शनिवार, 31 मार्च 2012

भागवत ३३८ से ३४०


गांधारी ने भगवान कृष्ण को क्यों और क्या शाप दिया?
कृष्णजी ने गांधारी के पैर को स्पर्श किया गांधारी बोलीं दूर हटो तुम्हारे कारण आज मेरा वंश समाप्त हो गया। कृष्ण मैं तुमसे बहुत क्रोधित हूं, मैं तुम्हें शाप देना चाहती हूं। मैं जानती हूं तुम्हारी प्रतिभा और प्रभाव को। तुम चाहते तो यह युद्ध रोक सकते थे। यह युद्ध तुमने करवाया। मेरे बेटों ने नहीं लड़ा, तुमने लड़वाया है। तुमने मेरा वंश नाश कर दिया। तुम चाहते तो अपने तर्क से, अपने ज्ञान से, अपनी समझाईश, अपनी प्रभाव से, अपने पौरूष से इस युद्ध को रोक सकते थे। तुमने अच्छा नहीं किया, एक मां से सौ बेटे छीने हैं। गांधारी रोते-रोते कहती है- कृष्ण सुनो! जैसा मेरा भरापूरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगाऔर तुम देखोगे इसे।

इसके बाद गांधारी यहीं नहीं रूकती, बड़े क्रोध और आवेश में बोलती है कि आज हम दोनों कितने अकेले हो गए हैं। देखो तो इस महल में कोई नहीं है। जिस महल में इंसान ही इंसान हुआ करते थे, मेरे बच्चे, मेरे परिवार के सदस्य मेरे पास थे कितने अकेले हो गए हैं आज हम। तुम्हारे जीवन का जब अंतकाल आएगा तुम संसार में सबसे अकेले पड़ जाओगे। तुम्हे मरता हुआ कोई देख भी नहीं पाएगा जो शाप है तुमको।भगवान तो भगवान हैं, प्रणाम किया और कहते हैं मां गांधारी मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी। मैं आपके शाप को ग्रहण करता हूं मस्तक पर।

आपका शुभ हो, आपने बड़ी दया की है। कृष्ण पलटे तब तक गांधारी को ग्लानि हुई। कृष्ण पलटे और पांडवों ने देखा कृष्णजी के चेहरे पर शापित होने का कोई भाव ही नहीं था। भगवान मुस्कुराए और पांडवों से कहा- चलो। बड़ा अजीब लगा। भगवान अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं अर्जुन लीला तो देखो मेरे यदुवंश को यह वरदान था कि उन्हें कोई दूसरा नहीं मार सकेगा, मरेंगे तो आपस में ही मरेंगे। देखो इस वृद्धा ने शाप दे दिया तो यह व्यवस्था भी हो गई।

कृष्ण का है ये फंडा, जीना है तो जीओ ऐसे
भगवान ने कहा अर्जुन मेरी मृत्यु के लिए जो कुछ भी उसने कहा है मुझे स्वीकार है। कोई तो माध्यम होगा और भगवान मुस्कुराते हुए पांडव से कहते है चलो आज वही भगवान अपने दाएं पैर को बाएं पैर पर रखकर अपनी गर्दन को वृक्ष से टिकाकर बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे अपनी मृत्यु की।जिसने मृत्यु का इतना बड़ा महायज्ञ किया था महाभारत वह ऋषि देखते ही देखते इस संसार से चला गया। यूं चले जाएंगे ऐसा भरोसा नहीं था। एक महान अभियान का महानायक यूं छोड़कर चला गया कृष्ण एक बात कहा करते थे कि जब मैं संसार से जाऊं तो कोई रोना मत।

कृष्ण को रोना पसंद नही। कृष्ण कहते हैं रूदन मत करिए आंसू बड़ी कीमती चीज है। मुझे आंसू का अभिषेक तो अच्छा लगता है पर रोना हो तो मेरे लिए रोओ, मुझे पाने के लिए रोओ। मेरी देह पर मत रोओ, यह निष्प्राण देह पर भगवान ने कहा था कि मेरे अंतिम समय में रोना मत, क्योंकि कृष्ण का एक सिद्धांत था मैं जीवनभर खुश रहा हूं और मैंने जीवनभर लोगों को खुश रखा है। इसलिए रोना मत, दु:खी मत होना।
कृष्ण तो भगवान थे, फिर गांधारी का शाप उन्हें क्यों लग गया?
पीताम्बर वो था, जिसने अनेक लोगों की लज्जा बचाई, जिनसे इतने लोग सुरक्षित हुए, जो पीताम्बर द्रौपदी के ऊपर ओढ़ाया गया था, जिस पीताम्बर ने लोगों को ममता का आश्वासन दिया, जिस पीताम्बर में लोगों ने छिप-छिपकर पता नहीं क्या-क्या कर लिया था वह पीताम्बर आज रक्त रंजित हो गया था।

उसका रंग पहचान में नहीं आ रहा था। चारों ओर रक्त बिखरा पड़ा है। भगवान कहते हैं यहां का रक्त यहीं छोड़कर जा रहा हूं।भगवान ने अपने स्वधाम गमन से संदेश दिया कि जाना सभी को है। जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही। जन्म और मृत्यु तय है। सारा खेल बीच का है। हम इस बात को समझ लें कि जिसकी मृत्यु दिव्य है समझ लो उसी ने जीवन का अर्थ समझा है।

शुकदेवजी परीक्षित को समझा रहे हैं और अब धीरे-धीरे कथा ग्यारहवें स्कंध के समापन की ओर जा रही है।शुकदेवजी कहते हैं-राजा परीक्षित्! दारुक के चले जाने पर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएं तथा गरुडलोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम प्रस्थान को देखने के लिए बड़ी उत्सुकता से वहां आए थे।

गुरुवार, 29 मार्च 2012

भागवत ३३४ से ३३७

कैसे पाएं किसी संत का आशीर्वाद?
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे।
अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है।
अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्याेदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।

भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।

संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे।

भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।
जब हो कोई भी शुभ काम तो इस एक बात का ध्यान जरुर रखें क्योंकि....
कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे।

जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए।

हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे।

उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें। 

कभी भी वक्त का इंतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि....
नारदजी कहते हैं कि उसे एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। भक्त के जीवन में एक-एक क्षण का भी महत्व होता है। भक्त समय की कीमत जानता है। यह उसके भौतिक सुविधाओं की बहुमूल्य निधि है, जिसका उपयोग वह भक्ति के प्रति करता है। वह यह भी समझता है कि जो क्षण बीत गया, उसे कोई भी कीमत देकर भी वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए वह एक-एक क्षण का उपयोग भजन करने के प्रति ही करता है। यदि कोई भक्त ऐसा नहीं करता है तो उसे करना चाहिए, क्योंकि शुभ समय की केवल बाट ही देखते रहना, कुछ साधन नहीं करना यह कोई प्रतीक्षा नहीं है।

मनुष्य का जीवन अत्यंत अनिश्चित है, कितना समय उसके पास है, कहा नहीं जा सकता। अत: उसका एक-एक पल महत्वपूर्ण है। कार्य बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि अनेकों जन्मों की तपस्या एवं निरंतर साधना से भी पूर्ण हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह सोचते रहना कि अमुक काम पूर्ण हो जाए, अमुक परिस्थिति आ जाए तो भजन करूंगा। अपने आप को धोखा देना तथा समय नष्ट करना है।

एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आज हम अच्छे सात्विक भगवद् भक्तों की संगत में हैं जिससे हमारे मन में भी प्रभु को प्राप्त करने के लिए परम-प्रेम-रूपा भक्ति जाग्रत करने की शुभ इच्छा जाग्रत है। किन्तु, यदि हम विचार ही करते रह गए, भजन कुछ किया नहीं, केवल अनुकूल समय का रास्ता ही देखा। जब अनुकूल समय प्राप्त हुआ तो हमारे मन का विचार ही बदल गया। इसलिए उत्तम यही है कि जो भी परिस्थितियां प्राप्त हों तथा जो भी समय उपलब्ध हो एवं जो कुछ आपके पास सुविधाएं हों, उनमें जैसा भी, जितना भी भजन सम्भव हो आरंभ कर दो। यह नियम जाग्रति से पूर्व एवं पश्चात दोनों अवस्थाओं में लागू होता है।

विशेषकर भजन का स्वभाव तथा भक्ति जाग्रति का उपर्युक्त समय युवावस्था ही होता है। बुढ़ापे में जब मन का स्वभाव पक जाता है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, उठा-बैठा भी नहीं जाता, तब क्या साधन-भजन होगा। हां, यदि युवावस्था में ही ऐसा स्वभाव तथा परिस्थितियां बन जाएं तो बुढ़ापे में भी क्रम चलता रह सकता है। अत: आधा क्षण बिगाड़े बिना भी साधन में जुट जाओ। आयु तो देखते ही देखते निकली जा रही है। दिन पर दिन तथा रातों पर रातें व्यतीत होती जा रही हैं। सूर्य उदय होता है, सायं को ढल जाता है। यह क्रम घड़ीभर के लिए भी नहीं ठहरता। इसी के साथ व्यतीत हो जाता है मनुष्य का जीवन भी। सुविधा पूर्वक तथा अनुकूल समय का भजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतीक्षा करना उचित नहीं।
महाभारत के बाद, ऐसा क्या किया धृतराष्ट्र ने कि पांडव डर गए?
भगवान को विचार आता है मुझे शाप मिला था। आज शाप को पूर्ण करने का अवसर आया है। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था और जब पांडव विजय हो गए थे, राजतिलक हुआ और हस्तिनापुर में प्रवेश कराने के लिए भगवान स्वयं गए। भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा- देखो, हम जीत तो गए हैं लेकिन कौरवों के माता-पिता धृतराष्ट्र और गांधारी अब अकेले हैं, सारा महल सुनसान हो चुका है। हम वहां चलकर उनको प्रणाम करें। पांडवों को लेकर भगवान हस्तिनापुर पहुंचे। महल जिसमें आदमी ही आदमी होते थे, सेवक-सेविकाएं होती थीं।

किसी माता-पिता के सौ बच्चे हों, क्या आनंद रहा होगा। सारा हस्तिनापुर सुनसान, सब लोग मारे गए युद्ध में। केवल विधवाओं की चित्कार सुनाई दे रही थी। बच्चे किलकारी मार रहे हैं, याद कर रहे हैं अपने लोगों को। भगवान जैसे ही पहुंचे हैं धृतराष्ट्र पूछ रहा था कहां हैं पांडव। जैसे ही उनके कक्ष में पहुंचे तो वहां भीम की एक लोहे की मूर्ति रखी हुई थी। दुर्योधन भीम को मारने के लिए उस मूर्ति पर गदा अभ्यास किया करता था, उस पर प्रहार करता था। इसलिए बहुत बलवान था। पांचों पांडव आए,

भगवान आगे थे। धृतराष्ट्र खड़े हैं। भगवान कहते हैं राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम। युधिष्ठिर जैसे ही धृतराष्ट्र को प्रणाम करते हैं धृतराष्ट्र कहता है भीम कहां है, भीम कहां है। मुझे भीम को अपनी बाहों में भरना है, हृदय से लगाना है। भीम बांवरा था एकदम दौड़ा। भगवान ने भीम को रोका और लोहे की प्रतिमा को आगे कर दिया और जैसे ही लोहे की प्रतिमा धृतराष्ट्र की बाहों में आई उसने मूर्ति को इतनी जोर से दबाया कि वह चकनाचूर हो गई। पांडव घबरा गए, कांपने लगे।

इसलिए धृतराष्ट्र पूछ रहा था, आज भीम को बाहों में भर लूं और सब समाप्त कर दूं। भगवान बोलते हैं यह जीवन है सबकुछ लुट गया इस नेत्रहीन का, फिर भी इच्छा बची है कि भीम को मार डालूं। हमारा सबकुछ चला जाता है जीवन में सारी इंद्रियां शिथिल हो गईं, सारे राज चले गए। फिर आदमी को ऐसा लगता है कि संसार को बाहों में भर लूं एक बार।
(bhaskar.com)

मंगलवार, 27 मार्च 2012

अहम सवाल!

‘मुद्दा करप्‍शन का है तो रक्षा मंत्री को खुद ही कार्रवाई करनी चाहिए थी। उन्‍हें आर्मी चीफ को फोन कर कहना चाहिए था कि इस बारे में आप लिखकर दीजिए।’

कई सवाल उठते हैं
एंटनी के आज के बयान से कई सवाल उठते हैं। पहला सवाल यह कि आखिर जनरल सिंह घूस की पेशकश करने वाले अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई क्‍यों नहीं करना चाहते थे? इसके अलावा यदि रक्षा मंत्री को इस मामले की जानकारी (भले ही मौखिक) मिली, तो उन्‍होंने अपने स्‍तर पर (स्‍वत: संज्ञान लेते हुए) कोई कार्रवाई क्‍यों नहीं की। इतनी गंभीर बात रक्षा मंत्री की जानकारी में आने के बाद भी तेजिंदर सिंह ने बतौर अफसर नौकरी की और सेवा शर्तों के मुताबिक ही रिटायर हुए, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्‍यों नहीं की गई या फिर इस तरह के मामलों की जांच नहीं की गई? जनरल वी के सिंह डेढ़ साल तक चुप क्‍यों बैठे रहे? मंत्री के कहने पर लिखित शिकायत क्‍यों नहीं की?

रविवार, 25 मार्च 2012

भागवत ३२५ से 333

यही कारण है जल्दी परिवार और रिश्तों के बिखरने का?
इन्हीं विभक्ति तत्वों से मनुष्य का यह बाहरी और भीतरी (स्थूल व सूक्ष्म) देह बना है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गणित-शास्त्र की दृष्टि नौ का अंक पूर्ण होता है तथा आठ का अंक घटता जाता है।इसी प्रकार हमारे निर्माता आठ तत्व न स्वयं कालान्तर में महाकाल में विलीन हो जाएंगे, बल्कि हमारी काया को घटाते हुए उसी महाकाल को हमेशा-हमेशा के लिए सौंप देंगे। समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और सबसे बड़ी इकाई सरकार या राज्य। इस छोटी इकाई का प्रमुख वृद्ध होता है। सम्भवत: उसका महत्व ऊपरी तौर पर बढ़ता जाता है और प्रमुखता माँ या दादी के हिस्से परिस्थितिवश आ जाए तो पारिवारिक जटिलता भौतिक दृष्टिकोण के कारण पैदा हो जाती है। यह विवेचन का प्रश्न इसलिए पैदा हुआ कि आज हम कलि-प्रभाव में आध्यात्मिक आचार-विचार से दूर होते जा रहे हैं।
वैसे कलि-प्रभाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है-कलियुग और द्वापरयुग की सन्धि अभी चल रही है, फिर भी जो पारिवारिक विघटन, विग्रह और विनिमय दिखाई दे रहा है यह हमारे जीवन को न केवल विशाक्त बना रहे हैं बल्कि हमें अपने सुख से तेजी से जा रहे हैं और हम स्वयं के शत्रु बन बैठे हैं-''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/5जीवात्मा आप ही (तो) अपना मित्र है और आप ही आत्मा शत्रु है अर्थात् अन्य शत्रु या मित्र नहीं होता।
हम अपने व्यवहार से ऐसी स्थिति का निर्माण कर लेते हैं कि ''सियाराम मय सब जग के स्थान पर ''पराये मय सब जग बन जाता है और यदि पूछा जाए तो हमारा उत्तर होता है- 'हम क्या करें, हम तो हर प्रकार से झुकते हैं, समायोजन करते हैं, परन्तु सामने वाला इतना स्वार्थी है कि वह अपना ही अपना सोचता है और अपने ही अपने लिए कार्य करता है, जबकि हमने जीवनपर्यन्त उसके लिए या उनके लिए सर्वाधिक त्याग किया। यह उत्तर कई स्थितियों में सही होता है और यह स्थिति अनेक परिवारों में पाई जाती है, जिसमें वृद्ध या वृद्धा का महत्व या उपयोगिता शारीरिक, आर्थिक या स्वभावगत कारणों से क्षीण होता जा रहा है।

पैसों का सही उपयोग नहीं करोगे तो यही होगा हाल
जब लड़का किशोरावस्था में होता है तो माता-पिता की रोकटोक उसे बुरी लगती है। वह झल्ला जाता है। कई बच्चे तो घर तक छोड़ देते हैं। माता-पिता उसे दुश्मन लगते हैं। क्योंकि उसका मन आजाद पक्षी की तरह उडऩा चाहता है और मां-बाप की बातें उसे प्रतिबंध सी लगती हैं। वहीं बच्चा जब पालक की भूमिका में आता है तो खुद के बच्चे पर भी वही बातें लादता है जिसका कभी खुद उसी ने विरोध किया था। वाणी का यही प्रभाव होता है उसका असर एक सा होता है लेकिन मनोभाव बदलते ही वह मारक क्षमता वाला हो जाता है।
यहां भगवान ने उज्जैन को याद किया है। उज्जैन में प्रभु पढऩे भी गए थे। एक विवाह भी वहां की राजकुमारी से किया था। अब उदाहरण में भी उज्जैन को याद कर रहे हैं। भगवान भी कहते हैं कि अपने ससुराल को हमेशा याद करते रहना चाहिए। भागवत में गृहस्थी के अनेक सूत्र आते रहते हैं।
प्राचीन समय की बात है उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण ने खेती-व्यापार आदि करके बहुत सी धन, सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था।
उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाईबन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन ही मन उसका अनिष्ट चिंतन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला काम नहीं करता था। अब तक धन टिका हुआ था- जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आंखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गए।

समझ लें इसे क्योंकि बस यही असली आध्यात्म है...
एक क्षण ऐसा आता है जब सारे भार को कम करने ईश्वर स्वयं आ उपस्थित हो साधक को अपने में विलीन कर लेते हैं। यह स्थिति तब बनती है जब सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं वाली आज्ञा का सही अर्थ में साधक, भक्त, ज्ञानी या और कोई सतत् पालन करने का प्रयत्न करके अपने जीवन का गंतव्य समझ सोपान दर सोपान चढऩे लगता है। इसे ईश्वर प्रणिधान की संज्ञा ऋषि-मुनियों, योगियों, तत्वदर्शियों आदि ने दी है।भगवान श्रीकृष्ण अपने देवलोकगमन के पूर्व उद्धवजी को अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं।
वे अब सांख्य योग पर चर्चा करते हैं। हमें अपने भीतर की स्थितियों का भी ज्ञान होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व जिन तत्व से संचालित होता है। उसको सूक्ष्म तरीके से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-भाई उद्धव! अब तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। इसमें संदेह नहीं कि ब्रम्ह में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल अद्वितीय सत्य है, मन और वाणी की उसमें गति नहीं है।वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्ब जीव के रूप में दृश्य और द्रष्टा के रूप में, दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम - ये तीन गुण प्रकट हुए।
उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है, इसलिए वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। अहंकार को केवल घमण्ड न मान लिया जाए। इसको सूक्ष्मता से समझना चाहिए।अहंकार का उद्घोश शब्द मैं प्रयुक्त हो सकता है। सोऽहं के उच्चारण को इस अक्षर मैं को यदि लिया जाए तो यह ब्रम्ह बोधक होगा, अक्षर ब्रम्ह ही है। जिसका क्षरण न हो व अक्षर, शेष सारे जीवन वैभव क्षर है। सृष्टि क्षर है। सृष्टि क्रम में अहंकार निहित है। इसकी रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा थे, तब न दृष्टा थे और दृश्य था। माया का प्रादुर्भाव हुआ।
माया की व्याख्या इस प्रकार है-मा नहीं या जो अर्थात् ब्रम्ह नहीं है अथवा जिसकी स्वत: कोई सत्ता नहीं है। यह अर्थ ठीक है कि जो ईश्वर से तो आई है, परंतु ईश्वर से भिन्न गुण वाली है, अर्थात् ईश्वर का ज्ञान बंधन मुक्त करता है और माया बंधन युक्त करती है। ईश्वर से अद्भुत उसकी माया चेतन प्रकाशमयी होनी चाहिए। तस्य भासा सर्वमिदं विभाती है - यह सबकुछ उस परमात्मा से प्रकाशित हो रहा है, परंतु वह अपने स्वामी के मुख पर पर्दा डाल देती है।माया का काल, कला, नियति, इनके ज्ञान और राग इन पंच विध सीमाओं से सिमित होकर अंशी जीव का रूप धारण कर लेता है। भगवान की यह माया उन्हीं के शब्दों में ''दैवी ह्येशा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
मेरी यह तीन गुणों वाली माया से तरना कठिन है पर जो मेरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। सारी सृष्टि माया का रूप है, इसमें तरने के लिए शरणागति उपाय है। हम इसे अध्यात्म का सार कहें तो उपयुक्त होगा। इसी क्रम में गीताकार ने स्पष्ट किया है कि जो शरण में नहीं जाते या जा सकते हैं वे आसुरी भाव वाले मूढ़ हैं- भजन शरणागति का व्यावहारिक स्वरूप माना जाना ठीक लगता है। चार प्रकार के भजनार्थी श्रीकृष्ण भगवान ने बताए-दु:खी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्त करने वाले (अर्थाथी) और ज्ञानी। इनमें समभाव से भजने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ को माना गया है। ज्ञानी कई जन्मों के अंत में भगवान को पाता है, सब वासुदेवमय है, ऐसा जानने वाला ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ होता है।

अगर ऐसे जिंदगी बिता रहे हैं तो आप भ्रम में हैं क्योंकि....
संसार और माया, दोनों शब्द कभी एक-दूसरे से बिलकुल अलग तो कभी एक दूसरे के विकल्प नजर आते हैं। कुछ विद्वान इस संसार को ही माया कहते हैं, तो कुछ कहते हैं कि यह संसार पूरी तरह परमात्मा की माया से घिरा हुआ है। संसारी जीव के लिए यह तय करना कठिन है कि वह इस दुनिया को समझे कैसे। उसके लिए तो यही सत्य भी है, यही माया भी। संसार और माया के बीच बहुत बारिक सी लकीर है जो इन दोनों को पूरी तरह अलग भी करती है और अगर गौर से न देखा जाए तो दोनों को एक भी दिखाती है। इस लकीर का नाम है ज्ञान, विवेक। अगर हमारे भीतर ज्ञान और विवेक जागृत है तो फिर हम संसार और माया में फर्क भी कर सकते हैं और परमात्मा को पाने के जतन भी कर सकते हैं। जिनके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं होता वे लोग अक्सर अपना जीवन भ्रम में ही गुजार देते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो संसार भ्रम और माया भी है, संसार सत्य भी है। इसके अंतर को अच्छे से समझा जाए। जब हम संसार में जीते हैं, परिवार में रहते हैं, समाज में समय बिताते हैं तो ये सब सत्य लगता है। आदमी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इतना उलझ जाता है कि वह परमात्मा, परमशक्ति से दूर हो जाता है। जो लोग इस संसार को ही पूरी तरह अपना मान लेते हैं, उनके लिए संसार सारी उम्र सत्य जैसा ही लगता है लेकिन जब अंतिम समय पास आता है तो फिर यह संसार मिथ्या लगने लगता है। ऐसे समय कुछ लोग कुछ सवाल उठाते हैं कि क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां न उठाई जाएं, समाज से दूर हो जाएं, काम करना बंद कर दें, कहीं जंगल में चले जाएं? ये सब विवेकशून्यता की निशानियां हैं, व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझ ही नहीं पाया यह साफ हो जाता है।
जो ज्ञानी है, जिसके भीतर विवेक जागृत है वो कभी ऐसी बातें नहीं करता। उसके लिए संसार और माया का फर्क हमेशा रहता है। इसे कैसे समझें। सीधा तरीका है संसार में रहें, समाज में रहें, परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाएं, सामाजिक भूमिका का निर्वाह भी करें लेकिन इसके केंद्र में संसार नहीं हो, इन सब कामों के केंद्र में भगवान हो, परमात्मा हो, तो फि र संसार कभी भी माया नहीं लगेगा। हर काम को यह सोचकर करें कि इसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। जो मिल रहा है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, जो छिन रहा है वह भी परमात्मा ही वापस ले रहा है। लेकिन यह सब व्यवहार में लाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत कोशिशें लगती हैं। अभ्यास करना पड़ता है। तभी संसार और माया दोनों को समझा जा सकता है।

बस ये एक बात समझ लें सफल जिंदगी का राज इसी में है....
नानक देवजी की उक्ति के अनुसार सारे संसार में राम को रमते देख कर्म करते हुए जीवन यापन करना कर्म की कुशलता है। एक उदाहरण हमें इस दिशा में
निदेशन देता है-जाजालि एक ऋषि था। उसने समुद्र तट पर बड़ी तपस्या की। उसकी जटा में पक्षियों ने घोंसला बनाया। उसे सिद्धियां प्राप्त हुईं। वह वरदान देने तथा श्राप देने में समर्थ हो गया।
एक दिन एक चिडिय़ा ने उसके ऊपर कीट कर दी, उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिडिय़ा को देखा, चिडिय़ा जल गई। उसे प्रसन्नता हुई लेकिन आकाशवाणी
अन्तर्मन की ध्वनि हुई मेरी तपस्या निरर्थक है। काशी निवासी तुलाधार का तप ही सच्चा तप है। उसके पास जा और उससे शिक्षा प्राप्त कर। जाजालि काशी
पहुंचा। तुलाधार के घर गया। तुलाधार अपने व्यापारिक कार्य में लगा हुआ था। जाजालि को देखते ही परिचित की भांति बोला- आइए! पधारिए, जाजालि ऋषि आपका स्वागत है और जो कुछ जाजालि के साथ व्यतीत हुआ सम्पूर्ण वृतान्त ऐसे सुनाया मानो वह स्वयं उस घटना के समय उपस्थित हो।
ऋषि को अद्भुत लगा। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक कर्म करते हुए यह सर्वज्ञाता कैसे हो गया। जाजालि के भ्रम को दूर करने की दृष्टि से तुलाधार ने प्रेम से कहा-महात्मा! मैं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए अपने प्रभु-प्रदत्त कत्र्तव्य कर्म का पालन करता हूं, उनकी इच्छा में प्रसन्न रहता हूं। मैं तो उनका आज्ञाकारी माली बनकर उनके उपवन में काम करता हूं। मेरे जीवन का व्रत है सबका हित करना व चाहना। अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करता हूं। माता-पिता की भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। सदाचार, सद्विचार, संतोष व शांति ही मेरा जीवन है, यही मेरा तप है। इसलिए भगवान की कृपा है। तुलाधार के यहां एक पिंजरे में दो पक्षी के बच्चे थे, उनकी ओर संकेत करके वह बोले-महात्मन! ये वे ही पक्षी के बच्चे हैं जो आपकी जटा में समुद्र तट पैदा हुए थे। भगवत् कृपा से इन्हें ज्ञान हो गया है। पक्षी ऋषि जाजालि से प्रसन्न होकर कहने लगे-रागी-अज्ञानियों को वन में भी अनेक प्रकार के अहंकार, क्रोध आदि दोष उत्पन्न हो जाता है। परंतु गृह में रहता हुआ जो व्यक्ति विषयों के राग का निवारण कर इन्द्रियों का निग्रह करता है-इन्द्रियों को विषय की ओर नहीं जाने देता, यही उसका भारी तप है और जो भगवान की प्रसन्नता के लिए निमित्त हो कर्म करता है, उसके सभी कर्म पवित्र रहते हैं और उसका राग रहित घर ही तपोवन बन जाता है।
वनेऽपि दोशा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।
अकुत्सिते कमर्णि य: प्रवर्तते, निवृत्त रागास्य गृहं तपोवनम्।।

इस सद्वृत्ति के लिए मन: स्थिति को महाकाल के आधीन करके आनन्दमय जीवन बिताना शक्य होता है। महाकाल और सदाशिव एक ही है। संसार के उतार-चढ़ाव में सम बुद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय भवगत समर्पण है। यह समर्पण उसकी कृपा के बिना संभव नहीं, उसकी कृपा के लिए उसी को पुकारें।

धर्म की नजर से: कैसा होना चाहिए परिवार का महौल?
व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से शक्ति कार्य करती है, उसे गुरु कहा जाता है, किन्तु वास्तव में गुरु व्यक्ति नहीं ईश्वर है। या ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्पन्न अवतार है। रामावतार में श्रीराम ने लक्ष्मण को, हनुमानजी को, शबरी को गुरु रूप में उपदेश दिया, वही शिव ने किया। कृष्णावतार में अर्जुन, उद्धव गुरु उपदेशों से लाभान्वित हुए। भगवान कृष्ण की स्तुति में 'कृष्णं वन्दे जगत् गुरुम कहकर उन्हें सम्बोधित किया ही जाता है। अत: गुरु रूप में व्यक्ति ईश्वरावतार कहा जा सकता है। साधक अपनी साधना तथा ईश्वर (गुरु) कृपा से नाम जपते-जपते उसके अर्थ तक गहरा उतर जाता है।
'तस्य वाचक प्रणव.... प्रणव है नाम जिसका तथा नाम है प्रणव जिसका। प्रणव के अलावा राम, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, गॉड, अल्लाह या जो भी नाम संस्कारवश मिल जाए उसका जप सतत तेल धारावत् होने लगता है। प्राणशक्ति का चित्त से व मन से तादात्म्य त्यागकर आत्मा में लय हो जाता है। नाम जप व हरि स्मरण मुक्ति का माध्यम बन जाता है और साधक मुक्ति की सिद्धावस्था में स्थित हो आगे और आगे या ऊपर और ऊपर बढ़ता हुआ, उठता हुआ अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होने लगता है। यह वर्तमान जन्म में या आगे के जन्मों में सम्भव होता है। निर्भर करता है कि साधना की गति कितनी तीव्र है। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को साधक वृत्ति रखना चाहिए।
परिवार के साथ भी परमात्मा में लीन रहा जा सकता है। परिवार भी एक तरह की तपोस्थली ही है। हमें केवल इसे व्यवहार में लाना होगा। परिवार के केंद्र में परमात्मा को रख लें, हर काम यह मानकर किया जाए कि परमात्मा का दिया काम है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए किया जा रहा काम है। परिवार में बातचीत का आधार भी धन, सम्पत्ति या रिश्ते न होकर ज्ञान, गुण, वैराग्य और भक्ति होना चाहिए। रामायण में इसका एक सुंदर उदाहरण भी है, जब परिवार के सदस्य आपस में बातचीत करें तो उनका आधार क्या हो, उनके बीच बातचीत कैसी हो, किस विषय पर बात हो। राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में ऐसी ही बात कर रहे हैं। राम, सीता और लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, गुण और वैराग्य का महत्व समझा रहे हैं। ऐसे माहौल में परिवार स्वत: परमात्मामय हो जाएगा। आपको कभी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करना होंगे।

बरबादी से बचना है तो ये एक बात हमेशा याद रखें
अब भगवान और उद्धव का वार्तालाप ग्यारहवें स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहा है। मनुष्य शरीर का महत्व और उद्देश्य बताते हुए भगवान प्रश्नों के उत्तरों का सिलसिला आरंभ करते हैं।भगवान कहते हैं- उद्धवजी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं।
ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बंधता नहीं।इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दुशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है।इसलिए आज के जमाने में आप अपने संग को लेकर बहुत सावधान रहें। हम अपने पहनावे, खानपान को लेकर तो विचार करते हैं, पर हम किन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। जो लोग हमारे जीवन में हैं उनके आचरण का सीधा असर हम पर पड़ेगा ही। इसलिए अपने संग के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें।
आज प्रबंधन के युग में चौबीस घण्टे हमें अच्छे और बुरे लोगों से मिलना पड़ता है। कई लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए हमसे संबंध बना लेते हैं। हो सकता है हम भी अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे संपर्क रखते हों। लेकिन भागवत का भक्त इस बात के लिए सचेत रहे कि व्यावहारिक और सांसारिक संपर्कों से कहीं कुसंग न हो जाए। यहां आकर भगवान उद्धवजी को एक दृष्टांत सुनाते हैं। राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गए थे। कुसंग मोह पैदा करता है और आदमी का पतन हो जाता है।

इस मामले में विवेक से काम न लिया तो बचना है मुश्किल क्योंकि....
उद्धवजी! पहले तो सम्राट पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था। बाद में शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियां न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।पुरूरवा ने बाद में पश्चाताप के साथ कहा मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया। मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूं।
वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके।काम हमारे मन को ढंक लेता है। शरीर को वश में कर लेता है।
इसीलिए कहा जाता है कि काम का बाण सीधे हमारे मन को बेधता है। वह सीधे मन में उतरता है और मन को वश में करके, उससे शरीर पर शासन करता है। हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है कि हम मन के मत से चलते हैं। मन हमारी सवारी करता है, वो जिधर ले जाता है उधर ही हम चल पड़ते हैं। मन को समझाना, साधना बहुत मुश्किल हो जाता है। मन से सीधे वो बुद्धि पर प्रहार करता है। मन काम के वश में हो जाए तो फिर बुद्धि को वश में करना कोई बड़ी बात नहीं है।
इसीलिए कहा गया है कि कई बारबुद्धिमान, ज्ञानी, तत्वज्ञानी लोग भी काम के जाल में ऐसे उलझ जाते हैं कि अच्छे बुरे के सारे भेद की समझ ही मिट जाती है। सो, काम से बचने का एक ही तरीका है, वह है ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन हमें मन के प्रभाव से बचाता है। हम मन के अधीन नहीं होते, मन हमारे अधीन हो जाता है। जब मन सध जाए तो बुद्धि कभी पराभाव में नहीं जाएगी। मन को नहीं साधा तो काम का बाण लगना तय है। इस बाण से कोई नहीं बच सकता।
इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है।

बुधवार, 21 मार्च 2012

राजा बने थे भगवान श्रीराम और युधिष्ठिर!

हिन्दू नव वर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार पितामह ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया था इसीलिए यह सृष्टि का प्रथम दिन है। इस बार हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ 23 मार्च, शुक्रवार से हो रहा है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा हमारे लिये क्यों महत्वपूर्ण है, इसके सामाजिक एवं ऐतिहासिक सन्दर्भ इस प्रकार हैं-

1- इसी तिथि को रेवती नक्षत्र में विष्कुम्भ योग में दिन के समय भगवान के आदि अवतार मत्स्य रूप का प्रादुर्भाव माना जाता है।

2- युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारम्भ भी इसी तिथि को हुआ था।

3- मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी तिथि को हुआ था।

4- माँ दुर्गा की उपासना का पर्व नवरात्र भी इसी तिथि को प्रारंभ होते हैं।

5- युगाब्द (युधिष्ठिर संवत) का आरम्भ इसी तिथि को माना जाता है।

6- उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) के सम्राट विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् का प्रारम्भ भी इसी तिथि को किया गया था।

7- महर्षि दयानंद द्वारा आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी।

कलियुग में कहां हैं श्री हनुमान?

श्री हनुमान बल, पराक्रम, ऊर्जा, बुद्धि, सेवा, भक्ति के आदर्श देवता माने जाते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में श्री हनुमान को सकलगुणनिधान भी कहा गया है। श्री हनुमान को चिरंजीव सरल शब्दों में कहें तो अमर माना जाता है।
हनुमान उपासना के महापाठ श्री हनुमान चालीसा में गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि - 'चारो जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा।'
इस चौपाई से साफ संकेत है कि श्री हनुमान ऐसे देवता है, जो हर युग में किसी न किसी रूप, शक्ति और गुणों के साथ जगत के लिए संकटमोचक बनकर मौजूद रहे। श्री हनुमान से जुड़ी यही विलक्षण और अद्भुत बात उनके प्रति आस्था और श्रद्धा गहरी करती है। इसलिए यहां जानिए, श्री हनुमान किस युग में किस तरह जगत के लिए शोकनाशक बनें और खासतौर पर कलियुग यानी आज के दौर में श्री हनुमान कहां बसते हैं -
सतयुग - श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं। शिव का दु:खों को दूर करने वाला रूप ही रुद्र है। इस तरह कहा जा सकता है कि सतयुग में हनुमान का शिव रुप ही जगत के लिए कल्याणकारी और संकटनाशक रहा।

त्रेतायुग - इस युग में श्री हनुमान को भक्ति, सेवा और समर्पण का आदर्श माना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक विष्णु अवतार श्री राम और रुद्र अवतार श्री हनुमान यानी पालन और संहार शक्तियों के मिलन से जगत की बुरी और दुष्ट शक्तियों का अंत हुआ।
द्वापर युग - इस युग में श्री हनुमान नर और नारायण रूप भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ धर्मयुद्ध में रथ की ध्वजा में उपस्थित रहे। यह प्रतीकात्मक रूप में संकेत है कि श्री हनुमान इस युग में भी धर्म की रक्षा के लिए मौजूद रहे।
कलियुग - पौराणिक मान्यतओं में कलियुग में श्री हनुमान का निवास गन्धमानदन पर्वत पर है। यही नहीं माना जाता है कि कलियुग में श्री हनुमान जहां-जहां अपने इष्ट श्रीराम का ध्यान और स्मरण होता है, वहां अदृश्य रूप में उपस्थित रहते हैं। शास्त्रों में उनके गुणों की स्तुति में लिखा भी गया है कि - 'यत्र-यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र-तत्र कृत मस्तकांजलिं।'
इस तरह श्री हनुमान का स्मरण हर युग में अलग-अलग रूप और शक्तियों के साथ संकटमोचक देवता के रूप में जगत को विपत्तियों से उबारते रहे हैं।