न केवल आर्थिक रूप से खोखला करती है बल्कि आंतरिक और रूहानी तौर पर भी दिवालिया बना देती है। अक्सर देखा गया है कि शराबखोरी की लत में जकड़े व्यक्ति के परिवार के 2-4 सदस्य भी शारीरिक तौर पर इससे प्रभावित हो जाते हैं। अधिकांश मामलों में शराबखोर की पत्नी को सबसे अधिक शारीरिक प्रताड़ना झेलना पड़ती है, साथ ही बच्चे भी कमोबेश पिता की मारपीट के शिकार हो जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना है कि यह आनुवांशिक बीमारी है। आमतौर पर देखा गया है कि शराबखोर किसी न किसी तरह की मानसिक समस्या से पीड़ित पाए जाते हैं। वे जीवन में एकाकी और असफल व्यक्ति के तौर पर पहचाने जाते हैं।
आप चाहें तो खुद नीचे दिए गए प्रश्नों को पूछकर तय कर सकते हैं कि आप शराबखोरी के किस निचली पायदान तक उतर आए हैं।
क्या आपने कभी एक हफ्ते के लिए शराब छोड़ने का प्रण लिया है और दो-तीन दिन में ही इस कसम से तौबा कर ली है?
क्या कभी आपने यह ख्वाहिश की है कि लोगों को अपने काम से काम रखना चाहिए और शराब छोड़ने के लिए बार-बार टोका-टाकी बंद कर देना चाहिए?
NDक्या बीते साल में आपको शराब पीने से कोई शारीरिक समस्या का सामना करना पड़ा है?
क्या आपकी शराबखोरी से घर-परिवार में कोई समस्या खड़ी हुई है?
क्या आपने किसी पार्टी में 'एक्स्ट्रा' ड्रिंक पीने की जरूरत समझी है, क्योंकि आप समझते हैं आपको पर्याप्त नशा नहीं हुआ है?
क्या आपको लगता है कि आप कभी भी शराब छोड़ देंगे, पर फिर भी शराब पीते रहते हैं?
क्या आप शराबखोरी की लत के चलते अक्सर ऑफिस या वर्क प्लेस पर लापरवाही करते हैं?
क्या आपने कभी इस आशा में कि आप नशे में न दिखाई दें, किसी दूसरी तरह के पेय का सहारा लिया है?
क्या बीते सालभर से सुबह उठकर आँख खोलने के लिए किसी आई ओपनर के सहारे की जरूरत पड़ी है?
क्या आपको ऐसे लोगों से रश्क होता है जो खूब शराबखोरी करते हैं और मुसीबत में भी नहीं पड़ते?
क्या आपने कभी ऐसा सोचा है कि मेरी जिंदगी और बेहतर होती यदि मैं शराब नहीं पी रहा होता?

भागवत १५४

जब कंस ने देवकी व वसुदेव से क्षमा मांगी
पं. विजयशंकर मेहता
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़ आए और योगमाया को अपने साथ कारागार में ले आए। किसी को इसका भान तक नहीं हुआ। जब कारागार में से शिशु के रोने की आवाज आई तो द्वारपालों की नींद टूट गई और वे तुरंत कंस के पास गए और देवकी की आठवीं संतान के जन्म की बात बताई। यह सुनकर कंस बड़ा डर गया क्योंकि उसे पता था कि देवकी की आठवीं संतान ही मेरा वध करेगी। फिर भी वह गिरते-पड़ते कारागार तक पहुंचा।

जब उसे मालूम हुआ कि देवकी की आठवीं संतान तो कन्या है तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कन्या को उठाया और जैसे ही पत्थर पर पटकने लगा वह कन्या हवा में उड़ गई और उसने अष्टभुजा देवी का रूप धारण कर लिया। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा थे। देवी योगमाया ने कंस को बताया कि तेरा काल कहीं ओर जन्म ले चुका है। इतना कहकर वह अन्तर्धान हो गई। देवी की यह बात सुनकर कंस ने देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा। कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजी के चरण पकड़ लिए और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा।
जब देवकी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। जिनके गर्भ में भगवान ने निवास किया व जिन्हें भगवान के दर्शन हुए। उन देवकी व वसुदेव के दर्शन का ही फल था कि कंस के ह्रदय में सद्गुणों का उदय हो गया। जब तक कंस देवकी व वसुदेव के सामने रहा तब तक ये सद्गुण रहे। दुष्ट मंत्रियों के बीच जाते ही वह फिर पहले जैसा दुष्ट हो गया।
क्रमश:...

कैसे हुआ द्रोणाचार्य का जन्म?


द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था जो यम, काल, महादेव व क्रोध का अंशावतार था। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है-
एक समय गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी।
अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से महाबली अश्वत्थामा का जन्म हुआ। उसने जन्म लेते ही उच्चै:श्रवा अश्व के समान गर्जना की थी इसलिए उसका नाम अश्वत्थामा था। अश्वत्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। द्रोणाचार्य सबसे अधिक अपने पुत्र से ही स्नेह रखते थे। द्रोणाचार्य ने ही उसे धनुर्वेद की शिक्षा भी दी थी।

नववर्ष का तीसरा संकल्प - बनना है होनहार

नववर्ष पर लिए जाने वाले पांच संकल्पों में अच्छे स्वास्थ्य और धन प्राप्ति के अलावा तीसरा संकल्प भी हर इंसान की सफल ज़िंदगी में निर्णायक होता है। यह संकल्प है - विद्या यानि हर तरह से ज्ञान और दक्षता को प्राप्त करना।
व्यावहारिक रूप से विद्या पाने का मतलब मात्र किताबी ज्ञान नहीं। बल्कि तन, मन, विचार और व्यवहार से संपूर्णता को पाना है। असल में विद्या बुद्धि, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास करती है। यह व्यक्ति को दूरदर्शी, बुद्धिमान, विवेकवान बनाकर जीवन से जुड़े अहम फैसले लेने में मददगार साबित होती है। इस तरह अच्छे स्वास्थ्य और धन के साथ विद्या का भी ज़िंदगी में अहम योगदान होता है।
धर्म की दृष्टि से विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और सुख प्राप्त होते हैं। सार है कि विद्या व्यक्ति को गुणी, अहंकाररहित और विनम्र बना देती है, जिनसे व्यक्ति धर्म और कर्म के माध्यम से सभी सुख प्राप्त करने लायक बनता है।
नववर्ष में ध्यान रहे कि विफलता से बचने के लिए विद्या और ज्ञान को ही ढाल बनाएं। इसलिए बच्चों से लेकर बुजूर्ग हर कोई यह प्रण करें कि किसी न किसी रूप में अध्ययन व स्वाध्याय को दिनचर्या का और लोक व्यवहार को जीवनशैली का अंग बनाना है।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

धैर्य का पाठ

भंसाली जी संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वह प्राध्यापक के रूप में कार्य भी करते थे। वह संस्कृत के उत्थान के लिए रोज नई योजनाएं बनाते रहते थे। एक दिन इसी संदर्भ में उन्होंने गांधीजी से मिलने का मन बनाया और उनके आश्रम पहुंच गए। आश्रम में पहुंचते ही उनकी नजर एक साधारण से दिखने वाले कमजोर व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कुएं से पानी खींच-खींच कर पौधों में डाल रहा था। वह अपने कार्य में मगन था।
उसे व्यस्त देखकर भंसाली जी बोले, 'सुनो भाई! मुझे महात्मा जी से मिलना है।' यह सुनकर वह व्यक्ति गर्दन उठाते हुए बोला, 'उनसे क्या काम है? कहिए।' उसकी बात सुनकर भंसाली जी बोले, 'तुमसे क्या कहूं। मेरी बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी। मुझे उनसे संस्कृत के संबंध में कुछ चर्चा करनी है।' वह व्यक्ति बोला, 'ठीक है, आप मेरे साथ कुएं पर चलिए। वह वहीं मिलेंगे।' दोनों कुएं पर गए। वहां जाते ही वह व्यक्ति जूठे बर्तन मांजने लगा। यह देखकर थोड़ी देर तक तो भंसाली जी इधर-उधर देखते रहे। किंतु जब कुछ देर बाद भी उन्हें उन दोनों के अलावा कोई और नजर नहीं आया तो वह थोड़ा गुस्से से बोले 'तुम बर्तन बाद में मांज लेना। पहले मुझे महात्मा जी से तो मिला दो।' यह सुनकर वह व्यक्ति मुस्कराते हुए बोला, 'मैं ही गांधी हूं। संस्कृत पर चर्चा करने के लिए थोड़ा धैर्य भी तो चाहिए। पर आपको तो बहुत जल्दी है।' भंसाली जी ने गांधीजी से माफी मांगी। वह उनकी सादगी के कायल हो गए।

भागवत-१५३भागवत का सार छिपा है दसवें स्कंध में

भागवत में हम दशम स्कंध पढ़ रहे हैं। एक बार पुन: कुछ बातें याद करते चलें। इस ग्रंथ में हम विचार कर चुके हैं कि इसमें भगवान् का वाङमय स्वरूप है, शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है। दशम स्कंध इस पूरे शास्त्र का प्राण है। हमने तीन अध्याय तक दशम स्कंध की कथा पढ़ी। भगवान् का जन्म हो गया। ऐसा कहते हैं कि दसवां स्कंध बोलते-बोलते शुकदेवजी खिल गए क्योंकि अब कथा शुकदेवजी नहीं, उनके भीतर बैठकर स्वयं श्रीकृष्ण कर रहे हैं।
इसलिए जिन प्रसंगों में हम प्रवेश कर रहे हैं वह हमारे ह्रदय को स्पर्श करेंगे। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र जीवन में उतारने का संकल्प लिया है। हमने पहले दिन स्पष्ट विचार किया कि संयम का क्या महत्व है। दूसरे दिन संतुष्टि का महत्व जाना। तीसरे दिन संतान और चौथे दिन संवेदनशीलता और अब संकल्प का दिन है। आगे हम सक्षम होना और समर्पण को जान लेंगे।
दाम्पत्य यदि संकल्पित है तो बड़ा दूरगामी परिणाम देगा। दाम्पत्य में कुछ संकल्प लेने ही पड़ेंगे और जिनका दाम्पत्य बिना संकल्प के है वो लगभग उसको नष्ट ही कर रहे हैं। पहले स्कंध में हमने महाभारत से रहना सीखा। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता से कर्म करना सीखा। नवें स्कंध में हमने रामायण से जीना सीखा और अब दस, ग्यारह और बारहवें स्कंध के माध्यम से हम भागवत में मरने की कला सीखेंगे। हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता, व्यावसायिक जीवन में परिश्रम, पारिवारिक जीवन में प्रेम और निजी जीवन में पवित्रता बनी रहे, इसके प्रसंग हम लगातार देख रहे हैं।

कौन थे कृपाचार्य ?

कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है। उसी के अनुसार-
महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर इंद्र बहुत भयभीत हो गया। उसने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया।
लेकिन उनके मन में विकार आ गया था इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। उन्होंने धनुष, बाण, आश्रम और उस सुदंरी को छोड़कर तुरंत वहां से यात्रा कर दी। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका का नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बालकों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी।
थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। अब कौरव और पाण्डव राजकुमार उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेने लगे। तब भीष्म ने सोचा कि इन राजकुमारों को दूसरे अस्त्रों का ज्ञान भी होना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने राजकुमारों को द्रोणाचार्य को सौंप दिया।

तुलसी से दूर होगी शादी, संतान और नौकरी की समस्याएं


तुलसी के पौधे को हिन्दू परम्परा में बहुत पूज्यनीय माना गया है। भारतीय परम्परा में तुलसी को प्राचीन समय से बहुत शुभ माना जाता है। इसे घर का वैद्य कहा गया है। इससे कई तरह की बीमारियां तो दूर होती ही है। साथ ही वास्तुशास्त्र के अनुसार भी इसे घर में रखने का विशेष महत्व माना गया है। तुलसी को घर में लगाने से कई तरह के वास्तुदोष दूर होते हैं। तुलसी के भी बहुत से प्रकार है। जिसमें जिसमें रक्त तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी, मुख्यरूप से विद्यमान है। तुलसी की इन सभी प्रजातियों के गुण अलग है।
- शरीर में नाक, कान वायु, कफ, ज्वर खांसी और दिल की बीमारियों पर खास प्रभाव डालती है। तुलसी वो पौधा है जो जीवन को सुखमय बनाने में सक्षम है। वास्तुदोष दूर करने के लिए इसे दक्षिण-पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक किसी भी खाली कोने में लगाया जा सकता है। यदि खाली स्थान ना हो तो गमले में भी तुलसी के पौधे को लगाया जा सकता है।
- तुलसी का पौधा किचन के पास रखने से घर के सदस्यों में आपसी सामंजस्य बढ़ता है। पूर्व दिशा में यदि खिड़की के पास रखा जाए तो आपकी संतान आपका कहना मानने लगेगी।
- अगर संतान बहुत ज्यादा जिद्दी और अपनी मर्यादा से बाहर है तो पूर्व दिशा में रखे तुलसी के पौधे के तीन पत्ते रोज उसे किसी ना किसी तरह खिला दें।
- यदि आपकी कन्या का विवाह नहीं हो रहा हो तो तुलसी के पौधे को दक्षिण-पूर्व में रखकर उसे नियमित रूप से जल अर्पण करें। इस उपाय से जल्द ही योग्य वर की प्राप्ति होगी।
- यदि आपका कारोबार ठीक से नहीं चल रहा है तो तुलसी के पौधे को नैऋत्य कोण में रखकर हर शुक्रवार को कच्चा दूध चढ़ाएं।
- नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह से परेशानी हो तो ऑफिस में जहां भी खाली जगह हो वहां पर सोमवार को तुलसी के सोलह बीज किसी सफेद कपड़े में बांधकर कोने में दबा दे। इससे आपके संबंध सुधरने लगेगें।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

दो कहानियाँ

सत्य की राह
एक चोर था। एक दिन उसे एक महात्मा मिले। महात्मा ने उससे कहा कि अगर वह हमेशा सत्य बोले तो उसका कल्याण होगा। चोर को यह कठिन काम नजर आया पर चूंकि वह महात्मा से बहुत प्रभावित हुआ था, इसलिए उसने उनकी बात पर अमल करने का फैसला किया।
एक दिन वह राजमहल में चोरी करने गया। बाहर निकलते ही वह पकड़ा गया। द्वारपाल ने पूछा, 'तुम इतनी रात में यहां क्या कर रहे हो?' चोर ने कहा, 'मैं चोर हूं और चोरी करके वापस जा रहा हूं।' द्वारपाल को उसकी बात मजाक लगी। वह हंसने लगा। उसने चोर के हाथ में पोटली देखी तो पूछा, 'इसमें क्या है?' चोर बोला, 'इसमें रानी के गहने हैं।' द्वारपाल ने पोटली खोली तो उसमें सचमुच गहने थे।
चोर को अगले दिन राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, 'तुम जानते हो राजमहल में चोरी के लिए मृत्युदंड भी दिया जा सकता है, फिर भी तुम कह रहे हो कि तुमने चोरी की है।' चोर ने कहा, 'महाराज मैंने तय कर लिया है कि केवल सत्य ही बोलूंगा।' राजा ने कहा, 'अगर अभी भी तुम कहो कि तुमने चोरी नहीं की है तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।' चोर ने कहा, 'मैं सत्य से नहीं हटूंगा।
चोरी मैंने ही की है।' राजा ने कहा, 'तो फिर तुम्हें सजा मिलेगी। तुम्हारी सजा यह है कि तुम आज से हमारे मंत्री रहोगे। तुमने विवशता में चोरी करना जरूर शुरू कर दिया पर तुम में सत्य को अपनाने और उस पर टिके रहने की शक्ति है। मुझे ऐसे ही लोगों की आवश्यकता है।'

मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।

जब भीम सकुशल हस्तिनापुर लौट आए

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।
उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा। इसके बाद भी दुर्योधन ने कई बार भीम को मारने का षडय़ंत्र रचा लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाया।
पाण्डव सबकुछ जानकर भी विदुर की सलाह के अनुसार चुप ही रहे। जब धृतराष्ट्र ने देखा कि सभी राजकुमार खेल-कूद में ही लगे रहते हैं तो उन्होंने कृपाचार्य को उन्हें शिक्षा देने के लिए निवेदन किया। इस तरह कौरव व पाण्डव कृपाचार्य से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करने लगे।

भागवत १५२: जब कंस के कारागार के सभी बंधन टूट गए

जब कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से ही अपने पुत्र को लेकर बंदीगृह से बाहर निकलने की इच्छा की। किंतु बाहर कैसे निकला जाए क्योंकि बाहर तो सैनिकों का पहरा था। तब भगवान की लीला से वसुदेव ने जैसे ही बालक रूपी भगवान को टोकरी में लिटाया वैसे ही सारे बंधन टूट गए। जेल के ताले स्वयं खुल गए। पहरेदार भी उस समय निन्द्रामग्न हो गए। भगवान की लीला के अनुसार वसुदेवजी ने उस बालक को उठाया गोकुल जाने लगे तो बीच में यमुना नदी पड़ी।

वसुदेवजी नदी में उतर गए तभी तेज बारिश होने लगी। भगवान भीगे नहीं इसके लिए शेषनाग ने उनके ऊपर छत कर दी। तब वसुदेवजी ने उस बालक को गोकुल में नन्दजी के घर लेजाकर यशोदा के पास लेटा दिया तथा वहां लेटी नवजात बालिका को उठाकर बंदीगृह में लौट आए। जेल में पहुंचकर वसुदेवजी ने उस कन्या को देवकी की शय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेडिय़ां डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गए। भगवान की लीला से देवकी, वसुदेव और यशोदा किसी को भी इस पूरी घटना के बारे में पता ही नहीं चला यहां तक की देवकी व यशोदा को प्रसव पीड़ा का ज्ञान ही नहीं रहा।
उधर थोड़ी देर बात जब यशोदा को चेत हुआ तो उसने देखा कि उसके पास एक सुंदर सा बालक शय्या पर सो रहा है। उसने नन्दजी और वसुदेवजी की दूसरी पत्नी रोहिणी को बताया तो उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना प्रसव पीड़ा के संतान उत्पन्न हो गई। सबने इसे भगवान का चमत्कार माना। सुबह होते ही शोर मच गया कि नंदजी के घर बालक का जन्म हुआ है। पूरा गांव आनन्द में डूब गया, उत्सव मनाया जाने लगा। नाच-गाना होने लगा। यशोदा और नंदजी की खुशियों का भी ठीकाना नहीं रहा।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

जब दुर्योधन ने भीम को विष पिलाया


हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों को वैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।
दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।
तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

न्यू यिअर पार्टी से मत रोको पापा

डियर पापा,
मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप मुझे न्यू यिअर पार्टी में क्यों नहीं जाने देना चाहते। कल रात मैंने आपकी और ममी की बातें सुन ली थीं। इससे मुझे समझ में आ गया कि आप किन चीजों से हिचक रहे हैं। पापा, मुझे भी मालूम है कि दिल्ली में इन दिनों क्राइम बहुत बढ़ गया है।
लड़कियां सेफ नहीं रह गई हैं। लेकिन क्या इस कारण लड़कियों ने स्कूल-कॉलेज और ऑफिस जाना बंद कर दिया? पापा, मैं अब आठवीं क्लास में आ गई हूं। अपनी जिम्मेदारी और आपकी फीलिंग्स को भी समझती हूं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी जिससे आप लोगों को तकलीफ पहुंचे। अब मेरा भी तो मन करता है कि न्यू इयर्स की पार्टी दोस्तों के साथ एंजॉय करें। इसमें कोई नई बात तो है नहीं।
आप खुद बताते हैं कि बचपन में आप मोहल्ले भर के बच्चों के साथ मेला देखने जाते थे। न्यू इयर्स की पार्टी उसी मेले का मॉडर्न रूप है। मैं किसी अनजान लोगों के साथ तो पार्टी में जा नहीं रही हूं। इसमें हमारी कई फ्रेंड्स रहेंगी और सीनियर्स भी। आपने स्कूल की पिकनिक में जाने से तो मना नहीं किया था।
जैसे वहां बच्चों ने एक-दूसरे का हमेशा ख्याल रखा वैसे ही इसमें भी रखेंगे। फिर पड़ोस की मुग्धा दीदी भी तो रहेंगी। मैं उन्हीं के साथ चली जाऊंगी। लौटते समय क्या आप रात में हमें पिक अप करने नहीं आ सकते? एक दिन की तो बात है। मेरे लिए थोड़ी तकलीफ उठा लीजिए। प्लीज पापा।
आपकी बेटी

उन्हें रोककर तो दिखाओ

सड़कों पर भारी ट्रैफिक के चलते जब भी मुझे मौका मिलता है, मैं मेट्रो से ऑफिस आना पसंद करता हूं। उस दिन दफतर में एक लेख लिखते हुए थोड़ा लेट हो गया था। मेट्रो पकड़ी और अपने घर के नजदीकी स्टेशन पर उतरा। मेरा फ्लैट, स्टेशन से करीब दो किलोमीटर दूर है। वहां तक का रिक्शे का किराया 10 रुपया है। मैंने बाहर निकलकर एक रिक्शे वाले को पुकारा। मैंने रिक्शे वाले से पूछा- परवाना विहार चलोगे? वह बोला, चलूंगा, मगर 15 रुपये लूंगा। मैं हंसा- लगता है कि तुम मुझे परदेसी समझ रहे हो। मैं यहीं का बाशिंदा हूं। रिक्शा वाला बोला- रात का वक्त है। मैंने कहा- बहानेबाजी मत कहो, 10 रुपये में चलो। चूंकि वहां सवारी कम थी, रिक्शा वाला मन मारकर राजी हो गया।
क्शा थोड़ी दूर ही गया था कि मैंने रिक्शे वाले से बातचीत शुरू की। मैंने कहा- भैया, थोड़ी ईमानदारी रखा करो। कोई जरूरतमंद मिल गया तो मनमाना किराया वसूलोगे। यह क्या तरीका है। वह बोला- हम मेहनत करते हैं। मुझे गुस्सा आया- तो क्या हम लोग मेहनत नहीं करते। हम भी मेहनत करते हैं। ठीक है कि तुम शारीरिक मेहनत ज्यादा करते हो, हम दिमागी तौर पर मेहनत करते हैं। रिक्शे वाले ने पूछा- क्या करते हैं आप? मैंने कहा- पत्रकार हूं। रिपोर्टर हूं, जानते हो, रिपोर्टर किसे कहते हैं। जो खबरें लाता है, उसे लिखता है, तभी अखबार में खबरें छपती है। अब बोलो, क्या मैं मेहनत नहीं करता। भैया मेहनत सभी करते हैं। ऐसे में तुम जो 10 रुपये की जगह 15 रुपये किसी मेहनतकश से वसूलते हो वह गलत है। जो तुम्हारा बनता है, उसे लो। उसे देने में कोई ऐतराज नहीं करेगा और किसी को दुख भी नहीं होगा। मैं बोलता रहा, वह रास्ते भर.. हूं, हूं करके सुनता रहा।
मेरे अपार्टमेंट का गेट आ गया। मैं उतरा, जेब से रुपये निकालता, तभी रिक्शा वाला बोला- आप पत्रकार हैं। मुझे काफी कुछ सीख दे रहे थे। ठीक है मैं रिक्शा चला रहा हूं, मगर मैं भी थोड़ा- बहुत पढ़ा लिखा हूं। मैंने 10 की जगह 15 रुपये मांग लिए तो आप इतना बोल रहे हैं। आप पत्रकार हैं तो उन लोगों को कुछ बोलिए न जो घोटाला करके करोड़ों रुपये देश का डकार गए। रोज अखबार में छप रहा है कि यह घोटाला हुआ, वो घोटाला हुआ। आप ही लोग छाप रहे हैं। देश, प्रदेश के नेता से लेकर सरकारी बाबू तक करोड़ों रुपये कमा रहे हैं, वह भी नाजायज रूप से। रात का समय है, सर्दी लग रही है, अगर मैंने पांच रुपये ज्यादा मांग लिये तो आप इतना बोल रहे हैं। पत्रकार हैं आप, उनको रोकिए घोटाला करने से, जो नाजायज तरीके से ऐसा कर रहे हैं।
मैं सहम गया। उसकी बातों में सच की आंच थी जिसे सहने की ताकत मुझमें नहीं थी। हम पत्रकार-बुद्धिजीवी बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं पर आम आदमी के सवालों का कोई जवाब हमारे पास नहीं है। मैंने चुपचाप जेब से 15 रुपये निकाले और उसे दे दिए। उससे आंख मिलाने का साहस मैं नहीं कर पा रहा था।

कहानी

मन की जीत
नमि नामक राजा राजपाट छोड़कर तपस्या करने निकले। वह ज्यों ही राजमहल से बाहर आए, एक देवदूत उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, 'राजन्! आप जा रहे हैं। किंतु पहले आपका कर्त्तव्य है कि आप अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर जाएं ताकि प्रजा और भावी सम्राट सुरक्षित रह सकें।'
इस पर नमि ने कहा, 'हे देव। मैंने ऐसा नगर बनाया है जिसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवारें हैं। मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी है। जिस तरह शत्रु जमीन की खाई को पार कर नगर में प्रवेश नहीं कर सकता, उसी तरह अन्य स्थानों पर व्याप्त वैमनस्य, छल-कपट, काम, क्रोध और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते। मेरा पराक्रम मेरा धनुष है। मैंने उसमें धैर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से मुझे क्या लेना-देना।
मैंने तो आध्यात्मिक संग्राम के लिए सामग्री इकट्ठी की है। मेरे जीवन की दिशा बदलने के साथ ही मेरे संग्राम का रूप भी बदल गया है। ऐसा नहीं है कि ये सारी शिक्षाएं मैंने स्वयं ली हैं अपितु यह मेरे राज्य के एक-एक नागरिक के तन-मन में रची-बसी हैं। इसलिए मुझे अपने राज्य की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।' देवदूत ने कहा, 'राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने आसपास के सभी राज्यों को अपने अधीन करे।
आप इस कार्य को पूरा करके ही साधु बनें।' यह सुन कर नमि बोले, 'जो रणभूमि में दस हजार योद्धाओं को जीतता है, वह बलवान माना जाता है, किंतु उससे भी अधिक बलवान वह है, जो अपने मन को जीत लेता है। दूसरों को अधीन करने से अच्छा है अपने मन को अधीन करना। जिसने मन को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया।' यह सुनकर देवपुरुष उनके आगे नतमस्तक हो गया और उन्हें शुभकामनाएं देकर चला गया।

नए साल के लिए एक जनवरी ही क्यों

एक जनवरी नजदीक आ गई है। जगह-जगह हैपी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लग गए हैं। जश्न मनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। जनवरी से प्रारंभ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका संबंध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया था।
भारत में ईस्वी संवत् का प्रचलन अंग्रेज शासकों ने वर्ष 1752 में शुरू किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अंग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे अनेक देशों ने अपना लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नवम्बर 1952 में हमारे देश में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। मगर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलंडर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
ग्रेगेरियन कैलंडर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के काफी कम समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष, यहूदियों की 5767 वर्ष, मिस्र की 28670 वर्ष, पारसी की 198874 वर्ष चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो भारतीय ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। जिस प्रकार ईस्वी संवत् का संबंध ईसाई जगत से है उसी प्रकार हिजरी संवत् का संबंध मुस्लिम जगत से है। लेकिन विक्रमी संवत् का संबंध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्मांड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परंपराओं को दर्शाती है।
भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए हमें सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देशप्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है, जिससे भारतीय नव वर्ष प्रारंभ होता है। यह सृष्टि रचना का पहला दिन है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की। विक्रमी संवत् के नाम के पीछे भी एक विशेष विचार है। यह तय किया गया था कि उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होगा जिसके राज्य में न कोई चोर हो न अपराधी हो और न ही कोई भिखारी। साथ ही राजा चक्रवर्ती भी हो।
सम्राट विक्रमादित्य ऐसे ही शासक थे जिन्होंने 2067 वर्ष पहले इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया था। प्रभु श्रीराम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में अपने राज्याभिषेक के लिए चुना। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। विक्रमादित्य की तरह शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
प्राकृतिक दृष्टि से भी यह दिन काफी सुखद है। वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। यह समय उल्लास - उमंग और चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरा होता है। फसल पकने का प्रारंभ अर्थात किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् नए काम शुरू करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम का भाव पैदा हो सके या स्वाभिमान तथा श्रेष्ठता का भाव जाग सके ? इसलिए विदेशी को छोड़ कर स्वदेशी को स्वीकार करने की जरूरत है। आइए भारतीय नव वर्ष यानी विक्रमी संवत् को अपनाएं।
विनोद बंसल

रविवार, 26 दिसंबर 2010

दो कहानियां

चार मित्र
सेन के राज्य में प्रजा बहुत खुशहाल और संतुष्ट थी। वहां कभी किसी तरह का तनाव नहीं होता था। यह बात पड़ोसी राज्य के राजा कुशल सेन तक भी पहुंची। उसके यहां आए-दिन झगड़े होते रहते थे और प्रजा बहुत दु:खी थी। राजा कुशल सेन अपने पड़ोसी राज्य की सुख-शांति व खुशहाली का राज जानने के लिए आदर्श सेन के पास पहुंचा और बोला, 'मेरे यहां हर ओर दु:ख-दर्द व बीमारी फैली है। पूरे राज्य में त्राहि-त्राहि मची हुई है। कृपया मुझे भी अपने राज्य की सुख-शांति का राज बताएं।' कुशल सेन की बात सुनकर राजा आदर्श सेन मुस्कुरा कर बोला, 'मेरे राज्य में सुख-शांति मेरे चार मित्रों के कारण आई है।' इससे कुशल सेन की उत्सुकता बढ़ गई।
उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।

महात्मा की शिक्षा
एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की?'
महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'

क्यों कहते हैं विष्णु को नारायण?


हिंदू धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि सृष्टि का निर्माण त्रिदेवों ने मिलकर किया है। भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालनकर्ता माना गया है। कहते हैं कि जब भी धरती पर कोई मुसीबत आती है तो भगवान विभिन्न अवतार लेकर आते हैं और हमें उन मुसीबतों से बचाते हैं।
हिन्दू धर्म में भगवान के जितने रूप है उतने ही उनके नाम भी बताये गए है। भगवान विष्णु का ऐसा ही एक नाम है नारायण। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि भगवान को नारायण क्यों कहते हैं? भगवान विष्णु का नारायण नाम कैसे पड़ा?
विष्णु महापुराण में भगवान के नारायण नाम के पीछे एक रहस्य बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जल की उत्पत्ति नर अर्थात भगवान के पैरों से हुई है इसलिए पानी को नीर या नार भी कहा जाता है। चूंकि भगवान का निवास स्थान (अयन) पानी यानी कि क्षीर सागर को माना गया है इसलिए जल में निवास करने के कारण ही भगवान को नारायण (नार+अयन) कहा जाता है।
हमारे शास्त्रों नें बताया है कि इस सृष्टि का निर्माण भी जल से हुआ है। और भगवान के पहले तीन अवतार भी जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हिन्दू धर्म में जल को देव रूप मे पूजा जाता है।

क्यों हुई महाराज पाण्डु की मौत... ?


पाण्डवों के जन्म के पश्चात पाण्डु अपने पत्नियों के साथ तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन जब पाण्डु व माद्री अकेले वन में घुम रहे थे तभी पाण्डु के मन में कामभाव का संचार हो गया और उन्होंने माद्री को बलपूर्वक पकड़ लिया। माद्री ने पाण्डु को रोकने की कोशिश की लेकिन तब तक ऋषि किंदम के श्राप के प्रभाव से पाण्डु ने प्राण त्याग दिए। माद्री यह देखकर रोने लगी। तभी वहां कुंती व पांचों पाण्डव भी आ गए। तब माद्री ने सारी बात कुंती को बताई तो वे भी पाण्डु के शव से लिपटकर विलाप करने लगीं।जब पाण्डु के अंतिम संस्कार का समय आया तो कुंती पाण्डु के साथ सती होने लगी तभी माद्री ने कुंती को रोका और स्वयं सती होने का हठ करने लगी तथा पाण्डु की चिता पर चढ़ कर सती हो गई।
पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। पाण्डु की मृत्यु के कुछ दिन बाद महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए और उन्होंने विपरीत समय आता देख माता सत्यवती तथा अंबिका व अंबालिका को वन में जाने का निवेदन किया। तब वे तीनों वन में चली गई और तप करते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया।

क्यों शिव कहलाते हैं नीलकंठ?


हिन्दू धर्म के पांच प्रमुख देवताओं का प्रधान भगवान शिव को माना जाता है। इसलिए शिव को महादेव भी पुकारा जाता है। ऐसे ही अनेक नाम शिव की महिमा से जुड़े हैं। शिव के इन नामों में से ही एक कल्याणकारी नाम है - नीलकंठ।
इस नाम का न केवल पौराणिक महत्व है, बल्कि यह व्यावहारिक जीवन के लिए भी कुछ संदेश देता है। इस नाम से जुड़ी पौराणिक कथा के मुताबिक देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए।
धार्मिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान हिन्दू पंचांग के सावन माह में ही किया था और विष पीने से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया।
व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का संदेश है कि मानव को अपनी वाणी और भाषा पर संयम रखना चाहिए। खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सही उपयोग करे। शंकर की जटाओं में बैठी गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का।
गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी जगह पर रखा है, जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।

विष्णु हैं सर्वश्रेष्ठ, क्योंकि...


हिंदु धर्म शास्त्रों के अनुसार इस संपूर्ण सृष्टि का पालन-पोषण और संचालन तीन देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) करते हैं। तीनों ही देव सर्वशक्तिमान और परम पूज्यनीय हैं। इनके देवों के नाम लेने मात्र से ही हमारे कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं। इनकी पूजा सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होती है।
कई युगों पहले सभी ऋषिमुनियों के मन में तीनों देवताओं को लेकर एक जिज्ञासा जागी। इन तीनों देवताओं की इस संपूर्ण सृष्टि के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका है परंतु इन तीनों में भी सर्वश्रेष्ठ देव कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए सभी ऋषिमुनियों ने महर्षि भृगु से निवेदन किया। महर्षि भृगु परम तपस्वी और तीनों देवों के प्रिय थे। इन तीनों देवताओं में सर्वश्रेष्ठ कौन है? यह जानने के लिए वे सबसे पहले भगवान ब्रह्मा के पास बिना आज्ञा लिए ही पहुंच गए। इस तरह अचानक आए महर्षि भृगु को देख ब्रह्मा क्रोधित हो गए। इसके बाद महर्षि भृगु इसी तरह शिवजी के सम्मुख जा पहुंचे और वहां भी उन्हें शिवजी द्वारा अपमानित होना पड़ा। अब भृगु भी क्रोधित हो गए और इसी क्रोध में वे भगवान विष्णु के सम्मुख जा पहुंचे। उस समय भगवान विष्णु शेषनाग पर सो रहे थे। महर्षि भृगु के आने का उन्हें ध्यान ही नहीं रहा और वे महर्षि के सम्मान में खड़े नहीं हुए। अतिक्रोधित स्वभाव वाले भृगु ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध से विष्णु की छाती पर लात मार दी। इस प्रकार जगाए जाने पर भी विष्णु ने धैर्य रखा और तुरंत ही महर्षि भृगु के सम्मान में खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया। भगवान विष्णु ने विनयपूर्वक कहा कि मेरा शरीर वज्र के समान कठोर है, अत: आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? औरे उन्होंने महर्षि के पैर पकड़ लिए और सहलाने लगे। विष्णु की इस महानता से महर्षि भृगु अति प्रसन्न हुए। भगवान विष्णु के इस धैर्य और सम्मान के भाव से प्रसन्न महर्षि ने उन्हें तीनों देवों में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

सरकार को लग गई प्याज की झांस

प्याज की बढ़ती कीमतों पर केंद्र सरकार ने जिस तरह की सक्रियता दिखाई, वह अभूतपूर्व है। बढ़ती कीमतों को रोकने के लिए पहले भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों ने कदम उठाए हैं, लेकिन इस बार जिस तरह से प्याज की कीमत को नियंत्रित करने के लिए सरकार सक्रियता दिखा रही है, वैसी पहले कभी नहीं देखी गई। हालांकि उपभोक्ता मामले के मंत्री शरद पवार ने पहले यह कहकर लोगों के रोंगटे खड़े कर दिए थे कि तीन सप्ताह तक प्याज की कीमतों का यही हाल रहेगा।
पवार के बयान के बाद केंद्र सरकार ने एक के बाद एक इतने कदम उठाए कि थोक बाजार में इसकी कीमतों पर तत्काल असर पड़ा। सबसे पहले तो इसके निर्यात पर रोक लगी। फिर इसके आयात पर लगाए जा रहे आयात शुल्क को ही समाप्त कर दिया गया। नैफेड भी अपने स्तर पर सक्रिय हो गया और भारतीय रेल ने तो प्याज की ढुलाई को प्राथमिकता में सबसे ऊपर स्थान दे डाला। रेलवे बोर्ड ने एक प्याज प्रकोष्ठ का ही गठन कर डाला, ताकि प्याज की ढुलाई में देरी न हो।
केंद्र ने राज्य सरकारों से छापेमारी के जरिये प्याज की जमाखोरी पर तत्काल अंकुश लगाने का आह्वान भी कर डाला और राष्ट्रीय राजधानी में धड़ाधड़ छापे भी पड़ने लगे। सरकार की इस तेजी की अकेली वजह यह है कि प्याज की कीमतों में देश की राजनीति की धारा बदल देने की क्षमता रही है। तेल कीमतों के झटकों की तरह देश को प्याज की कीमतों का झटका भी लगता है, लेकिन तेल के झटके राजनीति को उतना नहीं झकझोरते, जितना प्याज के झटके झकझोरते हैं।
देश की राजनीति को प्याज का सबसे बड़ा झटका करीब 31 साल पहले 1979-80 मे लगा था। दिसंबर का ही महीना था और लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हो रहे थे। उस समय इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थीं। श्रीमती गांधी ने प्याज की बढ़ी कीमतों को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया। हालांकि सच यह भी था कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद लोगों को महंगाई के मसले पर बहुत राहत मिल रही थी। अनेक खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ने के बजाय घट गई थीं। चीनी भी सस्ती हो गई थी।
आज की तरह उस समय महंगाई कोई समस्या नहीं थी। जनता पार्टी में विभाजन के कारण पहले मोरारजी भाई और फिर चौधरी चरण सिंह की सरकार के पतन के बाद चुनाव हो रहे थे। अन्य चीजों की कीमतें नियंत्रण में होने के बावजूद प्याज महंगे हो गए थे। उसी को मुद्दा बनाकर इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को लोकसभा में दो तिहाई से भी ज्यादा का बहुमत दिलाने में सफलता हासिल कर ली थी। उनकी पार्टी को 340 से ज्यादा सीटें मिली थीं। चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गांधी ने उस चुनाव को ओनियन चुनाव तक कह डाला था।
दूसरी बार फिर कांग्रेस को ही प्याज के झटके का चुनावी लाभ मिला। वाकया 1998 का है। दिल्ली और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकारें थीं। नवंबर का महीना था और प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी थीं। तब केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार नहीं थी। उस समय भी कांग्रेस ने प्याज की कीमतों को चुनावी मुद्दा बना डाला। दोनों राज्यों की भाजपा सरकारें सत्ता से बाहर हो गईं। यानी प्याज ने एक बार नहीं, बल्कि दो बार यह साबित किया है कि उसमें सत्ता बदल देने की ताकत है।
प्याज भारत के लोगों का प्रिय आहार है और उसका कोई विकल्प भी उनके पास नहीं है। यदि आलू महंगा हुआ, तो उसकी जगह दूसरी सब्जियों से काम चलाया जा सकता है। यदि कोई दूसरी सब्जी महंगी हुई, तो आलू या किसी तीसरी सब्जी से काम चलाया जा सकता है, लेकिन प्याज की जगह लेने की क्षमता किसी और सब्जी में है ही नहीं। यही कारण है कि जब प्याज महंगा होता है, तो उसकी रसोई में अनुपस्थिति लोगों को रुला देती है और सब्जी को बेस्वाद बना देती है।
इस समय कोई चुनाव नहीं हो रहे हैं। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव भी चार-पांच महीने बाद ही होंगे। इसलिए फिलहाल केंद्र सरकार में शामिल पार्टियों को किसी चुनावी हार का खतरा नहीं है। इसके बावजूद शरद पवार का वह बयान कि तीन सप्ताह तक प्याज सस्ता नहीं होगा, केंद्र सरकार को हिला गया। इसका कारण यह है कि उस दिन प्याज 80 से 100 रुपये प्रति किलो तक बिक रहा था। उस बयान के बाद जमाखोरी को और भी बढ़ावा मिलना लाजिमी था और उसके कारण प्याज और महंगे ही होते।
उतनी बड़ी कीमतों पर प्याज को रखने से केंद्र सरकार के खिलाफ कैसे माहौल बनता, इसके बारे में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा और कौन जान सकता है। उन्हें पता है कि पूरा विपक्ष 2-जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार के खिलाफ जेपीसी जांच की मांग नहीं माने जाने के कारण देश भर में आंदोलन करने जा रहा है। प्याज की बढ़ी कीमतें उनके आंदोलन की आग में घी का काम कर सकती हैं। इसके कारण ही केंद्र सरकार ने प्याज की बढ़ती कीमतों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
केंद्र सरकार लोगों को तेल का झटका भी देने वाली थी। 22 दिसंबर को ही डीजल और रसोई गैस की कीमतों से नियंत्रण हटाने संबंधित फैसला किया जाना था। प्याज के झटके खा रहे लोगों को तेल का झटका भी देना केंद्र सरकार ने मुनासिब नहीं समझा और 22 तारीख को होने वाले फैसले को आगे के लिए टाल दिया।
केंद्र सरकार ने प्याज की कीमतों पर नियंत्रण करने के लिए जो तत्परता दिखाई, वैसी ही तत्परता की उम्मीद लोग उसे अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर अंकुश लगाने की भी करेंगे। आने वाले महीनों में अन्य खाद्य पदार्थो की कीमतों में वृद्धि की प्रवृत्ति बन सकती है, क्योंकि इस साल मानसून त्रुटिपूर्ण रहा है और उसके कारण अनेक खाद्य पदार्थो के उत्पादन पर असर पड़ा है।
उत्पादन पर असर तो थोड़ा पड़ता है, लेकिन जमाखोरी के कारण कीमतें कृत्रिम रूप से और भी बढ़ा दी जाती हैं और फिर मुनाफाखोरों की चांदी हो जाती है। सरकार को उनके खिलाफ भी युद्ध छेड़ना चाहिए। प्याज की झांस से पीड़ित सरकार ने तो इतना साबित ही कर दिया है कि यदि वह चाहे, तो कीमतों का बेहतर प्रबंधन कर सकती है।
उपेन्द्र प्रसाद

छत्तीसगढ़ : राम भरोसे रोजगार मेला


बेरोजगारी दूर करने के लिए प्रदेश में रोजगार मेले लगाए जा रहे हैं, लेकिन इसके लिए सरकार के पास फंड नहीं है। जांजगीर, रायगढ़ और दुर्ग के बाद शुक्रवार को कवर्धा में रोजगार मेले का आयोजन किया गया है।
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह इसके मुख्य अतिथि हैं। ऐसे में खुद आर्थिक परेशानी से जूझ रहा रोजगार विभाग उधार के पैसों से कितने समय तक मेला लगा पाएगा, इस पर सवाल खड़े हो गए हैं।
रोजगार मेला लगाने पर चार से दस लाख रुपए तक खर्च आता है। अन्य जिलों रायपुर, राजनांदगांव व बिलासपुर मंे भी रोजगार मेले लगाने की योजना है। जांजगीर में 12 जून को रोजगार मेला लगाकर इस अभियान की शुरुआत की गई थी।
इसमें 60 से 70 हजार रुपए का बजट सरकार ने मुहैया कराया था। दूसरा बड़ा रोजगार मेला 6 सितंबर को रायगढ़ में लगा। इसमें लगभग पांच लाख रुपए खर्च आया था। इसके लिए रायगढ़ रोजगार कार्यालय को मात्र 30 हजार रुपए मुहैया कराए थे,
बाकी का काम उद्योगों की सहायता से हुआ था। 20 अक्टूबर को दुर्ग में लगे रोजगार मेले में भी लगभग चार लाख रुपए खर्च हुए, पर सरकार की ओर से इस आयोजन के लिए कोई बजट नहीं दिया गया।
ऐसे में सभी बिल लंबित हैं। अब कवर्धा में होने वाले मेले पर लगभग दस लाख का खर्च अनुमानित है। इसके लिए 20 हजार आवेदन आए हैं और कंपनियों की मांग 5263 पदों के लिए है।
रिजेक्ट हो गया प्रस्ताव:
रोजगार विभाग के उच्च अधिकारियों से इस संबंध में जब जानकारी मांगी गई तो उनका कहना था कि मेले के लिए सरकार के अनुपूरक बजट में लागत का प्रस्ताव दो बार भेजा गया है,
जो दोनों बार रिजेक्ट हो गया। जानकारों का कहना है ऐसी हालत में एक बार तो मेले का आयोजन हो जाता है, पर जब दोबारा लगाना हो तो किस मुंह से चंदा मांगने जाएंगे।
पहुंचे गांव-गांव तक रोजगार विभाग के सहायक निदेशक चिन्मय चौधरी का कहना है कि इस तरह के मेलों का आयोजन प्रदेश के ब्लॉक स्तर पर होना चाहिए, जिससे बेरोजगारों को अधिक से अधिक मौका मिल सके।
वहीं जानकारों का कहना है कि जब गिने-चुने जगहों पर आयोजन करने के लिए विभाग को फंड नहीं मिल पा रहा है, ऐसे में ब्लॉक स्तर पर प्रदेश में यह कार्यक्रम कैसे चलाया जाएगा, यह कहा नहीं जा सकता।

मेलों पर एक नजर
स्थान खर्च अनुदान रोजगार
जांजगीर 70 हजार 70 हजार 1830
रायगढ़ 5 लाख 30 हजार 2327
दुर्ग 4 लाख 00 1000
कवर्धा 10 लाख 00 -- --
कई क्षेत्रों में नौकरी
रोजगार मेले में मुख्य तौर पर निजी क्षेत्र की कंपनियां शामिल होती हैं। टेक्निकल क्षेत्र में फिटर, वेल्डर, सिविल व अन्य ब्रांचों में इंजीनियरिंग तक की मांग की जाती है, जबकि नान टेक्निकल क्षेत्र में सिक्योरिटी गार्ड से लेकर मैनेजर, पीआरओ, सुपरवाइजर, प्रबंधक व महाप्रबंधक जैसे पदों पर नियुक्तियां होती हैं।

क्रिसमस उपहार

सांता की एंजल
क्रिसमस की रात बच्चों को उपहार देने के लिए सांता अपनी गाड़ी में निकलते हैं। उनकी गाड़ी में उपहार भरे होते हैं। इतने सारे उपहारों को बनाने में सांता की मदद चार जादुई बौने करते हैं। एक क्रिसमस की बात है। उपहार बनाने वाले चारों जादुई बौनों की तबियत गड़बड़ा गई। इनके बदले में सांता ने कुछ नए बौनों को रखा था, ये ट्रेनी बौने तेज़ी से उपहार नहीं बना पा रहे थे। बेचारे सांता क्रिसमस की तैयारियों में उलझे हुए थे। जैसे-तैसे उपहार तैयार करवा कर, सांता अपनी शान की सवारी स्लेज के पास पहुंचे। वहां पहुंच के सांता देखते हैं कि उनकी सवारी को खींचने वाले रेनडियर मतलब बारहसिंगा तो वहां हैं हीं नहीं। वो कहीं भाग गए हैं। कहां भागे, ये तो भगवान ही जानता था।

सांता ने सोचा कि दूसरे रेनडियर का इंतज़ाम बाद में कर लूंगा, पहले स्लेज में उपहार लाद लिए जाएं। पर यह क्या!! उनके थोड़े से उपहारों के बोझ से ही स्लेज टूट गई। स्लेज तो टूटी ही, साथ में उपहार भी टूट गए। सेब का शरबत पीने के इरादे से हताश सांता घर की ओर बढ़े। घर पहुंचकर सांता ने अलमारी खोली, उसमें से शरबत का जग निकाला तो उनके होश उड़ गए। ट्रेनी बौने सारा शरबत पीकर खत्म कर चुके थे। आज का पूरा दिन सांता के लिए गड़बड़भरा था। परेशान सांता के हाथ से शरबत का जग छूटकर ज़मीन पर गिर गया। उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए। अब, कांच किसी के पैर में न लग जाए, इसलिए कांच के टुकड़ों को साफ करना भी ज़रूरी था। इसलिए सांता झाडू लेने गए। वहां का नज़ारा और भी दुखदायी था। दरअसल चूहे झाड़ू खा गए थे।
परेशान और हताश होकर सांता सोच ही रहे थे कि क्या करें, तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। सांता ने दरवाज़ा खोला और देखा दरवाज़े पर एक छोटी-सी, प्यारी-सी एंजल खड़ी थी। उसके हाथ में एक सुंदर और बड़ा क्रिसमस ट्री था। प्यारी एंजल ने मुस्कुराते हुए सांता से कहा, ‘‘मैरी क्रिसमस सांता!
आज कितना प्यारा दिन है न! मैं आपके लिए यह खूबसूरत क्रिसमस ट्री लाई हूं। क्या आप इस क्रिसमस ट्री पर मुझे भी जगह देंगे?’’ एंजल ने सांता की पूरी दिन की उदासी को पल में छू-मंतर कर दिया। तभी से क्रिसमस ट्री पर सबसे ऊपर प्यारी एंजल को लगाया जाता है।

धन्यवाद सांता

पिछले चार दिनों से बर्फ पड़ रही थी। इसके कारण मारिया का घर से बाहर जाना सम्भव नहीं था। वह पिछले चार दिनों से घर पर ही थी। वह कपड़े समेट रही थी। उसकी दस साल की बेटी खिड़की के पास बैठी बाहर गिर रही बर्फ को देखकर मुस्कुरा रही थी। उस छोटे से घर में केवल दो सदस्य, वह खुद और उसकी बेटी चेल्सी रहती थी। चेल्सी के पिता चार बरस पहले चल बसे थे। मारिया जंगल से सूखी लकड़ियां काटकर बाज़ार में बेचती थी। इससे होने वाली थोड़ी-बहुत आमदनी से उनका घर चलाती थी। उनके घर की स्थिति कभी-कभी ऐसी होती कि उन्हें भूखे पेट ही सोना पड़ता था। लकड़ी का टूटा-फूटा घर ही उनकी एकमात्र सम्पदा थी। इतनी तकलीफों के बाद भी मारिया, चेल्सी को पास के स्कूल में पढ़ने भेजती थी। चेल्सी अपनी मां से बहुत प्यार करती थी। और घर के कामों में जितनी होती, मदद भी करती। वे दोनों हर रविवार को चर्च जातीं थीं। शहर के एक अलग-थलग से छोर पर उन्हीं की तरह के दस-पंद्रह परिवार रहते थे।
यहां से कुछ दूरी पर घना जंगल था। मारिया यहीं से प्रतिदिन लकड़ियां काटकर लाती थी। क्रिसमस का पर्व नज़दीक था। चेल्सी के स्कूल की छुट्टियां हो चुकीं थी। आस-पास के लोग क्रिसमस की तैयारियों में लगे थे। कोई नए कपड़े ला रहा था, कोई क्रिसमस ट्री, कोई अपने घर को क्रिसमस पर सबसे सुंदर सजाना चाहता था। वहीं कोई अपने परिवार के लिए अच्छा-सा गिफ्ट खरीदना चाहता था। चेल्सी जब यह देखती, तो उसका बालमन भी यह सब करने को मचलता। वह अपनी मां से कहती, ‘मां क्या हम क्रिसमस पर कुछ नहीं करेंगे, क्या क्रिसमस ट्री हमारे घर नहीं आएगा?’ वह चेल्सी को यह दिलासा देते हुए कहती, ‘क्यों नहीं मनाएंगे, हम क्रिसमस ज़रूर मनाएंगे।’ चेल्सी ने फिर से पूछा, ‘लेकिन ममा, अभी तक न तो हमने क्रिसमस की तैयारियां की हैं और न ही हम क्रिसमस ट्री लाएं हैं!!’ मारिया बात को टालने के लिए उसे किसी और बात में उलझा देती क्योंकि मारिया खुद नहीं जानती थी कि वह अपनी बेटी के साथ क्रिसमस कैसे मनाएगी। उसने सालभर से जो एक-एक करके कुछ पैसे जमा किए थे, वह पूंजी बहुत •यादा तो नहीं है। उसमें से कुछ पैसे उसकी बीमारी में और बाकी पैसे पिछले दिनों खत्म हो गए थे क्योंकि बर्फबारी के कारण वह लकड़ी बेचने नहीं जा पाई थी। इस हाल में क्रिसमस का त्योहार उसके लिए खुशी का नहीं बल्कि चिंता का विषय था।

मस्ती में नो ब्रेक

. झाड़ू की उड़ान
झाड़ू की उड़ान एक मज़ेदार खेल है, इसे चार या अधिक खिलाड़ी खेल सकते हैं। ज़रूरत है सिर्फ कुछ झाड़ू या कुछ चादरों की। आंगन में कहीं पर एक लाइन खींच लें। यह होगी आपकी शुरुआती रेखा। इससे कुछ दूरी पर एक और रेखा खींच लें, वह होगी आपकी निर्धारित अंतिम रेखा। आइए खलें-हर टीम में दो खिलाड़ी होंगे। एक खिलाड़ी झाड़ू पर बैठेगा और दूसरा उसे खींचेगा। इस तरह हर टीम के बीच रेस होगी। जिस टीम का खिलाड़ी अपने साथी को झाड़ू या चादर पर बैठा कर खींचते हुए सबसे पहले अंतिम रेखा पहुंचकर वापस शुरुआती रेखा तक पहुंचेगा, वही विजेता होगा।
2. चूहे दौड़, बिल्ली आई..
इस खेल को खेलने के लिए कम से कम छह खिलाड़ियों की ज़रूरत होगी। खेल में एक खिलाड़ी चूहा और एक खिलाड़ी बिल्ली बनेगा। बचे सभी खिलाड़ी अपने हाथों को एक-दूसरे की कमर पर डालकर एक गोला बना लेंगे। चूहे को इस गोले के अंदर रहना है और बिल्ली बने खिलाड़ी को गोले से बाहर रहकर चूहे को पकड़ना है। चूहा बाहर भी निकल सकता है और अपनी रक्षा के लिए गोले के अंदर भी आ सकता है। गोला बनाकर खड़े साथी बिल्ली को गोले के अंदर आने देने से रोकते हैं। चूहे के पकड़े जाने पर दूसरे बच्चों को चूहा और बिल्ली बनने का मौका मिलेगा।
3. जम्प लाइक ए डक
इस खेल को तीन और तीन से •यादा बच्चे खेल सकते हैं। इस खेल में आप म्यूज़िक प्लेयर या अपने ड्रम का प्रयोग भी कर सकते हैं। एक होगी शुरुआती रेखा और इससे कुछ दूरी पर होगी सीमा रेखा। इस खेल में एक साथी को ड्रम या म्यूज़िक प्लेयर को बजाने के लिए रहना होगा और बाकी खिलाड़ियों को पंजों के बल हाथों को घुटनों पर रखकर बैठना होगा। संगीत के शुरू होते ही खिलाड़ियों को निर्धारित रेखा से बत्तख की तरह कूदते हुए जाना है और सीमा रेखा को छूकर वापस शुरुआती रेखा पर आना है। जिस खिलाड़ी ने सही तरीके से प्रक्रिया पूरी की, वही विजेता।

कहानियाँ

चार मित्र
राजा आदर्श सेन के राज्य में प्रजा बहुत खुशहाल और संतुष्ट थी। वहां कभी किसी तरह का तनाव नहीं होता था। यह बात पड़ोसी राज्य के राजा कुशल सेन तक भी पहुंची। उसके यहां आए-दिन झगड़े होते रहते थे और प्रजा बहुत दु:खी थी। राजा कुशल सेन अपने पड़ोसी राज्य की सुख-शांति व खुशहाली का राज जानने के लिए आदर्श सेन के पास पहुंचा और बोला, 'मेरे यहां हर ओर दु:ख-दर्द व बीमारी फैली है। पूरे राज्य में त्राहि-त्राहि मची हुई है। कृपया मुझे भी अपने राज्य की सुख-शांति का राज बताएं।' कुशल सेन की बात सुनकर राजा आदर्श सेन मुस्कुरा कर बोला, 'मेरे राज्य में सुख-शांति मेरे चार मित्रों के कारण आई है।' इससे कुशल सेन की उत्सुकता बढ़ गई।
उसने कहा, 'कौन हैं वे आपके मित्र? क्या वे मेरी मदद नहीं कर सकते?' आदर्श सेन ने कहा, 'जरूर कर सकते हैं। सुनिए मेरा पहला मित्र है सत्य। वह कभी मुझे असत्य नहीं बोलने देता। मेरा दूसरा मित्र प्रेम है, वह मुझे सबसे प्रेम करने की शिक्षा देता है और कभी भी घृणा करने का अवसर नहीं देता। मेरा तीसरा मित्र न्याय है। वह मुझे कभी भी अन्याय नहीं करने देता और हर वक्त मेरे आंख-कान खुले रखता है ताकि मैं राज्य में होने वाली घटनाओं पर निरंतर अपनी दृष्टि बनाए रखूं। और मेरा चौथा मित्र त्याग है। त्याग की भावना ही मुझे स्वार्थ व ईर्ष्या से बचाती है। ये चारों मिलकर मेरा साथ देते हैं और मेरे राज्य की रक्षा करते हैं।' कुशल सेन को आदर्श सेन की सफलता का रहस्य समझ में आ गया।

सीखने की उम्र
स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।
एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।' यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है?' स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।'
बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती। वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।'
स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।' बुजुर्ग बिना कुछ बोले फिर अपने काम में व्यस्त हो गए।

महात्मा की शिक्षा
एक बार मगध के राजा चित्रांगद वन विहार के लिए निकले। साथ में कुछ बेहद करीबी मंत्री और दरबारी भी थे। वे घूमते हुए काफी दूर निकल गए। एक जगह सुंदर सरोवर के किनारे किसी महात्मा की कुटिया दिखाई दी। वह जगह राजा को बहुत पसंद आई हालांकि वह उसे दूर से ही देखकर निकल गए। राजा ने सोचा कि महात्मा अभावग्रस्त होंगे, इसलिए उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ धन भिजवा दिया। महात्मा ने वह धनराशि लौटा दी। कुछ दिनों बाद और अधिक धन भेजा गया, पर सब लौटा दी गई। तब राजा स्वयं गए और उन्होंने महात्मा से पूछा, 'आपने हमारी भेंट स्वीकार क्यों नहीं की?'
महात्मा हंसते हुए बोले, 'मेरी अपनी जरूरत के लिए मेरे पास पर्याप्त धन है।' राजा ने कुटिया में इधर-उधर देखा, केवल एक तुंबा, एक आसन एवं ओढ़ने का एक वस्त्र था, यहां तक कि धन रखने के लिए कोई अलमारी आदि भी नहीं थी। राजा ने फिर कहा, 'मुझे तो कुछ दिखाई नहीं देता।' महात्मा ने राजा को पास बुलाकर उनके कान में कहा, 'मैं रसायनी विद्या जानता हूं। किसी भी धातु से सोना बना सकता हूं।' अब राजा बेचैन हो गए, उनकी नींद उड़ गई। धन-दौलत के आकांक्षी राजा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही महात्मा के पास पहुंचकर बोले, 'महाराज! मुझे वह विद्या सिखा दीजिए, ताकि मैं राज्य का कल्याण कर सकूं।' महात्मा ने कहा, 'ठीक है पर इसके लिए तुम्हें समय देना होगा। वर्ष भर प्रतिदिन मेरे पास आना होगा। मैं जो कहूं उसे ध्यान से सुनना होगा। साल पूरा होते ही विद्या सिखा दूंगा।' राजा रोज आने लगे। महात्मा के साथ रहने का प्रभाव जल्दी ही दिखने लगा। एक वर्ष में राजा की सोच पूरी तरह बदल गई। महात्मा ने एक दिन पूछा, 'वह विद्या सीखोगे?' राजा ने कहा, 'गुरुदेव! अब तो मैं स्वयं रसायन बन गया। अब किसी नश्वर विद्या को सीखकर क्या करूंगा।'

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

क्रिसमस पर विशेष

मानवता का संदेश देता है क्रिसमस
क्रिसमस ईसाई समुदाय के लोगों का महापर्व है। यह पर्व हर वर्ष 25 दिसम्बर को मनाया जाता है । इस दिन ईसा मसीह का जन्म हुआ था । सभी इसाई ईसा मसीह की शिक्षाओं को ही अपने धर्म का मूल आधार मानते हैं । ईसा मसीह को जीसस क्राइस्ट भी कहते हैं । ईसाई मानते हैं की ईश्वर ने इस संसार की रचना की है तथा अपने दूतों के माध्यम से लोगों को संदेश देते हैं ।

ईश्वर के पुत्र जीसस इस धरती पर लोगों को जीवन की शिक्षा देने के लिये आये थे। जीसस ने कहा था कि ईश्वर सभी व्यक्तियों से प्यार करते हैं तथा हमें प्रेम को जीवन में अपनाकर ईश्वर की सेवा करनी चाहिये । ईश्वर की सेवा का सबसे उत्तम मार्ग दीन दुखियों की सेवा करना है । क्रिसमस का त्योहार हमें यही पावन संदेश देता है। क्रिसमस का त्योहार जनसमुदाय को भाईचारा, मानवता व परोपकार का पावन संदेश देता है । यह उत्सव सुख, शांति व समृद्धि का सूचक है।

शवयात्रा में क्यों जाते हैं?


जीवन का अंतिम सच है मृत्यु। भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि आत्मा नश्वर है और शरीर नष्ट होने वाला है। जिस प्रकार हम कपड़े बदलते हैं उसी प्रकार आत्मा शरीर बदलती है। शरीर का अंत मृत्यु के साथ ही हो जाता है और मृत शरीर को पंचतत्व में विलीन करने के लिए शमशान पर ले जाते हैं। इस यात्रा को शवयात्रा कहा जाता है।
शवयात्रा में मृत व्यक्ति के रिश्तेदार, घर-परिवार के सदस्य, मित्र और समाज के अन्य लोग मौजूद रहते हैं। शवयात्रा को अंतिम यात्रा भी कहा जाता है। शव यात्रा का अर्थ है शव की यात्रा। इस यात्रा में मृत व्यक्ति से जुड़े हुए सभी लोग उसे देखने के लिए शामिल होते हैं। सभी जानते हैं कि शवयात्रा में दिखाई देने वाला मृत शरीर फिर बाद में हमेशा के लिए पंचतत्व में विलिन हो जाएगा।
मरने वाले व्यक्ति ने जीवनभर जिन लोगों के साथ समय बिताया और जिनके साथ सुख-दुख देखे, सभी के साथ उसकी यादें जुड़ी होती हैं। शवयात्रा में शामिल होने का भाव यही है कि मृत व्यक्ति को अंतिम बार देखना और उसे श्रद्धांजलि अर्पित करना। ताकि मृत व्यक्ति की आत्मा को शांति मिल सके।
शास्त्रों के अनुसार शवयात्रा में जाना पवित्र कर्म माना गया है। इस यात्रा में शामिल होने वाले हर व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। इस पुण्य के प्रभाव से सभी के कई जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
शवयात्रा में शामिल होने पर यह ज्ञान भी हो जाता है कि सभी के जीवन का अंत ऐसा ही होना है। मृत्यु का भय सभी को रहता है और कोई मरना नहीं चाहता, ऐसे में इस यात्रा में शामिल होने वाले लोगों के मन से मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है। व्यक्ति को जीवन का मूल्य समझ आता है और वह इसे खुश होकर जीता है। क्योंकि उसे मालूम है एक दिन उसके शरीर का भी अंत इसी प्रकार होना है।

भागवत-१५०: कंस के कारागर में हुआ भगवान श्रीकृष्ण का अवतार

भादौ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जब चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था उसी समय परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे।

वसुदेव ने देखा कि उनके सामने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, कमल लिए साक्षात परब्रह्म खड़े हैं। वे बहुमूल्य वैदूर्यमणी के किरीट और कुण्डल की कांति से युक्त सुंदर घुंघराले बाल, सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर लहरा रहा है। और वसुदेव के देखते ही देखते चारभुजाधारी भगवान विष्णु छोटे बालक के समान दिखने लगे। उस बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वयं भगवान आए हैं। तो पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ।
फिर आनन्द से उनकी आंखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंग कान्ति से सूतिका ग्रह को जगमगा रहे थे। श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। तो उसे परम आनंद की अनुभूति हुई और कंस का भय भी ह्रदय से जाता रहा। फिर वसुदेव व देवकी ने बड़े पवित्र भाव से भगवान विष्णु की स्तुति की।

कैसे हुआ पाण्डवों का जन्म?


ऋषि किंदम की मृत्यु का प्रायश्चित करने के लिए जब पाण्डु कुंती व माद्री के साथ वन में रहने लगे तो उन्हें संतान न होने की चिंता सताने लगी। जब यह बात कुंती को पता चली तो उन्होंने पाण्डु को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए मंत्र की बात बताई। यह जानकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।तब पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम धर्मराज (यमराज) का आवाहन करो। कुंती ने धर्मराज का आवाहन किया। मंत्र के प्रभाव से धर्मराज तुरंत वहां उपस्थित हुए और उनके आशीर्वाद से कुंती को गर्भ रहा। समय आने पर कुंती ने युधिष्ठिर को जन्म दिया।
इसके बाद कुंती ने पाण्डु की इच्छानुसार वायुदेव का स्मरण किया। वायुदेव की कृपा से महाबली भीम का जन्म हुआ। इसके बाद कुंती ने देवराज इंद्र का आवाहन किया। इंद्र की कृपा से अर्जुन का जन्म हुआ। तभी आकाशवाणी हुई कि यह बालक भगवान शंकर व इंद्र के समान पराक्रमी होगा। यह अनेक राजाओं को पराजित कर तीन अश्वमेध यज्ञ करेगा। तब एक दिन पाण्डु ने कुंती से कहा कि तुम वह मंत्र जो तुम्हें ऋषि दुर्वासा ने दिया है, माद्री को भी बताओ जिससे यह भी पुत्रवती हो सके।
कुंती ने माद्री को वह मंत्र बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का चिंतन किया। अश्विनकुमारों ने आकर माद्री को गर्भस्थापन किया, जिससे माद्री को जुड़वा पुत्र नकुल व सहदेव हुए। इस प्रकार कुंती के गर्भ से युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन तथा माद्री से गर्भ से नकुल व सहदेव का जन्म हुआ। तब पाण्डु अपने पुत्रों व पत्नियों के साथ वन में प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

तीन कहानियाँ

सीखने की उम्र
स्वामी रामतीर्थ जापान की यात्रा पर थे। जिस जहाज से वह जा रहे थे, उसमें नब्बे वर्ष के एक बुजुर्ग भी थे। स्वामी जी ने देखा कि वह एक पुस्तक खोल कर चीनी भाषा सीख रहे हैं। वह बार-बार पढ़ते और लिखते जाते थे। स्वामी जी सोचने लगे कि यह इस उम्र में चीनी सीख कर क्या करेंगे।
एक दिन स्वामी जी ने उनसे पूछ ही लिया, 'क्षमा करना। आप तो काफी वृद्ध और कमजोर हो गए हैं। इस उम्र में यह कठिन भाषा कब तक सीख पाएंगे। अगर सीख भी लेंगे तो उसका उपयोग कब और कैसे करेंगे।' यह सुन कर उस वृद्ध ने पहले तो स्वामी जी को घूरा, फिर पूछा, 'आपकी उम्र कितनी है?' स्वामी जी ने कहा, 'तीस वर्ष।'
बुजुर्ग मुस्कराए और बोले, 'मुझे अफसोस है कि इस उम्र में आप यात्रा के दौरान अपना कीमती समय बेकार कर रहे हैं। मैं आप लोगों की तरह नहीं सोचता। मैं जब तक जिंदा रहूंगा तब तक कुछ न कुछ सीखता रहूंगा। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। यह नहीं सोचूंगा कि कब तक जिंदा रहूंगा, क्योंकि मृत्यु उम्र को नहीं देखती। वह तो कभी भी आ सकती है। आपकी बात से आपकी सोच का पता चलता है। शायद इसी सोच के कारण आप का देश पिछड़ा है।'
स्वामी जी ने उससे माफी मांगते हुए कहा, 'आप ठीक कहते हैं। मैं जापान कुछ सीखने जा रहा था, लेकिन जीवन का बहुमूल्य पहला पाठ तो आप ने रास्ते में ही, एक क्षण में मुझे सिखा दिया।' बुजुर्ग बिना कुछ बोले फिर अपने काम में व्यस्त हो गए।

परोपकार का दंभ
एक गुरु अपने शिष्यों से कहते थे कि दिन भर में एक नेक कार्य अवश्य करना चाहिए। इससे ही जन्म सफल होता है। एक दिन गुरु ने उत्सुकतावश शिष्यों से पूछा कि कल किस-किसने कोई नेक कार्य किया था?
उनके तीन शिष्यों ने कहा कि उन्होंने नेक कार्य किया था। गुरु ने उनमें से एक से पूछा, 'बताओ कल तुमने क्या नेक कार्य किया?' शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने एक असहाय बुढि़या को हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई।' गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई, फिर दूसरे से वही प्रश्न किया। दूसरा शिष्य बोला, 'गुरुजी, मैंने भी एक बुढि़या को सड़क पार कराई।'
फिर गुरु ने तीसरे शिष्य की ओर नजरें घुमाईं। उसने भी यही कहा कि मैंने एक वृद्धा को सड़क पार कराई। तीनों की एक ही जैसी बात सुनकर गुरुजी को संदेह हुआ। वह बोले, 'भला ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम तीनों ने ही वृद्धा को सड़क पार कराई। तुम तीनों एक ही वृद्धा को सड़क पार कैसे करा सकते हो?' इस पर तीनों एक साथ बोले, 'गुरुजी जब हम जा रहे थे तो रास्ते में हमें एक वृद्धा मिली।
हमने उसे सड़क पार कराने के लिए कहा तो वह बोली कि मुझे सड़क पार नहीं करनी है। इस पर हम तीनों ने उसे जबरदस्ती पकड़कर सड़क पार कराई।' उनकी बात सुनकर गुरुजी दंग रह गए। उन्होंने शिष्यों को समझाते हुए कहा, 'नेक कार्य तब होता है जब वास्तव में परोपकार किया जाए। केवल परोपकार का दंभ भरने के लिए किया गया कार्य परोपकार नहीं कहलाता।' तीनों शिष्यों ने अपनी गलती के लिए गुरु से क्षमा मांगी।

निंदक और चाटुकार
आदर्श नगर के महाराज आदर्शसेन अपने दरबार में बैठे थे। अनेक विषयों पर मंत्रणा चल रही थी। अचानक आदर्शसेन को न जाने क्या सूझा कि वह बीच में ही बोल उठे, 'क्या कोई मुझे बताएगा कि सबसे तेज कौन काटता है और सबसे जहरीला विष किसका होता है?' यह सुनकर सभी दरबारी व विद्वान एक-दूसरे की ओर देखने लगे। काफी देर बाद एक विद्वान उठकर बोला, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज विष सांप का होता है।
उसका काटा पानी भी नहीं मांगता।' राजा इस जवाब से संतुष्ट नहीं दिखे। यह भांप कर एक दरबारी बोला, 'मेरी नजर में तो सबसे तेज ततैया काटता है। उसके काटते ही चीख निकल जाती है।' राजा ने इस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। तब एक और विद्वान खड़ा हुआ और राजा से बोला, 'हुजूर, मेरी नजर में तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी होती है। उसके काटते ही किसी व्यक्ति का शरीर सूज जाता है और वह कई दिनों तक दर्द से बिलबिलाता रहता है। भला उससे तेज विष किसका हो सकता है?'
इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने अपने अनुसार एक से बढ़ कर एक जवाब दिए, किंतु राजा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। तभी एक युवा विद्वान ने उठकर कहा, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज व जहरीले दो ही होते हैं -निंदक और चाटुकार। निंदक के हृदय में निंदा द्वेष रूपी जहर भरा रहता है। वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है।
चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य अपने दुर्गुणों को गुण समझकर अहंकार के नशे मंे चूर हो जाता है। चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जड़मूल से नष्ट कर देती है। अनेक ऐसे उदाहरण सामने हैं, जिनमें निंदक व चापलूस ने मनुष्य को इस प्रकार काटा कि वे समूल नष्ट हो गए।' इस जवाब से राजा और सारे विद्वान पूरी तरह संतुष्ट हो गए।

कितना बड़ा होता है ब्रह्मा का एक दिन?


धरती पर हमने अपनी सुविधा के हिसाब से हर चीज तय की है। हमने काल गणना के भी अपने अपने तरीके इजात किए हैं 24घंटो में धरती पर एक रात और एक दिन का समय गुजर जाता है। नेकिन क्या आपने कभी कल्पना की है कि दुनिया को बनाने वाले ब्रह्मा का एक दिन कितना बड़ा होता है? जिन देवताओं की हम पूजा करते हैं उनका एक दिन कितना बड़ा होता है? हम आपको ऐसी ही रोचक जानकारी यहां दे रहे हैं। हमारे ग्रन्थों ने बहुत बारीकी से समय की गणना की है । विष्णु पुराण में भी इसी तरह की काल गणना का प्रमाण मिलता है। मर्हिषि पाराशर ने इसही बहुत प्रमाणिक गणना बताई है।
विष्णु पुराण के पहले अध्याय में इसका उल्लेख है कि धरती पर 30 मुहुर्त का एक दिन और एक रात होती है 30 दिन का एक महीना और छ: महीनों का एक अयन होता है। यह दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन देवताओं के दिन और रात होते है। उत्तरायण दिन कहा जाता है और दक्षिणायन रात कही जाती है। इस गणना के मुताबिक 48,000 साल का सतयुग 36,000 साल का त्रेतायुग 24,000 साल का द्वापर और 12,000 देव वर्ष का कलियुग माना गया है।पुराण कहता है कि चार युग मिल कर चर्तुयुग होता है और ऐसे एक हजार चर्तुयुग बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है।ब्रह्मा के एक दिन के भीतर ही हम एक हजार बार जन्म ले चुके होते हैं। और इतनी ही बार सृष्टि की रचना और विध्वंश भी हो जाता है।

ऐसा होता है रामराज्य


त्रेतायुग में मयार्दापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम द्वारा आदर्श शासन स्थापित किया गया। वह आज भी रामराज्य नाम से राम की तरह ही लोकप्रिय है। यह शासन व्यवस्था सुखी जीवन का प्रतीक बन गई। व्यावहारिक जीवन में परिवार, समाज या राज्य में सुख और सुविधाओं से भरी व्यवस्था के लिए आज भी इसी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है।
साधारण रूप से जिस रामराज्य को मात्र सुख-सुविधाओं का पर्याय माना जाता है। असल में वह मात्र सुविधाओं के नजरिए से ही नहीं बल्कि उसमें रहने वाले नागरिकों के पवित्र आचरण, व्यवहार और विचार और मर्यादाओं के पालन के कारण भी श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का प्रतीक है। जानते हैं शास्त्रों में बताए गए रामराज्य से जुड़ी कुछ खास विशेषताओं को
- गोस्वामी तुलसीदास ने स्वयं रामचरित मानस में कहा है -
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहहिं काहुहि ब्यापा।।
- इस चौपाई के मुताबिक राम राज्य में शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सांसारिक तीनों ही दु:ख नहीं थे।
- राम राज्य में रहने वाला हर नागरिक उत्तम चरित्र का था।
- सभी नागरिक आत्म अनुशासित थे, वह शास्त्रो व वेदों के नियमों का पालन करते थे। जिनसे वह निरोग, भय, शोक और रोग से मुक्त होते थे।
- सभी नागरिक दोष और विकारों से मुक्त थे यानि वह काम, क्रोध, मद से दूर थे।
- नागरिकों का एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या या शत्रु भाव नहीं था। इसलिए सभी को एक-दूसरे से अपार प्रेम था।
- सभी नागरिक विद्वान, शिक्षित, कार्य कुशल, गुणी और बुद्धिमान थे।
- सभी धर्म और धार्मिक कर्मों में लीन और निस्वार्थ भाव से भरे थे।
- रामराज्य में सभी नागरिकों के परोपकारी होने से सभी मन और आत्मा के स्तर पर शांत ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी शांति और सुकून से रहते थे।
- रामराज्य में कोई भी गरीब नहीं था। रामराज्य में कोई मुद्रा भी नहीं थी। माना जाता है कि सभी जरूरत की चीजों का बिना कीमत के लेन-देन होता था। अपनी जरूरत के मुताबिक कोई भी वस्तु ले सकता था। इसलिए बंटोरने की प्रवृत्ति रामराज्य में नहीं थी।- धार्मिक मान्यता है कि पर्वतों ने अपने सभी मणि आदि और सागर ने रत्न, मोती रामराज्य के लिए दे दिये। इसलिए वहां के नागरिक शौक-मौज के जीवन की लालसा नहीं रखते थे। बल्कि कर्तव्य परायण और संतोषी थे।

स्त्री-पुरुष का भेद

औरतों के लिए अभी तक नहीं बदली सोच...
धर्म, शास्त्रों में व्यक्त अनेक प्रसंगों और परिभाषाओं में स्त्री-पुरुष का भेद बताया गया है लेकिन अध्यात्म तक आते-आते यह भेद समाप्त हो जाता है। बल्कि अध्यात्म में तो भक्ति के लिए स्त्रैण चित्त को श्रेष्ठ बताया है। परमात्मा को पाने के मामले में नारियां पुरुषों से आगे हैं। अध्यात्म की घोषणा है पुरुष के जीवन में भक्ति तभी उतरेगी जब उसका चित्त स्त्रैण चित्त जागेगा।
संसार भर में भक्ति, साहित्य, धर्म की व्याख्या भले ही पुरुषों द्वारा लिखा गया है लेकिन जीया स्त्रीयों ने ही है। भागवत में प्रसंग आया है कि जब मनु और शतरूपा को परमात्मा ने आशीर्वाद दिया कि वे मैथुनी सृष्टि से संतान पैदा करें तो उन्हें जो पहली जो पांच संतानें पैदा हुई उसमें से तीन कन्याएं थीं आकूती, देवहूती और प्रसूति। संतों का मत है कि संसार की तीन पहली संतानें कन्याएं हुईं, इसलिए स्त्रियों को दोयम दर्जा मानना किसी भी धर्म की दृष्टि से बुद्धिमानी नहीं है। ये लोक परंपराएं, जनसुविधाएं और अहंकार के परिणाम हैं।

हिन्दुओं में दो प्रमुख अवतार हुए हैं और दोनों ने ही नारियों को मान्यताएं दी हैं। दूसरे धर्मों में भी जो देवपुरुष हुए उन्होंने स्त्रियों की प्रतिष्ठा को प्रथम ही रखा है। श्रीराम ने अपनेअवतार काल में गिने-चुने अवसरों पर दार्शनिक व्याख्यान दिए हैं। राम मौन का जादू जानते थे इसलिए कम ही बोले लेकिन नौ प्रकार की भक्ति पर उन्होंने जो अपना दार्शनिक व्याख्यान दिया है उसके लिए एक नारी पात्र को चुना और वह थीं शबरी। इसी तरह वृंदावन में श्रीकृष्ण ने स्त्रियों को अत्यधिक मान दिया है। डॉ. लोहिया ने एक जगह लिखा है नारी यदि नर के समकक्ष हुई है तो व्रज में हुई है।
जब-जब हमारे जीवन में प्रेम है, तब तक अहंकार और वासनाओं से हम मुक्त हैं। हर धर्म यही कहता है और प्रेम के रहते हुए कोई दोयम कैसे हो सकता है फिर मातृशक्ति के लिए तो दोयम दर्जे का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए।

क्यों मर्यादापुरुषोत्तम है श्रीराम?


भारतीय संस्कृति में भगवान राम जन-जन के दिलों में बसते हैं। इसके पीछे मात्र धार्मिक कारण ही नहीं है, बल्कि श्रीराम चरित्र से जुड़े वह आदर्श हैं, जो मानव अवतार लेकर स्थापित किए गए। सीधे शब्दों में श्रीराम मर्यादित जीवन और आचरण से ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। लेकिन ऐसे ऊंचे पद तक पहुंचने के लिए श्रीराम ने किस तरह के जीवनमूल्य स्थापित किए? जानते हैं कुछ ऐसी ही बातें -
धार्मिक दृष्टि से श्रीराम भगवान विष्णु का सातवां अवतार हैं। भगवान का इंसान रूप में यह अवतार मानव को समाज में रहने के सूत्र सिखाता है। असल में भगवान श्रीराम ने इंसानी जिंदगी से जुड़ी हर तरह की मर्यादाओं और मूल्यों को स्थापित किया।
श्रीराम ने अयोध्या के राजकुमार से राजा बनने तक अपने व्यवहार और आचरण से स्वयं मर्यादाओं का पालन किया। एक आम इंसान परिवार और समाज के बीच रहकर कैसे बोल, व्यवहार और आचरण को अपनाकर जीवन का सफर पूरा करे, यह सभी सूत्र श्रीराम के बचपन से लेकर सरयू में प्रवेश करने तक के जीवन में छुपे हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक नजरिए से भी श्रीराम के जीवन को देखें तो पाते हैं कि श्रीराम ने त्याग, तप, प्रेम, सत्य, कर्तव्य, समर्पण के गुणों और लीलाओं से ईश्वर तक पहुंचने की राह और मर्यादाओं को भी बताया।
अयोध्या के राजा बनने के बाद मर्यादा, न्याय और धर्म से भरी ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की, जिसकी आर्थिक, सामजिक और राजनीतिक मर्यादाओं ने हर नागरिक को सुखी, आनंद और समृद्ध कर दिया। श्रीराम का मर्यादाओं से भरा ऐसा शासन तंत्र आज भी युगों के बदलाव के बाद भी रामराज्य के रूप में प्रसिद्ध है।
इस तरह मर्यादामूर्ति श्रीराम ने व्यक्तिगत ही नहीं राजा के रूप में भी मर्यादाओं का हर स्थिति में पालन कर इंसान और भगवान दोनों ही रूप में यश, कीर्ति और सम्मान को पाया।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

बातचीत अम्माजी से

गांव से निकल दिल्ली पहुंची अम्माजी
धारावाहिकों में लीप लेना यानी उसकी कहानी, विषय वस्तु और किरदारों आदि को मौजूदा समय से कहीं आगे ले जाना अब एक ट्रेंड बन गया है, लेकिन कलर्स के सुपरहिट शो ‘ना आना इस देस लाडो’ में लिया गया लीप सबके रिकॉर्ड तोड़ने जा रहा है। जी हां, इस शो में कहानी को 18 साल आगे बढ़ा दिए जाने की तैयारी पूरी हो चुकी है। अब अम्माजी गांव में नहीं, बल्कि दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश में दिखाई देंगी। शो के किरदार गांव की अक्खड़ बोली नहीं, बल्कि दिल्ली की देसी बोली बोलते दिखाई देंगे।

आगामी 21 दिसंबर से ‘ना आना इस देस लाडो’ वीरपुर के ग्रामीण परिवेश से निकल कर दिल्ली के ग्रेटर कैलाश जैसी आलीशान जगह की ओर बढ़ेगा, जहां अम्माजी, उनके परिवार और अंबा, अम्माजी की परित्यक्त बेटी के साथ नया जीवन आरंभ होगा। भानु प्रताप को अम्माजी के परिवार को मिटाने में तब आंशिक सफलता मिलेगी, जब राघव भानु के हमलों में दम तोड़ देगा और सिया अंबा की देख रेख में जुड़वा लड़कियों को जन्म देने के बाद अपनी अंतिम सांस लेगी। अपनी मौत से पहले राघव अपनी बच्चियों का पालन-पोषण अहिंसा वाले माहौल में करने की जिम्मेदारी अम्मा जी को सौंपेगा, जबकि अंबा उस दूसरी जुड़वां बच्ची की परवरिश करेगी, जो इस लड़ाई के दौरान अलग हो जाती है। अब सिया की जुड़वा लड़कियां अम्माजी के लिए प्रतिशोध की देवी बनेंगी या उनकी भावी विरासत? ये आने वाले एपिसोड में पता चलेगा।
इस बदलाव के बारे में कलर्स की अश्विनी यार्डी कहती हैं, ‘इस शो की ताकत हमेशा से ही एक ग्रामीण परिवेश में इसके शक्तिशाली महिला किरदार, उनकी जीतें और संघर्ष रही है। चूंकि यह धारावाहिक अपना 500वां अंक पूरा करने की दहलीज पर है, इसलिए हम आधुनिक सामाजिक परिवेश में अम्माजी और अम्बा के पहले से मजबूत गुट में नए मिलनसार किरदार जोड़ कर अपने वफादार दर्शकों के साथ अपने रिश्ते को और मजबूत बनाना चाहते हैं, जो उनका और भी अधिक मनोरंजन करेगा।’
जानकारी के अनुसार कलर्स अपने दर्शकों के लिए राघव और सिया की जुड़वां लड़कियों के नाम चुनने के लिए एक नई कैम्पेन चलाएगा। इन जुड़वां लड़कियों का 21 दिसंबर के शो में परिचय कराया जाएगा।
अभी तक छांटे गए दो नाम हैं ध्वनि और साक्षी, रीवा और अहाना, जानवी और दिया। जुड़वां लड़कियों की भूमिका में आपको मासूम दिखाई देने वाली सिमरन कौर और उत्साही एवं प्रफुल्लित वैष्णवी धनराज दिखाई देंगी। चर्चा तो इस बात की भी जोरों पर है कि दर्शकों को तब जबरदस्त झटका लगेगा, जब वे अम्माजी को अपनी पोती के लिए दाई का किरदार निभाते देखेंगे। अपने किरदार में आए बदलाव के बारे में अम्माजी उर्फ मेघना मलिक कहती हैं, ‘लगभग दो वर्षों से इस चरित्र को जीना और अभिनय करना बहुत ही शानदार और चुनौतीपूर्ण रहा। अब जबकि यह धारावाहिक 18 साल की छलांग लगाने जा रहा है तो मैं भी एक अलग भूमिका अदा करने के लिए काफी उत्सुक हूं।

हनुमानजी अमर हैं क्योंकि...


हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के अवतार श्री हनुमानजी को अमर माना जाता है। हनुमानजी पवनदेव के पुत्र बताए गए हैं। हनुमान भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम के परम भक्त हैं, इनकी सेवा में बजरंग बली सदैव तत्पर रहते हैं।
श्रीरामचरित मानस के अनुसार हनुमानजी श्रीराम के भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। हनुमानजी चिरंजीवी माने गए हैं। इस संबंध में रामायण में एक प्रसंग आता है। जब श्रीराम वानर सेना सहित सीता को खोजने निकले तब हनुमानजी माता सीता की खोज में समुद्र पार कर लंका जा पहुंचे। जब बजरंग बली ने माता सीता को रावण की अशोक वाटिका में देखा, तब रामभक्त हनुमान ने देवी जानकी को श्रीराम की मुद्रिका दी। श्रीराम के वियोग में बेहाल सीता ने श्रीराम की मुद्रिका देखी तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि प्रभु उन्हें जल्द ही दैत्यराज रावण की कैद से मुक्त कराएंगे और रावण को उसके किए पाप की सजा मिलेगी। इस सुखद अहसास से प्रसन्न होकर माता सीता ने हनुमान को अमरता का वरदान दिया। तभी से हनुमानजी चिरंजीवी हैं।
हनुमानजी चिरंजीवी हैं इसी वजह से वे भक्तों की मनोकामनाओं को तुरंत भी पूरा करते हैं। कलयुग में इनकी भक्ति से कई जन्मों के पाप स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं।

जब कुंती ने पाण्डु को बताया मंत्र का रहस्य


ऋषि किंदम के श्राप के कारण पाण्डु वानप्रस्थाश्रम के अनुसार कुंती व माद्री के साथ गंदमादन पर्वत पर रहने लगे। पाण्डु वहां रहते हुए प्रतिदिन तप किया करते और कुंती व माद्री उनकी सेवा करती थी। एक बार पाण्डु ने देखा कि बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि कहीं जा रहे थे। पाण्डु के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे ब्रह्माजी के दर्शन के लिए ब्रह्मलोक की यात्रा कर रहे हैं। यह बात जानकर पाण्डु भी अपनी पत्नियों के साथ उनके पीछे चलने लगे। लेकिन फिर पाण्डु ने सोचा कि संतानहीन के लिए तो स्वर्ग के द्वार बंद है। यह सोचकर वे सोच में पड़ गए।
तब ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से देखकर बताया कि पाण्डु आपके देवताओं के समान पुत्र होंगे और तब आप स्वर्ग जा सकेंगे। किंतु पाण्डु यह जानते थे कि किंदम ऋषि के श्राप के कारण वे सहवास नहीं कर सकते। इसी सोच में पाण्डु एक दिन बैठे थे तभी कुंती वहां आई और उसने पाण्डु से परेशानी का कारण पूछा। पाण्डु ने सारी बात कुंती को बता दी। तब कुंती ने पाण्डु को बताया कि बालपन में मैंने दुर्वासा ऋषि की खूब सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया था जिसके स्मरण से मैं किसी भी देवता का आवाहन कर सकती हूं और उसी की कृपा से मुझे संतान उत्पन्न होगी। यह बात सुनकर पाण्डु अत्यंत प्रसन्न हुए।

विष्णु के 24 अवतार क्यों?


हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालक माना है ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा सृष्टि बनाने वाले विष्णु सृष्टि का पालन और शिव संहार करने वाले है। शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं ऐसा कहा जाता है कि जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते है।
पर सवाल ये है कि भगवान विष्णु के अवतारों की संख्या 24 ही क्यो है ज्यादा या कम क्यों नहीं। इसके पीछे जो कारण बताया जाता है वो मानव शरीर की रचना व उसके संचालन से जुड़ा है। कई विद्वानों और संतों का ऐसा मत है कि विष्णु के 24 अवतारों में मानव शरीर की रचना का रहस्य छुपा है। शास्त्रों ने मानव शरीर की रचना 24 तत्वों से जुड़ी बताई है। ये 24 तत्व ही 24 अवतारों के प्रतीक हैं।
क्या हैं ये 24 तत्व: माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां(आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां(गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार(सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध)पांच तत्व(धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।

भागवत-१४९: जब कंस के कैदखाने में आए भगवान शंकर व ब्रह्मा

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि देवकी के आठवें गर्भ में भगवान विष्णु आए इसका परिणाम यह हुआ कि कंस को उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते भगवान विष्णु का भय सताने लगा। उस पर मृत्यु का भय इतना हावी हो गया कि उसे चहुंओर भगवान विष्णु ही नजर आने लगा।

शुकदेवजी कहते हैं-हे परीक्षित। जब भगवान के अवतरण का समय आया तो भगवान शंकर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आए उनके साथ अपने अनुचरों समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी पधार गए। ब्रह्मा, शंकर, नारद आदि सभी देवताओं ने भगवान श्रीहरि की स्तुति की। उस समय आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त सौम्य हो रहे थे। दिशाएं स्वच्छ प्रसन्न थीं, निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे।
ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियां जो कंस के अत्याचार से बुझ गई थीं। वे इस समय अपने आप जल उठीं। पृथ्वी भी मंगलमय हो गई। भगवान का जन्म वर्णन-सन्त पुरूष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाए, अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्प की वर्षा करने लगे। जन्म और मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था।

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

कहानी

निंदक और चाटुकार
आदर्श नगर के महाराज आदर्शसेन अपने दरबार में बैठे थे। अनेक विषयों पर मंत्रणा चल रही थी। अचानक आदर्शसेन
को न जाने क्या सूझा कि वह बीच में ही बोल उठे, 'क्या कोई मुझे बताएगा कि सबसे तेज कौन काटता है और सबसे जहरीला विष किसका होता है?' यह सुनकर सभी दरबारी व विद्वान एक-दूसरे की ओर देखने लगे। काफी देर बाद एक विद्वान उठकर बोला, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज विष सांप का होता है।

उसका काटा पानी भी नहीं मांगता।' राजा इस जवाब से संतुष्ट नहीं दिखे। यह भांप कर एक दरबारी बोला, 'मेरी नजर में तो सबसे तेज ततैया काटता है। उसके काटते ही चीख निकल जाती है।' राजा ने इस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया। तब एक और विद्वान खड़ा हुआ और राजा से बोला, 'हुजूर, मेरी नजर में तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी होती है। उसके काटते ही किसी व्यक्ति का शरीर सूज जाता है और वह कई दिनों तक दर्द से बिलबिलाता रहता है। भला उससे तेज विष किसका हो सकता है?'
इस प्रकार सभी व्यक्तियों ने अपने अनुसार एक से बढ़ कर एक जवाब दिए, किंतु राजा किसी के भी जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। तभी एक युवा विद्वान ने उठकर कहा, 'महाराज, मेरी नजर में तो सबसे तेज व जहरीले दो ही होते हैं -निंदक और चाटुकार। निंदक के हृदय में निंदा द्वेष रूपी जहर भरा रहता है। वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है।
चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य अपने दुर्गुणों को गुण समझकर अहंकार के नशे मंे चूर हो जाता है। चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जड़मूल से नष्ट कर देती है। अनेक ऐसे उदाहरण सामने हैं, जिनमें निंदक व चापलूस ने मनुष्य को इस प्रकार काटा कि वे समूल नष्ट हो गए।' इस जवाब से राजा और सारे विद्वान पूरी तरह संतुष्ट हो गए।
संकलन : रेनू सैनी

ऋषि किंदम ने क्यों दिया पाण्डु को श्राप?


राजा पाण्डु एक बार वन में घूम रहे थे। तभी उन्हें हिरनों का एक जोड़ा दिखाई दिया। पाण्डु ने निशाना साधकर उन पर पांच बाण मारे, जिससे हिरन घायल हो गए। वास्तव में वह हिरन किंदम नामक एक ऋषि थे जो अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहे थे। तब किंदम ऋषि ने अपने वास्तविक स्वरूप में आकर पाण्डु को श्राप दिया कि तुमने अकारण मुझ पर और मेरी तपस्नी पत्नी पर बाण चलाए हैं जब हम विहार कर रहे थे। अब तुम जब भी अपनी पत्नी के साथ सहवास करोगे तो उसी समय तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तथा वह पत्नी तुम्हारे साथ सती हो जाएगी।
इतना कहकर किंदम ऋषि ने अपनी पत्नी के साथ प्राण त्याग दिए। ऋषि की मृत्यु होने पर पाण्डु को बहुत दु:ख हुआ। ऋषि की मृत्यु का प्रायश्चित करने के उद्देश्य से पाण्डु ने सन्यास लेने का विचार किया। जब कुंती व माद्री को यह पता चला तो उन्होंने पाण्डु को समझाया कि वानप्रस्थाश्रम में रहते हुए भी आप प्रायश्चित कर सकते हैं। पाण्डु को यह सुझाव ठीक लगा और उन्होंने वन में रहते हुए ही तपस्या करने का निश्चय किया। पाण्डु ने ब्राह्मणों के माध्यम से यह संदेश हस्तिनापुर भी भेजा। यह सुनकर हस्तिनापुरवासियों को बड़ा दु:ख हुआ। तब भीष्म ने धृतराष्ट्र को राजा बना दिया। उधर पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ गंधमादन पर पर्वत पर जाकर ऋषिमुनियों के साथ साधना करने लगे।

इसी जगह मिला ब्रह्मा के कटे सिर को मोक्ष


हिन्दु धर्म के प्रमुख वैष्णव तीर्थ और चार पावन धामों में एक बद्रीनाथ तीर्थ की यात्रा पर जहां कुदरत के तमाम खुशनुमा नजारों और पर्वत चोटियों की ऊंचाईयों को देखने का सुखद एहसास मिलता है, वहीं इस स्थान पर आने के बाद हर तीर्थयात्री स्वयं को धर्म और अध्यात्म की गहराइयों में उतरने से रोक नहीं सकता। क्योंकि इस तीर्थ और उसके आस-पास के सभी स्थान बहुत धार्मिक महत्व रखते हैं।
इन स्थानों में एक है बद्रीनाथ मंदिर के उत्तर दिशा में लगभग 100 मीटर दूरी पर स्थित है - ब्रह्मकपाल। ब्रह्मकपाल अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है। वास्तव में यह एक विशाल शिलाखंड है और नदी का घाट है। ब्रह्मकपाल पौराणिक महत्व का स्थान होने के साथ ही धार्मिक कर्मकाण्ड के लिए प्रमुख तीर्थ है। ब्रह्म कपाल श्राद्ध कर्म के लिए सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। यहां पर आकर तीर्थयात्री अपने पूर्वजों, मृत आत्माओं की आत्म शांति के लिए श्राद्ध पूजा और पिण्ड दान करते हैं।
हिन्दु धर्म में श्राद्ध कर्म के लिए अनेक पवित्र तीर्थ का महत्व है। किंतु धार्मिक मान्यता है कि ब्रह्मकपाल में श्राद्धकर्म करने के बाद पूर्वजों की आत्माएं तृप्त होती है और उनकों स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। इसके बाद कहीं भी पितृश्राद्ध और पिण्डदान करने की जरुरत नहीं होती। इस स्थान का पौराणिक महत्व बताया जाता है कि इस स्थान पर भगवान शिव भी ब्रह्म दोष से मुक्त हुए। इस कारण भी यह स्थान धार्मिक श्रद्धा का प्रमुख स्थान है।
कथा: एक बार भगवान शिव ने जगत के विषय पर ब्रह्मदेव से मतभेद होने पर क्रोधित होकर त्रिशूल से ब्रह्मदेव के पांच सिरों में से एक सिर काट दिया। किंतु सृष्टि रचियता ब्रह्मदेव का सिर कटते ही शिव के त्रिशूल से ही चिपक गया। भगवान शिव की अनेक कोशिशों के बाद भी वह सिर त्रिशूल से ही लगा रहा। इससे शिव ब्रह्म दोष से दु:खी होकर बद्री क्षेत्र में आए। यहां शिव ने बद्रीनारायण की आराधना की। जिससे जगत पालक विष्णु प्रसन्न हुए। उनकी कृपा से ब्रह्मदेव का कटा सिर त्रिशूल से निकलकर दूर जा गिरा। भगवान शिव भी ब्रह्मदोष से मुक्त हुए।वह सिर जहां गिरा, वह स्थान ही तीर्थ कहलाया। जो बद्रीनाथ धाम के समीप स्थित है। मान्यता है कि इससे ब्रह्मदेव के कटे सिर को भी मोक्ष प्राप्त हुआ। तब से ही यह क्षेत्र श्राद्ध कर्म और पितरों के मोक्ष तीर्थ के रुप में प्रसिद्ध है।