मंगलवार, 31 मई 2011

शिवलिंग का पूजन करते समय जरूर ध्यान रखें ये बात क्योंकि...

कहते हैं शिव भोले हैं और अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न होकर उनके जीवन से परेशानियों को दूर करते हैं लेकिन शिवजी के पूजन के भी कुछ विधान है जिनका पालन शास्त्रों के अनुसार जरूरी माना गया है और ऐसी मान्यता है कि यदि शिवजी कि शिवलिंग का या शिवजी के पूजन के समय कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होते हैं।शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ।
शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए।
विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए।
तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए।ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया।
देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पातिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया।
अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशुल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

भागवत २६७

द्रोपदी के स्वयंवर की बस यही शर्त थी कि.....
पं.विजयशंकर मेहता
बलरामजी कृष्णजी को देखने लग गए कि अब और बचा है क्या स्वयंवर में। कृष्ण बोलते हैं-दाऊ अब द्रौपदी अपने जीवन में आएगी। हम यह घोषणा कर रहे हैं कि यदुवंशी इस स्वयंवर में शामिल नहीं होंगे, दर्शक रूप में जा रहे हैं। सबको लगा यह ठीक है। द्रौपदी के स्वयंवर में पहुंचते हैं भगवान दु्रपद देश की द्रौपदी उस समय संसार की सबसे सुन्दर स्त्री मानी जाती थी। याज्ञसेनी नाम था उसका। उसके पिता दु्रपद ने यज्ञ से उसको प्राप्त किया था और परमात्मा ने उसको अतिरिक्त सौंदर्य दिया था।
द्रौपदी के बारे में ऐसा कहते थे कि उसको पाने के लिए उस समय आर्यावर्त का प्रत्येक राजा उत्सुक था। द्रौपदी की देह से स्थायी सुगंध निकलने का वरदान था। हजारों फुलवारियां अगर खिल जाएं और सुगन्ध फैलाएं। ऐसी सुगन्ध 24 घण्टे द्रौपदी की देह से आएगी यह उसको वरदान था। द्रौपदी को पाने के लिए सारे राजा आए हुए थे। शर्त यह थी कि एक लकड़ी का यंत्र था, उसमें मछली लगी थी, उस मछली को नीचे तेल में देखकर उसकी चलित आंख का निशाना लगाना था और निशाना लग जाए तो द्रौपदी उसको वरेगी। भगवान् भी पहुंच गए स्वयंवर में बलरामजी के साथ।
दुर्योधन आया था कर्ण को लेकर। सभी आए थे कोई नहीं चूका। दुर्योधन को तो पता था कि जीतेगा कर्ण और फिर द्रौपदी को मुझे भेंट करेगा। आप सोचिए दुर्योधन किस स्तर पर मित्रता कर रहा था और कर्ण किस स्तर पर मित्रता कर रहा था। कर्ण आया ही इसीलिए था कि मित्र यह विजित है मुझसे और फिर मैं आपको भेंट कर दूंगा। मित्रता में इतने निम्न स्तर पर नहीं जाना चाहिए। कर्ण जैसा योग्य और ज्ञानी लेकिन उलझा हुआ था दुर्योधन में।

सोमवार, 30 मई 2011

भूतिया बूढ़ा

पूनम पाण्डे
रात का घुप्प अंधेरा था, सांय-सांय हवा चल रही थी। चिटकू और मक्खन दोनों मेले से घर लौट रहे थे, बहुत देर बाद दोनों को लगा जैसे वो कहीं भटक गए हैं। दूर एक पीली रोशनी की लौ टिमटिम-टिमटिम कर रही थी। चिटकू और मक्खन तेज़ कदमों से रोशनी की ओर बढ़ने लगे। पास आकर उन्होंने देखा वह जुगनुओं का दल था। अंधेरा गहरा गया था, अब तो उन्हें घबराहट होने लगी।
किसी तरह दोनों चलते रहे..चलते रहे..डर के मारे दोनों को लगातार पसीना आ रहा था। चिटकू ने अचानक दूर एक आदमी खड़ा देखा। वह उन्हीं के पास आ रहा था। उसके हाथ में एक टार्च भी थी। ज़रा देर में वह उस आदमी के पास खड़े थे। वह आदमी एकदम बूढ़ा-फटेहाल और भयानक दिख रहा था। उन दोनों को परेशान देखकर वह उनका हाथ पकड़कर उत्तर की दिशा में ले चला। थोड़ी ही देर में शहर आ गया।
चिटकू-मक्खन ने डर के मारे रास्तेभर उस भूतिया बुज़ुर्ग से बात नहीं की थी। अब उन्हें अपने घर का रास्ता समझ में आ गया था इसलिए वह उस आदमी को छोड़ अपने घर की तरफ भाग निकले। अगले दिन उनका दोस्त वीनू उनको पिछली रात का किस्सा सुनाने लगा, दरअसल वीनू भी मेले में फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में बूढ़ा फटेहाल आदमी बनकर गया था। जिससे चिटकू और मक्खन रास्ते में मिले और डरे थे।

गिलहरी की दोस्ती

 में भालू और गिलहरी में गहरी दोस्ती थी। दोनों सभी काम, यहां तक कि शिकार भी एक साथ करते थे। भालू अपने साथ-साथ गिलहरी के लिए भी खाना लाता था। गिलहरी को खाने के लिए जो मिलता, उसमें से वह आधा भालू को दे देती थी।

जंगल में रहने वाले लोमड़ को दोनों की दोस्ती फूटी आंख नहीं भाती थी। उसने मन ही मन दोनों की दोस्ती में फूट डालने की ठान ली। एक दिन मौका पाकर लोमड़ ने गिलहरी से कहा, ‘क्यों बहन, तुम्हारे दोस्त भालू के क्या हालचाल हैं?’गिलहरी खुश होकर अपनी और भालू की बातें करने लगी। भालू की तारीफ सुनकर लोमड़ गुस्से से तिलमिलाने लगा। वह सब के साथ चालाकी करता था, सबको धोखा देता था, इसलिए कोई उसका दोस्त बनना पसंद ही नहीं करता था। लोमड़ बोला, ‘बहन, तुम बहुत भोली हो। तुम नहीं जानती कि भालू तुम्हें बेवकूफ बनाता रहता है?’
‘मुझे बेवकूफ बनाता है..’
गिलहरी ने पूछा- ‘वह कैसे?’
लोमड़- ‘भालू जब शिकार लाता है तब खाने से पहले उसे साफ कौन करता है?’
‘सफाई तो भालू करता है’, गिलहरी ने जवाब दिया।
‘क्या तुम जानती हो कि वह ऐसा क्यों करता है। वह सारा बढ़िया माल पहले अपने आप खा लेता है, बचा-खुचा तुम्हें दे देता है। बढ़िया खाना खा-खा कर वह मोटा होता जा रहा है, तुम छोटी की छोटी हो’, लोमड़ ने लम्बी सांस ली- ‘वैसे मुझे इस बात से क्या लेना देना? जानता हूं कि यह बात बताने का कोई फायदा नहीं..’
लोमड़ गिलहरी के मन में शक का बीज बोकर चलता बना। गिलहरी सोचने लगी- ‘लोमड़ कहीं ठीक ही तो नहीं कह रहा था। मैं तो भालू को अपना दोस्त समझती हूं और हो सकता है कि वह मुझे बुद्धू बना रहा हो।’
अगले दिन भालू ने गिलहरी के साथ जंगल में फल इकट्ठे किए, उन्हें साफ किया और खाने लगा। गिलहरी से भी खाने के लिए कहा, लेकिन गिलहरी ने बेर नहीं खाए। भालू हैरान था। गिलहरी सोच रही थी- ‘शायद लोमड़ सच कह रहा था।’खाने के बाद मूछें साफ करते हुए उसने गिलहरी को शहद खाने के लिए बुलाया। गिलहरी देख रही थी कि भालू ने पहले ही सब खा लिया था। उसको लोमड़ की बात पर पूरी तरह विश्वास हो गया था।
‘कोई बात नहीं, भालू को अब मैं सबक सिखाऊंगी।’ दूसरे दिन भालू और गिलहरी दोनों शिकार करने गए। भालू के हाथ में एक बकरी की टांग आ गई, वह उसे पकड़कर खींचने लगा। तभी उसको महसूस हुआ कि उसके सिर पर कोई चीज़ रेंग रही थी। वास्तव में वह गिलहरी थी। गिलहरी ने भालू के सिर पर चढ़कर शिकार को पहले खाने का फैसला कर लिया था। भालू यह सब नही जानता था। बकरी उसके हाथ से निकलकर भाग गई। बेचारा भालू।
आगे भालू को खरगोश दिखा। उसे पकड़ने के लिए वह दबे पांव उसकी तरफ बढ़ा। इस बार तो गिलहरी ने हद ही कर दी। वह भालू की आंखों के सामने फुर्ती से उसके सिर पर चढ़कर बैठ गई। भालू भूत समझकर डर से थर-थर कांपने लगा। खरगोश भी झाड़ियों में जा छिपा। गिलहरी ने भालू से बात भी करनी बंद कर दी। उसका पेट ही कितना था? कुछ भी खाकर पेट भर लेती। भालू शिकार पर अकेला जाने लगा था, लेकिन गिलहरी पीछे से जाकर उसको परेशान करना नहीं भूलती। एक दिन भालू को नन्हा सूअर दिखाई दिया। कई दिनों से भालू कोई शिकार नहीं कर पाया था। फल-फूल से उसका पेट कहां भरता। उसे ज़ोर से भूख लगी थी। सूअर को पकड़ने के लिए छलांग लगाई। गिलहरी भी देख रही थी। वह भी उछलकर भालू के सिर पर चढ़कर बैठ गई। भालू सूअर को हाथ से निकल जाने देना नहीं चाहता था। वह गुर्राया- ‘तुम मुझसे बचकर भाग नहीं सकते।’ वह सूअर को पकड़ने के लिए तेज़ी से भागा।
भालू को अपनी पीठ पर फिर से कोई चीज़ चलती हुई महसूस हुई। गिलहरी तो उसको दिखाई नहीं दे रही थी। उसने गुस्से में अपना एक पंजा ज़ोर से पीठ पर दे मारा। पांचों नाखून गिलहरी के सिर से पूंछ तक चुभ गए थे।
गिलहरी दर्द से तड़प उठी। भालू कहीं पहचान न ले इसलिए मुश्किल से कराहने की आवाज़ रोकी। जल्दी ही भालू ने अपना पंजा पीठ पर से हटा लिया। नाखून बाहर निकलते ही गिलहरी भाग खड़ी हुई। दर्द से बेचैन होकर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदने लगी। भालू ने दौड़कर सूअर पकड़ लिया।
सूअर ने शिकार से भालू खुश था। कई दिनों के बाद भर-पेट खाना मिला था। हमेशा की तरह भालू ने गिलहरी को आवाज़ लगाई। गिलहरी नहीं आई। वह तो भालू को अपना दुश्मन समझने लगी थी। बहुत देर तक इंतज़ार करने के बाद भालू अकेला वापिस लौट गया। गिलहरी पेड़ों के बीच छिपी बैठी थी। उसकी पीठ पर भालू के नाखूनों से बने ज़ख्म ठीक हो गए थे, लेकिन वे काली धारियों में बदल गए थे। आज भी ये काली धारियां गिलहरी को दोस्त को धोखा देने की याद दिलाती हैं।
लोमड़ की तरह अब उसका भी कोई दोस्त नहीं था। पेड़ों पर अकेली घूमती रहती। उसने मांस खाना भी छोड़ दिया। भालू को देखकर वह पेड़ों के बीच छिप जाती है।
भालू और और गिलहरी की दोस्ती को दुश्मनी में बदलवाने के कारण लोमड़ आज भी अपनी चालाकियों के लिए बदनाम है।

सत्यवान के प्राण यमराज से कैसे लाई सावित्री?

ज्येष्ठ शुक्ल अमावस्या को वटसावित्री का व्रत किया जाता है। इस दिन सावित्री व सत्यवान की कथा सुनने का विशेष महत्व है। यह कथा इस प्रकार है-

किसी समय मद्रदेश में अश्वपति नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी कन्या का नाम सावित्री था। सावित्री जब बड़ी हुई तो उसने पिता के आज्ञानुसार पति के रूप में राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को चुना। राजा द्युमत्सेन का राज-पाठ जा चुका था और वे अपनी आंखों की रोशनी भी खो चुके थे। वे जंगल में रहते थे। जब यह बात नारदजी को पता चली तो उन्होंने अश्वपति को आकर बताया कि सत्यवान गुणवान तो है लेकिन इसकी आयु अधिक नहीं है। यह सुनकर अश्वपति ने सावित्री को समझाया कि वह कोई और वर चुन ले लेकिन सावित्री ने मना कर दिया।
तब अश्वपति ने विधि का विधान मानकर सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया। सावित्री अपने पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगी। नारदजी के कहे अनुसार सत्यवान की मृत्यु का समय निकट आ गया तो सावित्री व्रत करने लगी। नारदजी ने जो दिन सत्यवान की मृत्यु का बताया था उस दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ जंगल में गई। जंगल में लकड़ी काटते समय सत्यवान की मृत्यु हो गई और यमराज उसके प्राण हर कर जाने लगे। तब सावित्री भी उनके पीछे चली।
सावित्री के पतिव्रत को देखकर यमराज ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने अपने अंधे सास-ससुर की नेत्र ज्योति, ससुर का खोया हुआ राज्य आदि सबकुछ मांग लिया। इसके बाद सावित्री ने यमराज से सत्यवान के सौ पुत्रों की माता बनने का वरदा भी मांग लिया। वरदान देकर यमराज ने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया और सत्यवान पुन: जीवित हो गया।
इस तरह सावित्री के पतिव्रत से सत्यवान फिर से जीवित हो गया और उसका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया। वतसावित्री व्रत के दिन सभी को यह कथा अवश्य सुननी चाहिए।

शनिवार को लोहा लाना शुभ भी हो सकता है

शनि देव को न्याय करने वाला माना गया है कई बार कुछ लोगों से जाने-अनजाने में कुछ अधार्मिक कर्म हो जाते हैं, जिनका फल निश्चित ही बुरा होता है। शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या को सबसे अधिक बुरा फल देने वाला समय माना गया है। इस दौरान व्यक्ति को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
शनि देव किसी भी तरह से ना रूठे और उनकी प्रसन्नता हमेशा बनी रहे इसीलिए शनिवार को घर में तेल नहीं लाया जाता है साथ ही घर में लोहा भी नहीं लाना चाहिए ऐसी मान्यता है। शनि को लोहा प्रिय है, किन्तु शनिवार को लोहा घर में नहीं लाया जाता। जिस धातु को शनि सर्वाधिक पसंद करते हैं, उसी धातु का घर में शनिवार को आना पीडादायक और कलहकारक सिद्घ होता है।
ऐसा तभी होता है जबकि निजी उपयोग के लिए शनिवार को लोहा (किसी भी रूप में) खरीदा जाये या घर में लाया जाये, लेकिन पूजा करने हेतु अथवा विधिपूर्वक धारण करने हेतु लोहा प्राप्त किया जाये तो शनि प्रसन्न होते हैं। शनिवार को लोहे के दान से भी शनि की प्रसन्नता होती है। शनिदेव के अशुभ प्रभावों की शांति हेतु लोहा धारण किया जाता है किन्तु यह लौह मुद्रिका सामान्य लोहे की नहीं बनाई जाती। काले घोडे की नाल की बनाई जाती है।

भागवत २६६

सवाल है भक्ति कैसे की जाए?
पं.विजयशंकर मेहता
ईश्वर सब दूर हैं, अणु-अणु में हैं और अणु-अणु उसमें हैं। वह सृजन या विनाश करते हुए बंधन मुक्त है, क्योंकि वह सब कर्मों में उदासीन की तरह अनासक्त भाव से अपने आप होता हुआ दृष्टा बना देखता है और उनकी मुश्किलों को हल करता है। इस क्रिया को राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं का राजा कहा गया है और आगे ''पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:, वेद्यं पविभमोंकार ऋवक्साम यजुरदेव च।जगत् का पिता, माता, विधाता, जानने योग्य पवित्र ऊँकार ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं ही हूं। अर्थात् ईश्वर है, श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश महानतम योगी ईश्वर के रूप में दिया।

माता-पिता, विधाता के रूप में ही साधक का भक्त को जो उन पर निर्भर रहते हैं का योगक्षेम वहाम्यहम् नित्य युक्त उपासना करने वाले का योगक्षेम वहन करते हैं।योग अर्थात् प्राप्त करना (साधक को उच्चतम भक्ति भावना का निर्माण) क्षेम अर्थात् प्राप्त को संभालकर रखना। इसका अर्थ जगत की विभीषिकाओं से रक्षा करने से भी लिया जाता है। अर्जुन की पग-पग पर रक्षा की। भक्त प्रहलाद को अनुभव नहीं होने दिया कि विपत्ति या कष्ट क्या होता है? देवर्षि नारद ने भक्ति के संदर्भ में उदाहरण दिया है।
तुलसीदासजी ने शबरी के सम्मुख श्रीराम के मुख से कहलवाया-
''कह रघुपति सुन भामिनि बाता। मानो एक भक्ति कर नाता।।
सवाल है भक्ति कैसे की जाए -
भगवान श्रीकृष्ण इस सवाल का सटीक उत्तर देते हैं-
''मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु! मामेवैश्यसि युक्तवैवामात्मनं मत्परायण:।। 34।।
परमात्मा में अनन्य मन वाला हो, मुझ (परमात्मा) में मन लगा, मेरा भक्त बन (अनन्य का नहीं), मेरे निमित्त यज्ञ (सद्कर्म) कर मुझे नमस्कार कर (सियाराम मय सब जग जानि कर, प्रणाम जोरि युग पानी) मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ युक्त (जोड़) कर मुझे प्राप्त कर लेगा। भगवान् की सत्य प्रतिज्ञा है।भगवान् के साथ जोडऩा योग है।
कर्म को जोडऩा कर्म योग, कर्मफलों को ईश्वर अर्पण करना राजयोग, जो कहता है-कर्मफलों को छोड़ मत, बल्कि ईश्वर अर्पण कर दो, ये वे फूल हैं आगे जो जाने के साधन हैं, उसे भगवत-भाव मूर्ति पर चढ़ाओ। कर्म किए हैं तो फल तो निर्मित होगा ही स्वयं फलों का उपयोग करना, भोगना है, दूसरे उपभोग करें यह सेवा रूप में है और ईश्वर अर्पण में फल-त्याग ही सच्चा योग है। प्रेमी को सर्वस्व अर्पित कर दिया जाता है।

बुराई में कुछ अच्छाई भी छुपी होती है

कभी-कभी इंसान के जीवन में ऐसा समय आता है कि वह चारों ओर से परेशानियों का शिकार होने लगता है। और समय लगातार उसकी सोच के विपरीत ही चलता है। लेकिन जो ईश्वर पर विश्वास रखता है उनके साथ बुराई में भी अच्छाई छुपी होती है।
एक बार एक गांव में बाढ़ आने से एक किसान का सब कुछ नष्ट हो गया। परिवार का पेट पालने के लिए उसके पास कुछ न था। वह काम की तलाश में दूसरे गांव गया और एक धनी व्यक्ति के यहां खेतों पर काम करने लगा। उस वर्ष उस व्यक्ति को और सालों की अपेक्षा ज्यादा अच्छी फसल मिली और दाम भी। वह उस किसान से बहुत खुश हुआ। उसने उससे पूछा कि वह ईनाम में क्या चाहता है तो किसान बोला कि आप मुझे जमीन का थोड़ा सा टुकड़ा मुझे खेती के लिए दे दीजिए।
उस साहूकार ने वैसा ही किया। अब किसान ने एक साथी किसान से बैलों की जोड़ी खेत जोतने के लिए उधार ले ली।खेत जोतने के बाद वह उन्हें लौटाने के लिए वापस गया तो साथी किसान ने कहा कि वह उन्हें आंगन में बांध दे। किसान ने वैसा ही किया और चला गया। घर जाकर वह जैसे ही खाना खाने बैठा वैसे वह किसान आया और उसे बोलने लगा कि मेरे बैल कहां हैं तुम्हारी नीयत में खोट आगया है तुम मेरे बैल लौटाना नहीं चाहते हो। मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करूंगा।
वह उसे राजा के पास ले गया और राजा से शिकायत करते हुऐ बोला कि इसने मेरे बैल चुराए है मुझे न्याय दिलाऐं। राजा ने दोनों की बात सुनी और शिकायत करने वाले किसान से पूछा कि जब यह तुम्हारे पास बैल लौटाने आया था तब तुमने अपने बैल देखे उसने कहा हां तब राजा ने उस किसान को छोड़ दिया क्योंकि उस किसान ने खुद स्वीकार किया कि उसने खुद अपनी आखों से अपने बैलों को अपने घर में देखा था।

रानी ने मुश्किल समय में भी रख दी शर्त क्योंकि...

दमयंती रोती हुई एक अशोक के वृक्ष के पास पहुंचकर बोली तू मेरा शोक मिटा दे। शोक रहित अशोक तू मेरा शोक मिटा दे। क्या कहीं तूने राजा नल को शोकरहित देखा है। तू अपने शोकनाशक नाम को सार्थक कर।दमयन्ती ने अशोक की परिक्रमा की और वह आगे बढ़ी। उसके बाद आगे बड़ी तो बहुत दूर निकल गई। वहां उसने देखा कि हाथी घोड़ों और रथों के साथ व्यापारियों का एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके दमयंती को जब यह पता चला कि वे सभी चेदीदेश जा रहे हैं तो वह भी उनके साथ हो गई। कई दिनों तक चलने के बाद वे व्यापारी एक भयंकर वन में पहुंचे। वहा एक बहुत सुंदर सरोवर था। लंबी यात्रा के कारण वे लोग थक चुके थे। इसलिए उन लोगों ने वहीं पड़ाव डाल दिया। रात के समय जंगली हाथियों का झुंड आया। आवाज सुनकर दमयंती की नींद टूट गई। वह इस मांसाहार के दृश्य को देखकर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? वे सभी व्यापारी मर गए वो वहां से भाग निकली और दमयंती भागकर उन ब्राह्मणों के पास पहुंची और उनके साथ चलने लगी शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।
उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती स पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला में एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।
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यह जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है...

पं. विजयशंकर मेहता
गुरु का जीवन में आना समझ लें सबसे बड़ी उपलब्धि है। हम भौतिक मार्ग पर चल रहे हों या आध्यात्मिक जीवन जी रहे हों, गुरु का मार्गदर्शन दोनों ही स्थिति में जरूरी है। गुरु और जल एक जैसे होते हैं। जिस प्रकार जल का महत्व यह है कि वो सबमें मिलकर उसका मान, स्वाद, रूप बढ़ा देता है।
बिना जल के जीवन, जीवन ही नहीं रह जाता। ऐसे ही गुरु का महत्व है। हनुमानचालीसा की ३७वीं चौपाई में तुलसीदासजी ने गुरु को याद किया है।
जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरु देव की नाईं।।
हे हनुमानजी! तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) में आपकी जय हो। आप मेरे स्वामी हैं, श्री गुरु देव की तरह मुझ पर कृपा करिए। तीन बार जै जै जै कहा है, यानी तीनों काल में कृपा करें। इस चौपाई में 'गोसाईं' शब्द का प्रयोग किया है। 'गो' का मतलब इंद्रियाँ और 'साईं' का मतलब उसके मालिक।
जो अपनी इन्द्रियों के स्वामी हैं वे हनुमान हैं, जिसके वश में अपनी इन्द्रियां हैं, वे हनुमान हैं। आगे लिखा है, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। हे हनुमानजी! आप मुझ पर गुरुदेव की तरह कृपा करें। मेरी रक्षा गुरु बनकर करें। देखिए, गुरु बनाना आजकल बहुत समस्या का काम हो गया है। किसे गुरु बनाएं? फिर ठीक गुरु मिले न मिले।
गुरु के मामले में हमारी निष्ठा दांवा-डोल होती रहती है। लेकिन यह सत्य है कि दुनिया में कृपा यदि कोई कर सकता है तो गुरु कर सकता है। भगवान एक बार नाराज हो जाएं, लेकिन गुरु कभी नाराज नहीं होते। गोस्वामीजी ने कहा- 'कोई चिन्ता की बात नहीं है। न गुरु मिले तो न सही।' उन्होंने तो घोषणा कर दी-
'कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।'
और कोई गुरु न मिले, तो हनुमानजी को ही गुरु बनाएं। इनसे अधिक कृपालु गुरु हमारे और कौन हो सकते हैं। सम्पूर्ण श्रीहनुमानचालीसा हमारी गुरु है और जो जीवन में गुरु को महत्व देना चाहते हैं उन्हें जल को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। गुरु जीवन बनाएंगे, जल जीवन बचाएगा।
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रविवार, 29 मई 2011

क्रिकेट की दुनिया के दबंग


आईपीएल-4 शुरू होने से पहले वीरेन्द्र सहवाग, युवराजसिंह और गौतम गंभीर सहित कई खिलाड़ियों ने दावा किया था कि वे महेन्द्रसिंह धोनी की कप्तानी को अच्छी तरह जानते हैं और टूर्नामेंट में उनकी हर चाल का जवाब देंगे।
लेकिन, धोनी ने आईपीएल में अपनी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स को लगातार दूसरी बार चैंपियन बनाकर दिखा दिया है कि क्रिकेट की दुनिया का असली दबंग कौन है। वर्ष 2007 से शुरू हुआ धोनी की सफलता का सिलसिला बदस्तूर जारी है और हर दिन वे नई ऊंचाइयां हासिल कर रहे हैं।
आईपीएल के फाइनल में धोनी के समक्ष चक्रवाती फॉर्म में चल रहे रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु के कैरेबियाई बल्लेबाज क्रिस गेल की चुनौती थी। फाइनल मुकाबले से पहले गेल की मौजूदगी में बेंगलुरु टीम ने 11 में से नौ में जीत हासिल की थी और धोनी अच्छी तरह जानते थे कि गेल चल गए तो उनके गेंदबाजों का तेल निकाल देंगे।
चेन्नई ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 205 रन का मजबूत स्कोर खड़ा किया, लेकिन धोनी के सामने असली चुनौती गेल को सस्ते में निपटाने की थी क्योंकि गेल चलते तो बेंगलुरु के लिए 206 रन का लक्ष्य छोटा पड़ सकता था। आखिर कर्मयुद्ध के इस अंतिम पड़ाव में धोनी ने धुरंधर गेल के लिए ऐसा चक्रब्यूह रचा कि वे इससे निकल नहीं पाए।
धोनी ने पहले ही ओवर में गेंद ऑफ स्पिनर रविचंद्रन अश्विन को थमाई। अश्विन ने ओवर की चौथी गेंद में चतुराई से पेस में परिवर्तन किया और गेल चकमा खा गए। गेंद उनके बल्ले का किनारा लेकर विकेटकीपर धोनी के दस्तानों में समा गई। धोनी की रणनीति काम कर गई और चेन्नई का एक बार फिर चैंपियन बनना उसी समय तय हो गया।
धोनी के बारे में कहा जाता है कि वे मिट्टी को छू लेते हैं तो वह भी सोना बन जाती है। उन्होंने बार-बार इसे साबित भी किया है। उनकी कप्तानी में भारत ने वर्ष 2007 में सभी को चौंकाते हुए ट्‍वेंटी-20 विश्वकप का खिताब जीता था। उसके बाद तो धोनी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक कई सफलताएं अर्जित करते चले गए।
यह माही की कप्तानी का करिश्मा था कि भारत दिसंबर 2009 में पहली बार आईसीसी टेस्ट रैंकिंग में शीर्ष पर पहुंचा और तबसे उसने अपना दबदबा बनाए रखा है। इतना ही नहीं कैप्टन कूल धोनी ने भारत को 28 वर्ष बाद वनडे विश्वकप का खिताब जिताकर अपनी कप्तानी का लोहा मनवाया है।
आईपीएल में धोनी की टीम चेन्नई सुपरकिंग्स तीन बार फाइनल में पहुंची है, जिसमें से दो बार उसने खिताब पर कब्जा किया है। धोनी पिछले वर्ष चैंपियंस लीग टवंटी-20 टूर्नामेंट में भी अपनी टीम को चैंपियन बनाने में सफल रहे। इस तरह धोनी ने साबित कर दिया कि खेल के तीनों प्रारूपों में कोई उनका सानी नहीं है।
आईपीएल का चौथा संस्करण शुरू होने से पहले टीम इंडिया में धोनी के साथी खिलाडी सहवाग, युवराज और गंभीर ने दावा किया था कि वे माही की कप्तानी से वाकिफ हैं और उनकी चालों का मुंहतोड़ जवाब देंगे। सहवाग दिल्ली डेयरडेविल्स, युवराज पुणे वारियर्स और गंभीर कोलकाता नाइटराइडर्स के कप्तान थे।
दिल्ली की टीम टूर्नामेंट में सबसे फिसड्डी रही, जबकि युवराज की पुणे वारियर्स दिल्ली से एक स्थान ऊपर नौवें स्थान पर रही। नाइटराइडर्स की टीम भी एलिमिनेटर में बाहर हो गई। धोनी के आगे इन सबकी दबंगई धरी की धरी गई।
क्रिकेट की दुनिया में भगवान का दर्जा पा चुके मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंडुलकर भी धोनी की कप्तानी के कायल हैं। विश्वकप के बाद सचिन ने स्वयं स्वीकार किया था कि वे अब तक जितने भी कप्तानों के अंडर में खेले हैं, उनमें धोनी सर्वश्रेष्ठ हैं। धोनी की कप्तानी के लिए इससे बड़ा प्रमाणपत्र क्या हो सकता है?
बेहतरीन रणनीतिकार होने के साथ-साथ धोनी ने नाजुक मौकों पर शानदार पारियां खेलकर टीम को संकट से उबारा है। विश्वकप के फाइनल में नाबाद 91 रन की पारी इसका सबूत है। धोनी ने आईपीएल-4 में 43.55 के औसत से 392 रन बनाएट वे आईपीएल में खिताब जीतने वाले एकमात्र भारतीय कप्तान हैं।
नाजुक मौकों पर संयम बनाए रखना और साहसिक फैसले लेना धोनी की सबसे बड़ी खूबी है। साथ ही वे अपने खिलाड़ियों का भरपूर साथ देते हैं और उनकी काबिलियत पर भरोसा करते हैं। विश्वकप से पहले जब युवराज बुरे दौर से गुजर रहे थे तब धोनी उनके साथ खड़े थे। आखिर युवराज ने विश्वकप में शानदार प्रदर्शन करते हुए धोनी को सही साबित किया और आलोचकों के मुंह पर ताले जड़ दिए।
धोनी अपने खिलाडियों पर कितना विश्वास करते हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आईपीएल4 के अंतिम छह मैचों में उन्होंने अंतिम एकादश में कोई बदलाव नहीं किया। धोनी की बेमिसाल रणनीति और नेतृत्व क्षमता के आगे आईपीएल में सभी विपक्षी कप्तान पानी भरते नजर आए और कैप्टन कूल को खिताब ले जाने से नहीं रोक सके।

शनिवार, 28 मई 2011

कैंसर को हराकर मशरूम हुआ दुनिया में मशहूर!!

प्रकृति हमें जीवन और समृद्धि तो देती ही है पर साथ ही बीमार होने पर हमें उससे छुटकारा भी दिलाती है। आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथिक...आदि चिकित्सा पद्धतियां तो पूरी तरह से प्रकृति और उसके अंगों की सहायता से ही रोगी को रोग से छुटकारा दिलाती है। यह बात एक बार फिर से साबित की स्वादिष्ट मशरूम ने। जी हां मशरूम ने....

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने अपने शोध के आधार पर दावा किया है कि प्रोस्टेट कैंसर को मिटाने में एशियाई क्षेत्रों में प्रयुक्त चिकित्सकीय मशरूम बेहद कारगर है। क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नालॉजी के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि तुर्की टेल मशरूम प्रयोगशाला में चूहों में प्रोस्टेट कैंसर को विकसित होने से दबाने में 100 फीसदी कारगर सिद्ध हुआ है।
यह शोध -पीएल ओएस वन- जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
तुर्की टेल मशरूम में मिलने वाले तत्व पॉलीसेकैरोपेप्टाइड के बारे में पता चला है कि यह चूहों में प्रोस्टेट कैंसर स्टेम कोशिकाओं को निशाना बनाते हुए ट्यूमर बनने की संभावना को कम करता है। निश्चित ही यह शोध इस बीमारी से लडऩे में अहम् कदम साबित हो सकता है। इसकी प्रयोग की एक खाशियत यह भी रही कि इससे ट्यूमर का विकास तो पूरी तरह से रुक ही जाता है साथ ही इसका कोई नकारात्मक प्रभाव यानी साइट इफेक्ट भी नहीं होता।

शादी में क्यों निभाई जाती है संगीत की रस्म?

शादी में मंगलगीत गाए जाते हैं संगीत की रस्म निभाई जाती है जिसमें घर के सभी सदस्य आनंद और उल्लास के साथ भाग लेते हैं। दरअसल इसका कारण यह है कि संगीत आंनद आपस में गहरा ताल्लुक है। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और शहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है।

इसके अंतर्गत पहले घर की महिलाएं मंगलगीत गाती थी और इस कार्यक्रम में ही ढोल बजाकर गीत गाती थी। सतीजी व शिव की शादी हो राम सीताजी का स्वयंवर सभी में महिलाओं द्वारा मंगलगीत गाए जाने का वर्णन मिलता है धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।

रानी ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?

दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की
कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची।
राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।
फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

भागवत २६५

पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?
पं.विजयशंकर मेहता
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।
प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।
उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।
हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए।
पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।

जिगरी दोस्त नशे में अंधे ही नहीं मूर्ख भी बन गए!!

यह शिकायत कइयों की रहती है कि जी-तोड़ मेहनत करने और हर कोशिश आजमाने के बाद भी हमें सफलता क्यों नहीं मिल पाती? ऐसा कई बार होता है कि सारी की सारी मेहनत बेकार चली जाती है। समस्या की असलियत को जानने के लिय जब हम गहराई में जाकर बारीकी से खोजबीन करते हैं तब पता चलता है कि मेहनत बेकार इसलिये हुई क्योंकि वह गलत दिशा में बगैर सोचे-समझे की गई थी। इस बात को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक रोचक घटना की ओर...
दो जिगरी दोस्त चांदनी रात का मजा लूटने के लिये नदी किनारे जा पहुंचे। जमकर शराब की चुस्कियां ली और जब नशे में धुत हो गए तो खूब नाच-गाना हुआ। कभी किशोर कुमार बन जाते तो कभी माइकल जेक्शन, शराब की मदहोंशी ने शर्म-संकोच की सारी हदें मिटा दी थीं। नाच गाने से जब मन भर गया तो उनके मन में नदी की सैर करने का सुन्दर खयाल आया। दोनों परम मित्र एक-दूसरे के गले में हाथ डालकर लडख़ड़ाते हुए पैरों से नदी के किनारे बंधी नाव की ओर चल दिये। नशे की मदहोंसी में थे, पूरे शुरूर में थे उतावली में सीधे कूद कर नाव में सवार हो गए। जल्दबाजी में इतना भी होंश नहीं रहा कि नाव जिस रस्सी से किनारे से बंधी है उसे खोला ही नहीं है। दोनों ने जल्दी-जल्दी नाव में रखे चप्पू उठाए और लगे चप्पुओं को चलाने। नशे की मदहोंशी को चांदनी रात की खूबसूरती ने और भी बढ़ा दिया था। सोचने-समझने की दिमागी क्षमता को नशे के थपेड़ों में कभी का बहा चुके थे। नाव आगे बढ़ भी रही है या नहीं इस बात को दोनों में से किसी को ध्यान ही नहीं रहा। बस लगे हैं चप्पुओं को चलाने में।
दोनों ने जमकर शराब गटकी थी इसलिये जल्दी होंश लोटने के का सवाल ही नहीं था। चप्पू चलाते-चलाते सारी रात गुजर गई। सवेरा होने को था, एक मित्र जो थोड़ा अधिक समझदार था बोला-लगता है हम किनारे से कुछ ज्यादा ही दूर निकल आए हैं अब लौट चलना चाहिये। सवेरा होने लगा था उजाले में नदी का खूबसूरत किनारा साफ नजर आ रहा था। जब पीछे मुड़ कर दोनों ने देखा तो दिमाग में कुछ ठनका, सारी बात समझ में आने लगी। पता चल गया कि सारी रात नाव तो किनारे से ही बंधी रही है, जल्दी में रस्सी को खोलना भूल गए थे। रात भर चप्पू चलाने की बेवकूफी भरी मेहनत के बारे में सोच कर मन ही मन शर्मिंदगी भी हुई और हंसी भी खूब आई। दोनों की मिलीभगत से हुई इस मूर्खतापूर्ण घटना को किसी से न कहने का पक्का वादा करके एक दूसरे को विदा देकर अगली बार किसी अच्छी जगह पर पार्टी करने की सलाह करके अपने घरों को चल गए।
इस कहानी को पढ़कर उन शराबी मित्रों को कोई भी आसानी से मूर्ख कह देगा लेकिन ऐसा जाने-अनजाने हम सभी के साथ होता रहता है। हम मेहनत तो खूब करते हैं लेकिन कामवासना, गुस्सा, आलस्य, लालच.. जैसी जाने कितनी ही रस्सियां हमारे पैरों से बंधी रहती हैं और मौत को सामने देखकर हमें समझ में आता है कि सारी दोड़-धूप बैकार ही चली गई आखिर हम पहुंचे तो कहीं भी नहीं। नशे भी कई तरह के होते हैं, कुछ नजर आते हैं लेकिन अधिक घातक नशों को तो इंसान कभी देख भी नहीं पाता।
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शुक्रवार, 27 मई 2011

...और मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लिया

थोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी? मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था।
शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।
जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को अजगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने अजगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।

ऐसा क्यों

गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं की जाती?
हमारे बढ़े-बूजुर्गों द्वारा बनाई गई सारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। हर मान्यता के पीछे कोई ना कोई धार्मिक या वैज्ञानिक कारण जरूर होता है। ऐसी ही एक परंपरा गुरुवार के दिन सफाई ना करने की। इससे जुड़ी हमारे शास्त्रों में विष्णु भगवान की एक कहानी है
जिसके अनुसार एक राजा जो कि विष्णु भगवान का भक्त था उसने गुरुवार के दिन अपने महल की साफ-सफाई करवा दी और जाले झड़वा दिए। जबकि कहानी के अनुसार उस दिन विष्णुजी लक्ष्मीजी सहित उसके महल में आने वाले थे। वैसे उस राजा को उस दिन विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए थी। उनकी आराधना और आवाह्न करना चाहिए था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं करते हुए बल्कि उल्टा राजा ने उनके आने से पहले पूरे महल में सफाई काम फैला दिया। जब विष्णु भगवान लक्ष्मीजी के साथ उसके महल में पहुंचे तो धूल व जाले देखकर लक्ष्मीजी रूष्ट हो गई और वहां से चली गई और विष्णुजी ने जब देखा कि लक्ष्मीजी रूठ कर जा रही हैं तो वे भी वहां से चल दिए और उस राजा को शाप दे दिया कि आज से तुम लक्ष्मीविहिन रहोगे और गुरूवार के दिन जो भी घर में साफ-सफाई करेगा उसके घर में कभी लक्ष्मी निवास नहीं करेगी। इसी कहानी के कारण ऐसी मान्यता है कि गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं करना चाहिए।

लाइलाज कैंसर का भी काल है यह पौधा!!!

तुलसी का पौधा कितना अनमोल है, यह इसी बात से पता चल जाता है कि इसे गुणों को देखकर इसे भगवान की तरह पूजा जाता है। यूं तो आज हर आदमी को किसी न किसी बीमारी ने अपने कब्जे में कर रखा है। लेकिन कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज कही जाती है।

अभी तक इस बीमारी का कोई परमानेंट इलाज नहीं है। आज यह बीमारी तेजी से फैल रही है। वैसे तो कैंसर का कोई परमानेंट इलाज नहीं है लेकिन फिर भी आर्युवेद ने तुलसी को कैंसर से लडऩे का एक बड़ा तरीका बताया है।
आर्युवेद में बताया गया है कि तुलसी की पत्तियों के रोजाना प्रयोग से केंसर से लड़ा जा सकता है। और इसके लगातार प्रयोग से कैंसर खत्म भी हो सकता है।
- कैंसर की प्रारम्भिक अवस्था में रोगी अगर तुलसी के बीस पत्ते थोड़ा कुचलकर रोज पानी के साथ निगले तो इसे जड़ से खत्म भी किया जा सकता है।
-तुलसी के बीस पच्चीस पत्ते पीसकर एक बड़ी कटोरी दही या एक गिलास छाछ में मथकर सुबह और शाम पीएं कैंसर रोग में बहुत फायदेमंद होता है।
केंसर मरीज के लिए विशेष आहार
अंगूर का रस, अनार का रस, पेठे का रस, नारियल का पानी, जौ का पानी, छाछ, मेथी का रस, आंवला, लहसुन, नीम की पत्तियां, बथुआ, गाजर, टमाटर, पत्तागोभी, पालक और नारियल का पानी।

क्या हुआ जब स्वयंवर में पहुंच गए परशुराम?

उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटने की बात सुनकर उस जगह परशुरामजी भी आए। उन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए। परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा डर गए व्याकुल होकर उठ खड़े हुए। परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर प्रणाम किया और सीताजी ने भी उन्हें नमन किया।
परशुरामजी ने सीताजी को अर्शीवाद दिया। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयों को उनके चरण छूने को कहा। दोनों को परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। फिर सब देखकर, जानते हुए भी उन्होंने राजा जनक से पूछा कहो यह इतनी भीड़ कैसी है? उनके मन में क्रोध छा गया।
जिस कारण सब राजा आए थे। राजा जनक ने सब बात उन्हें विस्तार से बताई। बहुत गुस्से में आकर वे बोले- मुर्ख जनक बता धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो आज जहां तक तेरा राज्य है, वहां तक की पृथ्वी उलट दूंगा। राजा को बहुत डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं दे पा रहे थे। सीताजी की माताजी भी मन में पछता रही थी कि विधाता ने बनी बनाई बात बिगाड़ दी।
तब श्रीरामजी सभी को डरा हुआ देखकर बोले- शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका ही कोई दास होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर परशुरामजी गुस्से में बोले सेवक वह है जो सेवक का काम करे। शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करना चाहिए। जिसने शिवजी का धनुष तोड़ा है वह मेरा दुश्मन है। तब लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले- हमने आज तक बहुत से धनुष तोड़े। आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजास्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे।क्रमश

प्यार की एक अनोखी दास्तान

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा।
कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।
लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्याार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है। www.bhaskar.com

सहायता और प्रार्थना का यह नियम है....

पं.विजयशंकर मेहता
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।
आपने 18 बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान मर्दन करके उसे छोड़ दिया, परन्तु एक-बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। मनुष्यों का सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया, परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं।
अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।
यह सहायता और प्रार्थना का नियम है, जिससे आप सहायता मांग रहे हैं, उसके सामथ्र्य की भी थाह आपको होनी चाहिए। परमात्मा असीम शक्तिशाली हैं, हम उनसे सहायता मांगते हैं तो यह भाव भी होना चाहिए कि हम आपकी शक्ति जानते हैं, आप हमें इस संकट से बचा सकते हैं।दूत ने कहा - भगवन जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनों का कल्याण कीजिए।

अपनी आमदानी का उपयोग ऐसे करें...

पं. विजयशंकर मेहता
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था, लेकिन अब शस्त्र के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।
जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।
जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है। हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।
ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।
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पूत के पैर पालने में ही दीख जाते हैं!! क्योंकि?

संस्कार, स्वभाव या आदतें व्यक्ति को भीड़ से अलग पहचान दिलाते हैं। संस्कार या आदतें सिर्फ इसी जन्म की नहीं होती बल्कि पिछले जन्मों से भी साथ में आती हैं। इसीलिये तो कुछ लोग बहुत छोटी उम्र यानी बचपन से ही अपनी अलग पहचान बनाने लगते हैं। जो बच्चा अच्छे संस्कारों को साथ में लेकर जन्म लेता है वह छोटी उम्र से ही श्रेष्ठ और महान कामों को करने लगता है। शायद इसीलिये समाज में यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि -पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। तो आइये चलते हैं ऐसी ही एक छोटी सी घटना की तरफ जो आश्चर्यजनक संस्कारों की नायाब उदाहरण है-
यह एक ऐतिहासिक और पौराणिक कथा है, जिसकी प्रामाणिकता पर भी किसी को संदेह नहीं है। हुआ यह कि बालक शुकदेव चार-पांच वर्ष की उम्र में ही घर छोड़कर ब्रह्म ज्ञान को पाने के लिये चल दिया। शुकदेव के पिता महर्षि व्यासजी ने उन्हें रोका कि अभी तो तुम्हारी उम्र मां की गोद में बैठकर लाड़-प्यार पाने की है, अभी से तुम कहां चले? लेकिन बालक शुकदेव के इरादे पक्के थे, उसने कहा कि पिताजी आप मुझे जाने से नहीं रोकें क्योंकि एक बार अगर इस संसार में फंस गया तो फिर कभी भी आत्मज्ञान प्राप्त नही कर सकूंगा। हर तरह से समझाने और रोकने के बाद भी इरादों का पक्का बालक शुकदेव नहीं माना ओर आत्म ज्ञान की खोज मे अकेला ही घर-बार छोड़कर घर से निकल पड़ा। बुलंद इरादों और अटूट संकल्प का मालिक यह शुकदेव ही आगे चलकर ब्रह्म ज्ञानी शुकदेवजी के नाम से जगत में विख्यात हुए। मतलब साफ है कि जिसके इरादों में चट्टानों जैसी दृढ़ता होती है वह अपनी मंजिल को हर हाल में पा कर रहता है।
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गुरुवार, 26 मई 2011

नरक यात्रा का दुख

जसविंदर शर्मा
दोबार अपने राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता सज्जन कुमार अभी कुछ महीने पहले केंद्र में कैबिनेट स्तर के मंत्री बने थे। हर तरफ से खजाने का मुंह उनकी तरफ खुल गया था। उनके स्विस बैंकों के लेखों में दनादन माया बढ़ती जा रही थी। राजधानी के गलियारों में उनका रौब-रुतबा बढ़ गया था। जहां उनके इतने दोस्त बने, वहां दुश्मनों की भी कमी नहीं थी। उन्हें एक तरफ करके खुद आगे आने के लिए कई लोग लालायित थे।

चाल चलने वाले आखिरकार कामयाब हो ही गए। सज्जन कुमार पर कई जानलेवा हमले हुए, मगर हर बार वह चमत्कारिक रूप से बच निकलते। बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाती। मौत उनके आसपास मंडराती रही।
एक दिन नेताजी अपने हल्के से दल-बल सहित लौट रहे थे कि कुछ आत्मघाती लोगों की कारें उनके काफिलें से भिड़ गईं। उसी सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। उनका शरीर तो खैर देश की अमानत था, सो हर तरफ शोक मनाया जा रहा था। नेता जी की आत्मा को देवदूतों ने देवनगरी के बाहर के गेट पर ला पटका था।
द्वार पर एक सीनियर देव अधिकारी ने नेताजी का स्वागत करते हुए कहा, ‘सर, माफ कीजिएगा, धरती पर आपके रुतबे के अनुरूप यहां आपका स्वागत तो नहीं किया जा सकेगा। मगर आप जैसे वीआईपी लोगों के लिए हमारे इस लोक के संविधान में एक विशेष प्रावधान है। आप जैसे समाजसेवियों को मृत्यु के बाद स्वर्गलोक में आने पर एक विकल्प दिया जाता है।’
नेताजी की बांछें खिल गईं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘जल्दी बताएं श्रीमान, मैं तीन दिनों से भूखा-प्यासा हूं। जल्दी से स्वर्गलोग के द्वार खुलवाएं। नृत्य और मदिरा का इंतजाम करवाएं और बताएं कि यहां मुझे क्या-क्या विशेषाधिकार मिलेंगे।’
देव अधिकारी ने विनम्रता से कहा, ‘सर, आप तो धरती पर साक्षात राजा जैसा जीवन बिताकर आए हैं। यहां भी आपको राजसी सत्कार दिया जाएगा। आपको आपकी मर्जी से ही स्वर्ग या नरक की अलॉटमेंट दी जाएगी। यह आपकी खुशी पर निर्भर करता है कि आपको क्या पसंद है। आपको एक रात नरक में गुजारनी है और फिर अगला एक दिन स्वर्ग में। फिर उसके बाद आप बता देना कि पक्के तौर पर आप कहां रहना चाहेंगे।’
नेताजी तपाक से बोले, ‘सच में क्या ऐसा मुमकिन है। मैंने तो सुना है कि कर्मो के अनुसार ही जन्नत या दोजख के दरवाजे खुलते हैं, मगर जनाब आपकी बातों ने तो मुझे निहाल कर दिया। अगर आप मेरी मानें तो मैंने अभी ही फैसला ले लिया है। मुझे स्वर्ग में भेज दें।’अधिकारी ने थोड़ा सख्त लहजे में कहा, ‘आई एक सॉरी, सर। यूं हड़बड़ी ठीक नहीं और फिर यहां के कानून का पालन करना जरूरी है। आपको पहले एक दिन नरक में रहना होगा और फिर अगले दिन स्वर्ग में रात बितानी होगी। उसके बाद आपको सोचने-विचारने का समय दिया जाएगा और फिर आपकी मर्जी के मुताबिक आपका निवास स्थान आवंटित कर दिया जाएगा। यह औपचारिकता निभाहनी बहुत जरूरी है, क्योंकि चित्रगुप्त महोदय एक बार निर्णय हो जाने के बाद फिर किसी की शिकायत पर गौर नहीं करते। देखने में आया है कि लोगों के मन बहुत विचलित होते हैं। बहुधा लोग स्वर्ग चुन लेने के बाद अर्जी लगा देते हैं कि उन्हें नरक में स्थान चाहिए। ऐसे प्रार्थना पत्र नष्ट कर दिए जाते हैं, उन पर कोई गौर नहीं किया जाता। मैं नहीं चाहता कि आपको अपने फैसले पर क्षोभ हो।’
देवदूत ने थोड़ी सांस लेकर आगे कहा, ‘सर आपको हैरानी हो रही है, मगर यह सत्य है। धरती पर पता नहीं किन खब्ती लोगों ने अफवाहें फैला दी हैं कि अच्छे कर्मो के कारण स्वर्ग मिलता है और बुरे कामों के कारण नरक की यातना भोगनी पड़ती है। ऐसी बात नहीं है सर। नरक और स्वर्ग व्यक्ति की रुचि, मानसिकता और चुनाव पर आधारित है। कोई जबरदस्ती वाली बात नहीं है यहां। सच मानें तो यहां असली जनतंत्र है। बस एक बात है कि एक बार चुन लेने के बाद आदमी अपना विकल्प नहीं बदल सकता।’नेताजी अजीब-सी मनस्थिति में पहुंच गए थे। ऐसा कुछ उनके लिए समझ से बिल्कुल परे था। धरती के हर कानून को वह अपने या अपने लोगों के पक्ष में कर लेते थे, मगर यहां उनके साथ क्या घटने वाला है, यह सोचकर उनका कलेजा कांप उठा। हर तरफ अनिश्चय व भय की स्थिति थी।
सज्जन कुमार को स्वर्ग या नरक में से एक चुनने का अधिकार मिल तो गया, मगर वह इस लोक की वास्तविक रणनति समझ नहीं पा रहे थे। अगर किसी को उसकी मर्जी के मुताबिक जगह मिल जाएगी तो फिर स्वर्ग और नरक को रसातल की संज्ञा दी गई है। काफी देर नीचे उतरने के बाद नरक का गेट उनके सामने था। नरक का स्वागती गेट देखकर उनका मन खिल उठा। वह सोचने लगे कि अगर नरक ऐसा है तो स्वर्ग तो न जाने कितना आकर्षक और लुभावना होगा।
सामने का दृश्य देखकर नेताजी गदगद हो गए। एक बड़ा-सा हरा-भरा गोल्फ का मैदान था। थोड़ी ही दूरी पर एक सुंदर क्लब हाउस था। उसके पास खड़े नेताजी के कई जिगरी दोस्त नजर आ रहे थे, जिनके साथ नेता जी ने राजनीति की दलदल में गैर-कानूनी ढंग से करोड़ों रुपए कमाए थे। हरेक व्यक्ति बेहद खुश नजर आ रहा था। आसपास चुलबुली शोख और बिंदास महिलाएं भी इतरा रही थीं। सारा कुछ उनकी जवानी के दिनों के समान ही माहौल था, जब वह क्लबों में रात-रात भर मौज-मस्ती करते रहते थे।
उन सभी लोगों ने बड़ी गर्मजोशी से नेताजी को गले लगाया व उनकी शान में कसीदे कहे। फिर वे सब लोग मिलकर आम आदमी के खर्च पर की गई ऐयाशियों के किस्से सुना-सुनाकर देर तक कहकहे लगाते रहे। क्लब में कई प्रकार के मनोरंजक खेल हुए, डांस किए गए, लजीज व्यंजन और उम्दा शराब और कबाब परोसा गया।
नेताजी तो यह सब पाकर मस्त ही हो गए। कहां तो उन्हें अपनी मौत का गम खाए जा रहा था। अभी-अभी तो दिल्ली की सुनहरी गद्दी पर काबिज हुए थे। अभी तो विदेशों में ऐशो-इशरत का रास्ता खुला था और तभी मौत ने आ घेरा था। मगर नरक में आज का यह दिलकश मंजर देखकर सज्जन कुमार तृप्त हो गए। असमय मरने का सारा गम जाता रहा। वहां शैतान भी आया, जो दिखने में बहुत फिराकदिल, खुशमिजाज और दोस्ताना था। उसने भी मस्त मन से नृत्य किया और कई प्रकार के लतीफे सुनाए।
इतने सब में पता ही नहीं कब एक दिन गुजर गया। देवदूत नेताजी को लेने आ पहुंचा। सभी लोगों ने नेताजी को भरे गले से गुड बाय कहा। देवदूत नेताजी को फिर उसी लिफ़्ट में लेकर चला।
काफी देर तक बहुत ऊपर जाने के बाद स्वर्ग के मुख्यद्वार के सामने देवदूत ने नेताजी को स्वर्ग में एक दिन के लिए जाने को कहा। स्वर्ग यूं तो बहुत ही बढ़िया जगह थी, मगर नेताजी के स्वभाव और रुचि के अनुकूल वहां कुछ भी नहीं था। सबसे ज्यादा खलने वाली बात तो यह थी कि कोई जाना-पहचाना व्यक्ति वहां नहीं था। सज्जन कुमार आज तक भीड़ में घिरे रहते तभी उन्हें अपना जीवन सार्थक लगता था। स्वर्ग के अनजान माहौल में एक पल में ही उनका दम घुटने लगा था।
स्वर्ग में एक अपूर्व नीरस शांति थी। नेताजी को सारा मामला बहुत बोर लगा। बादलों पर इतराते प्रसन्न मुद्रा में ध्यान पर बैठे लोगों को देख-देखकर बहुत ही कष्टपूर्ण ढंग से नेताजी का वह एक दिन बीता।
देवदूत के साथ नेताजी वापिस मुख्य कार्यालय में लौटे। एक फॉर्म पर उन्हें अपना विकल्प चुनने के लिए कहा गया। नेताजी ने कूटनीति से यह कहते हुए नरक में जाने की इच्छा व्यक्त की, ‘सोचकर तो यही चला था कि स्वर्ग में रहकर ऐश करूंगा, मगर नरक में मेरे साथी भी हैं और मस्ती का माहौल भी है। स्वर्ग वैसे तो बहुत अच्छी जगह है, मगर मुझे लगता है कि मैं नरक में ही रहकर खुश रह सकूंगा। कृपया मुझे नरक में स्थान दे दिया जाए।’ सज्जन कुमार की अर्जी मंजूर कर ली गई। नरक मिलने की खुशी में वह झूम उठे।
उसी लिफ्ट से देवदूत नेताजी को नरक के द्वार तक छोड़ गया। जब नेताजी नरक से गेट से अंदर दाखिल हुए तो वहां का सारा नजारा बहुत बदला हुआ था। कहीं कोई गोल्फ का मैदान नहीं था, न ही क्लब और न वे रंगीनियां। हर तरफ उजाड़ था, गंदगी थी, लोग गंदगी को बोरों में भर रहे थे और ऊपर से कचरा व गंदगी गिर रही थी। लोगों ने गंदे-फटे कपड़े पहने हुए थे।
तभी शैतान ने आकर नेताजी के कंधे पर हाथ रखा। नेताजी ने बौखलाकर कहा, ‘माफ करना जनाब, मुझे समझ नहीं आ रहा है कि माजरा क्या है। कल जब मैं यहां आया था तब यहां गोल्फ क्लब था, हमने खूब मस्ती की थी, शराब और कबाब की पार्टी थी, मगर आज यहां सब कुछ दरिद्रतापूर्ण है। मेरे सारे दोस्तों ने फटे कपड़े पहने हैं और वे कितने घृणित लग रहे हैं। बात क्या है?’
नरक के मुखिया शैतान ने अट्टहास करते हुए कहा, ‘बंधु! धरती पर तुम भी तो यही सब करते रहते हो। चुनाव नजदीक आने पर जनता को कैसे उल्लू बनाते हो। यहां नरक में लोगों की भीड़ जुटाने के लिए हमें भी यह सब करना पड़ता है। कल हम लोग नरक के पक्ष में तुम्हारा वोट लेने के लिए एक प्रकार का चुनाव प्रचार कर रहे थे। उसी का नतीजा है कि तुम जैसे मशहूर नेता ने हमें सेवा का मौका दिया। कल का सारा तामझाम तुम्हें रिझाने के लिए था।’
नेता सज्जन कुमार को पहली बार महसूस हुआ कि धरती पर जब वे चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को सब्जबाग दिखाते थे और चुनावों के बाद उन्हें छलते थे, तब जनता को भी कुछ-कुछ ऐसा ही लगता होगा।

भागवत 262

जीवन में मिठास के लिए जरूरी है....
पं.विजयशंकर मेहता
कर्मयोगी के कई उदाहरण हैं। वैसे तो महात्मा अनेक हैं किन्तु एतिहासिक संतों में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, तिरुवल्लस्वामी को हम उदाहरण के रूप में ले सकते हैं जिन्होंने कर्म किए किन्तु बंधन में नहीं पड़े। दूसरी ओर उन संन्यासियों का समूह है जिन्होंने ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से संसार का त्याग किया, किन्तु उन्हें भी शरीर धर्म निभाने और लोक-कल्याणार्थ कर्म करना पड़ता है और प्रारब्धवशात या तप की न्यूनता के कारण उन्हें मन से कर्मरत होना पड़ता है। इसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - ऐसा मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। उसका संन्यास बड़े बन्धन का कारण बन जाता है, किन्तु उसके प्रयास भी निष्फल नहीं जाते हैं, वह योग भ्रष्टोभिजायते वाली स्थिति में पहुंच नव जन्म में आगे बढ़ता है, उसकी यात्रा चलती रहती है।
अब भगवान् अपनी पूरी मधुरता के साथ पराक्रम दिखाएंगे और इसी का नाम जीवन का संतुलन है कि कुछ भी करें कितना ही बल, पौरूष दिखाना हो, आक्रमण दिखाना हो लेकिन जीवन का माधुर्य नहीं खोना चाहिए। आपके व्यक्तित्व की मधुरता नहीं जाना चाहिए। आपकी पहचान होना चाहिए और मधुरता को प्रकट करने का सबसे आसान तरीका कौन सा है जरा मुस्कुराइए। मधुरता अगर बनाए रखना है तो मुस्कान बहुत सरल माध्यम है। आप मुस्कुराइए आप भीतर से मधुर हो जाएंगे। आप मुस्कुराइए, आप भीतर से मीठे हो जाएंगे। आपको कोई मिश्री नहीं लेना, बस मुस्कान आपके जीवन की मधुरता बनाए रखेगी। भगवान् अपनी मुस्कान, अपनी मधुरता के साथ प्रस्थान कर रहे हैं।
एक दिन की बात है द्वारिकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। उसने श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का जिन्होंने जरासन्ध को दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिए गए थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बन्दी बनने का दुख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया।
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

सीताजी जब वरमाला लेकर रामजी के समीप पहुंची तो....

रामायण में अब तक आपने पढ़ा...तभी रामजी अपने स्थान पर से उठे और उन्होंने सीताजी की ओर ऐसे ताका है, जैसे गरूड़ की तरफ सांप ताकता है। रामजी ने मन ही मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुष को उठा लिया तो धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश मंडलाकार सा हो गया अब आगे...
जैसे ही रामजी ने धनुष तोड़ा सारे ब्रह्माण्ड में जयजयकार की ध्वनि छा गई। सभी लोग आपस में प्रसन्न होकर कह रहे हैं श्रीरामजी ने धनुष तोड़ दिया। सब लोग घोड़े, हाथी, धन मणि, वस्त्र न्यौछावर कर रहे हैं। बहुत तरह के बाजे-बज रहे हैं। युवतियां मंगलगीत गा रही है। सभी सहेलियों और सीताजी बहुत खुश हुई। धनुष के टूट जाने पर राजा लोग निस्तेज हो गए।
रामजी को लक्ष्मणजी इस प्रकार देख रहे हैं जैसे चंद्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा है। शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी रामजी के पास गई। उनके साथ में चार सहेलियां मंगल गीत गाती हुई चल रही है। सहेलियों के बीच में सीताजी चल रही है। सीताजी का शरीर संकोच में है, पर मन में बहुत उत्साह है। रामजी के पास जाकर सीताजी पलके झपकाना भूल गई।
तभी एक चतुर सहेली ने सीताजी की दशा देखकर समझाकर कहा सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से जयमाला उठाई लेकिन प्रेम और झिझक के कारण उन्हें पहना नहीं पा रही हैं। सीताजी ने जयमाला रामजी के गले में पहना दी। नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग आदि। जयजयकार करके आर्शीवाद दे रहे हैं। पृथ्वी पाताल व तीनों लोकों में यह बात फैल गई कि रामजी ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी का वरण कर लिया है।

राजा नल ने क्यों किया दमयंती को छोडऩे का फैसला?

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...राजा नल दुख और शोक से भरकर बड़ी ही सावधानी के साथ दमयन्ती को भिन्न-भिन्न आश्रम मार्ग बताने लगे। दमयन्ती की आंखें आंसु से भर गई। दमयन्ती ने राजा नल से कहा क्या आपको लगता है कि मैं आपको छोड़कर अकेली कहीं जा सकती हूं। मैं आपके साथ रहकर आपके दुख को दूर करूंगी। दुख के अवसरो पर पत्नी पुरुष के लिए औषधी के समान है।
वह धैर्य देकर पति के दुख को कम करती है उस समय नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। धरती पर बिछाने के लिए एक चटाई भी नहीं थी। शरीर पर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख-प्यास से परेशान राजा नल जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती भी उनके साथ ये सारे दुख झेल रही थी। राजा नल भी जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वे दुख और शोक की के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। वे सोचने लगे कि दमयंती मुझ से बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही उसे इतना दुख झेलना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊं तो संभव है कि इसे सुख भी मिल जाए। अन्त में राजा नल ने यही निश्चय कि इसे सुख भी मिल जाए।
दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। इसके सतीत्व को कोई भंग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके और सतीत्व की ओर से निश्चिन्त होकर राजा नल ने यह विचार किया कि मैं नंगा हूं और दमयन्ती के शरीर पर भी केवल एक वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्रों में से आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है लेकिन फांडू़ कैसे? शायद यह जाग जाए? राजा नल ने यह सोचकर दमयंती को धीरे से उठाकर उसके शरीर का आधा वस्त्र फाड़कर शरीर ढक लिया। दमयंती नींद में थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद वे शांत हुए और वे फिर धर्मशाला लौट आए।

भगवान को पाना है तो ऐसे करें भक्ति..

पं. विजयशंकर मेहता
भगवान को पाने के लिए भक्ति करना पड़ती है। यह एक सामान्य विचार है। अधिकांश लोगों का मकसद भी यही होता है कि भगवान मिल जाए। संत-महात्माओं से कई लोग यही प्रश्र पूछते हैं क्या आपने कभी भगवान को देखा है?
कई लोग तो अपनी जिंदगी ऐसे व्यक्तियों की तलाश में गुजार देते हैं जिन्हें कभी भगवान मिला हो। दरअसल भगवान को पाना और भक्ति करना दो अलग-अलग बातें हैं। यदि किसी की दृष्टि चली जाए और वह अंधा हो जाए तब उसे प्रकाश की जगह आंख खोजना चाहिए। भक्ति एक तरह की आंख है जिससे भगवान देखा जा सकता है।
भक्ति करने का अर्थ है अपनी आंख को खोजना। जो अंधे लोग सीधे प्रकाश खोजने के चक्कर में रहेंगे उन्हें जीवनभर अंधकार ही हाथ लगेगा। पहले आंख खोजी जाए। देखा गया है कि जिन्होंने सीधे भगवान को खोजने की कोशिश की उन्होंने जीवनभर कर्मकाण्ड ही किया और इसमें निराशा हाथ लग जाती है। केवल कर्मकाण्ड का अर्थ है एक चौराहे पर ही चक्कर काटना।
इसीलिए केवल पूजा करने वाले लोग उदास और खिन्न भी पाए जाते हैं। अब पूजा को भक्ति में बदलना होगा। भक्ति जीवन में आते ही भीतर से रूपांतरण होना आरंभ हो जाता है। फिर भगवान दिखना और मिलना सुनिश्चित है। तो महत्वपूर्ण यह है कि जीवन में भक्ति को लाया जाए। कर्मकाण्ड इसका आरंभ हो सकता है। कर्मकाण्ड करते हुए अपने भीतर के प्रेम को धीरे-धीरे बढ़ाएं।
जितना प्रेम बढ़ेगा, कर्मकाण्ड के भक्ति में बदलने की संभावना भी उतनी ही बढ़ जाएगी। क्योंकि प्रेम की अधिकता में अहंकार को गलना पड़ता है। क्रिया निरहंकारी होते ही भक्ति बन जाती है और भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है।

प्यार की एक अनोखी दास्तान

एक बड़ी सुन्दर लाइन है जो सच्चे स्नेह और प्यार की ताकत को बयान करती है। वो पंक्ति कुछ इस तरह है कि -जाकर जापर सत्य सनहू, सो ताहि मिलहिं न कछु संदेहू , यानी जिस भी किसी का किसी के प्रति सच्चा प्यार होगा, तो उसका उससे मिलन होकर रहेगा।
कई प्रेम कहानियां अधूरी रह जाती हैं, लेकिन इसका अर्थ नहीं कि वे समाप्त ही हो गईं हैं। अगर आपका प्यार सच्चा है तो एक न एक दिन आपको जरूर मिलता है। पुराणों में ऐसी ही एक प्रेम कहानी है राजा नल और दयमंती की। तो आइये चलते हैं उस अमर प्रेम कथा की ओर.........
एक बार राजा नल अपने भाई से जुए में अपना सब कुछ हार गए। उनके भाई ने उन्हें राज्य से बाहर कर दिया। नल और दयंमती जगह जगह भटकते फिरे। एक रात राजा नल चुपचाप कहीं चले गए। साथ उन्होने दयमंती के लिए एक संदेश छोड़ा जिसमें लिखा था कि तुम अपने पिता के पास चली जाना मेरा लौटना निश्चित नहीं हैं। दयमंती इस घटना से बहुत दुखी हुई उसने राजा नल को ढ़ूढऩे का बड़ा प्रयत्न किया लेकिन राजा नल उसे कहीं नहीं मिले। दुखी मन से दयंमती अपने पिता के घर चली गई।
लेकिन दयमंती का प्रेम नल के लिए कम नहीं हुआ। और वह नल के लौटने का इंतजार करने लगी। राजा नल अपना भेष बदलकर इधर उधर काम कर अपना गुजारा करने लगे। बहुत दिनों बाद दयमंती को उसकी दासियों ने बताया कि राज्य में एक आदमी है जो पासे के खेल का महारथी है। दयमंती समझ गई कि वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा नल ही है। वह तुरंत उस जगह गई जहां नल रुके हुए थे लेकिन नल ने दयमंती को पहचानने से मना कर दिया लेकिन दयमंती ने अपने सच्चे प्रेम के बल पर राजा नल से उगलवा ही लिया कि वही राजा नल है। फिर दोनों ने मिलकर अपना राज पाट वापस हासिल कर लिया। कथा कहती है कि आपका समय कैसा भी हो अगर आपका प्याार सच्चा है तो आपके साथी को आपके वापस लौटा ही लाता है।

बुधवार, 25 मई 2011

bhaagavat 261

प्लानिंग जरूरी है क्योंकि..
पं.विजयशंकर मेहता
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो। देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।
भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा। अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम।
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईष्वरार्थ कर्म करने का निर्देश देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है।
व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, षान्ति, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है। माना कि सब गुण न तो मनुष्य में एक साथ आ सकते हैं न अल्पकाल में ये उसमें समाहित हो सकते हैं। किन्तु आत्मा को बचाने के लिए काम, क्रोध, लोभ को त्यागना चाहिए, क्योंकि इनके रहते दैवी सम्पद या गुण केवल कल्पना जैसे लगते हैं।

मरने से पहले पिता ने बेटे को दी अद्भुत शिक्षा

कहते हैं कि कोई कितना भी बुरा व्यक्ति हो लेकिन मरते वक्त यानी जब वह मृत्युशय्या पर पड़ा हो तो वह कभी भी झू्ठ नहीं बोलता। मरते समय इंसान सारी बुराइयों को छोड़कर पूरी तरह से निष्पाप बन जाता है। यहां हम बात कर रहे हैं हकीम लुकमान के अंतिम समय की जो कि दुनियाभर में प्रसिद्ध एक महान चिकित्सक और संत व्यक्ति थे।
हकीम लुकमान के जीवन से जुड़ी एक घटना है। जब वे मृत्युशैय्या पर अंतिम सांस ले रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को पास बुलाकर कहा-बेटा। मैं जाते-जाते एक अंतिम और अति महत्वपूर्ण शिक्षा देना चाहता हूं। इतना कहकर लुकमान ने पुत्र से धूपदान लाने के लिए कहा। जब वह धूपदान लेकर आया, तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके हाथ में थमाया और संकेत से उसे कोयला लाने के लिए कहा। जब पुत्र कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरे हाथ में कोयले को रखने का आदेश दिया। कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा-अब इन्हें अपने-अपने स्थान पर वापस रख आओ। पुत्र ने वैसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था, वह उसकी सुंगध से अब भी महक रही थी और जिस हाथ में कोयला था वह हाथ काला दिखाई पड़ रहा था। लुकमान ने पुत्र को समझाया-बेटे। अच्छे व्यक्तियों का साथ चंदन जैसा होता है। जब तक उनका साथ रहेगा, तब तक तो सुगंध मिलगी ही, किंतु साथ छूटने के बाद भी उनके सद्विचारों की सुवास से जिदंगी तरोताजा बनी रहेगी जबकि दुर्जनों का साथ कोयले जैसा है। कुसंगति से प्राप्त कुसंस्कारों का प्रभाव आजीवन बना रहता है। इसलिए बेटा। जीवन में सदैव चंदन जैसे संस्कारी व्यक्तियों के ही साथ रहना और कोयले जैसे कुसंग से दूर रहना।शायद इसीलिए कहा गया है-चंदन की चुटकी भली, गाड़ी भरान काठ अर्थात चंदन की चुटकी भी मन को उल्लास से भर देती है जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती।
लुकमान का पुत्र उनके दिखाए मार्ग पर चलकर सदैव सुखी रहा। वस्तुत: लुकमान का यह उपदेश सत्संग की महिमा प्रस्थापित करता है। अच्छे व्यक्तियों का साथ शुभ फलदायी होता है जबकि बुरे व्यक्तियों का संगति अशुभ परिणामदायी।

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मंगलवार, 24 मई 2011

दूल्हा-दुल्हन की मांग में सिंदूर क्यों भरता है?

हमारे देश में विवाह संस्कार से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। हिन्दू विवाह पद्धति में कुछ परंपराएं ऐसी हैं जिनका निर्वाह शादी में नहीं किया जाए तो शादी पूरी नहीं मानी जाती है जैसे मंगलसुत्र पहनाना, मांग में सिंदूर भरना, बिछिया पहनाना आदि।
इन रस्मों का निर्वाह शादी में तो किया ही जाता है साथ ही इन सभी चीजों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना जाता है।इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार इन्हें सुहागनों का अनिवार्य श्रृंगार माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन श्रृंगारों के बिना सुहागन स्त्री को नहीं रहना चाहिए।

किसी भी सुहागन स्त्री के लिए मांग में सिंदूर भरना अनिवार्य माना गया है। हिन्दू शादी में बहुत से रिवाज निभाए जाते है।
शादी में निभाई जाने वाली सभी रस्मों में फेरों की रस्म सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। फेरों के समय वधू की माँग सिंदूर से भरने का प्रावधान है। शादी में मांग सिंदूर व चांदी के सिक्के से भरी जाती है। मांग भर विवाह के पश्चात् ही सौभाग्य सूचक के रूप में माँग में सिंदूर भरा जाता है। यह सिंदूर माथे से लगाना आरंभ करके और जितनी लंबी मांग हो उतना भरा जाने का प्रावधान है।
यह सिंदूर केवल सौभाग्य का ही सूचक नहीं है इसके पीछे जो वैज्ञानिक धारणा है कि वह यह है कि माथे और मस्तिष्क के चक्रों को सक्रिय बनाए रखा जाए जिससे कि ना केवल मानसिक शांति बनी रहे बल्कि सामंजस्य की भावना भी बराबर बलवती बनी रहे अत: शादी में मांग भरने की रस्म इसीलिए निभाए जाती है ताकि वैवाहिक जीवन में हमेशा प्रेम व सामंजस्य बना रहे।
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हनुमानजी की कितनी परिक्रमा करें?

कलयुग में हनुमानजी की भक्ति सभी मनोकामनाओं को शीघ्र पूर्ण करने वाली मानी गई है। इसी वजह से आज इनके भक्तों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा माना जाता है हनुमानजी बहुत जल्द अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करके सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। हनुमान जी के पूजन में एक महत्वपूर्ण क्रिया है परिक्रमा।
किसी भी भगवान के पूजन कर्म में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।
धर्म शास्त्रों के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। वेद-पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
परिक्रमा के संबंध में नियम:
परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।

भागवत २५९

कैसी थी कृष्ण की दिनचर्या?
पं.विजयशंकर मेहता
वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म संध्या-वन्दन आदि करते।
इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्शं जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कालास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिल कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राम्हणों की विधि पूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधार, पहले-पहल ब्याही हुई, बछड़ों वाली, सीधी-शांत गौओं का दान करते।
भगवान् के योग और ध्यान पर प्रकाश डाला गया है। नियमित प्राणायाम करते थे भगवान्। शक्ति का संचरण कैसे करना, प्राण से अपने जीवन को कैसे ऊंचा उठाना, बकायदा पूरी क्रिया करने के बाद भगवान् मार्निंग वॉक पर जाते थे। लोग उनसे पूछते कि आपको घूमने की जरुरत क्या है! भगवान् कहते हैं कि द्वारका की व्यवस्था देखने हेतु घूमना आवष्यक है। भगवान् लौटकर आते, उसके बाद भगवान् का स्नान, ध्यान, पूजन के बाद भगवान् का दान का सत्र शुरू होता। प्रतिदिन दान का एक सत्र हुआ करता था उस सत्र में वो सबको वांछित दान दिया करते। उसी समय लोग अपनी छोटी-मोटी समस्याएं भगवान् को बता देते फिर भगवान् जलपान करने आते थे।यह भगवान का इन्द्रिय यज्ञ था। कर्म सम्पादन में सुनना, छूना, देखना, रस लेना, सूंघना, पांचों इन्द्रियों (कर्ण, त्वचा, आंखें, रसना और नासिका) की संयम रूपी अग्नि में आहुति देते हैं अर्थात् इन्द्रिय-संयम वर्तते हैं। यह वर्तना राग-द्वेश से रहित इन्द्रियों द्वारा प्रतिपादित भोग भोगते हुए जीवन यज्ञ पूरा करते हैं। ऐसे जीवन में कर्म गलत हो ही नहीं सकते।
भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय यज्ञ की संज्ञा इन्द्रियों के संयमित जीवन को दी है। महाभारत में अर्जुन को ब्राम्हण और उसकी पत्नी के साथ संवाद के रूप में इस तत्व की गूढ़ व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है। संक्षेप में मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को भोगता है, कर्म करता है। कर्म के विषय में वर्णन किया गया है।संसार में जो ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा आंखों से दिखाई देने वाले स्थूल कर्म हैं उन्हें ही कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नाम से पुकारते हैं और जो अकर्मठ जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही नियंत्रण करते हैं।
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लड़की ने अपना यौवन और सौन्दर्य एक घड़े में भर दिया!!

यदि किसी इंसान का अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण न हो तो वह पागलपन की हदें भी पार कर देता है। क्योंकि विवेक या मेच्योरिटी से ही इंसान को सही-गलत या उचित-अनुचित का फर्क समझकर कार्य करने की समझ आती है। लेकिन यदि कोई इंसान अपने विवेक को ताक पर रख दे और पूरी तरह से अपने मन और इच्छाओं के अनुसार ही चलने लगे तो उसका हस्र उस राजकुमार जैसा ही हो जाता है जो एक सुन्दर युवती पर इस कदर आसक्त हो गया कि सही-गलत का फर्क ही भुला बैठा। आइये चलते हैं ऐसे ही एक रोचक प्रसंग की ओर जो सभी के लिये एक कीमती सबक बन सकता है...
पुरानी घटना है। जब दुनिया में राजशाही का प्रचलन था। एक राजकुमार अपने राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के भ्रमण कर रहा था। एक गांव में एक बेहद सुन्दर युवती को देखकर उसका मन उसपर आसक्त हो गया। वह उस युवती को जबरन अपने साथ ले जाना चाहता था। युवती ने प्रार्थना की कि वह उसके अपाहिज मां-बाप की इकलोती संतान है उन्हें छोड़कर नहीं आ सकती। लेकिन वह भोग-विलासी राजकुमार किसी भी कीमत पर मानने के लिये तैयार ही नहीं था। युवती को जब कोई रास्ता न दिखा तो उसने एक तरकीब निकाली। युवती ने उस राजकुमार से प्रार्थना की कि उसे एक महीने का समय चाहिये ताकि वह अपने अपाहिज माता-पिता की उचित व्यवस्था कर सके। राजकुमार ने जैसे-तैसे अपने मन को समझाकर युवती की इस शर्त को मान लिया। राजकुमार गिन-गिन कर एक-एक दिन गुजारने लगा। वह रात-दिन बस उस सुन्दर लड़की के ही ख्वाब देखता रहता।
उधर उस लड़की ने अपनी तरकीब पर काम करना शुरु कर दिया। लड़की एक अनुभवी वैद्य यानी चिकित्सक के पास जाकर जुलाब यानी दस्त लगने की औषधि लेकर आ गई। लड़की ने नहाना-धोना छोड़ दिया और प्रतिदिन उस जुलाव की दवाई को खाने लगी। उस जुलाव की औषधि से उसे कई बार दस्त लगते। वह उस सारे मल मूत्र को एक घड़े में भर कर रखने लगी। वह पूरे एक महीने तक एक कमरे में ही बंद रही, ना ही स्नान किया और ना ही बाल संवारे। रोज-रोज जुलाव की औषधि लेने से उसका सारा शरीर सूखकर मात्र हड्डियों का ढ़ाचा ही रह गया। महीने भर पहले जो युवती अपने सौन्दर्य के लिये दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी, आज वो बूढ़ी, बदसूरत, घ्रणित और दुर्गंध से भरी हुई लग रही थी। उसने पूरे महीने सारा मल-मूत्र एकत्रित करके एक घड़े में भर लिया था।
महीना पूरा होते ही सौन्दर्य का दीवाना वह राजकुमार बड़े उत्साह से उस युवती को ले जाने के लिये उसके घर जा पहुंचा। जैसे ही वह उस लड़की के कमरे में गया, उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। उस लड़की को देखकर उसे भरोसा ही नहीं
हुआ कि यह वही लड़की है जिसे उसने महीने भर पहले देखा था। शरीर पर मेल की पर्ते, हड्डियों का ढांचा, उठती हुई दुर्गंध... यह सब देखकर राजकुमार का सिर फटने लगा। जाने से पहले उसने इतना ही पूछा कि यह अचानक तुम्हें क्या रोग लग गया? तुम्हारा वो दिव्य सौन्दर्य कहां गया? लड़की ने कहा कि मुझे कोई बीमारी नहीं लगी है और हां जिस यौवन और सौन्दर्य को पाने के लिये तुम इतने बैचेन और पागल हो रहे थे, वह उसे घड़े में भरा है, चाहो तो उसे अपने साथ ले जा सकते हो। राजकुमार ने जैसे ही उस घडे का ढक्कन हटाया तेज दुर्गंध से उसका सिर भन्नाने लगा। उसे लगा कि यदि कुछ और क्षण वो यहां रुका तो बेहोंस हो जाएगा। वह बड़ी तेजी से वहां से भाग निकला।
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सोमवार, 23 मई 2011

दो शख्सियत एक फर्क

राजन मेहरा
ये दो तस्वीरें बहुत कुछ कहती हैं। दोनों हाल के विधानसभा चुनावों में विजेता बनकर उभरी दो महिला राजनेताओं की तस्वीरें हैं। एक ने धुर पूरबी राज्य बंगाल में वाम मोर्चे को चौंतीस साल लंबी हुकूमत से बेदखल किया है। दूसरी ने दक्षिणी राज्य तमिलनाडु में भ्रष्टाचार के अभियोगों में आकंठ डूबे प्रतिद्वंद्वी को धराशायी किया है। एक पहली बार राज्य की सत्ता में आई हैं, तो दूसरी तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी हैं। लेकिन ये तस्वीरें दोनों नेत्रियों के व्यक्तित्व में एक बुनियादी फर्क का आईना हैं। यह सिर्फ राजनीतिक शैली का ही फर्क नहीं है।

यह ऐसा फर्क है जो समूची राजनीति को परिभाषित और तय करता है। दोनों उस वक्त की तस्वीरें हैं जब चुनाव नतीजों के रुझान पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जे जयललिता की धमाकेदार जीत की घोषणा कर रहे थेऔर सारा देश दोनों नेत्रियों के सामने आने की बेताब प्रतीक्षा कर रहा था। लोग यह देखने और जानने को उत्सुक थे कि जीत की खुशी उनके चेहरों पर कैसी दिखाई देती है। आखिर यह वह जीत थी जिसकी कामना और कोशिश ममता बनर्जी पिछले तीस सालों से और जयललिता पिछले पांच सालों से कर रही थीं।
चुनाव नतीजों के रुझान दिखाते टीवी न्यूज चैनल अचानक ठहर जाते हैं। एंकर बातचीत बीच में रोककर घोषणा करते हैं कि हम आपको कोलकाता लिए चलते हैं जहां जीत के बाद पहली बार जीत की नायिका ममता बनर्जी कैमरों के सामने आ रही हैं। स्क्रीन पर लोगों की भीड़ और कोहराम दिखाई देता है जिसके बीच से जगह बनाकर कैमरों के सामने आने में ममता बनर्जी को कम से कम दो-तीन मिनट लगते हैं। वह सामने आती हैं, थकान से चूर चेहरे पर मंद मुस्कान है, जीत का संतोष भी।
उसी मुस्कराहट के साथ वह उंगलियों से ‘वी’ का निशान बनाती हैं और कैमरों की तड़ातड़ फ्लैश लाइट में मुस्कान थोड़ी और चौड़ी हो जाती है। पीछे चारों और वह जिस भीड़ से घिरी हैं, उसकी कोई चिढ़ या उलझन उनके चेहरे पर नहीं है। उलटे उनकी मुस्कान में एक रंग इस भीड़ से घिरे होने का भी है। अब जरा इस तस्वीर की बगल में ठीक इसी वक्त चेन्नई में जयललिता के लोगों के सामने आने की तस्वीर रखिए। वह फर्क बिना कुछ कहे साफ हो जाएगा जिसका हमने ऊपर जिक्र किया है।
उसी दोपहर जयललिता अपने उस आलीशान घर के छज्जे पर ‘प्रकट’ होती हैं जिसके बाहर जीत के उन्माद से नाचते-गाते समर्थकों की भीड़ एकत्र है। वह भीड़ में, भीड़ के बीच, भीड़ के साथ नहीं आतीं। एक मंजिल की ऊंचाई से दर्शन देती हैं। उनकी उंगलियां भी ‘वी’ के निशान में उठी हुई हैं। वह राजसी कदमों से चलते हुए छज्जे की पूरी लंबाई नापती हैं। चेहरे पर नियंत्रित मुस्कान है जिसकी रंगत इस संक्षिप्त दर्शन के दौरान जरा नहीं बदलती। सारे समय जस की तस बनी रहती है। चेहरे पर संतोष से ज्यादा शांत दर्प है।
आखिर दोनों लोकतांत्रिक नेता हैं। लोकतंत्र में दोनों अपनी प्राणवायु जनता से हासिल करती हैं। लेकिन एक इस प्राणवायु के लिए ठीक जनता के बीच में रहती हैं, तो दूसरी जनता से कई बालिश्त दूर रहते हुए ही यह प्राणवायु प्राप्त करती हैं। एक भीड़ से न घिरी हों तो शायद मुरझा जाएं, दूसरी भीड़ में घिरकर शायद खिली न रह सकें। यह फर्क किसी भी नेता या नेत्री की निजी पृष्ठभूमि और राजनीतिक बनावट से आता है। वह शायद इस बात से भी आता है कि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास किस तरह हुआ है।
ममता बनर्जी आखिर एक साधारण बंगाली परिवार से आई हैं। आज भी वह साधारण सूती साड़ी पहनती हैं। उनके पैरों में भी साधारण चप्पलें होती हैं। कोलकाता हो या दिल्ली साधारण ढंग से साधारण घर में रहती हैं। अपनी निजी छोटी कार से चलती हैं। इससे ज्यादा बड़ी बात यह कि अपने इस साधारण रहन-सहन का ढिंढोरा पीटती हैं और न उसके बारे में बात करना पसंद करती हैं। इसके विपरीत बचपन के दौर में जे जयललिता की कभी साधारण पृष्ठभूमि रही भी होगी तो तमिल फिल्मों की अभिनेत्री होने के दौरान ग्लैमर और चकाचौंध और वैभव ने उस साधारणता को उनके जीवन से विस्थापित कर दिया।
पिछले सत्ताकालों में उनके वार्डरोब में अगणित महंगी साड़ियों और फैशनेबल सैंडिलों और आलीशान घड़ियों की उपस्थिति के किस्से खूब प्रकाश में आए थे। यह तय कर पाना कठिन है कि उस वक्त निजी रूप से उनके और उनकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे थे, वे ज्यादा संगीन थे या पिछले पांच सालों में उनकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी द्रमुक पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप, जिसे हराकर इस बार वह सत्ता में आई हैं। तमिलनाडु ही नहीं, कई राज्यों में हमारे लोकतंत्र की अब यह नियति ही हो गई है कि वह बारी-बारी से उन पार्टियों को सत्तारूढ़ होते देखे जिनका भ्रष्टाचार पुराना और नए के मुकाबले छोटा हो चुका है।
जयललिता का छज्जे से अभिवादन जिस जनविमुख राजनीति की गवाही देता है, वह न तो नई है और न आश्चर्यजनक। चुनाव प्रचार के दौरान भी वह अक्सर अपनी कार का शीशा खोलकर ही मीडिया से बात करती दिखाई देती थीं। इसके बावजूद लोगों ने उन्हें चुना है तो यह तय कर पाना मुश्किल है कि इसे जनता से उनकी इस दूरी का स्वीकार माना जाए या हमारे लोकतंत्र में विकल्पों के सीमित होने की विवश अभिव्यक्ति। क्या चेन्नई में जयललिता के घर के बाहर एकत्र जनता ने यह सोचा होगा कि वह अपने कंधों पर जिस नेता की विजय पालकी उठा रही है, जीत के इस मौके पर उन्होंने लोगों के बीच आने के बजाय छज्जे से दर्शन देना बेहतर समझा?
क्या उन्होंने सुदूर कोलकाता में इसके बिल्कुल उलट ममता बनर्जी के भीड़ से घिरे होने पर गौर किया होगा? पश्चिम बंगाल में अगर ममता बनर्जी जैसा सादगीपूर्ण व्यक्तित्व न होता, तो शायद उस वाम मोर्चे को अपदस्थ कर पाना आसान नहीं होता, जिसके अधिकांश नेता आज भी अपनी निजी ईमानदारी और सादगी के लिए जाने जाते हैं। तो क्या ममता बनर्जी की सादगी और साधारण रहन-सहन उनके निजी चुनाव से ज्यादा उनकी राजनीतिक रणनीति की हिस्सा है? कहना मुश्किल है।
हालांकि केंद्र सरकार में कबीना मंत्री के पदों को सुशोभित करते हुए ममता बनर्जी को अब करीब एक दशक हुआ और इस दौरान सत्ता उनकी साधारण जीवनशैली को नहीं बदल पाई, जैसा कि उसने हमारे दूसरे सभी नेताओं की जीवनशैली को बदल दिया है। लालू यादव भी भारतीय राजनीति में साधारण, सादगीपूर्ण और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए थे और यही प्रारंभ में उनकी राजनीति का आधार था। लेकिन समय और चुनावी विजय के साथ उनके व्यक्तित्व और राजनीति में आए बदलाव सभी जानते हैं। फिलहाल ममता बनर्जी की साधारण से जुड़ी राजनीति जयललिता ही नहीं समूची भारतीय राजनीति और राजनेताओं की पड़ताल का रोचक संदर्भ तो हो ही सकती है, जिस पर मतदाता और नागरिक होने के नाते हम सबको जरूर गौर करना चाहिए।
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गर्मी में रहना है कूल तो अपनाएं यह चमत्कारी फंडा

आज पूरी दुनिया में योग की धूम मची हुई है। वह समय चला गया जब योग को हिन्दू धर्म की उपासना पद्धति मानकर अन्य धर्मों के लोग इससे मुंह फेर लेते थे। लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। विज्ञान ने भी अब योग को एकर वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति मानकर इसकी प्रामाणिकता पर मुहर लगा दी है।
गर्मियों की लगभग शुरुआत हो चुकी है। बारिश और ठंड की बजाय गर्मियों का सीजन सभी के लिये ज्यादा कठिन और पीड़ादायक होता है। योग में एक ऐसी क्रिया है, जिसे करने मात्र 5 से 7 मिनिट लगते हैं तथा इसके करने से गर्मी में भारी राहत मिलती है। यह क्रिया है-शीतली प्राणायाम। आइये देखें इस योगिक क्रिया को कैसे किया जाता है-
शीतली प्राणायाम: पद्मासन में बैठकर दोनों हाथों से ज्ञान मुद्रा लगाएं। होठों को गोलाकार करते हुए जीभ को पाइप की आकृति में गोल बनाएं।
अब धीरे-धीरे गहरा लंबा सांस जीभ से खींचें। इसके बाद जीभ अंदर करके मुंह बंद करें और सांस को कुछ देर यथाशक्ति रोकें। फिर दोनों नासिकाओं से धीरे-धीरे सांस छोड़ें। इस क्रिया को 20 से 25 बार करें।
प्रतिदिन शीतली प्राणायाम करने से अधिक गर्मीं के कारण पैदा होने वाली बीमारियां और समस्याएं नहीं होती। लू लगना, एसिडिटी, आंखों और त्वचा के रोगों में तत्काल आराम मिलता है।

घर में जरुर रखना चाहिए साबुत नमक क्योंकि....

हमारे यहां शादी-ब्याह हो या कोई अन्य रस्म सामान सबसे पहले घर में नमक लाया जाता है क्योंकि साबुत नमक घर में रखना बहुत शुभ माना जाता है।
जब शादी में सबसे पहले गणेश स्थापना के पूर्व भी जो पूजा सामग्री रखी जाती है उसमें साबुत नमक भी जरुर रखा जाता है। वास्तु के अनुसार ऐसी मान्यता है कि साबुत नमक में पॉजिटीव एनर्जी को अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता होती है।
साथ ही यह नकारात्मक उर्जा को घर से दूर करता है। इसलिए घर में कोई भी शुभ काम करने जा रहे हों तो नमक डालकर पौछा जरूर लगाएं। साथ ही घर में हमेशा साबुत नमक जरुर रखना चाहिए क्योंकि इससे घर से कई तरह के वास्तुदोष दूर हो जाते हैं। इसीलिए घर के जिस भी कोने में वास्तुदोष दूर करने के लिए वहां एक बाऊल में भरकर साबुत नमक रखा जाता है।
मन में खिन्नता, भय, चिंता होने से, दोनों हाथों में साबुत नमक भर कर कुछ देर रखे रहें, फिर वॉशबेसिन में डाल कर पानी से बहा दें। नमक इधर-उधर न फेंकें। नमक हानिकारक चीजों को नष्ट करता है। फफूंदी भी नहीं लगने देता।

वो महल की छत पर अपना ऊंट खोज रहा था!

दुनिया में अगर रोशनी न हो तो इंसान का जीना मुश्किल हो जाए। बगैर उजाले के एक कदम बढ़ाना भी कठिन हो जाता है तो फिर लंबा रास्ता तय करके अपनी मंजिल तक पहुंचना तो लगभग असंभव ही लगता है। बाहर का प्रकाश तो मायने रखता ही है लेकिन अंदर का प्रकाश जिसे विवेक यानी सद्ज्ञान कहते हैं, वह तो और भी ज्यादा कीमती चीज है। बात की गहराई को आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं एक सुन्दर व रोचक घटना की ओर...

एक बहुत बड़ा राजा था। रात का समय था। राजा अपने महल के शयन कक्ष में सोया हुआ है। सोए हुए थोड़ा ही वक्त बीता था कि राजा एकदम से चोंक कर उठ बैठा। राजा को कुछ अजीब सी आवाजें आ रही थीं। वह ध्यान लगाकर सुनने लगा। मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगे। राजा को लगा कि शायद महल में चोर घुस आए हैं। धीरे-धीरे वह आवाज राजा के शयन कक्ष के ठीक ऊपर से आने लगी। राजा को पक्का यकीन हो गया कि अवश्य ही महल में चोर घुस आए हैं और अब उसके कक्ष में घुसने का प्रयास कर रहें हैं। राजा ने चिल्लाकर पूछा कि ऊपर छत पर कौन है? महल में चोरी करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? लेकिन ऊपर से जो उत्तर मिला उसे सुनकर राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ऊपर से किसी ने आवाज लगाकर कहा कि- महाराज मैं चोर नहीं हूं, मैं तो किसान हूं मेरा ऊंट खो गया है इसीलिये आपके महल की छत पर खोज रहा हूं। जैसे ही मेरा ऊंट महल की छत पर से कहीं मिल जाएगा में तुरंत चला जाऊंगा। उसका जवाब सुनकर राजा को आश्चर्य तो हुआ ही साथ ही बड़ा गुस्सा भी आया। राजा ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो गए? महल की छतों पर भी कहीं ऊंट ढूंढे जाते है? तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है या नहीं?
राजा द्वारा गुस्सा करने और एक साथ कई सवाल पूछे जाने पर भी उस व्यक्ति के चेहरे पर शांति और मुस्कुराहट बनी रही।
वह राजा से बोला कि जब खजाने में अधिक धन-सम्पत्ति होने से तुम्हें सुख मिल सकता है, अपने राज्य की सीमाएं और ज्यादा बढ़ जाने से तुम्हें सुख मिल सकता है, सोने का सिंहासन, सोने का मुकुट और रास-रंग में डूबने से तुम्हे सच्चा सुख मिल सकता है, तो फिर महल की छत पर से ऊंट भी मिल सकता है। जब महलों में सुख मिल सकता है, संगीत, सुरा और सौन्दर्य में सुख मिल सकता है तो महल की छत पर ऊंट क्यों नहीं मिल सकता? उस आदमी की ऐसी गहरी बातों को सुनकर राजा चोंका, उसे लगा कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है अवश्य कोई पहुंचा हुआ संत या देव पुरुष है जो मेरी आंखें खोलने और सचेत करने आया है। राजा दोड़कर छत पर गया लेकिन तब तक वह अज्ञात पुरुष जा चुका था। राजा ने उसकी बातों का अर्थ बड़े-बड़े विद्वानों, संतों और पंडितों से पूछा और अंत में उसे यही समझ में आया कि किसी भी सांसारिक सुख-भोग में कभी भी स्थाई और वास्तविक सुख-शांति नहीं मिल सकती।

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रविवार, 22 मई 2011

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...

पं. विजयशंकर मेहता
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना।
धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है।
सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है। जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।
धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है। जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा।
पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

बात कड़वी ही सही, बोली तो मीठी हो

एक पंडित ने पहलवान की कुंडली देखी। उसे बताया कि तुम्हारे पास धन, दौलत और ताकत खूब रहेगी। परिवार का सुख भी रहेगा लेकिन तुम्हारे सारे परिजन तुम्हारे रहते ही मर जाएंगे। परिवार में तुम अकेले ही रह जाओगे। पहलवान डर गया, आंखों में आंसू आ गए। पंडित पर गुस्से में तमतमाया और अच्छे से धुनाई कर दी।
तुझसे मैंने भविष्य पूछा था, तू मेरे परिवार के मिटने की बात कर रहा है।
पंडितजी जान छुड़ाकर भागे। वैद्य के पास पहुंचे। मरहम-पट्टी करवाई। कभी किसी पहलवान की कुंडली न देखने की कसम खा ली। दक्षिणा तो मिली नहीं, उल्टे जान के लाले पड़ गए।
उन पंडितजी के घर के पास ही एक दूसरे पंडित आचार्य भी रहते थे। पिटाई की बात सुनी तो वे उनका हालचाल जानने पहुंचे। आचार्य जी ने पूछा कैसे हुआ यह सब।
पंडित बोले अरे उसकी कुंडली ही ऐसी थी मैं क्या करता? उसके सारे रिश्तेदारों की मौत उसके सामने ही हो जाएगी। ये तय है। उससे झूठ कैसे बोलता।
आचार्य जी ने समझाया, ये बात तुम उसे किसी दूसरे तरीके से बता सकते थे। सीधे-सीधे ऐसा बोलने की क्या जरूरत थी।
पंडित जी बोले, तो कैसे बोलता।
आचार्य जी बोले मैं उसके पास जाता हूं, तुम्हारी भी दक्षिणा वसूल करके लाऊंगा उससे।
पंडितजी बोले, न-न उसके पास मत जाना बहुत जालिम है। मैं तो जवान था सो इतनी मार सह गया। आप नहीं सह पाएंगे, आपकी तो उम्र भी ज्यादा है।
आचार्यजी बोले तुम मेरी फिक्र मत करों मैं संभाल लूंगा।
अगले दिन आचार्यजी पहलवान के घर पहुंच गए। पहलवान पहले ही पंडित से चिढ़ा हुआ था, दूसरे पंडित को देखकर नथूने फूला कर बोला, देखों आचार्यजी पहले ही एक पंडित ने मेरा मूड बहुत खराब कर दिया है। आपने भी ऐसी-वैसी बात की तो खैर नहीं है।
आचार्य जी ने कहा आप निश्चिंत रहिए, ऐसी कोई बात नहीं है। मैं सब सही-सही बताऊंगा।
आचार्यजी ने पहलवान की कुंडली बनाई और देखने लगे। पहले पंडित ने पहलवान की कुंडली के बारे में जो बताया था, सब वैसा ही था।
आचार्यजी ने पहलवान को सब वैसा ही बता दिया। पहलवान खुश हो गया और दोगुनी दक्षिणा देकर आचार्य ्रजी को विदा किया। आचार्यजी ने पंडित के पास आकर उसके हिस्से की दक्षिणा भी दी तो पंडितजी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं।
आपने उसे सब बता दिया, पंडित ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। उसके परिवार वालों की मौत के बारें में भी।
आचार्यजी ने कहा हां सब बता दिया। वो खुश हो गया।
क्या बताया आपने?
मैंने उससे कहा कि तुम बहुत किस्मत वाले हो। तुम्हारे पूरे खानदान में तुम्हारे पास ही सबसे ज्यादा दौलत, शोहरत और ताकत होगी, यहां तक कि तुम्हारे पूरे खानदान में उम्र भी सबसे ज्यादा तुम्हारी ही है।
वो खुश हो गया और मुझे दोगुनी दक्षिणा दे दी। जबकि इसका मतलब तो यही था कि उसके सारे रिश्तेदार उसके सामने ही मर जाएंगे।
पंडित को अपनी गलती का एहसास हो गया।
संडे का फंडा - संडे का फंडा यही है कि सभी जानते हैं कि सच कड़वा होता है लेकिन उसे कड़वे तरीके से ही बोला जाए, ये जरूरी नहीं है। कड़वी से कड़वी बात भी बोलते समय याद रखें कि आपके बोलने का अंदाज ऐसा हो कि सुनने वाले को बुरा नहीं लगे।
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शनिवार, 21 मई 2011

bhaagavat 257 258

...तो ऐसी थी कृष्ण की गृहस्थी
: पं.विजयशंकर मेहता
वहां से फिर दूसरे महल में गए तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं। इसी प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान् को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा। कहीं वे यज्ञकुण्डों में हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राम्हणों को भोजन करा रहे हैं तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं। कहीं संध्या कर रहे हैं तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैंतरे बदल रहे हैं। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंग पर सो रहे हैं तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं। किसी महल में उद्धव आदि मंत्रियों के साथ किसी गंभीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं और कहीं प्रजा में तथा अन्त:पुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सबका अभिप्राय जानने के लिए विचरण कर रहे हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया का परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही। द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थ की भांति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरूषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया।
नारदजी ने उनको प्रणाम किया और कहा भगवान् मैं आपकी माया से हार गया। सचमुच आप कुछ अलग ही लीला कर रहे हैं। भगवान् ने कहा-नारद एक बात ध्यान रखना, तुम संत हो और सन्त का काम है गृहस्थों के परिवार में प्रवेश करना, उनकी रक्षा करना, पर तांक-झांक करना ठीक नहीं है। आज से कसम खा लेना। ताक-झांक मत करना। नारद ने भी अपनी भूल स्वीकार की। नारद ने कहा-मैं जा रहा हूं आप मुझे आज्ञा दीजिए। नारदजी को समझ में आ गया। वे सबके अन्तरात्मा हैं। जो उनका साक्षात्कार कर लेते हैं उन्हें ही शांति है, अन्य को नहीं मिलती। अपनी अन्तरात्मा में स्थित ब्रम्ह का सतत् तेल धारावत् चिन्तन, ममन, ध्यान, स्मरण, नाम, जप इत्यादि, उसकी आराधना, उपासना साधन या कोई नाम दें, एक ही बात है कि वह हमसे भुलाए न भूले। होना चाहिए सत्य का अनुसंधान, सत्य का वास्तविक प्रयोग। सत्य-स्वरूप केवल-केवल सत्य से ही जाना जा सकता है।

जरूरी है दायरे से बाहर निकलना क्योंकि..
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो।
देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है।
आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा।
अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईश्वरार्थ कर्म करने का निर्देष देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है। व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, सौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है।

जूए में राजा नल सबकुछ हार गए तब...

कलयुग दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर बनकर उसकी बात स्वीकार करके वह पुष्कर के पास गया और बोला तुम नल के साथ जुआं खेलो मेरी सहायता करो। जूए में जीतकर निषध राज का राज्य प्राप्त कर लो। पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नल के के पास गया। द्वापर भी पासे का रूप धारण करके उसके साथ चला। जब पुष्कर ने राजा नल को जूआ खेलने का आग्रह किया। तब राजा नल दमयन्ती के सामने अपने भाई की बार - बार की ललकार सह ना सके। उन्होंने पासे खेलने का निश्चय किया।
उस समय नल के शरीर में कलयुग घुसा हुआ था, इसीलिए नल जो कुछ भी जूए में लगाते हार जाते। प्रजा और मंत्रियों ने राजा को रोकना चाहा लेकिन जब वे नहीं माने तो मंत्रियों ने द्वारपाल को रानी दमयंती तक राजा को रोकने का संदेश पहुंचवाया। तब रानी नल दमयन्ती को बोली आपकी पूरी प्रजा आपके दुख के कारण अचेत हुई जा रही है। इतना कहकर दमयंती भी रोने लगी। लेकिन राजा नल कलयुग के प्रभाव में थे।
इसीलिए जो पासे फेंकते वही उनके प्रतिकुल पड़ते। जब दमयंती ने यह सब देखा तो उसने धाय को बुलवाया और उसके द्वारा राजा नल के सारथि वाष्र्णेय को बुलवाया। उन्होंने ने उससे कहा सारथि तुम जानते हो कि महाराज बहुत संकट में है। अब यह बात तुम से छिपी नहीं है। तुम रथ जोड़ लो और मेरे बच्चों को रथ में बैठाकर कुंडिनगर ले जाओ। उसके बाद पुष्कर ने राजा नल का सारा धन ले लिया और बोला तुम्हारे पास दावं पर लगाने के लिए और कुछ है या नहीं। यदि तुम दमयंती को दावं पर लगाने के लायक समझो तो उसे लगा दो।
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दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट भिखारी निकला !

जो खुद भिखारी है उससे क्या कुछ मांगना?- भिखारी उसे कहते हैं जो मांगने वाला हो, जिसकी कोई याचना हो या जो अपनी किसी इच्छा के लिये किसी के सामने अपनी झोली फेलाए किसी से कुछ पाने की उम्मीद रखता हो। मांगने वाला भिखारी यानी याचक होता है। लेकिन भिकारी की पहचान क्या है और सबसे बड़ा भिखारी यदि खोजना हो तो किसे सबसे बड़ा भिखारी माना जाए? यह प्रश्र थोड़ा कठिन अवश्य लगता है लेकिन कठिन प्रश्रों का उत्तर खोजने पर ही अनमोल सूत्र हाथ लगते हैं। तो आइये चलते हैं एक प्रसंग की ओर जो दुनिया के सबसे बड़े भिखारी को खोजने में हमारी मदद कर सकता है...
एक गांव में एक फकीर रहता था। बड़ा पहुंचा हुआ फकीर था। बड़े-बड़े सेठ-साहुकार और धनपति उसके पैरों मे झुकते थे। यहां तक कि दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट भी उसके दर्शन करने के लिये खुद चलकर उसकी झोपड़ी तक आता था। दुर्भाग्य वश एक साल गांव में अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने के लिये मोहताज हो गए। पूरे गांव के लोग इकट्ठे होकर फकीर के पास पहुंचे ओर प्रार्थना करने लगे कि सम्राट आपका भक्त है, आज्ञाकारी है हम पर कृपा कीजिये राजा से कहकर हमारी सहायता करवाइये। गांव वालों की हालत देखकर फकीर को दया आ गई वह चल दिया सम्राट के महल की ओर।
सुबह का समय था फकीर सीधा बादशाह के महल में पहुंच गया। फकीर ने देखा कि सुबह का वक्त है और दुनिया का सबसे बड़ा सम्राट ईश्वर से प्रार्थना कर रहा है। फकीर राजा के इतने करीब था कि प्रार्थना के शब्द उसके कानों में साफ-साफ सुनाई दे रहे थे। सम्राट ईश्वर से याचना कर रहा था कि- है ईश्वर मेरे राज्य की सीमाओं को और फैलाओ, मुझे और..और..बड़ा सम्राट बना दो, मेरा खजाना दिनों-दिन और भी ज्यादा भरता जाए... हे ईश्वर! मुझपर रहम करो। प्रार्थना करते-करते सम्राट की हालत ऐसी हो गई जैसे कोई भिखारी गिड़-गिड़ाता है।
दुनिया के सबसे बड़े सम्राट की ऐसी दशा देखकर फकीर को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने मन ही मन सोचा कि इतना बड़ा सम्राट होने पर भी इसके मन में संतोष नहीं है। फकीर ने सोचा कि इससे तो सड़क पर घूमने वाले भिखारी अधिक अच्छे हैं जो पेट भरने के लिये हाथ फैलाते हैं। फकीर ने सोचा कि यह सम्राट तो दुनिया का सबसे बड़ा भिखारी है, और जो खुद ही भिखारी हो उससे क्या कुछ मांगना? और यही सोचता हुआ फकीर सम्राट के महल से उल्टे पैर वापस लौट आया। गांव आकर फकीर ने महल का सारा हाल लोगों को सुनाया और कहा कि मांगना ही है तो उस एक मात्र सम्राटों के सम्राट परमात्मा से ही मांगों, जो खुद भिखारी हैं उनसे क्या मांगना।
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किसी के विचारों को बदलना है तो उन्हें प्रेम करना सिखाएं...

पं. विजयशंकर मेहता
दूसरों को अपने साथ जोड़ा जा सकता है। बल्कि जीवन का लंबा समय उनके साथ बिताया भी जा सकता है, लेकिन जब उनके विचारों को परिवर्तन करने का अवसर आता है तो या तो मतभेद हो जाते हैं या आप इसमें असफल हो जाएंगे। यह मामला केवल बाहरी दुनिया का नहीं है।
परिवार में यदि माता-पिता अपने कुल की परंपरानुसार अच्छे विचारों को बच्चों में भी उतारना चाहते हैं तो यही परेशानी आती है। बच्चे आपका कहना मान लेंगे, आपके अनुसार दिनचर्या भी कर लेंगे, लेकिन विचार बदलने को तैयार नहीं होते।
किसी का दृष्टिकोण बदलना है तो प्रेम को जीवन में उतारना होगा। दबाव में आप किसी की जीवनशैली बदल सकते हैं, चिंतनशैली नहीं बदल सकते। इसके लिए प्रेम की ही जरूरत पड़ेगी। अपने प्रेम को इतना विस्तार दिया जाए, बढ़ाया जाए कि फिर उसमें अपनेआप अहंकार गलने लगता है।
जैसे ही प्रेम में से अहंकार गया, भक्ति का प्रवेश शुरू हो जाता है। प्रेम जैस-जैसे ऊंचा उठेगा, भक्ति का रूप लेता जाएगा। इसलिए परिवारों में बच्चों को भक्ति करना सिखाएं। आप उन्हें जो भी बनाना चाहें जरूर बनाएं, पर भक्त वे बनें ऐसा अवश्य करें। भक्त देना जानता है, लेना नहीं जानता। जैसे प्रेम मांगने लग जाए तो वासना हो जाती है।
इसी तरह भक्ति यदि मांगने लग जाए तो मात्र कर्मकाण्ड बन जाएगी। भक्ति जितनी जागेगी, परमात्मा पर भरोसा उतना बढ़ेगा। इसीलिए भक्तों के पास जाकर लोग आसानी से अपने विचार बदल लेते हैं और सद्विचार यदि सुपात्र में उतर जाएं तो ऐसे लोग परिवार, समाज और राष्ट्र को हित ही पहुंचाएंगे। भक्ति जगाने के लिए एक सरल तरीका है जरा मुस्कराइए...
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