मंगलवार, 28 जून 2011

खाने के पहले रोटी का एक टूकड़ा अलग क्यों निकालना चाहिए?

हमारे यहां भोजन से पहले भोजन मंत्र बोलने के बाद आचमन किया जाता है। उसके बाद हमारे शास्त्रों के अनुसार अपने भोजन से ग्रास के रूप में अलग किया जाता है। इस निवाले को गाय को ही खिलाया जाता है। पहले निवाले को गौ-ग्रास कहा जाता है।
दरअसल माना जाता है की पहला निवाला अलग निकालकर गाय को देने से पितृदोष कम होता है साथ ही इसे गौसेवा को धर्म के साथ ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं।
इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। साथ ही पहली ज्योतिषीय मान्यता है कि ऐसा करने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है।

क्या आप जानते हैं-

इंसान का सबसे बड़ा शिक्षक कौन है?
दुखों की पाठशाला में पढ़ा-लिखा और पका व्यक्ति अनायास ही सर्वश्रेष्ठ बन जाता है। मनुष्य जितना सुविधाओं और सुख-साधनों में रहकर नहीं सीखता उससे अधिक कठिनाइयां और अभाव ही उसे तराशती और मांजती और सुयोग्य बनाती हैं। इस बात को और भी आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं महाभारत की एक रोचक घटना की ओर...
द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति बने। पहले दिन का युद्ध वे बड़े कोशल के साथ लड़े, फिर भी उस दिन की विजय अर्जुन के हाथ ही लगी। यह देखकर दुर्योधन बड़ा निराश हुआ। हताशा और क्रोध से भरी मन:स्थिति के साथ वह गुरु द्रोण के पास गया और बोला - गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य है, आप तो उसे एक क्षण में परास्त कर सकते हैं। फिर ऐसा कैसे हुआ? द्रोणाचार्य गंभीर मुद्रा में बोले- तुम ठीक कहते हो पर एक तथ्य नहीं जानते। अर्जुन मेरा शिष्य अवश्य है, पर उसका सारा जीवन कठिनाइयों से सघंर्षो में, वनवास में, अज्ञातवास में बीता है। मैनें राजसी सुख में जीवन बिताया है। कुधान्य खाया है। विपत्ति ने ही उसे मुझसे भी अधिक योग्य बना दिया है।
सबक यह कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों या मुसीबतों को तप या व्यायाम समझकर सदा हंसकर सामना करना चाहिये। ऐसा करने से व्यक्ति बेहद शक्तिशाली और अजैय यौद्धा बन जाता है। सुख नहीं दु:ख ही हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है।

भागवत ३००

यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है....
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।
भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।
हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर।।
कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।

जब बारात विदा हुई तो...

राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह व ऐश्वर्य की हर तरह से सराहना करते हैं। प्रतिदिन उठकर दशरथजी विदा मांगते हैं। जनकजी उन्हें प्रेम से उनसे रूकने के लिए कहते हैं और उन्हें जाने नहीं देते हैं। इस तरह बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती प्रेम की डोरी से बंध से गए। तब विश्वामित्रजी और शतानंदजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा- आप स्नेह नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। तब जनकीजी ने कहा राजा दशरथ अब जाना चाहते हैं।भीतर यह खबर दो। जनकपुरी के लोगों ने सुना कि बारात जाएगी। तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से पूछने लगे। जनकपुरी के सभी लोग उदास हो गए। आते समय जहां-जहां बाराती ठहरे थे। वहां बहुत प्रकार का रसोई का समान भेजा गया। दस हजार हाथी, भैस, गाय, एक लाख घोड़े आदि कई चीजे जनकजी ने असिमित मात्रा में दहेज में दी। इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी भेज दिया। बारात अब विदा होगी यह सुनकर सभी रानियां दुखी हो गई।
वे सीताजी को गले से लगाकर समझाने लगी सास, ससुर की सेवा करना। पति का रूख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। आदर के साथ सभी पुत्रियों को समझाकर रानियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। उसी समय रामजी व उनके सारे भाई विदा करवाने के लिए जनकजी के महल पहुंचे। रानियों ने सीताजी को रामचंद्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा सीता हमें प्राणों से ज्यादा प्रिय है आप इनका ध्यान रखिएगा। राजा ने शुभ मुर्हूत निकलवाकर कन्याओं को पालकी में बैठाया।

क्यों रखा गया सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर?

संघर्ष जीवन को थकाता ही नहीं है, बल्कि सुंदर भी बनाता है। जो लोग सफलता अर्जित करना चाहते हों वे अपनी सफलता को सौंदर्य से जरूर जोड़ें। जीवन की सुंदरता का अर्थ है सफलता के साथ शांति। यदि आनंद नहीं है और भरपूर सफलता है तो जीवन असुंदर ही माना जाएगा।
हनुमानजी की सफलता के लिए सुंदरकाण्ड को याद किया जाता है। रामचरितमानस के इस पाँचवें सौपान को लेकर लोग चर्चा करते हैं कि इसका नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया। जबकि मानस के अन्य काण्ड का नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखे गए हैं।
बाललीला का बालकाण्ड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्या काण्ड, जंगल के जीवन का अरण्य काण्ड, किष्किंधा राज्य के कारण किष्किंधा काण्ड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका काण्ड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकाण्ड में दिया गया है।
फिर अचानक सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर क्यों रखा गया? दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे - पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत जहां अशोक वाटिका निर्मित थी और यहीं हनुमानजी और सीताजी के मिलन की प्रमुख घटना घटी थी इसलिए इसका नाम सुंदरकाण्ड है।
चूंकि यहां की घटनाओं में हनुमानजी ने एक विशेष शैली अपनाई थी। वे अपने योग्य प्रबंधक शिष्यों को योगी प्रबंधक बनाते हैं, जिसकी आज जरूरत है। सुंदरकाण्ड में इन्हीं बातों के इशारे हैं। सुंदरकाण्ड पढ़कर उनके भक्त जान जाते हैं कि जगत का वैभव और जगदीश का ऐश्वर्य एक साथ कैसे प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से हमें भी अपनी सफलता की यात्रा को जब भी जरूरत पड़े और अवसर मिले सुंदरकाण्ड से गुजारते रहना चाहिए।

घर में नंगे पैर ही रहें,

आजकल अधिकांश लोग घर में स्लीपर्स या चप्पल-जूते पहनकर ही घूमते हैं। प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों और विद्वानों द्वारा घर में चरण पादुकाएं अर्थात् जूते-चप्पल नहीं पहनने की बात कही गई है।घर में जूते-चप्पल नहीं पहनना चाहिए इसकी वजह यह है कि जब हम कहीं बाहर से घर आते हैं तब जूते-चप्पल के साथ गंदगी में आती है।
ऐसे में यदि हम वही जूते-चप्पल घर में लेकर जाते हैं तो वह गंदगी घर में फैलती है। जो कि परिवार के सदस्यों के लिए भी स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक होती है। इस गंदगी में कई प्रकार के बीमारियां फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं। इस वजह से भी घर में जूते-चप्पल पहनना उचित नहीं है।
साथ ही इस बात के पीछे धार्मिक कारण भी है। घर में ही देवी-देवताओं का स्थान भी होता है। जहां हम रहते हैं वहां सभी दैवीय शक्तियां भी निवास करती हैं। ऐसे में यदि हम जूते-चप्पल या स्लीपर्स पहनकर घर में घुमते हैं तो भगवान का भी अपमान होता है।
वैसे तो आजकल सभी अपने-अपने घरों में परमात्मा के लिए अलग कक्ष बनवाते हैं फिर भी घर में कई स्थानों पर भगवान से संबंधित वस्तुएं रखी रहती है जो कि ईश्वर का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। उनके सामने चरण पादुका यानि जूते-चप्पल पहनकर जाना निश्चित ही अनुचित है। घर में नंगे पैर ही रहना चाहिए इससे घर की पवित्रता बनी रहती है और ऐसे परिवार में देवी-देवता भी स्थाई रूप से निवास करते हैं।
भगवान की कृपा से उस घर में किसी भी प्रकार धन, सुख-समृद्धि की कोई कमी नहीं रहती। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि घर में नंगे पैर रहने से प्रेशर पांइट्स दबते हैं जिससे कई तरह के रोग दूर रहते हैं। इन कारणों से घर में जूते-चप्पल नहीं पहनना चाहिए और नंगे पैर ही रहना चाहिए।www.bhjaskar.com

मौत से हमें डर क्यों लगता है?

जीवन को जी लेने के बाद मन में गहरी शांति का अहसास होना चाहिये। जबकि ऐसा होता नहीं है जैसे-जैसे जीवन बीतता जाता है और मौत करीब आती जाती है इंसान के मन में मौत का भय गहराता जाता है। जैसे-जैसे हमारी उम्र बीतती है जीवन का मृत्यु से साक्षात्कार होता जाता है। ऐसे में मृत्यु ये भय कैसा? मृत्यु और जीवन का साथ तो दिन और रात की तरह ही है। सदैव दोनों का अस्तित्व है, लेकिन दोनों एक साथ दिखाई नहीं देते। इस कारण हमें केवल जीवन का ही अहसास रहता है।
जीवित रहते हुए हम जिन स्वजनों को शरीर त्यागते हुए देखते हैं, उसे मृत्यु का अन्तिम सत्य मानकर, हम मृत्यु ये घबरा जाते हैं। जबकि सच तो यही है कि प्रत्येक क्षण हम जो जीवन जी रहे हैं, अगले ही क्षण, पिछले क्षण को सदा-सदा के लिये समाप्त कर(गंवा)चुके होते हैं। समाप्त ही तो मृत्य का अन्तिम सत्य है। इसलिये प्रतिक्षण समाप्त और प्रारम्भ दोनों क्रियाएं साथ-साथ चल रही हैं। हमें केवल जीवन दिखता है। मृत्यु को हम देखना नहीं चाहते। देख सकते हैं, बशर्ते कि प्रत्येक क्षण को सकारात्मक एवं संजीदगी से जी सकें। जब सबकुछ सजगता से जी लिया जाये तो पछतावा किस बात का? सारी तकलीफ तो इच्छानुसार नहीं जी पाने की विवशता में ही छिपी है।
जिसके लिये समाज की सीमाएं एवं कभी न समाप्त होने वाली भौतिक इच्छाएं जिम्मेदार हंै। इन दोनों में हम ऐसे बंधे रहते हैं कि हर क्षण जीने के बजाय केवल मरते ही रहते हैं। पूर्णता से नहीं जी पाने के कारण मृत्यु के भय से भयभीत रहकर न तो वर्तमान को जी पाते हैं और न ही भविष्य को संवार पाते हैं। ऐसे में जीवन और मृत्यु के बीच कम्पन या भयभीत होना स्वाभाविक है।
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मंदिर जाएं तो इन सात बातों को याद रखें क्योंकि...

मंदिर जाकर हर व्यक्ति मानसिक शांति महसूस करता है। इसीलिए लोग सुबह और शाम दोनों समय मंदिर जाते हैं। लेकिन मंदिर के दर्शन के समय के भी कुछ नियम हमारे धर्मशास्त्रों में बताए गए हैं। जिनका पालन मंदिर में दर्शन करते समय अनिवार्य माना गया है। माना जाता है कि इन नियमों का पालन करते हुए यदि दर्शन ना किए जाए तो दर्शन का पूरा फल नहीं मिलता है।
-शरीर पर धारण की हुई चमड़े की वस्तुएं उतार दें ।
- मंदिर के प्रांगणमें जूते-चप्पल पहनकर न जाएं उन्हें मंदिर के बाहर ही उतारें। मंदिर के प्रांगण अथवा देवालय के बाहर जूते-चप्पल उतारने ही पड़े, तो देवता की दाहिनी ओर उतारें।
- मंदिर में व्यवस्था हो, तो पैर धो लें।
- हाथमें जल लेकर अपवित्र: पवित्रो:, ऐसा तीन बार बोलते हुए अपने संपूर्ण शरीरपर तीन बार जल छिडकें ।
- मंदिर में जाएं तो सिर जरूर ढकें। दर्शन के लिए जाते समय पुरुष भक्तजनोंको टोपी तथा स्त्रीभक्तोंको पल्लूसे अपने सिरको ढकना चाहिए ।
- मंदिर के प्रवेशद्वार व गरुडध्वजको नमस्कार करें।
-भगवान के दर्शन हमेशा बैठकर करें।

काले घने बालों के लिए अचूक है यह देशी फंडा

बाजार में उपलब्ध मंहगे कंडीशनर का प्रयोग करके भी यदि विशेष फायदा न हुआ हो तो आप नीचे दी जा रही विधि का प्रयोग करके घर बैठे ही 100 फीसदी कारगर और सीघ्र असर दिखाने वाला कंडीशनर बना सकते हैं। अधिकांश लोग हैं जो अपने बालों की खूबसूरती और मजबूती के लिये कंडीशनर का प्रयोग करना चाहते हैं परंतु इसकी आसान विधि नहीं जानते।
यहां दी जा रही है डीप कंडीशनर की एक बेहद आसान विधि जिसे कोई भी आसानी से घर बैठे कर सकता है। आप आयुर्वेदिक डीप कंडीशनर का प्रयोग 20 दिन में एक बार करें। आप इस कंडीशनर को स्वयं घर पर झटपट बना सकते हैं तथा 20 मिनट में बालों की डीप कंडीशनिंग कर सकते हैं।
बनाने और लगाने की आसान विधि-
आधा कटोरी हरी मेहंदी पावडर लेकर इसमें गर्म दूध (गाय का) डालकर पतला लेप बना लें। इसी लेप में एक बड़ा चम्मच आयुर्वेदिक हेयर ऑइल डालें। इसे अच्छी तरह से मिला लें। जब यह लेप ठंडा हो जाए तब बालों की जड़ों में लगाएं। 20 मिनट छोड़कर आयुर्वेदिक शैंपू पानी में घोलकर बालों को धो लें। इस डीप कंडीशनर द्वारा आपके बालों को पोषण तो मिलेगा ही साथ ही उनमे बाउंस (लोच) भी आ जाएगा।

सोमवार, 27 जून 2011

रात 12 बजे कभी न दें जन्मदिन की बधाई

जिस दिन कोई व्यक्ति जन्म लेता है वह उसके लिए बहुत विशेष दिन होता है। इसीलिए हर व्यक्ति को अपने जन्मदिन को लेकर मन में एक विशेष उत्साह रहता है। इसीलिए इस दिन को लोग सेलीब्रेट करते हैं। जन्मदिन के दिन किसी भी व्यक्ति को बधाई देने पर उसे लगता है कि बधाई देने वाले का उससे आत्मीय जुड़ाव है।
इसीलिए आजकल दोस्त हो या रिश्तेदार किसी भी करीबी का जन्मदिन होने पर उसे सबसे पहले बधाई देने के लिए वर्तमान में रात को 12 बजे बधाई देने का चलन है। विशेषकर युवाओं में यह चलन बहुत अधिक बढ़ गया है। लेकिन यदि हमारी संस्कृति या धर्मशास्त्रों के नजरिए से समझे तो यह सही नहीं है। दरअसल रात्रि के 12 बजे वातावरण में रज-तम कणों की मात्रा अधिक होती है, इस समय तामसिक या नकारात्मक शक्तियां अधिक प्रभावी रहती हैं।
इसीलिए उस समय दी गई शुभकामनाएं फलदायी नहीं होती हैं। हिंदू संस्कृति के अनुसार दिन सूर्योदय से आरंभ होता है और दूसरे दिन सूर्योदय पर खत्म होता है । मान्यता है कि सुबह का समय ऋषि-मुनियों की साधना का समय है, इसलिए वातावरण में सात्त्विकता अधिक होती है और सूर्योदय के पश्चात् दी गई शुभकामनाएं फलदायी सिद्ध होती हैं। इसीलिए जन्मदिन की बधाई सुबह ही देनी चाहिए।

क्या हाजमा ठीक नहीं रहता? ये रहे बेहद सरल नुस्खे

आयुर्वेद में इंसानी शरीर व मन से जुड़ी अधिकांस बीमारियों का प्रामाणिक व शर्तिया उपाया बताया जाता है। आइये देखते हैं ऐसे ही कुछ आयुर्वेदिक और घरेलू नुस्खे जो आपके पाचन तंत्र को सदा दुरुस्त रखने में बेहद मददगार होते हैं..
1. भोजन के एक घंटा पहले पंचसकार चूर्ण को एक चम्मच गरम पानी के साथ लेने से भूख खुलकर लगती है।
2. रात में सोते समय आँवला 3 भाग, हरड़ 2 भाग तथा बहेड़ा 1 भाग-को बारीक चूर्ण करके एक चम्मच गुनगुने पानी के लेने
से सुबह दस्त साफ आता है एवं भूख खुलकर लगती है।
3. भोजन में पतले एवं हलके व्यंजनों का प्रयोग करने से खाया हुआ जल्दी पच जाता है, जिससे जल्दी ही भूख लग जाती है।
4. खाना खाने के बाद अजवायन का चूर्ण थोड़े से गुड़ के साथ खाकर गुनगुना पानी पीने से खाया हुआ पचेगा, भूख लगेगी और खाने में रुचि पैदा होगी।
5. भोजन के बाद हिंग्वष्टक चूर्ण एक चम्मच खाने से पाचन-क्रिया ठीक होगी।
6. हरे धनिए में हरी मिर्च, टमाटर, अदरक, हरा पुदीना, जीरा, हींग, नमक, काला नमक डालकर सिलबट्टे पर पीसकर बनाई चटनी खाने से भोजन की इच्छा फि र से उत्पन्न होती है।
7. भोजन करने के बाद थोड़ा सा अनारदाना या उसके बीज के चूर्ण में काला नमक एवं थोड़ी सी मिश्री पीसकर मिलाने के बाद पानी के साथ एक चम्मच खाने से भूख बढ़ती है।
8. एक गिलास छाछ में काला नमक, सादा नमक, पिसा जीरा मिलाकर पीने से पाचन-क्रिया तेज होकर आरोचकता दूर होती है।
9. भोजन के बाद 5-10 मिनिट घूमना पाचन में सहायक होता है।
10. भोजन करने के बाद वज्रासन में कुछ देर बैठना भी बेहद लाभदायक होता है।

लङ़कियां शादी के लिए क्यों करती हैं गुरुवार का व्रत?

कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। ऐसे में शीघ्र विवाह के लिए गुरु के उपाय करने को कहा जाता है।
ज्योतिष के अनुसार गृहस्थ जीवन को गुरु प्रभावित करता है। पारिवारिक शांति और सुखमय गृहस्थ जीवन के लिए बृहस्पति यानी गुरु से संबंधित उपाय किए जाते है तो निश्चित ही घर में सुख शांति बनी रहती है। दरअसल गुरु को विवाह का कारक गृह माना जाता है। जब किसी की कुंडली में गुरु अशुभ होता है तो उसकी कुंडली में विवाह विलंब योग बनता है।गुरु को जन्मकुंडली के सप्तम भाव का कारक माना जाता है।
कुंडली का यह भाव पति या पत्नी का माना गया है। इसलिए मंगल होने पर भी मंगल के उपाय के साथ ही ज्योतिषों द्वारा गुरुवार का व्रत रखने की ओर गुरु से जुड़े उपाय करने की सलाह दी जाती है ताकि जन्मकुंडली के दोष का निवारण हो और विवाह योग्य लड़के या लड़की का शीघ्र विवाह हो जाए।

मृत व्यक्ति के मुंह मे जरूर डालना चाहिए तुलसी के पत्ते क्योंकि....


हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृतक का दाह संस्कार किया जाता है अर्थात मृत देह अग्नि को समर्पित किया जाता है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया भी की जाती है। लेकिन दाह संस्कार के पूर्व भी हमारे यहां मृत्यु से जुड़े अनेक रिवाज है। जिन्हें अनिवार्य माना गया है। ऐसा ही एक रिवाज है। मृत व्यक्ति के मुंह में तुलसी के पत्ते डालने का? मृतक का सिर दक्षिण में रखा जाता है तथा पैर उत्तर दिशा में रखे जाते हैं।
इस प्रकार लिटाएं जाने के बाद मृतक के मुख में गंगाजल और तुलसीदल डाला जाता है। तुलसीदल के गुच्छे से मृत व्यक्ति के कानों और नासिकाओं को बंद कर दिया जाता है। गरूड़पुराण के अनुसार ऐसा करने से मृत आत्मा को शीघ्र ही मोक्ष मिलता है। मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए जीव की सूक्ष्म देह परिजनो के आस-पास ही घूमती रहती है।
मान्यता है कि जीवात्मा बारह दिन के लिए अंगुष्ठ के आकार की होती है और बारह दिन के पिंडदान करने से जीवात्मा को मोक्ष मिलता है। कहते हैं उससे प्रक्षेपित रज-तम तरंगें इस विधि को करने से परिजनों तक नहीं पहुंचती। इससे जीवात्मा की तरफ सकारात्मक तरंगें आकर्षित होती है वउन्हें शीघ्र ही मुक्ति मिलती है।
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हर पति का है ये कर्तव्य....

अगस्त्य मुनि ने राजा से अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं। अगस्त्य मुनि ने कहा-
मैं तुम्हारे सदाचार से बहुत खुश हूं। इसलिए तुम्हारे बारे में जो मैं सोचता हूं वह सुनो तुम्हे सहस्त्र पुत्रों के समान सौ पुत्र हो या सौ के समान दस पुत्र हो? या सौ को परास्त कर देने वाला एक ही पुत्र हो तुम क्या चाहती हो?
तब लोपामुद्रा ने कहा- मुझे तो सौ को पराजित करने वाला एक ही पुत्र चाहिए। उसके बाद लोपामुद्रा का गर्भ ठहरा। दोनों फिर वन में रहने लगे। लगभग सात साल गर्भ से रहने के बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उनके पुत्र के जन्म के बाद उनके पूर्वजों को मोक्ष मिला। यह स्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस आश्रम के ही पास भागीरथी नदी है। भगवान राम ने जब परशुरामजी को तेज विहीन कर दिया था। तब उन्होंने इसी तीर्थ में स्नान करके फिर से तेज प्राप्त किया था।

भागवत २९९

अगर उसे पाना है तो ये जरूरी है....
भगवान् श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर अपने पूर्वजीवन की उन आनन्ददायक घटनाओं का स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुल में रहते समय घटित हुई थीं।भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वान यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।
भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।
हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर।निष्काम पुरुषों को परमधाम देने वाले पदों का भजन करते हैं। निष्काम कर्म करने वाले परमधाम पाते हैं, यह स्पष्ट होता है।
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हर काम में सफलता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है यह बात

दृढ़ निश्चय कार्य की सफलता के लिए जरूरी है। इस निश्चय में निश्चलता और जोड़ देना चाहिए। यानी हम कार्य को पूरा करने के लिए जितने अनुशासित रहेंगे उतने ही विनम्र भी होंगे। निश्चय मतलब अपने ही प्रति अनुशासन हेतु कठोर होना और निश्चल यानी दूसरों के मामले में कुटिल भावना न रखना।
अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों का अपने ही द्वारा पालन करना कोई आसान काम नहीं है। बड़े-बड़े इसमें चूक जाते हैं। अपने अनुशासन का पालन करने के लिए हमें सतत् स्वयं के गुण-दोषों की पहचान और आंकलन करना होगी। इसके लिए एक सरल तरीका है सत्संग करते रहना।
सत्संग में या तो हम किसी महापुरुष को सुन रहे होते हैं, देख रहे होते हैं और उन्हीं के द्वारा पहले बीत गए कुछ अवतारों, फकीरों की जीवनी सुन रहे होते हैं। जीवन का जो भी श्रेष्ठ होता है वह सत्संग में उस समय उतर रहा होता है। लिहाजा कोई चूक न हो जाए इसलिए आत्म अनुशासन काम आता है।
अपने व्यक्तित्व में दृढ़ता लाने के लिए सत्संग के माध्यम से महान हस्तियों की जीवन शैली को ऐसे सुना जाए जैसे पहले उन लोगों ने जीवन जिया है। चाहे राम हों या कृष्ण, जीसस हों या महावीर, बुद्ध हों। इन सबका जीवन बिल्कुल ऐसा था जैसे बांसुरी। बंसी अपनी आकृति और कृति से एक बड़ा सुंदर संदेश देती है। उसके अपने पेट में कुछ नहीं होता।
जैसी फूंक मारी गई और उंगलियां चलाई गई वह मधुर संगीत संसार में फेंक देती है। इसी प्रकार हम सब परमात्मा की अंधरों की बंसी बन जाएं। स्वर हमारा होगा, क्रिया उसकी होगी। यही आत्म अनुशासन का एक स्वरूप है। इस अनुभूति में हम दृढ़ भी होंगे और निश्चल भी।www.bhaskar.com

इंसान का सबसे बड़ा शिक्षक कौन है?

दुखों की पाठशाला में पढ़ा-लिखा और पका व्यक्ति अनायास ही सर्वश्रेष्ठ बन जाता है। मनुष्य जितना सुविधाओं और सुख-साधनों में रहकर नहीं सीखता उससे अधिक कठिनाइयां और अभाव ही उसे तराशती और मांजती और सुयोग्य बनाती हैं। इस बात को और भी आसानी से समझने के लिये आइये चलते हैं महाभारत की एक रोचक घटना की ओर...

द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति बने। पहले दिन का युद्ध वे बड़े कोशल के साथ लड़े, फिर भी उस दिन की विजय अर्जुन के हाथ ही लगी। यह देखकर दुर्योधन बड़ा निराश हुआ। हताशा और क्रोध से भरी मन:स्थिति के साथ वह गुरु द्रोण के पास गया और बोला - गुरुदेव! अर्जुन तो आपका शिष्य है, आप तो उसे एक क्षण में परास्त कर सकते हैं। फिर ऐसा कैसे हुआ? द्रोणाचार्य गंभीर मुद्रा में बोले- तुम ठीक कहते हो पर एक तथ्य नहीं जानते। अर्जुन मेरा शिष्य अवश्य है, पर उसका सारा जीवन कठिनाइयों से सघंर्षो में, वनवास में, अज्ञातवास में बीता है। मैनें राजसी सुख में जीवन बिताया है। कुधान्य खाया है। विपत्ति ने ही उसे मुझसे भी अधिक योग्य बना दिया है।

सबक यह कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों या मुसीबतों को तप या व्यायाम समझकर सदा हंसकर सामना करना चाहिये। ऐसा करने से व्यक्ति बेहद शक्तिशाली और अजैय यौद्धा बन जाता है। सुख नहीं दु:ख ही हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है।
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रविवार, 26 जून 2011

हथिनी का प्यार

रामू धोबी के पास एक बड़ा ही सुंदर गधा था, जिसका नाम ही उसने सुंदर रख दिया था। दिभर वह उससे खूब काम लेता था, शाम को खुला छोड़ देता ताकि वह जंगल में तथा खेतों में जाकर हरी-हरी घास खाकर अपना पेट भर सके।
ईश्वर ने कुछ ऐसे भी जानवर बनाए हैं, जो मालिक के सबसे अधिक वफादार होते हैं। मालिक का दिन-रात काम करते हैं परंतु उससे खाना तक नहीं मांगते, उनमें सबसे प्रमुख इस गधे का ही नाम आता है। सुंदर गधा शाम के समय अपनी आज़ादी से खाता-पीता, घूमता। वह बेचारा इस क्षेत्र में अकेला ही था, कोई संगी-साथी भी नहीं था, जिससे बात कर लेता। कभी-कभी उसके मन से आवाज़ उठती- ‘काश! अपना भी कोई दोस्त होता।’
लेकिन ऐसा भाग्य हर किसी का नहीं होता कि उसकी दिल की भावनाएं पूरी हो सकें, फिर भी आशा के सहारे प्राणी जीवित रहते हैं। यही हाल इस गधे का था। उसे आशा थी कि कभी न कभी तो उसका कोई दोस्त आएगा, जिसके साथ बैठकर वो अपने मन की बातें कर सकेगा।

अचानक एक दिन जंगल सोए गीदड़ निकलकर इन खेतों की ओर चला आया। उसने सामने ही एक गधे को घास चरते देखा, तो में बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि वह भी अकेला घूमते-घूमते तंग आ गया था। उसे भी एक दोस्त की तलाश थी। गधे के बारे में उसे यह तो पता था कि इससे सच्च दोस्त और कोई नहीं। यह तो एक ऐसा जानवर है, जो असली दरवेश है, इससे मित्रता करके कोई नुकसान होने वाला नहीं है।
गीदड़ ने आगे बढ़कर उस गधे से कहा, ‘हैलो, बड़े भाई..’ गधे ने उसे बड़े ध्यान से देखा और सोच में पड़ गया कि मुझ जैसे बदनसीब को प्रणाम करने वाला कौन हो सकता है। ‘बड़े भइया, क्या सोच रहे हो, क्या हमारे साथ दोस्ती नहीं करोगे?’
‘क्यों नहीं..क्यों नहीं..मैं तो आज बहुत ही खुश हूं कि इस जगह में मुझे राम-राम कहने वाला तो कोई मिला, नहीं अपना तो हाल यह था कि इस घास और खेती से ही हाय-हैलो कर लेते थे।’ गधे की बात सुनकर गीदड़ को हंसी आ गई, उसे हंसता देखकर गधा भी हंसने लगा..बस यहीं से उनकी दोस्ती का आगाज़ हो गया था। दूसरे दिन दोनों दोस्त फिर वहीं मिले तो उस समय गधा घास खा रहा था, गीदड़ ने अपने मित्र को कहा, ‘दोस्त, यह क्या तुम हर रोज़ घास ही खाते रहते हो?’
‘भाई, अपने को पेट ही तो भरना है। यह घास ही तो अपना साथी है।’
‘तुम मेरे दोस्त हो, आज मैं तुम्हें बढ़िया खाना खिलाऊंगा। देखो, कुछ ही दूर एक खेत में बढ़िया खरबूजे हैं, उन खरबूज़ों को खाकर हम दोनों मज़े लेंगे।’
‘खरबूजे..वाह।’ गधे के मुंह में पानी भर आया, कभी एक बार उसके मालिक ने उसे किसी त्योहार पर एक खरबूजा खिलाया था। कितना मज़ेदार था, एकदम स्वादिष्ट। गधा उसी समय अपने दोस्त गीदड़ के साथ खरबूजों के खेत में चला गया, दोनों मित्रों ने बड़े आनंद से खरबूजे खाए। साथ-साथ बातें भी करते रहे।
गधा कुछ ज्यादा ही खुश था, वैसे भी प्राणी की यह आदत है कि वह खुश होकर खूब नाचता है, झूमता है। कभी-कभी गाने भी लग जाता है, यही हाल उस गधे का हुआ। जब उसका पेट अधिक भर गया तो वह भी नाचता हुआ गाना गाने लगा। गीदड़ ने गधे की ढेंचू-ढेंचू की आवाज़ें सुनीं तो उससे बोला, ‘दोस्त, इस तरह शोर मत करो वरना खेत का मालिक आ जाएगा।’ ‘मैं शोर नहीं कर रहा हूं, राग गा रहा हूं। तुम जंगल में रहने वाले राग की खासियत को क्या जानों, गीत तो जीवन का हिस्सा है। जब भी प्राणी का पेट भर जाता है, तो वह नाचता है, गाता है, झूमता है। आज मैं भी बहुत खुश हूं, मेरा मन करता है कि मैं गाता चला जाऊं।’ ‘बस..बस..बड़े भाई, अब इस गाने को यहीं बंद करो, योंकि तुम बेसुरे गीत गा रहे हो। ऐसे गीत सुनकर किसान की नींद खुल जाएगी वह आते ही हम दोनों का बाजा बजा देगा।’
‘गीदड़ तुम वास्तव में बुजदिल हो।’
‘मैं बुजदिल नहीं, मौके को देखकर चलता हूं, किसी ज्ञानी ने कहा है बेवत की रागिनी अच्छी नहीं होती।’
‘अरे भाई, तुम सात स्वर, उनचास ताल, नवरस, छत्तीस राग, चालीस भाव आदि, यह सारे भेद प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। यह संगीत ही संसार में सबसे उत्तम है।’
‘देखो भाई, यदि तुम अपनी ज़िद पर अड़े रहोगे, तो मैं खेत से बाहर किनारे पर खड़ा इसे सुनता रहूंगा। इस गाने के लिए मैं अपने जान को खतरे में नहीं डाल सकता।’ यह कहते हुए गीदड़ उस खेत से बाहर जाकर खड़ा हो गया, परंतु गधा तो अपनी धुन में मस्त था। खरबूजे खाकर उसका पेट भर चुका था तो गाने गाता फिर रहा था। गधे का गाना सुनकर किससी आंखें न खुलें?
खेत के मालिक की आंख भी खुल गई। उसने देखा गधा उसके खेत में घुस आया है और पके हुए खरबूजों को खाकर खेत को भी उजाड़ दिया है। उसने झट से अपनी लाठी उठाई और उस गधे पर लट्ठ बरसाने शुरू किए..गधा बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर भागा, उसके शरीर के कई भागों से खून निकल रहा था। रास्ते में खड़े गीदड़ ने उससे कहा, ‘यों दोस्त, आया गाने का मज़ा..’
‘गाने की बात छोड़ा यार मेरे तो शरीर के सारे तार टूट गए हैं, स्वर मेरे खून में डूब गए हैं।’
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जादू

मैजिक ट्रिकः चांदी का अंडा
सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की कहानी तो आप लोगों ने सुनी ही होगी। इसी से मिलती-जुलती कोई भी काल्पनिक कहानी गढ़कर अपने साथी दर्शकों को खेल दिखाइए अंडे का।
जादू के खेल देखने से ज्यादा मज़ा आता है जादूगर बनने में। आबरा का डाबरा बोला और जादू हो गया। सब हैरान हो रहे हैं और आप दिल ही दिल में खुश। क्योंकि जादू की ट्रिक तो सिर्फ आपको ही पता है न। चलिए, जल्दी से जादूगर की छड़ी हाथ में लीजिए और बन जाइए ट्रिक मास्टर।

आवश्यक सामग्री
एक अंडा, माचिस की डिबिया, मोमबत्ती, पानी से भरा एक गिलास

पूर्व तैयारी
मोमबत्ती की लौ के ऊपर अंडे को इस तरह थामे रहिए कि लौ से उठते धुएं के कारण अंडे पर काले रंग की परत चढ़ जाए। जब पूरा अंडा काला हो जाए, तो कहानी का सिलसिला ठीक बैठाते हुए इसे पानी से भरे गिलास में डुबो दें। साधारण-सा अंडा पानी में डुबकी लगाते ही चांदी जैसा चमकीला दिखाई देने लगेगा। इसका कारण है अंडे पर लौ के धुएं से निकली कार्बन की परत, जो पानी में जाकर चमकने लगती है।

कुछ ऐसा था रामजी की शादी के बाद का दृश्य

सभी दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को देखकर मन ही मन खुश हो रहे हैं। सभी लोग उनकी सुंदरता की सराहना कर रहे हैं। जोडिय़ां कितनी सुंदर लग रही हैं। आपस में वहां उपस्थित लोग ऐसी चर्चा कर रहे हैं। अपने सभी पुत्रों को बहुओं के साथ देखकर दशरथजी बहुत खुश हो रहे हैं। जब सभी राजकुमारों का विधि-विधान से विवाह हो गया। तब पूरा दहेज व मंडप दहेज से भर गया।
बहुत से कंबल, वस्त्र व रेशमी कपड़े दास-दासियां हाथी, घोड़े, अनेक वस्तुएं हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती।दशरथजी ने सारा दहेज याचको को, जो जिसे जो अच्छा लगा उसे दे दिया। जनकजी ने हाथ जोड़कर दशरथजी से कहा आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सभी प्रकार से बड़े हो गए। उन्होंने दशरथजी से कहा आप हमें अपना सेवक ही समझिएगा। इन लड़कियों से कोई भी भूल हो तो इन्हें क्षमा कर दीजिएगा। रामचंद्रजी का सांवला शरीर है वे पीले रंग कि धोती पहनकर व पीली जनेऊं उन पर बहुत सुंदर लग रही है।
उनके हाथ की अंगुठी और ब्याह के सारे साज जो उन पर सजे हैं उनकी शोभा को और बड़ा रहे हैं।उनके ललाट पर तिलक बहुत सुंदर लग रहा है। पार्वतीजी रामजी को लहकौर यानी वर-वधु को एक-दूसरे को ग्रास देना सिखाती हैं व सीताजी को सरस्वतीजी सिखा रही हैं। रानिवास में सभी लोग आनंद में डूबे हुए हैं। उसके बाद वर-वधु को जनवासे ले जाया गया। नगर में हर और आनंद छाया हुआ है। सभी नगरवासी भी यही चाहते हैं कि सभी जोडिय़ा सुखी और चिरंजीवी हों।

शनिवार, 25 जून 2011

भागवत २९८

ऐसी थी कृष्ण सुदामा की दोस्ती
उसने कहा खाली हाथ नहीं जाएंगे तो चिवड़ा रख लिया और आ गए। अब उसने पहली बार देखे राजमहल और द्वारपाल तो उसने सोचा कि राजा है तो पता नहीं अंदर बुलाए या नहीं बुलाए, प्रतीक्षा करनी पड़े लेकिन कृष्ण को दौड़ता हुआ आता देखकर सुदामा को कुछ समझ में नहीं आया और जब तक कि सुदामा की आंख खुलती तब तक भगवान् ने सुदामा को बाहों में भर लिया। सुदामा मूच्र्छि्रत हो गए। जो भगवान् की बाहों में जाता है फिर उसको होश नहीं रहता है। भगवान् ने सुदामा से कहा-अरे मित्र अचानक, कोई खबर नहीं चलिए अन्दर आइए। अन्दर लाए, सुदामा डरते-डरते वैभव देखते आ रहे हैं। राजसभा में ले गए। तब तक तो लोग इक_े हो गए। रानियां आ गईं। सबने सोचा चलो कोई अतिथि आया है और सुदामा से बोलते हैं यहां बैठ जाओ। सुदामा बेचारा क्या जाने क्या है यह बैठ गया, राजगादी थी वह। जिस राजगादी पर कृष्ण बैठते थे उस राजगादी पर सुदामा बैठ गए। रानियों को आश्चर्य हुआ जिस राजगादी के आसपास से हवा को भी निकलने के लिए कृष्ण से इजाजत लेनी पड़ती हो उस पर सुदामा को बैठा दिया भगवान ने। बैठ गया दोस्त। तत्काल रूक्मिणीजी ने सेवादारों को बोला, इस पर यह बैठ गए हैं तो भगवान् कहां बैठेंगे, एक और राजगादी लाओ।
पहरेदार लाए इससे पहले तो भगवान् सुदामा के पैरों में बैठ गए। उसकी जंघाओं पर हाथ रखा। इतने दिन बाद आए हो मित्र। सुदामा कहने लगे नीचे मत बैठो, मैं भी नीचे बैठ जाता हूं। कृष्ण ने कहा-आज तुझे वहीं बैठना है। अब तक तो लोगों को समझ में आ गया। रानियों को लगा कि बालसखा आया है। रानियों से कहा इसके स्वागत की तैयारी करो। मेरा मित्र आया है भोजन के थाल लाओ। उन्होंने कहा-बहुत दूर से चलकर आया है इसके पैर में कांटे लगे हैं, रक्त है।
पहले पाद प्रक्षालन किया जाएगा। भगवान् ने अपने दोस्त के पैर धोए। भगवान् क्यों पैर धो रहे हैं, क्योंकि सुदामा सच्चा ब्राह्मण और बड़ा भक्त था। भगवान् भक्त के चरण प्रक्षालन में कोई भी देर नहीं करते। सुदामा की आंख से आंसू निकल रहे हैं। भगवान् भी रो रहे हैं अब तो पता ही नहीं लग रहा है कौन जल है और कौन आंसू। भगवान् ने अपने मित्र को बड़ा सम्मान दिया। उसके बाद थोड़ा समय बीता तो भगवान् ने कहा नए वस्त्र लेकर आओ हमारे मित्र को पहनाओ, तैयार करो। सुदामाजी को तैयार किया गया। www.bhaskar.com

अपना लें श्री हनुमान की यह खास खूबी, खुल जाएगा भाग्य

श्री हनुमान सर्वगुण और शक्ति संपन्न देवता के रूप में पूजनीय हैं। पवनपुत्र होकर जन्म से ही श्री हनुमान को ऐसी अद्भुत शक्तियां और गुण प्राप्त हुए जो अतुलनीय और अद्भुत थे। श्री हनुमान बल, बुद्धि, ज्ञान, पराक्रम, संयम, पुरुषार्थ, भक्ति, सेवा, प्रेम जैसे अनेक गुण व शक्तियों में अग्रणी और विलक्षण माने जाते हैं।
ऐसे अद्भुत बल और शक्तियों के कारण ही श्री हनुमान चिरंजीवी होकर युग-युगान्तर से भक्तों के हृदय में विश्वास और ऊर्जा का संचार करते रहे हैं। रामायण, महाभारत में आए श्री हनुमान के प्रसंगों में से व्यावहारिक जीवन में सफलता और सौभाग्य पाने का कोई एक सूत्र ढूंढना चाहे तो यहां बताई जा रही श्री हनुमान चरित्र की यह खास बात आपके सभी भ्रम, संशय को दूर कर सीधे सफलता और सुख की राह पर ले जाएगी -
श्री हनुमान का यह खास गुण है कि उन्होनें हमेशा सार्थकता को ही चुना, निरर्थक में समय और शक्ति न गंवाई। यही कारण है श्री हनुमान ने हर काम सही समय पर ही संपन्न नहीं किया, बल्कि शक्ति का इस्तेमाल भी सही वक्त पर किया। जिससे वह हर बार सफल हुए।
हर इंसान को भी श्री हनुमान का यह गुण अपनाते हुए सही कामों में वक्त, मेहनत, बुद्धि और धन का इस्तेमाल करना चाहिए। यही नहीं हष्ट-पुष्ट शरीर और अच्छी सेहत के लिये पवित्रता को अपनाना चाहिए। ऐसा कर आप सफल ही नहीं होगें, बल्कि अपार यश-सम्मान, सौभाग्य के साथ लंबी उम्र को प्राप्त करेंगे।
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मीठे आम के अद्भुत गुणों को जानकर आप भी आश्चर्य में पड़ जाएंगे

बाजोरों में इस समय आम की बहार छाई हुई है। आम सिर्फ स्वाद में ही नम्बर वन नहीं है, यह अनेक गुणों का भी खजाना है। आइये जानते हैं कि आम किन-किन घातक बीमारियों में मिटाने में हमारी मदद कर सकता है 1. शहद के साथ पके आम के सेवन से क्षयरोग एवं प्लीहा के रोगों में लाभ होता है तथा वायु और कफ दोष दूर होते हैं।
2. यूनानी चिकित्सकों के अनुसार, पका आम आलस्य को दूर करता है तथा मूत्र संबंधी रोगों का सफाया करता है।
3. प्राकृतिक रूप से पका हुआ आम क्षयरोग यानी टीबी को मिटाता है, गुर्दे एवं बस्ति (मूत्राशय) खोई हुई शक्तियों को लौटाता है।
4. जिन लोगों को शुक्रप्रमेह शारीरिक विकारों और वातादि यानी वायु संबंधी दोषों के कारण संतानोत्पत्ति न होती हो उनके लिए पका आम किसी वरदान से कम नहीं है। मतलब कि संतान सुख से वंचित दंपत्ती के लिये आम बेहद लाभदायक होता है।
5. प्राकृतिक रूप से पके हुए ताजे आम के सेवन से पुरूषों में शुक्राणुओं की कमी, नपुंसकता, दिमागी कमजोरी आदि रोग दूर होते हैं।
विशेष- पाठकों को लग सकता है कि आम तो हम सभी खाते ही हैं इसमें नई बात क्या है? लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि आयुर्वेद में ऐसे आम के गुणों की बात की गई है जो प्राकृतिक रूप से पका हो, यानी बगैर किसी केमीकल ट्रिटमेंट या रासायनिक प्रयोग से पका हो।

क्यों बनाई गई थी स्वयंवर की परंपरा?

प्राचीनकाल में स्वयंवर की प्रथा थी। उस समय विवाह आज की पद्धति के ठीक विपरीत था यानी लड़कियां अपनी इच्छा अनुसार वर का चुनाव करती थी। ऋगवेद के अनुसार स्त्री को अधिकार है कि वह किसे अपनी भावी संतान का पिता बनाए?
यह कोई छोटा-मोटा अधिकार नहीं है। इस अधिकार को पाकर ही स्त्री पति की आज्ञाकारिणी हो जाती है, नहीं तो विचारों के ना मिलने के कारण गृहस्थी चलना कई बार मुश्किल हो जाता है।
दरअसल वेदों में कहा गया है कि पति-पत्नी प्रेम से ही विवाह के एकता सूत्र को बांधे रख सकते हैं। जिसके लिए गृहस्थ आश्रम बनाया गया है। इसलिए उस समय ऐसी मान्यता थी कि प्रारंभ में ही यदि चुनाव ठीक नहीं हुआ तो जीवन शांति से नहीं चल सकता। इसीलिए विवाह में चुनाव एक जरूरी चीज है। जो वेदों के अनुसार पति को नहीं पत्नी को करना चाहिए।
इसका कारण यह है कि गृहस्थाश्रम का वास्तविक बोझ पत्नी पर ही होता है। उसे सन्तानोत्पति के समय भी कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। इसीलिए जब उस पर इतनी जिम्मेदारी है और उसके लिए उसे पूरे जीवनभर इतना त्याग करना है। इसी सोच के साथ स्वयंवर की प्रथा बनाई गई व लड़कियों को वर के चुनाव का अधिकार दिया गया था।

क्या लहसून-प्याज खाना धर्म के विरूद्ध है?

अक्सर कई संप्रदायों में देखा जाता है कि कई लोग लहसून-प्याज को भोजन में इस्तेमाल नहीं करते। जैन समाज, वैष्णव संप्रदाय इन दोनों तरह के समाजों में यह अधिकतर पाया जाता है।लहसून और प्याज से परहेज किया जाता है। क्यों इसे खाने में उपयोग करने से बचा जाता है? क्यों इन्हें सन्यासियों के भोजन में भी जगह नहीं मिलती?वास्तव में लहसून और प्याज कोई शापित या धर्म के विरुद्ध नहीं है। इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है।
लहसून और प्याज दोनों ही गर्म तासीर के होते हैं।ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।
अध्यात्म में मन को एकाग्र करने के लिए, भक्ति के लिए वासना से दूर होना जरूरी होता है। केवल लहसून प्याज ही नहीं वैष्णव और जैन समाज ऐसी सभी चीजों से परहेज करते हैं जिससे की शरीर या मन में किसी तरह की तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।

कैसे बर्तन में खाना खाने से नहीं आती है गरीबी...

जीने के लिए सबसे जरूरी है खाना। भोजन के संबंध में ज्योतिष और वास्तु शास्त्र में कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। जिससे खाना शरीर को ऊर्जा तो प्रदान करता है साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त कराता है।
वास्तु के अनुसार खाना कैसे बर्तनों में खाना चाहिए? इस संबंध में खास बातें बताई गई हैं। भोजन हमेशा एकदम साफ बर्तनों में ही खाना चाहिए। बर्तन पर किसी भी प्रकार की धूल या गंदगी नहीं होना चाहिए। बर्तन कहीं से टूटे-फूटे न हो। यदि किसी बर्तन में कोई स्क्रेच जैसा निशान हो तो उसे भी खाने के उपयोग में नहीं लेना चाहिए। तांबे के बर्तन से पानी पीना बहुत फायदेमंद होता है। इस पानी से पेट संबंधी कई छोटी-छोटी मौसमी बीमारियां हमेशा दूर ही रहती हैं।
ऐसे बर्तन भी भोजन के उपयोग में नहीं लेना चाहिए जिन पर नकारात्मक दृश्य वाली डिजाइन हो। वास्तु के अनुसार ऐसे बर्तनों में खाना खाने से हमारे विचार नेगेटिव बनते हैं। जिसका हमारे कार्य पर बुरा असर पड़ता है। वहीं ज्योतिष के अनुसार इस प्रकार के बर्तनों में खाना खाने से दरिद्रता बढ़ती है और धन संबंधी परेशानियां झेलनी पड़ सकती है। इसी वजह से एकदम साफ और अच्छे बर्तनों में ही खाना चाहिए।

अगस्त्य मुनि की पत्नी ने रख दी एक अजीब शर्त?

वे ये बात महारानी को बताते हुए बोले महर्षि अगस्त्य हमारी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं वे योग्य हैं यदि मैं उन्हें मना करूंगा तो वे हमें अपनी शाप की अग्रि में भस्म कर देंगे। बताओ इस विषय में तुम्हारा क्या मत है? तब राजा और रानी दोनों को देखकर लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, पिताजी आप मेरा विवाह उनसे कर दीजिए मुझे कोई समस्या नहीं है।
पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने शास्त्र विधि से अगस्त्यजी के साथ उसका विवाह कर दिया। पत्नी मिल जाने पर अगस्त्यजी ने उससे कहा देवि। तुम इन बहुमूल्य वस्त्रों को त्याग दो। तब लोपामुद्रा ने अपने दर्शनीय बहुमूल्य और महीन वस्त्रों को त्याग दिया और पेड़ की छाल व मृगचर्म धारण कर वह अपने पति के समान ही व्रत और नियमों का पालन करने लगी। तदन्तर भगवान अगस्त्य हरिद्वार क्षेत्र में आकर अपनी पत्नी के साथ तपस्या करने लगी। लोपामुद्रा बड़े ही प्रेम से पति की सेवा करती थी।
एक बार जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान से निवृत हुई तो उनका रूप तप के कारण और अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था। जब अगस्त्य मुनि ने समागम के लिए उनका आवाह्न किया तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए अगस्त्य ऋषि से कहा मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों मैं जिस प्रकार के सुंदर वेष-भूषा से मैं सजी रहती थी, वैसे ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषायवस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी।

जानिए प्रार्थना का क्या महत्व है जीवन में...

प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते।
वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा। हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं? हमारा मनपसंद काम नहीं हुआ, अपमान हुआ, तो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं।
यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा। जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है।
अकड़, हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं। ढह जाएंगे एक दिन ये तीनों, पर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था।
प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। तीन चरण बना लें प्रार्थना के, पहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य हों, दूसरा मध्य मेें बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।

कुछ ऐसा था रामजी की शादी के बाद का दृश्य

सभी दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे को देखकर मन ही मन खुश हो रहे हैं। सभी लोग उनकी सुंदरता की सराहना कर रहे हैं। जोडिय़ां कितनी सुंदर लग रही हैं। आपस में वहां उपस्थित लोग ऐसी चर्चा कर रहे हैं। अपने सभी पुत्रों को बहुओं के साथ देखकर दशरथजी बहुत खुश हो रहे हैं। जब सभी राजकुमारों का विधि-विधान से विवाह हो गया। तब पूरा दहेज व मंडप दहेज से भर गया।
बहुत से कंबल, वस्त्र व रेशमी कपड़े दास-दासियां हाथी, घोड़े, अनेक वस्तुएं हैं जिनकी गिनती नहीं की जा सकती।दशरथजी ने सारा दहेज याचको को, जो जिसे जो अच्छा लगा उसे दे दिया। जनकजी ने हाथ जोड़कर दशरथजी से कहा आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सभी प्रकार से बड़े हो गए। उन्होंने दशरथजी से कहा आप हमें अपना सेवक ही समझिएगा। इन लड़कियों से कोई भी भूल हो तो इन्हें क्षमा कर दीजिएगा। रामचंद्रजी का सांवला शरीर है वे पीले रंग कि धोती पहनकर व पीली जनेऊं उन पर बहुत सुंदर लग रही है।
उनके हाथ की अंगुठी और ब्याह के सारे साज जो उन पर सजे हैं उनकी शोभा को और बड़ा रहे हैं।उनके ललाट पर तिलक बहुत सुंदर लग रहा है। पार्वतीजी रामजी को लहकौर यानी वर-वधु को एक-दूसरे को ग्रास देना सिखाती हैं व सीताजी को सरस्वतीजी सिखा रही हैं। रानिवास में सभी लोग आनंद में डूबे हुए हैं। उसके बाद वर-वधु को जनवासे ले जाया गया। नगर में हर और आनंद छाया हुआ है। सभी नगरवासी भी यही चाहते हैं कि सभी जोडिय़ा सुखी और चिरंजीवी हों।

ऐसे चूर-चूर हुआ परशुराम का अभिमान...

लोमेश मुनि की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने भाइयों और द्रोपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करने से उनका तेजस्वी शरीर और ज्यादा तेजस्वी लगने लगा। स्नान के बाद युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा मुनि बताइए कि इस तीर्थ में स्नान से अपना खोया तेज किस तरह प्राप्त हुआ। लोमेश मुनि बोले युधिष्ठिर में आपको परशुरामजी का चरित सुनाता हूं। आप सावधान होकर सुनिए। महाराज दशरथजी के यहां भगवान विष्णु ने ही रावण के वध के लिए रामवतार धारण किया। रामजी ने अपने बचपन में ही बहुत से पराक्रम के काम किए थे। उनके बारे में सुनकर परशुरामजी को बहुत आश्चर्य हुआ। वे अपना क्षत्रियों का संहार करने वाला धनुष लेकर उनके साथ ही अयोध्या आए।

जब राजा दशरथ को उनके आने के बारे में पता चला तो वे रामजी को सबसे आगे रखकर उन्हें राज्य की सीमा पर भेजा। परशुरामजी ने राम जी से कहा मेरा यह धनुष काल के समान कराल है। यदि तुममें बल हो तो इसे चढ़ाओ। तब रामजी ने उनके हाथ से वह धनुष लेकर उसे खेल ही खेल में चढ़ा दिया। फिर मुस्कुराते हुए उससे टंकार किया। इसके बाद परशुरामजी ने कहा लीजिए आपका धनुष तो चढ़ा दिया, अब और क्या सेवा करूं? तब परशुरामजी ने उन्हें एक दिव्य बाण देकर कहा इसे धनुष पर लगाकर तुम्हारे कान तक खींच कर बताओ।

यह सुनकर रामजी समझ गए कि परशुरामजी अभिमानी हैं। रामजी ने उनसे कहा आप ने पितामाह ऋत्वीक की कृपा से विशेषत: क्षत्रियों को हराकर ही यह तेज प्राप्त किया है। इसीलिए निश्चित ही आप मेरा भी तिरस्कार कर रहे हैं। मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूं। उनसे आप मेरे रूप को देखिए। तब परशुरामजी ने रामजी मे सारी श्रृष्ठि को देखा। रामजी ने बाण छोड़ा तो वज्रपात होने लगा।

रामजी उस बाण से परशुरामजी को भी व्याकुल कर दिया। उनके शरीर से मानों तेज गायब हो गया। वे निस्तेज हो गए। इस तरह परशुरामजी का घमंड चूर-चूर हो गया। उन्होंने कहा तुमने साक्षात विष्णु के सामने ठीक से बर्ताव नहीं किया। अब तुम जाकर नदी में स्नान करो तभी तुम्हे तुम्हारा तेज फिर से प्राप्त होगा। इस तरह अपने पितृजन के कहने पर परशुरामजी ने वहां स्रान किया और अपना खोया तेज प्राप्त किया।

शुक्रवार, 24 जून 2011

यह फूल नहीं किस्मत की चाबी है

तंत्र क्रियाओं के अंतर्गत कई प्रकार की वनस्पतियों का उपयोग भी किया जाता है। नागकेसर के फूल का उपयोग भी तांत्रिक क्रियाओं में किया जाता है। नागकेसर को तंत्र के अनुसार एक बहुत ही शुभ वनस्पति माना गया है। काली मिर्च के समान गोल या कबाब चीनी की भांति दाने में डंडी लगी हुई लाल या सफेद के रंग का यह गोल फूल होता है। इसकी गिनती पूजा- पाठ के लिए पवित्र पदार्थों में की जाती है। तंत्र के अनुसार नागकेसर एक धनदायक वस्तु है। नीचे लिखे इस धन प्राप्ति के प्रयोग को अपनाकर आप भी धनवान बन सकते हैं-

- किसी पूर्णिमा को सोमवार हो उस दिन यह प्रयोग करें।
- किसी मन्दिर के शिवलिंग पर पांच बिल्वपत्रों के साथ यह फूल भी चढ़ाएं। इससे पूर्व शिवलिंग को कच्चे दूध, दही, शक्कर, घी, गंगाजल, आदि से धोकर पवित्र करें।
- पांच बिल्व पत्र और नागकेशर के फूल की संख्या हर बार एक ही रखना चाहिए।
- यह क्रिया अगली पूर्णिमा तक निरंतर रखें।
- आखिरी दिन चढ़ाए गए फूल तथा बिल्व पत्रों में से एक अपने घर ले आएं। यह सिद्ध नागकेसर का फूल आपकी किस्मत बदल देगा तथा धन संबंधी आपकी जितनी भी समस्याएं हैं, वह सभी समाप्त हो जाएंगी।

हर पति का है ये कर्तव्य....

अगस्त्य मुनि ने राजा से अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं। अगस्त्य मुनि ने कहा-
मैं तुम्हारे सदाचार से बहुत खुश हूं। इसलिए तुम्हारे बारे में जो मैं सोचता हूं वह सुनो तुम्हे सहस्त्र पुत्रों के समान सौ पुत्र हो या सौ के समान दस पुत्र हो? या सौ को परास्त कर देने वाला एक ही पुत्र हो तुम क्या चाहती हो?
तब लोपामुद्रा ने कहा- मुझे तो सौ को पराजित करने वाला एक ही पुत्र चाहिए। उसके बाद लोपामुद्रा का गर्भ ठहरा। दोनों फिर वन में रहने लगे। लगभग सात साल गर्भ से रहने के बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उनके पुत्र के जन्म के बाद उनके पूर्वजों को मोक्ष मिला। यह स्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस आश्रम के ही पास भागीरथी नदी है। भगवान राम ने जब परशुरामजी को तेज विहीन कर दिया था। तब उन्होंने इसी तीर्थ में स्नान करके फिर से तेज प्राप्त किया था।

3 अनमोल सुख! जो हैं सिर्फ भगवान की देन

इंसान जीवन में सुख-सुविधाओं से जीने के लिये अनेक वस्तुओं व सामग्रियों को सहेजने में बहुत ही ध्यान देता है। उसका मन उन चीजों से इतना गहरा जुड़ जाता है कि उनका थोड़ा नुकसान या हानि भी उसको बेचैन और परेशान कर देती है। किंतु सांसारिक जीवन से जुड़ी ऐसी बातों की कद्र नहीं करता, जो ईश्वर कृपा के बिना संभव नहीं। जिन पर अगर हर इंसान विचार करे तो दु:खों से हमेशा मुक्त रह सकता है।
शास्त्रों के मुताबिक इंसान को ईश्वर कृपा से ही तीन अनमोल बातें प्राप्त होती है। जिसका महत्व हर इंसान को समझना चाहिए। ये तीन दुर्लभ बाते हैं -
मनुष्य जन्म - शास्त्रों के मुताबिक भगवान की कृपा और पुण्य कर्म ही मनुष्य जन्म का कारण होते हैं। इसलिए सुखी जीवन के लिये अच्छे काम, सोच और व्यवहार को ही अपनाना चाहिए।
मोक्ष या जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति की चाह - इस कामना से इंसान बुरे कामों से दूर होकर संयम, नियम और अनुशासन से जीवन गुजारता है। यह इच्छा ईश्वर शक्ति और प्रेरणा से ही जागने वाली मानी गई है।
सद्गुरु का साथ - सांसारिक जीवन में गुरु कृपा बहुत ही निर्णायक सबित होती है। एक अच्छे गुरु की कृपा इंसान को जमीन से उठाकर ऊंचाईयों पर पहुंचा सकती है। जीवन के हर कठिन हालात गुरु कृपा और सीख से आसान बन जाते हैं।

मन को ऐसे बनाएं मजबूत

मन का स्वभाव चंचल माना गया है। किंतु यह मन ही मोह में बांधता है और मुक्ति भी करने वाला होता है। मन अगर साफ और स्थिर हो तो इंसान सफलता की ऊंचाईयों पर पहुंच जाता है, वहीं बुरे भाव से भरी, चंचल या अस्थिर मनोदशा व्यक्ति का पतन कर देती है।
व्यावहारिक जीवन में मन की अच्छी या बुरी स्थिति सुख-दु:ख का कारण बनती है। चूंकि हर इंसान सदा सुखी रहना चाहता है, किंतु भटकता मन इस कामना में बाधा बनता है। इसलिए सुख में बाधा बने मन को अगर चंचलता से बचाना है तो हिन्दू धर्मग्रंथ गीता में बताया यह सूत्र कारगर हो सकता है-

लिखा है कि -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
सार है कि चंचल मन को रोकना कठिन है। किंतु अभ्यास और वैराग्य भाव से इस पर काबू पाया जा सकता है।
व्यावहारिक रूप से संकेत है कि अगर मन को स्थिर और शुद्ध बनाना है तो एक लक्ष्य साधें। अच्छे विचारों के साथ उस मकसद को पाने के लिये ध्यान लगाया जाए। इस दौरान विपरीत या नकारात्मक विचारों से मन कितना भी भटके सही सोच के साथ लक्ष्य पर ही ध्यान साधें रखें। बाकी सभी बुरी भावनाओं पर ध्यान ही न दिया जाए यानी वैराग्य भाव बना लें।

इस तरह एक स्थिति में मन की स्थिर हो जाएगा। मन को पवित्र बनाने के लिये बहुत जरूरी है कि लगातार अच्छे विचारों का मनन और चिंतन किया जाए। जिससे मन से बुरे विचार और भाव अपने आप ही निकल जाएंगे।

खाने के तुरंत बाद ना लेटे और ना सोएं नहीं तो...

समय के साथ-साथ हमारी दिनचर्या में कई बड़े-बड़े परिवर्तन आ गए हैं। हमारी सभी काम और उन्हें करने का तरीका बदल गया है। आधुनिकता की दौड़ में हमारा खाना खाने का तरीका भी पूरी तरह प्रभावित हुआ है। पुराने समय में जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा थी।
लेकिन बढ़ते पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में डायनिंग टेबल पर बैठकर भोजन करने का कल्चर हमारे देश में आया। वर्तमान में लोग डायनिंग टेबल पर बैठकर तो भोजन करते ही हैं साथ ही अधिकतर लोग खाना-खाने के तुरंत बाद सो जाते हैं या लेट जाते हैं।जिसे हमारे शास्त्रों में भी ठीक नहीं माना गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार यह मान्यता है कि खाने के तुरंत बाद सोने से या आलस्य लेने से घर में दरिद्रता आती है। साथ ही यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो मन में नकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है। इस तरह खाना खान के तुरंत बाद सोने से या लेटने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।आलस्य बढ़ता है व शरीर को ऊर्जा और स्फूर्ति कम हो जाती है। इसलिए खाना खाकर कुछ देर वज्रासन में बैठना चाहिए और कम से कम सौ कदम जरूर चलना चाहिए।

घर से किसी को भी खाली हाथ न जाने दें, क्योंकि

हमारी भारतीय संस्कृति में मान्यता है अतिथि देवो भव:। हम अपने अतिथियों को देवतुल्य मानते हैं और अपनी शक्ति के अनुसार उनके स्वागत सत्कार और कोई क मी नहीं छोड़ते। अतिथियों के साथ ठीक से व्यवहार करना, उनकी आवश्यकताओं को समझ कर उनको पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिए। उनके मान सम्मान और उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखना चाहिए।
उनके लिये यथा सम्भव एक सुखद और सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए। इसी प्रकार के संस्कार बचपन से हमें हमारे माता पिता देते हैं। हमारे यहां प्राचीनकाल से ही यह परंपरा है जिसका उल्लेख हमें अपने धर्मग्रंथों में भी मिलता है। इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण भागवत में श्रीकृष्ण और सुदामा की कथा में मिलता है। इस कथा के अनुसार जब गरीब सुदामा कृष्ण के घर पहुंचे तो स्वयं कृष्ण ने उनके चरण धोए व आदर सत्कार किया।
उसके बाद जब वे वहां से विदा हुए तो उन्हें अनेक तरह के उपहार देकर श्रीकृष्ण ने विदा किया। इस तरह के अनेक उदाहरण हमें हमारे धर्मग्रंथों में मिलते हैं। इसीलिए मेहमान को कभी घर बिना तिलक किए व बिना उपहार दिए विदा नहीं करना चाहिए। दरअसल इसके पीछे ज्योतिषीय मान्यता है यह है कि घर से मेहमानों को कुछ उपहार देकर विदा करने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है।
तिलक लगाकर व उपहार देकर विदा करना भारतीय संस्कृति के अनुसार सम्मान सूचक तो है ही साथ ही ऐसा करने से घर आए अतिथि के पास वह उपहार जिंदगी भर उस घर के लोगों के साथ बिताए पलों की यादों के रूप में रहता है। इससे रिश्तों में सुधार होता है। आपसी सामंजस्य और मधुरता बढ़ती है। समाज में मान-सम्मान भी बढ़ता है।

गृहस्थी तभी सुखी हो सकती है जब....

कोई भी दो पहियां गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है जब उसके दोनों पहिए ठीक से काम करें। उसी तरह गृहस्थी की गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है। जब पति-पत्नी की आपसी समझ अच्छी हो। दोनों एक- दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें व एक-दूसरे की जरूरतों का ध्यान रखें। तो जिंदगी में बड़ी से बड़ी मुश्किलों का सामना करना आसान हो जाता है। महाभारत की यह कहानी हमें यही बता रही की पति-पत्नी के रिश्ते की आपसी समझ कैसी होनी चाहिए।

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा...एक बार जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान से निवृत हुई तो उनका रूप तप के कारण और अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था। जब अगस्त्य मुनि ने समागम के लिए उनका आवाह्न किया तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए अगस्त्य ऋषि से कहा मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों मैं जिस प्रकार के सुंदर वेष-भूषा से मैं सजी रहती थी, वैसे ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषायवस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी अब आगे...

यह तप की भूमि बहुत पवित्र है। किसी भी तरह से हमें इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए। यह सुनकर अगस्त्यजी बोले- तुम्हारे घर में जो धन था, वह ना तुम्हारे पास है ना मेरे पास फिर ऐसा कैसे हो सकता है। लोपामुद्रा बोली- स्वामी तपोधन से बड़ा कोई धन इस संसार में नहीं है। आप उससे सबकुछ एक ही क्षण में प्राप्त कर सकते हैं। तब अगस्त्य ऋषि ने कहा वो तो ठीक है लेकिन इससे मेरे तप का क्षय होगा अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरा तप भी क्षीण ना हो और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाए। लोपामुद्रा ने कहा मैं आपका तप क्षीण नहीं करना चाहती।

इसलिए आप उसकी रक्षा करते हुए मेरी कामना पूर्ण करें। तब अगस्त्य ऋषि राजा श्रुतर्वा के पास गए। वहां राजा ने उनका खूब सेवा सत्कार किया। उसके बाद अगस्त्य ऋषि ने राजा से कहा - राजन् आपके पास मैं धन की इच्छा लेकर आया हूं। आपको जो भी धन दूसरों को कष्ट पहुंचाये बिना मिला हो उसमें से आप मुझे अपनी शक्ति के अनुसार दान दे दीजिए। अगस्त्य ऋषि की बात सुनका राजा ने अपना सारा हिसाब उनके सामने रख दिया। जब मुनि ने देखा कि इनका तो आय व व्यय दोनों बराबर है। उसमें से थोड़ा सा भी लेने पर प्राणियों को दुख होगा। इसलिए उन्होंने कुछ नहीं लिया। फिर वे श्रुतर्वा को साथ लेकर वे राजा व्रन्धŸवके पास चले वहां भी वही हुआ जो श्रुर्तवा के यहां हुआ था। उनका आय व व्यय दोनों ही बराबर था। इस तरह जब उन्हें सभी राजाओं के पास ऐसा धन नहीं मिला तो वे सभी राजाओं के परामर्श पर इल्वल नाम के एक दैत्य के पास गए। वह दानव बड़ा ही धनवान था।

जब उसे इस बात का पता चला कि अगस्त्य मुनि उसके पास दानवों को लेकर आ रहे हैं तो वह उन्हें लेने गया। उनक ा आदर-सत्कार किया। फिर उसने पूछा बताइये मुनि मैं आपकी क्या सेवा करूं तब मुनि अगस्त्य ने सारी बात बताई।अगस्त्य ने उनसे अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं।

मुसीबत सामने आए तो सबसे पहले यह करें...

किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं।

कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका होश बदलेगा, सोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।

अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।

इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहार, शुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।

इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं। जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।

कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी समस्या हो, मुसीबत रहे, हम पार लग जाएंगे।

जब सीताजी मंडप में आयीं तो...

सीताजी के मंडप में आने के बाद कुलगुरू ने मंत्रजप शुरू किया गया। गौरीजी व गणेशजी की स्थापना की गई। सभी देवताओं ने प्रकट होकर पूजा ग्रहण की। सीताजी व रामजीएक-दूसरे को इस तरह देख रहे हैं। जिससे दूसरों को कुछ पता नहीं चल रहा है। चारों और से देवता फूल बरसा रहे हैं। महिलाएं मंगलगीत गा रही है। तभी जनक जी श्री रामजी के चरणों को धोने लगे। उनके चरण धोते हुए जनकजी फूले नहीं समा रहे है। जिनके स्पर्श से गौतम मुनि की स्त्री अहिल्या ने परमगति प्राप्त हुई।
दोनों कुलों के गुरू वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर मंत्रोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर देवता, मनुष्य , मुनि आदि सभी आनन्द से भर गया। रामजी व सीताजी के सिर में सिंदूर भर रहे हैं। उसके बाद रामजी और जनकजी आसन पर बैठे। उन्हें देखकर दशरथजी मन ही मन आनंदित हुए। जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में शिरोमणि जानकर उनसे लक्ष्मणजी का ब्याह कर दिया गया। सीताजी की एक ओर बहन जिनका नाम श्रुतकीर्ति है जो सुंदर नेत्रोंवाली, सुन्दर व कमल के समान चेहरे वाली और वे सब गुणों की खान है उनसे शत्रुघ्र का विवाह कर दिया गया। दहेज इतना अधिक है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।

भागवत २९६

पत्नी कैसी होनी चाहिए?
सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेष भी होगा। इन राग द्वेष के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है। सीताजी को सती अनुसूयाजी अनेक दिव्य वस्त्र एवं अलंकार प्रदान कर महत्वपूर्ण उपदेश देती हैं। नारी के धर्म (कर्म) की प्रस्तुति अनुसूयाजी से अधिक तत्कालीन कोई अन्य नारी नहीं कर सकती थीं।

''मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुन राजकुमारी।
अमित दानि भर्ता बय देही। अधम सो नारि जो सेव न ते ही।।

धीरज धर्म मित्र अरू नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।
बुद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बघिर क्रोधी अति दीना।।

ऐस हु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा। कायं वचन मन पति पद प्रेमा।। -( रामायण अरण्य काण्ड दोहा 4 से)

और भी पतिव्रता के चार प्रकार बताते हुए उत्तम सपने में भी पर पुरुष का न दर्शन करने वाली मध्यम पुरुष को पिता, भाई, पुत्र सम देखने वाली - धर्म के अनुसार भय में रहने वाली तीसरे प्रकार की पतिव्रता और अवसर अनुसार व्यवहार करने वाली, मौका मिलने पर कदाचरण करने वाली अधम नारी नरक में वास करती है और भावी जन्म में विधवा होती है। पति की सेवा से जन्म से अपावन नारी शुभ गति प्राप्त कर लेती है। पतिव्रता नारियां संसार का हित करती हैं अर्थात संभ्रान्त, कुलीन सम्य चरित्रवान नागरिकों को जन्म देने से बढ़कर अन्य कोई सांसारिक और सामाजिक हित नहीं हो सकता।
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गुरुवार, 23 जून 2011

श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का स्मरण

हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण के भक्त वत्सल यानी भक्तों पर स्नेह लुटाने वाले देव स्वरूप की महिमा बताई गई है, जो यह साबित करती है कि भगवान श्रीकृष्ण भक्ति भाव के भूखे हैं, न कि बिन भक्ति समर्पित तरह-तरह की सुंदर और मंहगी सामग्रियों के।
गीता में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है कि -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो में भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपह्रतमश्रामि प्रयतात्मन:।।

जिसका सरल शब्दों में अर्थ है मेरे लिये निस्वार्थ और प्रेम भाव से चढ़ाए गए फूल, फल और जल आदि को मैं बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लेता हूं।
ऐसे ही भक्तप्रेमी भगवान के स्मरण के लिये शास्त्रों में एक मंत्र बताया गया है। इस मंत्र के पांच चरण भगवान कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन कराते हैं। इस मंत्र के स्मरण से पहले स्नान से पवित्र होकर श्रीकृष्ण को गंध, फूल चढ़ाकर माखन का भोग लगाएं और नीचे लिखा मंत्र जप कर धूप, दीप से आरती करें। इस मंत्र जप से कृष्ण पूजा और आरती अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव देने वाली होती है। जानते हैं यह मंत्र -
ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।
शास्त्रों के मुताबिक इस मंत्र के पहले पद क्लीं से पृथ्वी, दूसरे पद कृष्णाय से जल, तीसरे पद गोविन्दाय से अग्रि, चौथे पद गोपीजनवल्लभाय से वायु और पांचवे पद स्वाहा से आकाश की रचना हुई। इस तरह यह श्रीकृष्ण के विराटस्वरूप का मंत्र रूप में स्मरण है।

ये रहा बारिश का डाइट चार्ट

बारिश में शरीर में वात यानी वायु की वृद्धि होने के कारण उसे शांत करने के लिए मधुर, अम्ल व लवण रसयुक्त, हलके व शीघ्र पचने वाले तथा वात का शमन करने वाले पदार्थों एवं व्यंजनों से बना हुआ आहार लेना चाहिए।
सब्जियों में मेथी, सहिजन, परवल, लौकी, सरगवा, बथुआ, पालक एवं सूरन हितकर हैं। सेवफल, मूंग, गरम दूध, लहसुन, अदरक, सोंठ, अजवायन, साठी के चावल, पुराना अनाज, गेहूँ, चावल, जौ, खट्टे एवं खारे पदार्थ, दलिया, शहद, प्याज, गाय का घी, तिल एवं सरसों का तेल, महुए का अरिष्ट, अनार, द्राक्ष का सेवन लाभदायी है। पूरी, पकोड़े तथा अन्य तले हुए एवं गरम तासीर वाले खाद्य पदार्थों का सेवन थोड़ा कम कर दें।
इन चीजों को न खाएं
गरिष्ठ भोजन, उड़द, अरहर, चौला आदि दालें, नदी, तालाब एवं कुएँ का बिना उबाला हुआ पानी, मैदे की चीजें, ठंडे पेय, आइसक्रीम, मिठाई, केला, म_ा, अंकुरित अनाज....आदि नहीं खाना चाहिए।
विशेष
आयुर्वेद और प्राकृतिक शरीर विज्ञान की ऐसी मान्यता है कि देवशयनी एकादशी के बाद आम नहीं खाना चाहिए।

नहाते समय गाना नहीं गाना चाहिए क्योंकि...

नहाने से शरीर में एक नई ताजगी व स्फूर्ति आ जाती है। नहाने से शरीर की सफाई तो होती ही है साथ ही आलस, बुरे विचार दूर होते हैं। अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे नहाते समय या तो गाने गाते हैं या मंत्र बोलते हैं या भगवान का नाम लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार हमें आंतरिक और बाहरी शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। बाहरी शुद्धता तो नहाने से ही होती है।
कुछ लोग नहाते समय मंत्र जप करते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि ऐसा करने से पापों से मुक्ति मिलती है। वही कई लोग नहाते समय फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। जिस पर अक्सर बढ़े- बूजुर्ग लोग टोकते हैं और कहते हैं कि नहाते समय सिंगिंग नहीं करना चाहिए इससे दोष लगता है। दरअसल ये सिर्फ अंधविश्वास नहीं है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भी ऐसी ही मान्यता है। शास्त्रों के अनुसार नहाते समय नहीं बोलना चाहिए और न ही गाना चाहिए।
मान्यता है कि नहाते समय बोलने से वरूण देव जिन्हें जल का देवता माना गया है वे शरीर का तेज छीन लेते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि स्नान से पहले शरीर पर कई कीटाणु व धूल के कण लगे होते हैं। नहाते समय मंत्र बोलने से मुंह के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। विज्ञान के अनुसार इससे इम्युनिटी पावर कम होता है। इसीलिए नहाते समय मंत्र नहीं बोलना चाहिए।

डायनिंग टेबल पर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए?

भारत में प्राचीन समय से ही जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा है। हमारे यहां खड़े होकर खाना-खाने को या डायनिंग टेबल पर भोजन करने को अच्छा नहीं माना जाता है। हमारे यहां तो भोजन को बाजोट पर रखने की परंपरा थी। इसका का कारण यह है कि भोजन को हमारी संस्कृति में सिर्फ दिनचर्या का सिर्फ एक काम मात्र ही नहीं माना गया है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भोजन एक तरह का हवन है। हमारा हर ग्रास इस हवन में एक आहूति की तरह है।
जिस तरह पूरी आस्था और सम्मान से हवन में देवताओं का आवाह्न कर उनसे निवेदन करने से समस्याएं खत्म हो जाती है। उसी तरह भोजन को पूरे सम्मान व आस्था के साथ ग्रहण करें तो शरीर की सारी व्याधियां व रोग खत्म हो जाते हैं। शरीर स्फूर्तिवान रहता है। अन्न को देवता माना जाता है इसीलिए उसे सम्मान देकर अपने आसन से थोड़ा ऊपर बाजोट पर रखकर ग्रहण किया जाता है।
साथ ही इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि सुखासन में बैठकर खाना खाने से खाना शीघ्र ही पच जाता है। इससे चेहरे का तेज भी बढ़ता है। जबकि डायनिंग टेबल पर खाने से भोजन ठीक से नहीं पचता है जिसके कारण अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए डायनिंग टेबल पर भोजन करना उचित नहीं माना गया है।

मुसीबत सामने आए तो सबसे पहले यह करें...

किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं।
कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका होश बदलेगा, सोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।
अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।
इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहार, शुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।
इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं। जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।
कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी समस्या हो, मुसीबत रहे, हम पार लग जाएंगे।

गृहस्थी तभी सुखी हो सकती है जब....

यह तप की भूमि बहुत पवित्र है। किसी भी तरह से हमें इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए। यह सुनकर अगस्त्यजी बोले- तुम्हारे घर में जो धन था, वह ना तुम्हारे पास है ना मेरे पास फिर ऐसा कैसे हो सकता है। लोपामुद्रा बोली- स्वामी तपोधन से बड़ा कोई धन इस संसार में नहीं है। आप उससे सबकुछ एक ही क्षण में प्राप्त कर सकते हैं। तब अगस्त्य ऋषि ने कहा वो तो ठीक है लेकिन इससे मेरे तप का क्षय होगा अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरा तप भी क्षीण ना हो और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाए। लोपामुद्रा ने कहा मैं आपका तप क्षीण नहीं करना चाहती।
इसलिए आप उसकी रक्षा करते हुए मेरी कामना पूर्ण करें। तब अगस्त्य ऋषि राजा श्रुतर्वा के पास गए। वहां राजा ने उनका खूब सेवा सत्कार किया। उसके बाद अगस्त्य ऋषि ने राजा से कहा - राजन् आपके पास मैं धन की इच्छा लेकर आया हूं। आपको जो भी धन दूसरों को कष्ट पहुंचाये बिना मिला हो उसमें से आप मुझे अपनी शक्ति के अनुसार दान दे दीजिए। अगस्त्य ऋषि की बात सुनका राजा ने अपना सारा हिसाब उनके सामने रख दिया। जब मुनि ने देखा कि इनका तो आय व व्यय दोनों बराबर है। उसमें से थोड़ा सा भी लेने पर प्राणियों को दुख होगा। इसलिए उन्होंने कुछ नहीं लिया। फिर वे श्रुतर्वा को साथ लेकर वे राजा व्रन्धŸवके पास चले वहां भी वही हुआ जो श्रुर्तवा के यहां हुआ था। उनका आय व व्यय दोनों ही बराबर था। इस तरह जब उन्हें सभी राजाओं के पास ऐसा धन नहीं मिला तो वे सभी राजाओं के परामर्श पर इल्वल नाम के एक दैत्य के पास गए। वह दानव बड़ा ही धनवान था।
जब उसे इस बात का पता चला कि अगस्त्य मुनि उसके पास दानवों को लेकर आ रहे हैं तो वह उन्हें लेने गया। उनक ा आदर-सत्कार किया। फिर उसने पूछा बताइये मुनि मैं आपकी क्या सेवा करूं तब मुनि अगस्त्य ने सारी बात बताई।अगस्त्य ने उनसे अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं।

भागवत २८६

दोस्ती निभाएं तो कुछ इस तरह ...
पं.विजयशंकर मेहता
जीवन में एक सिद्धांत बनाइए, हम जिनकी कृपा पाना चाहते हैं उसके पास कभी खाली हाथ न जाएं। श्रीकृष्ण को क्या कमी थी और सुदामा के थोड़े से चावलों से उन्हें मिलता भी क्या लेकिन यह मामला वस्तु के मूल्य या महत्व का नहीं, भाव का है। विद्वानों और संतों का ऐसा मानना है कि राजा, ब्राह्मण, गुरु और बालक के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। छोटा ही सही एक उपहार अवश्य ले जाएं, इससे वे प्रसन्न होते हैं।
आइये देखें सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। मनुष्य साधक भौतिक, दैहिक व दैविक त्रि-तापों से नित्य प्रति तनु होता जाता है। सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण के बीच से गुजरना सहज गति है। कभी इसमें परस्पर मिश्रण हो जाता है, तदनुसार होते जाते हैं। त्रि-चक्रम में उलझा साधक जप, तप व योग बल से अनुसूया साध्वी का संग करने अर्थात् बुद्धि शुद्ध करके चले तो ब्रम्हा, विष्णु व शंकर को शिशुवत अपने आश्रम (मन मंदिर) में लीला कराके असीम दैवी आनंद प्राप्त कर सकता है।
इस दैवी दम्पत्ति त्यागमूर्ति के सम्पर्क में भरतजी के जाने के पश्चात राम आए। चित्रकूट का त्याग किया अर्थात् जगत-जन्य विकार (गन्दगी) त्याग दी तब कहीं त्यागमूर्ति युगल के सम्पर्क का लाभ मिल सका। तात्पर्य यह कि सतसंग के लिए अविकार अवस्था (तन-मन की) होना आवश्यक है। परिवार में प्रेम का प्रसंग देखें।
वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेश भी होगा।
इन राग द्वेश के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है।सुदामा का श्रीकृष्ण के चरणों में राग है, वे उसे धन-सम्पदा से नहीं जोड़ते, कृष्ण राजा हैं और सुदामा एक ब्राम्हण भिक्षु की तरह लेकिन फिर भी रिश्ता एकदम आत्मीय है। सुदामा ने कभी कृष्ण से कोई अपेक्षा नहीं रखी और श्रीकृष्ण ने भी ऐसा नहीं दर्शाया कि वे अपने मित्र की दरिद्रता को दूर करना चाहते हैं, कृपा कर रहे हैं। उन्होंने कुछ दिया ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से।

बुधवार, 22 जून 2011

शनिवार को क्यों नहीं खरीदना चाहिए जूते-चप्पल?

सप्ताह के सात दिनों में शनिवार ही एक ऐसा वार है जिस दिन से जुड़ी सबसे ज्यादा मान्यताएं हैं। दरअसल इसका कारण यह है कि शनिदेव को ज्योतिष के अनुसार न्यायधीश माना गया है। माना जाता है जब शनि जब किसी के विपरित होता है तो उस व्यक्ति को जी-तोड़ मेहनत के बाद भी फल थोड़ा ही मिलता है। जिसकी कुंडली में साढ़े साती, ढैया हो, या जिसकी राशि में शनि अच्छे स्थान पर न हो, उसे यह खास परेशानी होती है।
हमारे शरीर के अंग भी ग्रहों से प्रभावित होते हैं।त्वचा (चमड़ी) और पैर में शनि का वास माना जाता है, इनसे संबंधित चीजें शनि के लिए दान की जाती हैं और इनकी बीमारियां भी शनि से संबंधित होती हैं।चमड़ा और पैर दोनों ही शनि से प्रभावित होते हैं। कहते हैं शनिवार के दिन चमड़ा खरीदने से शनि देव रूठ जाते हैं।
इस दिन यदि घर में चमड़ा लाया जाता है तो घर में दरिद्रता और रोगों का निवास होता है। इस कारण चमड़े के जूते अगर शनिवार को चोरी हो जाएं तो मानना चाहिए कि हमारी परेशानी कम होने जा रही हैं। शनि अब ज्यादा परेशान नहीं करेगा। कई लोग इसी कारण से शनिवार को शनि मंदिरों में जूते भी छोड़कर आते हैं ताकि शनि उनके कष्ट कम कर दें। इसीलिए कष्ट और रोगों से बचने के लिए शनिवार के दिन नए चप्पल व जूते नहीं खरीदना चाहिए।

टिफिन पैक करने से पहले खाने को जूठा करना चाहिए क्योंकि...

भोजन हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक है। इसीलिए भोजन बनाते समय व भोजन ग्रहण करते समय भी हम अनेक मान्यताओं और परंपराओं का पालन करते है। हमारे यहां ऐसी कई परंपराएं है जिन्हें अधिकांश लोग अंधविश्चास मानकर टाल देते हैं।
ऐसी ही एक परंपरा है किसी के लिए भी यदि टिफिन या किसी भी तरह का खाना पहुंचाया जाता है। उस भोजन का भोग पहले भगवान को लगाने के बाद उसे चखा जाता है या झूठा करके भेजा जाता है।
दरअसल ऐसी मान्यता है कि ऐसा ना करने पर पितृदोष लगता है। साथ ही भोजन को करने वाले को उस भोजन से पूरी ऊर्जा नहीं मिलती है। इसका कारण यह है कि जब भोजन को बिना झूठा किए ले जाया जाता है तो ब्रह्माण्ड में उपस्थित नकारात्मक शक्तियां उसे प्रभावित करती हैं। इस मान्यता के पीछे वही कारण है जो आचमन करने के पीछे है। ज्योतिषीय मान्यता है कि यदि भोजन को घर से बाहर भेजने से पहले झूठा नहीं किया जाता तो कई तरह की नकारात्मक शक्तियां उसे प्रभावित करती हैं।
उस भोजन के बाद मन में सकारात्मक विचार कम आते हैं और नकारात्मकता बढऩे लगती है। साथ ही इसका एक फायदा यह भी होता है कि भेजने वाला उस खाने को किसी अतिथि या महत्वपूर्ण व्यक्ति को भेजने से पहले चख लेता है। इससे भोजन में किसी भी तरह की कमी होने पर उसके स्वाद में सुधार लाया जा सकता है ताकि भोजन करने वाला पूरी रूचि से भोजन करे। इसी कारण यह मान्यता है कि घर से बाहर ले जाने से पहले खाने का भोग भगवान को लगाकर उसे झूठा जरूर करना चाहिए।

ऐसी आदतों से हमेशा बचते रहना चाहिए...

संसार में रहते हुए हम कुछ आदतों को ओढ़ लेते हैं और कुछ को जीने लगते हैं। आदतों का स्वभाव होता है कि उसे बार-बार करने की इच्छा होती है। पुनरावृत्ति आदत का मूल स्वभाव है। देर से उठने की आदत है तो अगले दिन फिर देर से उठने की इच्छा होगी।
आदत अतीत से जुड़कर अतीत को ही भविष्य में पटकने पर उतारू होती है। इसीलिए कहा है आदतों से मुक्त सावधानी से हो जाएं। आदत से बचने के लिए अपने भीतर के स्वभाव को समझना होगा। अभी तो हमने भक्ति को भी आदत बना लिया है, जबकि भक्ति स्वभाव का विषय है।
सामान्य रूप से ऐसा समझा जाता है कि जो लोग भक्ति कर रहे हैं वे या तो कमजोर लोग हैं या छोटे ओहदे के व्यक्ति हैं। यह एक भ्रम है। जिनके पास मिटने की क्षमता है वे ही भक्ति कर सकेंगे, क्योंकि जितना हम मिटेंगे उतने ही हमारे भीतर के परमात्मा को रूप लेने कर अवसर मिलेगा।
जितना हमने अपने को बचाया, समझ लें उतना ही उसको खोया। भक्ति एक आत्मघाती आर्ट है। इसलिए जैसे-जैसे भक्ति जीवन में उतरेगी हमें भीतर उतरने में सुविधा होगी। मन को निष्क्रिय करने में सहारा मिलेगा। अभी मन मालिक है और शरीर गुलाम। लेकिन भक्ति के उतरते ही परमात्मा प्रकट होने लगता है और ईश्वर की अनुभूति के सामने मन गौण हो जाता है।
मन मौन हुआ और हमारी सारी मस्ती, तमाम शौर-शराबे, धूमधाम भौतिक सफलताओं के बाद भी हमें खूब शांत रखेंगी, प्रकाश ही प्रकाश होगा और इसी प्रकाश को आंतरिक उत्सव कहा गया है। जब हर काम आनंद हो जाए तो फिर जिन्दगी के अर्थ ही बदल जाते हैं।

...और सोलह श्रृंगार से सज गई सीताजी

जब सारे देवताओं ने दशरथ जी का वैभव देखा तो वे दशरथजी की सराहना करने लगे। सभी नगाड़े बजाकर फूल बरसाने लगे। शिवजी ब्रह्माजी आदि टोलियां बनाकर विमानों पर चढ़े और प्रेम व उत्साह से भरकर श्री रामचंद्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे। सभी शादी का विचित्र मण्डप आलौकिक रचनाओं को देखकर चकित हो रहे हैं।
तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में ये मत भूलो। धीरज से विचार तो करो कि यह सीताजी का और ब्रह्माणों के परम ईश्चर साक्षात श्री रामचंद्रजी का विवाह है। जिनका नाम लेते ही जगत में सारे की जड़ कट जाती है, ये वही श्रीसीतारामजी है। इस तरह सभी देवताओं को रामजी ने समझाया और फिर नंदीश्चर को आगे बढ़ाया।
देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न हो रहे हैं। रामजी का सुंदर मुख चंद्रमा के समान है। जिस घोड़े पर रामजी विराजमान हैं वह भी इतना सुंदर लग रहा है मानो कामदेव ने ही घोड़े का रूप धारण कर लिया है। चारों और से फूलों की वर्षा होने लगी। दशरथजी अपनी मण्डली के साथ बैठे। आकाश और नगर में शोर मच रहा है।श्रीरामचंद्रजी मण्डप में आए और अघ्र्य देकर आसन पर बैठाए गए। सुंदर मंगल का साज सजाकर स्त्रियां और सहेलिया सीताजी को लेकर चली। वे सोलह श्रृंगार में बहुत सुंदर लग रही है। इस तरह सीताजी मंडप में आई और मंत्रोच्चार शुरू हो गया।

ये 4 सुख देती है लक्ष्मी की प्रसन्नता!

पौराणिक कथा के मुताबिक महालक्ष्मी समुद्र मंथन से प्रकट हुई और भगवान विष्णु को अपना स्वामी बनाया। धार्मिक मान्यताओं में देवी लक्ष्मी को सुख, ऐश्वर्य, धन, वैभव, श्री की अधिष्ठात्री माना गया है।
वहीं भगवान विष्णु सत्व बल यानी शांति और सद्गुणी शक्तियों के स्वामी माने गए हैं। विष्णु-लक्ष्मी के योग को व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो संकेत यही मिलता है कि सद्गुणों और सद्कर्मों से ही सुखी और वैभवशाली जीवन संभव है। भगवान विष्णु और लक्ष्मी की उपासना का फल भी यही माना गया है।
इसी संबंध में विष्णु प्रिया लक्ष्मी आराधना से मिलने वाले फलों को सांसारिक जीवन के नजरिये से जानें तो उन फलों को चार भागों में बांटा जा सकता है। ये चारों ही फल ही इंसानी जीवन के अहम अंग है। जानते हैं लक्ष्मी कृपा से मिलने वाले ये चार फल -
धन - जीवन के दायित्वों को निभाने और जरूरतों की पूर्ति के लिये धन बहुत अहम माना गया है। शास्त्रों में भी धन को सुख का साधन बताया गया है।
पद - जीवन में ऊंचाई पर पहुंचना हर इंसान की कामना होती है, लक्ष्मी उपासना ऐसे ही ऊंचे मुकाम पर पहुंचाने का काम करती है।
यश - जीवन में पद पाना ही काफी नहीं बल्कि उसके साथ यश, सम्मान और प्रतिष्ठा भी अहम होती है, जो लक्ष्मी पूजा से प्राप्त होती है।
भौतिक सुख-सुविधा - धन, पद और यश के साथ-साथ भौतिक सुविधाओं, वस्तुओं और पदार्थों के भोग की कामना भी हर इंसान करता है। यह इच्छा लक्ष्मी कृपा से पूरी होती है।

भागवत २८५

उन लोगों को बिना मांगे ही मिल जाता है सबकुछ जो...
यहां से सुदामा का प्रसंग शुरू होता है।एक दिन भगवान् को द्वारिका में एक सूचना दी गई कि द्वार पर फटेहाल ब्राह्मण आया है और आपसे मिलने का आग्रह कर रहा है और यह मिलने का समय नहीं है। भगवान् रानियों से सेवा करा रहे थे। कोई रानी पंखा कर रही है, कोई चरण स्पर्श कर रही हैं। आठों पटरानियां आसपास हैं। इस समय भगवान् किसी से नहीं मिलते। द्वारपाल आकर बोला- वह बड़ा हठीला है, रोने लगा और इतना दीन-हीन है कि जब वह कहने लगा कि मिला दो, मिला दो, तो हमें उस पर दया आ गई। आपसे मिलना चाहता है
भगवान् ने कहा-इस समय कौन है, क्या समस्या आ गई। द्वारपाल ने कहा- वह अपना नाम सुदामा बताता है। इतना सुनकर एकदम कूदे भगवान् पलंग से। रानियों को लगा, यह क्या हो गया। एकदम से कूदे, सुदामा मेरा बालसखा है यह कहकर एकदम दौड़े भगवान्। यह देख द्वारपाल घबरा गए कि क्या हुआ स्वास्थ ठीक नहीं है, रानियां भी चौंक गईं। तब तक तो द्वार पर पहुंच गए। सुदामा भगवान् का बालसखा था, सांदीपनि आश्रम में पढ़ता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। कुछ कमा-धमा नहीं पाया बहुत ही दीन-हीन था।
एक दिन तो खाने के लाले पड़ गए तो उसकी पत्नी ने कहा-तुम रोज घर में तो घटनाएं सुनाते हो हमको कि तुम कृष्ण के साथ पढ़े हो, द्वारिकाधीष के साथ पढ़े हो। घर में कई लोग यही किस्सा सुनाते हैं, किसी बड़े आदमी के साथ पढ़े हो तो जीवनभर याद करता है उसको। अपने बच्चों को सुनाता है कि वो हमारे साथ पढ़ते थे। हमारे साथ रहते थे, हमारे मोहल्ले में रहते थे। पुराने जो आगे बढ़ जाते हैं उनके किस्से तो चलते ही हैं। बच्चों को यही सिखाता, यही सुनाता है कि कृष्ण मेरे साथ पढ़े हैं। एक दिन उसकी पत्नी ने बोला-इतनी तारीफ करते हो कुछ मांग लो बच्चे भूखे मर रहे हैं।
आटा घोलकर पिलाती हूं दूध की जगह, जाओ अपने मित्र के पास।
इस प्रकार सुदामाजी की पत्नी ने उनसे कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धन की तो कोई बात नहीं है, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन हो जाएगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है। ज्ञानी पुरुषों की विशेषता ही यह होती है कि वे हर बात में अध्यात्म और भक्ति का समावेश कर लेते हैं। सुदामा की पत्नी बच्चों की चिंता में थी, गरीबी और भुखमरी से ग्रस्त थी लेकिन सुदामा इसमें भी श्रीकृष्ण के दर्शनों का लाभ देख रहे हैं। मन में जब ऐसी घटनाएं आ जाएं तो फिर परमात्मा से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बिना मांगे ही भण्डार भर जाता है।

अगस्त्य मुनि की पत्नी ने रख दी एक अजीब शर्त?

वे ये बात महारानी को बताते हुए बोले महर्षि अगस्त्य हमारी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं वे योग्य हैं यदि मैं उन्हें मना करूंगा तो वे हमें अपनी शाप की अग्रि में भस्म कर देंगे। बताओ इस विषय में तुम्हारा क्या मत है? तब राजा और रानी दोनों को देखकर लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, पिताजी आप मेरा विवाह उनसे कर दीजिए मुझे कोई समस्या नहीं है।
पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने शास्त्र विधि से अगस्त्यजी के साथ उसका विवाह कर दिया। पत्नी मिल जाने पर अगस्त्यजी ने उससे कहा देवि। तुम इन बहुमूल्य वस्त्रों को त्याग दो। तब लोपामुद्रा ने अपने दर्शनीय बहुमूल्य और महीन वस्त्रों को त्याग दिया और पेड़ की छाल व मृगचर्म धारण कर वह अपने पति के समान ही व्रत और नियमों का पालन करने लगी। तदन्तर भगवान अगस्त्य हरिद्वार क्षेत्र में आकर अपनी पत्नी के साथ तपस्या करने लगी। लोपामुद्रा बड़े ही प्रेम से पति की सेवा करती थी।
एक बार जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान से निवृत हुई तो उनका रूप तप के कारण और अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था। जब अगस्त्य मुनि ने समागम के लिए उनका आवाह्न किया तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए अगस्त्य ऋषि से कहा मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों मैं जिस प्रकार के सुंदर वेष-भूषा से मैं सजी रहती थी, वैसे ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषायवस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी।

मंगलवार, 21 जून 2011

शिवलिंग पर शंख से जल क्यों नहीं चढ़ाया जाता?

कहते हैं कि जिस घर में नियमित शंख ध्वनि होती है वहां कई तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक माना जाता है।
इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। शंख को विष्णु और लक्ष्मी का अतिप्रिय माना गया है।
लेकिन शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है। दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

रात को पानी का बरतन सिरहाने रखकर क्यों सोते हैं?

कहते हैं अगर शरीर को स्वस्थ्य रखना हो तो ज्यादा से ज्यादा पानी पीना चाहिए। पानी पीने से कई तरह के रोग तो दूर होते ही है साथ ही शरीर में उपिस्थत विषैले पदार्थ भी बाहर निकल जाते हैं। त्वचा कांतिमय रहती है। हमारे शास्त्रों में वरूण को जल का देवता माना गया है। माना जाता है कि तांबे के जग या पात्र का पानी पीने से कई तरह की पेट से संबंधित समस्याएं भी खत्म होती हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार तांबे को सूर्य की धातु माना गया है। ऐसी मान्यता है कि जन्मकुंडली में सूर्य अच्छी स्थिति में ना हो या नीच राशि में हो तो तांबे के लौटे से सूर्य को अघ्र्य देने से सूर्य से संबंधित सभी दोष दूर हो जाते हैं। इसी कारण नीच के सूर्य का प्रभाव कम करने के लिए तांबे की अंगुठी पहनने की राय दी जाती है। साथ ही ज्योतिष के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि कुंडली में सूर्य के अच्छी स्थिति में ना होने पर किसी भी कार्य में आसानी से सक्सेस नहीं मिल पाती है। इसीलिए किसी भी व्यक्ति को अगर सफलता नहीं मिल रही हो और वह अपने जीवन में सफलता चाहता हो तो उसे सूर्य से जुड़े उपाय करने चाहिए। ज्योतिष के अनुसार सूर्य आत्मा का कारक है।
सूर्य अच्छा है तो आत्मविश्वास बढ़ता है।इसीलिए सफलता प्राप्ति के लिए सूर्य को बलि बनाना आवश्यक है। इसके लिए रात्रि को तांबे के पात्र में जल भरकर उसमें माणिक डालकर रातभर रखें और वह पानी पीएं क्योंकि माणिक को सूर्य का रत्न माना गया है। दरअसल इसका एक ओर पहलू है वो है कलर थैरेपी। कलर थैरेपी के अनुसार लाल रंग को आत्मविश्वास बढ़ाने वाला माना जाता है और लाल धातु में लाल रत्न यानी तांबे में माणिक रत्न यही काम करता है।ऐसा नियमित रूप से करने से सूर्य से जुड़े सारे दोष दूर होने के साथ ही कई रोग दूर होते हैं। दिनभर तन व मन स्फूर्ति से भरा रहता है और शीघ्र ही सफलता के रास्ते खुलने लगते हैं।

मूर्ति की परिक्रमा हमेशा सीधे हाथ की तरफ से करना चाहिए क्योंकि...

मंदिर या देवालय वह स्थान है जहां जाकर कोई भी व्यक्ति मानसिक शांति महसूस करता है। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है और हमें सुख प्राप्त होता है। हम इस मनोभाव से भगवान की शरण में जाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, जो बातें हम दुनिया से छिपाते हैं वो भगवान के आगे बता देते हैं, इससे भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है।
श्रद्धालु जब मंदिर या किसी देव स्थान पर जाते हैं तो आपने उन्हें देवमूर्ति की परिक्रमा करते हुए देखा होगा। दरअसल परिक्रमा इस कारण की जाती है क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि देवमूर्ति के निकट दिव्य प्रभा होती है।इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ती हो जाती है।
लेकिन देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है। जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है।

आपकी किस्मत का ताला खुल जाएगा,

अगर आपके घर में बिल्ली...
ज्योतिष शास्त्र में बिल्ली का काफी महत्व माना गया है। इससे जुड़े हुए कई शकुन और अपशकुन बताए गए हैं। सामान्यत: बिल्ली आसानी से हमारे घरों के आसपास देखी जा सकती है।
ऐसा माना जाता है कि यदि किसी के घर में बिल्ली अपने बच्चों को जन्म देती है तो उस घर वालों के लिए बहुत शुभ है। उस में बहुत ही जल्द धन, सुख और समृद्धि बढऩे लगती है। परिवार के सदस्यों के सभी रुके हुए कार्य आसानी से पूर्ण हो जाते हैं और धन लाभ बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त परिवार में किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं रहती है।
पाठकों के विचार
भारत में शकुन-अपशकुन की मान्यताएं काफी प्राचीन समय से चली आ रही हैं। आज भी काफी लोग इन पर विश्वास रखते हैं तो कुछ लोग इन बातों को अंधविश्वास का नाम देते हैं। ऐसे ही शकुन और अपशकुन के संबंध में आपके क्या विचार हैं? आप यहां कमेंट बॉक्स में अन्य पाठकों से शेयर कर सकते हैं। ध्यान रहे कमेंट प्रयोग की गई भाषा के लिए आप स्वयं जिम्मेदार होंगे। यदि किसी अन्य पाठकों को आपका कमेंट भद्दा, अश्लील लगता है और इस संबंध में किसी प्रकार की कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो संबंधित व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार होगा।

ऐसे घर की महिलाएं होती हैं सुंदर और बुद्धिमान

वास्तु के अनुसार घर की साज-सज्जा और सामान भी वहां रहने वाले लोगों के स्वभाव और हाव-भाव को प्रभावित करता है। घर में रखी हर वस्तु अपना अलग प्रभाव छोड़ती है। इसके अलावा घर की बनावट, कमरे, किचन आदि भी परिवार के सदस्यों को नेगेटिव या पॉजीटिव एनर्जी प्रदान करते हैं। कुछ घरों में पर्याप्त जगह नहीं होती, पति-पत्नी के अलग से बेडरूम नहीं होता, ऐसे में उस घर की महिला का बौद्धिक विकास बहुत अधिक होता है।
यदि किसी घर में ड्राइंग हॉल को पति-पत्नी बेडरूम की तरह उपयोग में लेते हैं और उसी हॉल में उनकी तिजोरी भी है तो वहां रहने वाली महिला सुंदर और बुद्धिमान होती हैं। तिजोरी में ही पैसे, ज्वेलरी या अन्य कोई कीमती सामान भी रखा जाता है तो महिला बातचित में बहुत व्यवहारिक होती हैं। कोई भी व्यक्ति इनकी बातों से बहुत ही जल्द प्रभावित हो जाता है। यह महिलाएं अपने घर को बहुत अच्छे से संभालती हैं और हर समस्या का सामना बुद्धिमानी से करती हैं। साथ ही घर का मुखिया भी अच्छा पैसा कमाता है और सभी सुविधाओं को एकत्रित करने वाला होता है।

दादी के नुस्खे

16 दिनों में फोड़े-फुंसियों का काम तमाम!
फोड़े-फुंसियों या दाद-खाज खुजली जैसी चमड़ी की बीमारियों को पीछे प्रमुख रूप से रक्त का दूषित होना होता है। जब शरीर का खून दूषित यानी गंदा हो जाता है तो कुछ समय के बाद उसका प्रभाव बाहर त्वचा पर भी नजर आने लगता है। प्रदूषण चाहे बाहर का हो या अंदर का वो हर हाल में अपना दुष्प्रभाव दिखाता ही है। बाहरी और भतरी प्रदूषण ने मिलकर हमारे शरीर की प्राकृतिक खूबसूरती को छीनकर कई सारे त्वचा रोगों को जन्म दिया है फोड़े- फुंसियां भी उन्हीं में से एक हैं।
आज दुनिया का हर दूसरा व्यक्ति चमड़ी से जुड़े किसी न किसी रोग से जूझ रहा है। खुजली, जलन, फुंसियां, घमोरियां, दराद, लाल-सफेद चकत्ते... जैसी कई समस्याएं हैं जिनसे हर कोई परेशान है या कभी न कभी रह चुका है। कई बार छूत से यानी इनसे संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आने पर खुद को भी संक्रमण लगने से भी फोड़े- फुंसी या खुजली जैसी कोई त्वचा संबंधी समस्या हो सकती है।
यहां हम कुछ ऐसे घरेलू उपाय दे रहे हैं जो बर्सों से आजमाए और परखे हुए हैं। ये नुस्खे कारगर तो हैं ही साथ ही इनकी सबसे बड़ी खाशियत यह है कि इनका कोई साइड इफेक्ट भी नहीं है, ऊपर से ये हैं भी बहुत ही सस्ते..
- जब तक समस्या से पूरी तरह से छुटकारा नहीं मिल जाता मीठा यानी शक्कर से बनी, बासी, तली-गली और अधिक मिर्च-मसालेदार चीजों को पूरी तरह से छोड़ दें।
- फोड़े-फुंसी, दराद या खुजली वाले स्थान पर मूली के बीज पानी में पीस कर गरम करके लगाने से तत्काल लाभ होता होगा।
- नीम की पत्तियों को पीस कर फोड़े-फुंसी, दराद या खुजली वाले स्थान पर लगाने और पानी के साथ पीने से बहुत सीघ्र लाभ होता है।
- पालक, मूली के पत्ते, प्याज, टमाटर, गाजर, अमरुद, पपीता आदि को अपने भोजन में नियमित रूप से शामिल करें।
- सुबह खाली पेट चार-पांच तुलसी की पत्तियां चूंसने से भी त्वचा रोगों में स्थाई लाभ होता है।
- पानी अधिक से अधिक पीएं।
- सुबह उठकर 2 से 3 किलो मीटर घूमने के लिये अवश्य जाएं ताकि आपके शरीर और रक्त को शुद्ध ताजा हवा मिल सके और शरीर का रक्त प्रवाह भी सुधर सके।

अगस्त्य मुनि की बात सुनकर राजा के होश क्यों उड़ गए?

सभी पांडव तीर्थयात्रा करते हुए गयशिर क्षेत्र में पहुंचे वहां उन्होंने चर्मुर्मास्य यज्ञ कर ब्राह्मणों को बहुत सी दक्षिणा दी। युधिष्ठिर अगस्त्याश्रम आए। यहां लोमेश मुनि ने उनसे कहा एक बार अगस्त्य मुनि ने एक गड्डे में अपने पितरों को उल्टे सिर लटके देखा तो उनसे पूछा आप लोग इस तरह नीचे को सिर किए क्यों लटक हुए हैं? तब उन वेदवादी मुनियों ने कहा, हम तुम्हारे पितृगण हैं और पुत्र होने की आशा लगाए हम इस गड्ढे में लटके हुए हैं।
बेटा अगत्स्य यदि तुम्हारे एक पुत्र हो जाए तो इस नरक से हमारा छुटकारा हो सकता है। अगस्त्य बड़े तेजस्वी थे। उन्होंने पितरों से कहा पितृगण आप निश्चिंत रहिए। मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगा। पितरों को इस प्रकार ढांढस बंधाने के बाद अगस्त्य ऋषि ने विवाह के लिए विचार किया। लेकिन उन्हें उनके अनुरूप कोई भी स्त्री नहीं मिली। तब उन्होंने विदर्भ के राजा के पास गए और उन्होंने कहा मैं आपसे आपकी पुत्री लोपामुद्रा मांगता हूं। ऋषि अगस्त्य की बात सुनकर राजा के होश उड़ गए। वे ना तो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर सके और न कन्या देने का साहस।

भागवत २८४

कुछ ऐसा था दुर्योधन व भीम का युद्ध?
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भगवान् खुद भी शांति के ही पक्षधर हैं। कौरवों ने खासतौर पर दुर्योधन और कर्ण जैसे योद्धाओं ने युद्ध का अभ्यास भी शुरु कर दिया है।अभ्यास और वैराग्य क्रम में साधन का उच्च स्थान है। सतत् साधन करते मन निग्रह का अभ्यास होता है और वैराग्यीय वृत्ति बन जाती है।पवित्र नदी के पट पर ही माहिष्मतीपुरी है। बलरामजी वहां मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभास क्षेत्र में चले आए। वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत सा भार उतर गया। जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिए कुरुक्षेत्र जा पहुंचे।
भयंकर युद्ध हो रहा था। लाखों की संख्या में लोग लड़े और मारे गए। धरती पर तीन ही तरह के इन्सान जीवित रह गए, बच्चे बूढ़े और विधवाएं। दोनों कुलों की दुर्दशा देखकर वे दुखी भी थे और धरती से पाप का भार कम होने से प्रसन्न भी।
महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन ही मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहने के लिए यहां पधारे हैं? उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिए क्रोध से भरकर भांति-भांति से पैंतरे बदल रहे थे।
कोई किसी से जीतता या हारता नजर नहीं आ रहा था। भारी युद्ध और गर्जना से माहौल भी रोमांचकारी हो गया था। बलरामजी से रहा नहीं गया और उन्होंने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया।बलरामजी ने कहा-राजा दुर्योधन और भीमसेन। तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूं कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदायुद्ध में शिक्षा अधिक पाई है।
इसलिए तुम लोगों जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय होती नहीं दिखती। अत: तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो। बलरामजी की बात दोनों के लिए हितकर थी, परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक दूसरे की कटुवाणी और दुव्र्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त से हो रहे थे।
भगवान् बलराम ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है, इसलिए उसके संबंध में विशेष आग्रह न करके वे द्वारिका लौट गए। द्वारिका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया। वहां से बलरामजी फिर नैमिशारण्य क्षेत्र में गए। वहां ऋषियों ने विरोधभाव से युद्धादि से निवृत्त बलरामजी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराए।

सोमवार, 20 जून 2011

दादी की गोद नानी की लोरी

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सुदर्शन फाकिर द्वारा रचित और जगजीत सिंह की मखमली आवाज में ये पंक्तियां जब हमारे कानों में गूंजती हैं तो दिल और दिमाग बचपन के उन अलमस्त दिनों की याद में खो जाता है। दादा-दादी, नाना-नानी या बुआ-मौसी के पेट पर लेटकर कहानी सुनना, चंदामामा, चंपक और दीवाना पढ़ना और एलिस की तरह वंडरलैंड में खो जाना। सचमुच कोई भी शख्स अपने जीवन में बचपन के दिनों को कभी नहीं भूल पाता।
वह जमाना ही अलग था, जब बचपन के उस जादू भरे माहौल में दादी या नानी की गोद में लेटकर शूरवीर राजाओं, राजकुमारियों, राक्षसों और परियों की कहानी सुनते-सुनते रातें छोटी मालूम होती थीं, दिल में सुगबुगाता विस्मय आंखों में उतर आता था, मन के किवाड़ खुल जाते और कहानी का दामन थामकर मन खुले आसमान में बेरोकटोक विचरण करने लगता था। जीवन के न जाने कितने अनमोल सूत्र, कितने रहस्य, कितने सबक चुपके से मन में घर कर जाते और बचपन में बोए ये बीज जाने-अनजाने बड़े होने पर मुश्किल की घड़ी में हौसला देते।
‘आसमां में बिजली चमकी, बादल गरजे, मेघ बरसे और अबोध बाल-मन में सवाल उठा? सवाल के जवाब में दादी ने एक कहानी सुना डाली। डाल पर चिड़िया चहकी, शेर दहाड़ा, भूकंप आया, मनुष्य ने मनुष्य से दोस्ती की, प्रेम किया, युद्ध किया’, इस तरह हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना से एक लोककथा जन्म लेती। एक कान से दूसरे कान, एक मुख से दूसरे मुख और एक मन से दूसरे मन में गूंजती लोक कथाएं सदियों से बहती रही हैं।
पंचतंत्र की कहानी हो या कछुए व खरगोश तथा चूहे की चिंदी या मां के कलेजे की कहानी, बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ ये कहानियां बच्चों को पर्यावरण से जोड़ने का काम भी करती थीं। रामायण, महाभारत, वेद, पुराणों की कहानियां व लोक कथाएं बच्चों में जिज्ञासा जगाती और बच्चे कई दिनों तक इन कथाओं से जुड़े रहते। ये कथाएं, कहानियां और सुरीली लोरियां उनमें नए संस्कार जगाती थीं।
यह वह जमाना था जब संयुक्त परिवार थे। एक ही घर में दादा-दादी, बुआ-मौसी, चाचा-चाची और बहुत सारे बच्चे डेरा जमाए रहते। गर्मी या दीवाली की छुट्टियां होते ही ननिहाल जाने का कार्यक्रम बनता, खानदान के सारे बच्चे एक-दूसरे से मिलने को उतावले हो उठते थे। इन संयुक्त परिवारों में बच्चे बड़े-बूढ़े से कहानी सुनने के लालच में न केवल दिनभर उनके पीछे रहते, बल्कि उनकी सेवा भी करते थे। परिवार के बुजुर्गो को भी अपने परिवार में मान-सम्मान मिलता, वे बच्चों के साथ अपने ही घर में कभी बेगाना महसूस नहीं करते थे। उनका बुढ़ापा सुरक्षित था। बच्चों के चारों तरफ संबंधों का आत्मीय संसार था। उस समाज में सुरक्षा व स्थायित्व था। जीवन का आनंद लेने के अपने तौर-तरीके थे। आंगन में बच्चे लूडो-कैरम, शतरंज, व्यापार, गिट्टे या ताश खेलने में मशगूल हो जाते थे।
खेल के दौरान गप्पेबाजी चलती रहती और बड़े-बूढ़ों की नसीहत व डांट-फटकार भी। दोपहर में खस की चटाइयां खिड़कियों पर डाल दी जाती थीं। पानी में आम, तरबूज ठंडे करने के लिए डुबो दिए जाते। शाम होते ही बच्चे बाहर मैदान में या बगीचे में उछलकूद करने के लिए निकल पड़ते। कीकली, छुपा-छुपी, कंचे, कबड्डी, गुल्ली-डंडा, ऊंच-नीच, विष-अमृत, गेंद-तड़ी, पतंग उड़ाने जैसे न जाने कितने देसी खेलों में बच्चों को एक-दूसरे को छकाने में बड़ा मजा आता था।
इन सीधे-सलोने परम्परागत खेलों में न चौड़े-विशाल मैदानों की जरूरत थी और न ही स्टेट्स सिंबल बने आज के महंगे साजो-सामान की। शाम ढलते ही आंगन या छत पर पूरे परिवार के सोने का कार्यक्रम बनता। आंगन पानी से धोए छिड़के जाते। बच्चे बिस्तर उठाकर छत या आंगन में जमाते। चांदनी रात में तारों तले दादी से कहानी सुनने का मजा ही कुछ और था। बच्चों का दादा-दादी व नाना-नानी के प्रति लगाव बढ़ता रहता था। सात समंदर पार के राजाओं, परियों और साहस व संघर्ष की इन कहानियों से बच्चों की इमेजिनेशन में चार चांद लग जाते और उन्हें एक नई प्रेरणा मिलती थी। कहानियां बच्चों की पहली पाठशाला होती थी।
रानी लक्ष्मीबाई और शिवाजी की बहादुरी, बीरबल की सूझबूझ भरी चतुराई, हरिश्चंद्र की सत्यवादिता, विवेकानंद और गांधीजी, शहीद भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस के त्याग, महानता और महाराणा प्रताप के संकल्प और साहस की कहानियों से बच्चों का चरित्र निर्माण तो होता ही था, साथ ही उन्हें ये कहानियां, लोककथाएं अपनी जड़-जमीन और संस्कृति से भी जोड़े रखती थीं।
जब बच्चे दादा-दादी से पौराणिक कथाएं और देश-विदेश की लोककथाएं सुनते तो उनका मासूम मन देश और काल की सीमाओं को तोड़ कल्पना शक्ति के सहारे नए मूल्य और आदर्शो को आत्मसात करता था। तब बच्चे-बच्चे होते थे। तब बच्चों का बाल-सुलभ भोलापन, जिज्ञासा, उत्सुकता, कौतूहल, चंचलता, मासूमियत प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा की बलि नहीं चढ़ा था। बच्चों की गर्मी की छुट्टियों और धमा-चौकड़ी को स्कूली होमवर्क और कोचिंग क्लासेज ने चौपट नहीं किया था। पूरी छुट्टियां एड़ी-चोटी एक कर अव्वल आने की दौड़ में नहीं खपाई जाती थीं। न वीडियो गेम्स थे और न ही टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट या मोबाइल का मोह। सूचनाओं और जानकारियों के हमले, दैनिक जीवन में व्याप्त हिंसा और अपराध ने उनकी मासूमियत को खत्म नहीं किया था।
भारी-भरकम बैग और भीषण प्रतिस्पर्धा ने बच्चों को असमय ही प्रौढ़ और तनावग्रस्त नहीं किया था। आज एकल परिवारों का जमाना है। मियां-बीवी और एक या ज्यादा से ज्यादा दो बच्चे। संयुक्त परिवार का चलन समाप्त हो गया है। शहर तो शहर, गांव में भी आज दो भाई साथ-साथ नहीं रहते। बच्चे विवाह होते ही माता-पिता से अलग रहने लगते हैं। पोते-पोती से अलग रहने वाले दादा-दादी परिवार से कट गए हैं। कहानी कहने-सुनने की परम्परा आज मनोरंजन के आधुनिक साधनों, टेलीविजन पर चैनलों की बाढ़ में लुप्त होती जा रही है। फिल्मों और टेलीविजन ने बच्चों के अबोध मन पर कब्जा कर उनकी सारी कल्पनाशीलता को लगभग खत्म कर दिया है। अपने देश की संस्कृति, परम्परा, इतिहास, सामाजिक मूल्यों से जुड़ी कहानियों के प्रति उनमें अब कोई जिज्ञासा नहीं दिखाई देती है।
यह सच है कि आधुनिक युग में टेलीविजन सूचना और मनोरंजन का पर्याय बन गया है। देश व दुनिया की तमाम गतिविधियों का प्रसारण कर लोगों में जागरूकता और दिलचस्पी पैदा करने में दूरदर्शन कुछ हद तक सफल रहा है, किन्तु इसके साथ ही विज्ञापनों के आक्रमण तले बच्चों के खेल, उनके खिलौने, उनकी सोच और उनकी आदतें सब मीडिया द्वारा संचालित हो रहे हैं। हम उन्हें छद्म धारावाहिकों की छद्म दुनिया, शक्तिमान के करतब और आपराधिक पृष्ठभूमि में पलते अनैतिक संबंधों की कहानियां परोस रहे हैं। दिन-रात टीवी देखना या वीडियो खेल खेलना मानसिक रूप से निष्क्रिय करता है।
यह बच्चों को सवाल करने या सोचने के लिए प्रेरित नहीं करता, यहां जो कुछ दिखाया जाता है वह एकतरफा होता है, इसलिए बच्चों को वही ग्रहण करना पड़ता है। यह बच्चों में तर्क या क्रिएटिविटी को प्रोत्साहित नहीं करता। टेलीविजन या कम्प्यूटर बच्चों को एक-दूसरे से काटकर अंतमरुखी और अकेला बना देता है। धीरे-धीरे उनमें तनाव बढ़ने लगता है। यही वजह है कि आज बच्चों में पहले से कहीं ज्यादा तनाव के मामले सामने आने लगे हैं। उन्हें तनाव मुक्त रखने के लिए मनोचिकित्सक की जरूरत पड़ने लगी है। पहले बच्चे कहानियों के जरिए साहित्य व समाज से जुड़ते थे।
तरह-तरह के सवाल उनके मन में उठते थे और घर के बड़े-बूढ़े अपने अनुभव व नजरिए से उनके हर सवाल का समाधान करते थे। पर आज हम दो हमारा एक और एकल परिवारों के चलन से बच्चे अकेले रहने के लिए बाध्य हैं। बढ़ती महंगाई और मां के नौकरीपेशा होने के कारण दादी या नानी के पास बच्चों को सुबह से शाम तक देखभाल के लिए छोड़ा जरूर जाता है पर जरूरत पूरी होते ही बच्चे और मां-बाप अपनी दुनिया में रम जाते हैं। बढ़ती प्रतिस्पर्धा और परीक्षा में अव्वल आने की होड़ ने बच्चों को कला, साहित्य और हमारे परम्परागत खेलों से दूर कर दिया है।
बढ़ती महंगाई और भौतिक प्रगति की दौड़ में दिन-रात भागते कामकाजी माता-पिता के पास बच्चों के साथ बोलने या उनकी सहज बाल जिज्ञासाओं का समाधान करने का वक्त ही नहीं है? ऐसे में बच्चे अपना ज्यादातर वक्त दूरदर्शन, वीडियो गेम्स और कॉमिक्स पढ़कर गुजारते हैं। ठांय-ठांय की आवाज के साथ तेज रफ्तार और मारधाड़ वाले तमाम कम्प्यूटर खेल बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति को जन्म दे रहे हैं। ज्यादा समय दूरदर्शन देखने और रफ्तार वाले वीडियो खेल तल्लीन होकर खेलने से बच्चों की आंखों पर तो असर पड़ता ही है, शारीरिक कसरत न होने से मोटापा और अन्य बीमारियां भी बच्चों में आम हो गई हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जमाने के बच्चों के मुकाबले आज का बच्च चीजों को कहीं ज्यादा जानता और समझता है। आज छोटे से बच्चे को यह मालूम है कि परमाणु अस्त्र क्या है, ओबामा और रोनाल्डो कौन है? अंटार्कटिका में रहने वाले पेंग्विन कितने खतरे में हैं? वेलेन्टाइन-डे क्या और कब होता है., वगैरह-वगैरह..।
पहले के जमाने में बच्चे एक खास उम्र के बाद ही दुनिया-जहां की खबर जानना शुरू करते थे। 5 साल तक तो दूध पीना और खेलना-कूदना ही चलता रहता था। अब तो दो-ढाई साल का शिशु बस्ता उठाए नर्सरी में पहुंच जाता है और एबीसी व कई कविताएं रटने की मानसिक कवायद शुरू कर देता है। सवाल यह नहीं है कि यह अच्छा है या बुरा, ऐसा होना चाहिए या नहीं, दरअसल आज के हालात में यह अनिवार्य हो गया है। बच्च न भी चाहे तो उसे चाहना होगा, जानना होगा, मासूमियत, जिज्ञासा आज बच्चों में खत्म-सी हो गई है। हममें से जो लोग छोटे शहरों, कस्बों या गांवों में पले-बढ़े हैं, उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि बरसात शुरू होने से पहले घर में बड़ियां, पापड़, आलू के चिप्स, चावल के खीचे और ऐसी तमाम चीजें बनाई जाती थीं। पूरा घर ही नहीं पास-पड़ोस की औरतें भी जुट जातीं।
बच्चे भाग-भागकर पापड़, बड़ियां सुखाते। हर काम सामूहिक रूप से किया जाता। जाने-अनजाने बच्चे मिल-बांटकर काम करने और हर चीज बांटने का सबक सीखते, जो उन्हें परिवार से, फिर समाज से जुड़ने के लिए प्रेरित करता। हर छोटे-बड़े त्योहार पर घर में मेला-सा लग जाता था। ऐसे वक्त पूजा-पाठ, मिठाइयां, घर की साफ-सफाई आदि सभी कामों में बच्चों की अहम भूमिका होती थी। दीवाली के दिनों में खीर-पताशे से ज्यादा उत्सुकता दादी या नानी की संदूकची की हुआ करती थी। संदूकची के खुलने का बेसब्री से इंतजार होता था। संदूकची में यूं नया कुछ भी नहीं होता था पर दादी या नानी सालों से सहेजी हुई एक-एक चीज जिस मनोयोग से खोलकर दिखाती, वह बच्चों में ‘खुल जा सिमसिम’ की तरह जिज्ञासा जगाने के लिए काफी होता।
कपड़े-लत्ते, चांदी के सिक्के, पुरानी तस्वीरें, स्मृति-चिह्न — चीजें मामूली पर हर चीज एक समूची कहानी कहती हुई। ‘यह क्या है?’ पूछते ही दादी एक मजेदार कहानी सुनाती और बच्चे बड़े विस्मय से उसे सुनने में मग्न हो जाते थे। जीवन में जिज्ञासा का अपना एक महत्व है। जिज्ञासाएं अनंत मार्ग खोल देती हैं। अभी बहुत कुछ करना है — यह भाव बना रहे तो बच्चे खोजने, जानने की कोशिश करते हैं। सुनते हैं, पढ़ते हैं, सिर्फ नकल नहीं करते। आज भी मैं जिन चीजों से चमत्कृत होती हूं उन्हें सुनकर मेरा बेटा रत्ती भर भी प्रभावित नहीं होता। आज के बच्चे अधिक निडर और निर्भीक हैं।
आज 12-13 साल के किशोरों द्वारा बच्ची से ज्यादती बच्चे द्वारा अपनी मां की हत्या या परिवार के सदस्यों द्वारा पिता का कत्ल जैसी खबरें आम हो गई हैं। बच्चे डरें यह भला किसे अच्छा लगेगा। बचपन के डर बच्चे को धीरे-धीरे निडर बनाने के लिए कितने जरूरी हैं, यह किसी भी मनोवैज्ञानिक या काउंसलर से जाना जा सकता है। कौतूहल, डर, आशंका बच्चों को धीरे-धीरे बड़ा करते हैं। बचपन से ही निर्भीक, खुले बच्चों में उत्तेजना ज्यादा होती है। हाइपर एक्टिव बच्चों की संख्या हमारे समाज में बढ़ रही है। एकल परिवारों में दिन-रात अकेले रहते बच्चे माता-पिता का ध्यान खींचने के लिए ऊधम मचाते रहते हैं या ऐसी हरकतें करते हैं, जिससे उन्हें कोई नजरंदाज न करे।
संयुक्त परिवारों में दादा-दादी की छांव तले पले बच्चे खुद को उनके आगे हमेशा बच्च बना रहना पसंद करते थे। आज शहरों में व्यस्त जीवन के चलते बच्चों का परिवार के रिश्तेदारों, दादा-दादी, नाना-नानी या दूर के बहन-भाइयों के साथ संबंध व संपर्क न के बराबर हो गया है। एक वक्त था जब माता-पिता से रूठने या झगड़ने पर किशोर-किशोरियां अपने दादा-दादी की शरण में पहुंच जाते थे और अपने मन की भड़ास शांत करते थे। घर के बड़े-बूढ़ों की बच्चों को गलत राह पर भटकने से रोकने में एक अहम भूमिका होती थी। निराशा या तनाव के वक्त वे बच्चों के साथ लगातार संवाद बनाए रखते थे, जिससे बच्चे कभी खुद को अकेला महसूस नहीं करते थे।
आधुनिकता की अंधी व अंतहीन दौड़ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज के प्रति हमारा कर्तव्य बच्चे को जन्म देने से कहीं अधिक एक स्वस्थ अंग के रूप में उसे समाज से जोड़ना है। बदकिस्मती से बच्चे आज एकतरफा संवाद करने के लिए बाध्य हैं। उनकी सुनने, जिज्ञासा शांत करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में वह सही-गलत का अपने ही हिसाब से विश्लेषण करते हैं और गलत दिशा में भी बढ़ सकते हैं। एक ऐसा मुल्क, एक ऐसी संस्कृति, एक ऐसा समाज और एक ऐसी नैतिकता जिसका हम बखान करते कभी नहीं थकते, उस मुल्क में आज हमारे पास अगर बच्चों को देने के लिए प्यार की भाषा, लोककथाएं, कहानियां और लोरियां नहीं हैं, जीवन के आदर्श और सामाजिक मूल्य सिखाने का वक्त नहीं है तो हम भविष्य में उनसे प्यार भरे दो मीठे बोल सुनने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?